शनिवार, 12 जनवरी 2019

👉 विवेकानंद जयंती विशेष : राष्ट्रीय युवा दिवस

'उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए' का संदेश देने वाले युवाओं के प्रेरणास्त्रो‍त, समाज सुधारक युवा युग-पुरुष 'स्वामी विवेकानंद' का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता (वर्तमान में में कोलकाता) में हुआ। इनके जन्मदिन को ही राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।

🌹 स्वामी विवेकानंद का जन्म परिचय

स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863 को गौड़ मोहन मुखर्जी स्ट्रीट,कोलकाता में हुआ था. उस दिन हिन्दू कालदर्शक के अनुसार संवत् १९२० की मकर सक्रांति का दिन था. आज हम स्वामी जी के जन्मदिवस को केरियर डे के रूप में मनाते हैं, स्वामी विवेकानन्द आज की युवा पीढ़ी के सच्चे मार्गदर्शक हैं उनके कार्यो और शिक्षाओ पर चलकर जीवन में हर असंभव सफलता के द्वार खोले जा सकते हैं, स्वामी विवेकानंद जी के बचपन का नाम नरेन्द्र था, जो बचपन से ओजस्वी वाणी और ज्ञानवान थे स्वामी जी १८९३ के विश्व सर्व घर्म सम्मलेन में भारत का प्रतिनिधित्व किया था. और अपने विचारो और सोच से पूरी दुनिया के गुरू कहलाये।

एक कालीन परिवार में जन्मे नरेन्द्र घर्म और आद्यात्मिक की तरफ बचपन से ही उनका झुकाव था. स्वामी जी के गुरू श्री रामकृष्ण परमहंस थे. उनकी शिक्षाए और बातो से नरेन्द्र बहुत प्रभावित हुए, विवेकानंद ने परमहंस से ही सिखा कि हर एक आत्मा में परमात्मा का वास होता हैं इसी सोच ने नरेन्द्र के नजरिये और सोच में बड़ा बदलाव आया।

आज हमारे देश में स्वामी विवेकानंद को एक महान संत, और राष्ट्र सुधारक समझे जाते हैं इसी कारण 12 जनवरी को उनके जन्मदिन को राष्ट्रिय युवा दिवस के रूप में मनाते हैं।

🌹 स्वामी विवेकानन्द का बचपन
स्वामी जी के पिता जी का नाम विश्वनाथ दत्त था जो कलकत्ता हाई कोर्ट के जाने-माने वकील थे.और दादा दुर्गा चरण जी फारसी और संस्कर्त के ज्ञाता थे.माँ भुवनेश्वरी देवी स्वामी जी की माता जी का नाम था. जो कि एक धार्मिक स्वभाव की महिला थी. उनका अधिकतर समय महादेव की पूजा में ही व्यतीत होता था. उनकी सोच और विचारो का बालक नरेन्द्र पर गहरा प्रभाव पड़ा बालपन में ही स्वामी जी तेज बुद्दी और ओजस्वी होने के साथ-साथ बड़े नटकट थे. वो अध्यापको और किसी का मजाक उड़ाने में पीछे नहीं हटते थे. बचपन में ही उन्हें माता से धार्मिक पाठ और रामायण सुनना बहुत पसंद था उनके घर में हमेशा भजन कीर्तन हुआ करते थे. इस प्रकार के वातावरण में उनमे गहरी घार्मिक आस्था का जन्म हुआ और भगवान् को जानने का रहस्य उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बना दिया जब भी उन्हें कोई ज्ञानी पंडित मिलते उन्हें ईश्वर के स्वरूप के बारे में जरुर पूछते. स्वामी विवेकानंद ने 25 वर्ष की उम्रः में ही घर छोड़ सन्यासी बन गये थे।

🌹 स्वामी विवेकानंद की शिक्षा  

मात्र आठ वर्ष की उम्रः में नरेन्द्र ने कलकता के प्रसिद्ध शिक्षा संस्थान ईश्वर चंद्र विद्यासागर में दाखिला लिया. फिर उनका परिवार रायपुर आ बसा फिर से कलकता लोटे और प्रेसीडेंसी कॉलेज में पढाई की और इस कॉलेज से फस्ट डिविजन से उत्तीर्ण करने वाले नरेन्द्र पहले छात्र थे।

