शुक्रवार, 9 दिसंबर 2016

👉 सतयुग की वापसी (भाग 5) 10 Dec

🌹 विभीषिकाओं के पीछे झाँकती यथार्थता

🔴 वैभव को कमाया तो असीम मात्रा में भी जा सकता है, पर उसे एकाकी पचाया नहीं जा सकता। मनुष्य के पेट का विस्तार थोड़ा-सा ही है। यदि बहुत कमा लिया गया है तो उस सब को उदरस्थ कर जाने की ललक-लिप्सा कितनी ही प्रबल क्यों न हो, पर वह सम्भव हो नहीं सकेगी। नियत मात्रा से अधिक जो भी खाया गया है, वह दस्त, उलटी, उदरशूल जैसे संकट खड़े करेगा, भले ही वह कितना ही स्वादिष्ट क्यों न लगे।

🔵 शारीरिक और मानसिक दोनों ही क्षेत्र, भौतिक पदार्थ संरचना के आधार पर विनिर्मित हुए हैं। उनकी भी अन्य पदार्थों की तरह एक सीमा और परिधि है। जीवित रहने और अभीष्ट कृत्यों में निरत रहने के लिए सीमित ऊर्जा, सक्रियता एवं साधन सामग्री ही अभीष्ट है। इसका उल्लंघन करने की ललक तटबन्धों को तोड़कर बहने वाली बाढ़ की तरह अपनी उच्छृंखलता के कारण अनर्थ ही अनर्थ करेगी। उस उन्माद के कारण पानी तो व्यर्थ जाएगा ही, खेत खलिहानों, बस्तियों आदि को भी भारी हानि उठानी पड़ेगी। यों चाहे तो नदी इसे अपने स्वेच्छाचार और अहंकार दर्प-प्रदर्शन के रूप में भी बखान सकती है, पर जहाँ कहीं, जब कभी इस उन्माद की चर्चा चलेगी तब उसकी भर्त्सना ही की जाएगी।

🔴 उपयोग की दृष्टि से थोड़े साधनों में भी भली प्रकार काम चल सकता है, पर अपव्यय की कोई सीमा मर्यादा नहीं। कोई चाहे तो लाखों के नोट इकट्ठे करके उनमें माचिस लगाकर, होली जलाने जैसा कौतूहल करते हुए प्रसन्नता भी व्यक्त कर सकता है, पर इस अपव्यय को कोई भी समझदार न तो सराहेगा और न उसका समर्थन करेगा। बेहद चाटुकार तो कुल्हाड़ियों से अपना पैर काटने के लिए उद्यत अतिवादी की भी हाँ में हाँ मिला सकते हैं।  

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 29)

🌹 क्रोध स्वयं अपने लिए ही घातक

🔵 किन्तु आतुर व्यक्ति उतावला होता है, इच्छा पूर्ति न होने पर किसी न किसी को दोषी ठहराता है। यह नहीं सोचता कि इसमें अपनी गलती भी हो सकती है और उसे सुधारने के लिए दूसरे उपाय अपनाये जा सकते हैं।

🔴 इच्छा से करने का हर किसी को अधिकार है, पर उसे उतना उतावला नहीं होना चाहिए कि जो चाहा गया है वह नियत अवधि के अन्दर या नियत तरीके से ही पूरा होना चाहिए। अनुकूल अवसर पर इच्छा पूरी या अधूरी मात्रा में पूरी हो सके—इसके लिए धैर्य रखने और प्रतीक्षा करने की आवश्यकता है। परिस्थितियां नहीं बदलतीं तो मनःस्थिति को बदल लेना भी एक उपाय है। संसार में अनेक इच्छित वस्तुयें या परिस्थितियां हैं वे सभी पूरी नहीं होती हैं तो अधीर होने की अपेक्षा यही अच्छा है कि जितना उपलब्ध है उससे ही सन्तोष करें। हर किसी की हर इच्छा तुर्त-फुर्त पूरी होनी ही चाहिए—यह संसार का नियम नहीं है।

🔵 किसी जमाने में तानाशाह ऐसे होते थे जो न्याय या परिस्थितियों पर विचार करने की अपेक्षा अपनी हविश पूरी न होने को ही बढ़ा-चढ़ा अपराध मानते थे और उसके बदले मृत्युदण्ड सुना देते थे। सहकारियों में से किसी की इतनी हिम्मत नहीं होती थी कि उस निर्देश के सम्बन्ध में ननुनच कर सके। ऐसी पूछताछ करने में भी उस अहंकारी का अपमान होता था, वह समय अब नहीं रहा। जिस पर आरोप लगाया गया है उसे अपनी बात कहने, सफाई देने का अवसर दिया जाता है किन्तु अव्यवस्थित व्यक्ति को इतना भी अवसर देने की गुंजाइश नहीं रहती। प्रतिपक्षी को अपराधी ही निश्चित करता है और अपराध के बदले में मृत्युदण्ड से हल्की सजा भी हो सकती? यह वह नहीं सोच पाता कि ऐसा घातक निर्णय कर गुजरने पर अपने ऊपर क्या बीतेगी।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गृहस्थ-योग (भाग 29) 10 Dec

🌹 गृहस्थ योग के कुछ मन्त्र
🔵 उपरोक्त मंत्र हर गृहस्थ योगी को भली प्रकार हृदयंगम कर लेना चाहिये। दिन में कई बार इस मन्त्र को दुहराना चाहिए। एक छोटे कार्ड पर सुन्दर अक्षरों में लिखकर इस मन्त्र को अपने पास रख लेना चाहिये और जब भी अवकाश मिले एक एक शब्द का मनन करते हुए इस मन्त्र को पढ़ना चाहिये। हो सके तो अक्षरों में लिख कर सुन्दर चित्र की भांति इसे अपने कमरे में लगा लेना चाहिए।