नरेन्द्र बचपन से ही घार्मिक, इतिहास, समाज, कला और साहित्य के किताबो और ग्रंथो को पढने में अधिक रूचि रखते थे. साथ ही रामायण, महाभारत और गीता व् वेदों को गहन अध्ययन किया करते थे. स्वामी जी ने बचपन में भारतीय शास्त्रीय सगीत की भी शिक्षा ली. और नित्य शारीरिक खेलो और व्यायामों में भाग लेते थे. इसके साथ ही नरेन्द्र ने स्कॉटिश चर्च कॉलेज पिश्चमी सभ्यता और संस्कर्ती का गहन अध्ययन किया. नरेन्द्र ने वर्ष 1881 में ललित कला की परीक्षा पार की और वर्ष 1884 में कला वर्ग में  स्नातक पास की।।

नरेन्द्र ने सभी वैज्ञानिकों और शिक्षा शास्त्रियों के ग्रंथो का अध्ययन किया जिनमे डेविड ह्यूम, इमैनुएल कांट, जोहान गोटलिब फिच, बारूक स्पिनोज़ा, जोर्ज डब्लू एच हेजेल, आर्थर स्कूपइन्हार, ऑगस्ट कॉम्टे, जॉन स्टुअर्ट मिल और चार्ल्स डार्विन की रचनाये शामिल थी. नरेन्द्र ने कई विदेशी भाषा की पुस्तको का हिन्दी और स्थानीय भाषा बंगाली में अनुवाद भी किया..

नरेन्द्र की कुशाग्र बुद्दी के बारे में हेस्टी नाम के प्रोफ़ेसर ने नरेन्द्र के बारे में कहा की -नरेंद्र वास्तव में एक जीनियस है। मैंने काफी विस्तृत और बड़े इलाकों में यात्रा की है लेकिन उनकी जैसी प्रतिभा वाला का एक भी बालक कहीं नहीं देखा यहाँ तक की जर्मन विश्वविद्यालयों के दार्शनिक छात्रों में भी नहीं।

👉 स्वामी विवेकानन्द के जन्म के सम्बन्ध में

स्वामी विवेकानन्द के जन्म के सम्बन्ध में श्रीरामकृष्ण देव को एक अद्भूत दर्शन हुआ था।

श्रीरामकृष्ण देव के ही शब्दों में "एक दिन देखा, मन समाधि के मार्ग से ज्योतिर्मय पथ में ऊपर उठता जा रहा है। चन्द्र, सूर्य, नक्षत्रयुक्त स्थूल जगत का सहज में ही अतिक्रमण कर वह पहले सूक्ष्म भाव-जगत में प्रविष्ठ हुआ। उस राज्य के ऊँचे स्तरों में वह जितना ही उठने लगा, उतना ही अनेक देवी- देवताओं की मूर्तियाँ पथ के दोनों ओर दिखाई पड़ने लगीं। क्रमश: उस राज्य की अन्तिम सीमा पर वह आ पहुँचा। वहाँ देखा, एक ज्योतिर्मय परदे के द्वारा खण्ड और अखण्ड राज्यों का विभाग किया गया है। उस परदे को लाँघकर वह क्रमश: अखण्ड राज्य में प्रविष्ट हुआ। वहाँ देखा कि मूर्तरूपधारी कुछ भी नहीं है।

...किन्तु दूसरे ही क्षण दिखाई पड़ा कि दिव्य ज्योतिर्घन -तनु सात प्राचीन ऋषि वहाँ समाधिस्थ होकर बैठे है इसी समय देखता हूँ कि अखण्ड भेदरहित समरस, ज्योतिर्मण्डल का एक अंश घनीभूत होकर एक दिव्य शिशु के रुप में परिणत हो गया। वह देवशिशु उनमें से एक के पास जाकर अपने कोमल हाथों से आलिंगन करके अपनी अमृतमयी वाणी से '' उन्हें समाधि से जगाने के लिए चेष्टा करने लगा।

शिशु के कोमल प्रेम- स्पर्श से ऋषि समाधि से जागृत और अधखुले नेत्रों से उस अपूर्व बालक को देखने लगे वह अद्भूत देवशिशु अति आनन्दित होकर उनसे कहने लगा, 'मैं जा रहा तुम्हें भी आना होगा,... उस समय आश्चर्यचकित होकर मैंने देखा कि उन्हीं ऋषि के शरीर- मन का एक अंश उज्ज्वल के रूप में परिणत होकर विलोम मार्ग से पृथ्वी पर अवतीर्ण हो रहा है।

नरेन्द्र (स्वामी विवेकानन्द) को देखते ही मैं जान गया था कि यही वह है।'' बाद में भक्तों द्वारा पूछने पर उन्हें यह ज्ञात हुआ कि श्रीरामकृष्ण देव ने स्वयं ही उस शिशु का रूप धारण किया था।

👉 भगवान में विश्वास

स्वामी विवेकानंद का सम्पूर्ण जीवन एक दीपक के समान है जो हमेशा अपने प्रकाश से इस संसार को जगमगाता रहेगा और उनका जीवन सदा हम लोगों के लिए एक प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा।

एक बार स्वामी विवेकानंद ट्रेन से यात्रा कर रहे थे और हमेशा की तरह भगवा कपडे और पगड़ी पहनी हुई थी। ट्रेन में यात्रा कर रहे एक अन्य यात्री को उनका ये रूप बहुत अजीब लगा और वो स्वामी जी को कुछ अपशब्द कहने लगा बोला – तुम सन्यासी बनकर घूमते रहते हो कुछ कमाते धमाते क्यों नहीं हो, तुम लोग बहुत आलसी हो, लेकिन स्वामी जी दयावान थे उन्होंने उसकी तरफ बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया और हमेशा की तरह चेहरे पे तेज लिए मुस्कुराते रहे।

उस समय स्वामी जी को बहुत भूख लगी हुई थी क्यूंकि उन्होंने सुबह से कुछ खाया पिया नहीं था। स्वामी जी हमेशा दूसरों के कल्याण के बारे में सोचते थे अपने खाने का उन्हें ध्यान ही कहाँ रहता था । एक तरफ स्वामी जी भूख से व्याकुल थे वहीँ वो दूसरा यात्री उनको अप्शब्द और बुरा भला कहने में कोई कमी नहीं छोड़ रहा था । इसी बीच स्टेशन आ गया और स्वामी जी और वो यात्री दोनों उतर गए। उस यात्री ने अपने बैग से अपना खाना निकाला और खाने लगा और स्वामी जी से बोला – अगर कुछ कमाते तो तुम भी खा रहे होते।

स्वामी जी बिना कुछ बोले चुपचाप थकेहारे एक पेड़ के नीचे बैठ गए और बोले मैं अपने ईश्वर पे विश्वास करता हूँ जो वो चाहेंगे वही होगा । अचानक ही कहीं से एक आदमी खाना लिए हुए स्वामी जी के पास आया और बोला क्या आप ही स्वामी विवेकानंद हैं और इतना कहकर को स्वामी जी के कदमों में गिर पड़ा और बोला कि मैंने एक सपना देखा था जिसमें खुद भगवान ने मुझसे कहा कि मेरा परम भक्त विवेकानंद भूखा है तुम जल्दी जाओ और उसे भोजन देकर आओ।

बस इतना सुनना था कि वो यात्री जो स्वामी जी की आलोचना कर रहा था भाग कर आया और स्वामी जी के कदमों में गिर पड़ा, बोला – महाराज मुझे क्षमा कर दीजिये मुझसे बहुत बड़ी भूल हुई है मैंने भगवान को देखा नहीं है लेकिन आज जो चमत्कार मैंने देखा उसने मेरे भगवान में विश्वास को बहुत ज्यादा बड़ा दिया है। स्वामी जी ने दया भाव से व्यक्ति को उठाया और गले से लगा लिया।

स्वामी जी के जीवन से जुडी ये सत्य घटना बहुत अधिक प्रभावित करती है और बताती है कि किस तरह भगवान अपने भक्तों की रक्षा करते हैं और पालन पोषण करते हैं।

👉 आज का सद्चिंतन 12 Jan 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 12 Jan 2019


👉 देने का आनंद पाने के आनंद से बड़ा होता है

भ्रमण एवं भाषणों से थके हुए स्वामी विवेकानंद अपने निवास स्थान पर लौटे। उन दिनों वे अमेरिका में एक महिला के यहां ठहरे हुए थे। वे अपने हाथों से भोजन बनाते थे। एक दिन वे भोजन की तैयारी कर रहे थे कि कुछ बच्चे पास आकर खड़े हो गए।

उनके पास सामान्यतया बच्चों का आना-जाना लगा ही रहता था। बच्चे भूखे थे। स्वामीजी ने अपनी सारी रोटियां एक-एक कर बच्चों में बांट दी। महिला वहीं बैठी सब देख रही थी। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। आखिर उससे रहा नहीं गया और उसने स्वामीजी से पूछ ही लिया- 'आपने सारी रोटियां उन बच्चों को दे डाली, अब आप क्या खाएंगे?'

स्वामीजी के अधरों पर मुस्कान दौड़ गई। उन्होंने प्रसन्न होकर कहा- 'मां, रोटी तो पेट की ज्वाला शांत करने वाली वस्तु है। इस पेट में न सही, उस पेट में ही सही।' देने का आनंद पाने के आनंद से बड़ा होता है।

👉 स्वामी विवेकानन्द जैसा पुत्र

एक बार जब स्वामी विवेकानंद अमेरिका गए थे, एक महिला ने उनसे शादी करने की इच्छा जताई. जब स्वामी विवेकानंद ने उस महिला से ये पुछा कि आप ने ऐसा प्रश्न क्यूँ किया?

उस महिला का उत्तर था कि वो उनकी बुद्धि से बहुत मोहित है.और उसे एक ऐसे ही बुद्धिमान बच्चे कि कामना है. इसीलिए उसने स्वामी से ये प्रश्न किया कि क्या वो उससे शादी कर सकते है और उसे अपने जैसा एक बच्चा दे सकते हैं?

उन्होंने महिला से कहा कि चूँकि वो सिर्फ उनकी बुद्धि पर मोहित हैं इसलिए कोई समस्या नहीं है. उन्होंने कहा “मैं आपकी इच्छा को समझता हूँ. शादी करना और इस दुनिया में एक बच्चा लाना और फिर जानना कि वो बुद्धिमान है कि नहीं, इसमें बहुत समय लगेगा. इसके अलावा ऐसा हो इसकी गारंटी भी नहीं है. इसके बजाय, आपकी इच्छा को तुरंत पूरा करने हेतु मैं आपको एक सुझाव दे सकता हूँ. मुझे अपने बच्चे के रूप में स्वीकार कर लें .इस प्रकार आप मेरी माँ बन जाएँगी. और इस प्रकार मेरे जैसे बुद्धिमान बच्चा पाने की आपकी इच्छा भी पूर्ण हो जाएगी।“

👉 माँ की महिमा

स्वामी विवेकानंद जी से एक जिज्ञासु ने प्रश्न किया," माँ की महिमा संसार में किस कारण से गायी जाती है? स्वामी जी मुस्कराए, उस व्यक्ति से बोले, पांच सेर वजन का एक पत्थर ले आओ। जब व्यक्ति पत्थर ले आया तो स्वामी जी ने उससे कहा, " अब इस पत्थर को किसी कपडे में लपेटकर अपने पेट पर बाँध लो और चौबीस घंटे बाद मेरे पास आओ तो मई तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूंगा।"

स्वामी जी के आदेशानुसार उस व्यक्ति ने पत्थर को अपने पेट पर बाँध लिया और चला गया। पत्थर बंधे हुए दिनभर वो अपना कम करता रहा, किन्तु हर छण उसे परेशानी और थकान महसूस हुई। शाम होते-होते पत्थर का बोझ संभाले हुए चलना फिरना उसके लिए असह्य हो उठा। थका मांदा वह स्वामी जी के पास पंहुचा और बोला , " मै इस पत्थर को अब और अधिक देर तक बांधे नहीं रख सकूँगा। एक प्रश्न का उत्तर पाने क लिए मै इतनी कड़ी सजा नहीं भुगत सकता।"

स्वामी जी मुस्कुराते हुए बोले, " पेट पर इस पत्थर का बोझ तुमसे कुछ घंटे भी नहीं उठाया गया और माँ अपने गर्भ में पलने वाले शिशु को पूरे नौ माह तक ढ़ोती है और ग्रहस्थी का सारा काम करती है। संसार में माँ के सिवा कोई इतना धैर्यवान और सहनशील नहीं है इसलिए माँ से बढ़ कर इस संसार में कोई और नहीं।

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...