🔴  प्रातः निद्रा त्यागने पर पलंग पर पड़े-पड़े ही कई बार इस मन्त्र को मन ही मन दुहराना चाहिए और निश्चय करना चाहिए कि आज दिन भर इन भावनाओं को अधिक से अधिक मात्रा में सतर्कता पूर्वक ध्यान रखूंगा। इस निश्चय के साथ शय्या त्याग करने का अवसर दिन भर रहता है प्रातःकाल जो आदेश अन्तर्मन को दिये हैं अधिक गहरे उतर जाते हैं, वे जल्दी विस्मरण नहीं होते और यथा अवसर वे ठीक समय पर स्मरण हो आते हैं। इसलिए प्रातःकाल इस मन्त्र का नियमित रूप से अवश्य ही दुहराना चाहिए—

🔵 ‘‘मैं गृहस्थ योगी हूं। मेरा जीवन साधनामय है। दूसरे कैसे हैं क्या करते हैं, क्या सोचते हैं, क्या कहते हैं, इसकी मैं तनिक भी परवाह नहीं करता। अपने आप में सन्तुष्ट रहता हूं, मेरी कर्तव्य पालन की सच्ची साधना इतनी महान है, इतनी शांतिदायिनी, इतनी तृप्तिकारक है कि उसमें मेरी आत्मा आनन्द में सराबोर हो जाती है। मैं अपनी आनन्दमयी साधना को निरन्तर जारी रखूंगा गृह क्षेत्र में परमार्थ भावनाओं के साथ ही काम करूंगा।’’ यह संकल्प दृढ़तापूर्वक मन में जमा रहना चाहिए। जब भी मन विचलित होने लगे, जब भी पैर पीछे डिगने की संभावना प्रतीत हो तभी इस संकल्प को मनोयोग पूर्वक दृढ़ करना चाहिए।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 42)

🌹 इन कुरीतियों को हटाया जाय

🔵 58. मृत्यु-भोज की व्यर्थता— किसी के मरने के बाद उस घर में दो सप्ताह के भीतर विवाह शादियों जैसी दावत का आयोजन होना दिवंगत व्यक्ति के प्रति अपमान है। दावतें तो खुशी में उड़ाई जाती हैं। मृत्यु को शोक का चिन्ह मानते हैं तो फिर दावतों का आयोजन किस उद्देश्य से? मृतक के मित्रों और सम्बन्धियों के लिये भी यही उचित है कि इस क्षति-ग्रस्त परिवार की कोई सहायता न कर सकते हों तो कम-से-कम दावतों की सलाह देकर उसका आर्थिक अहित तो न करें।

🔴 मृतक की आत्मा को शान्ति देने के लिए धार्मिक कृत्य कराये जांय, सहानुभूति प्रकट करने वाले लोग यदि दूर से आये हैं तो वे भी ठहरें, घर, परिवार और सम्बन्धी लोग श्राद्ध के दिन एक चौके में खायें। यहां तक तो बात समझ में आती है। पर बड़े-बड़े मृत्यु भोज सर्वथा असंगत हैं। उनकी न कोई उपयोगिता है और न आवश्यकता। यदि हो सके तो ऐसे शुभ कार्यों में जिनसे मानवता की कोई सेवा होती हो, श्राद्ध के उपलक्ष्य में कितना ही बड़ा दान किया जा सकता है। वही सच्ची श्रद्धा का प्रतीक होने से सच्चा श्राद्ध कहा जा सकता है।

🔵 59. जेवरों में धन की बर्बादी— जेवरों में धन की बर्बादी प्रत्यक्ष है, जो पैसा किसी कारोबार में या ब्याज पर लगने से बढ़ सकता था वह जेवरों में कैद होने पर दिन-दिन घिसता और कैद पड़ा रहता है। टूट-फूट, मजूरी, टांका-बट्टा में काफी हानि सहनी पड़ती है। पहनने वाले का अहंकार बढ़ता है। दूसरों में ईर्ष्या जगती है। चोर लुटेरों को अवसर मिलता है। जिस अंग में उन्हें पहनते हैं वहां दबाव और अस्वच्छता बढ़ने से स्वास्थ्य को हानि पहुंचती है। चमड़ी कड़ी पड़ जाती है और पसीने के छेद बन्द होते हैं। नाक के जेवरों से तो सफाई में भी अड़चन पड़ती है। विवाह शादियों के अवसर पर तो वह एक समस्या बन जाते हैं। दहेज जैसी हानिकारक प्रथा का मूल भी जेवरों में रहता है। लड़की वाले जब तक जेवरों की आवश्यकता अनुभव करेंगे, तब तक लड़के वाले दहेज भी मांगते रहेंगे। जेवरों का शौक हर दृष्टि से हानिकारक है, इसे छोड़ने में ही लाभ है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गहना कर्मणोगति: (भाग 12)

🌹 तीन दुःख और उनका कारण

🔵 पिछले पृष्ठों में बताया जा चुका है कि आकस्मिक सुख-दुःख हर व्यक्ति के जीवन में आया करते हैं। इनसे सुर-मुनि, देव-दानव कोई नहीं बचता। भगवान राम तक इस कर्म-गति से छूट न सके। सूरदास ने ठीक कहा है-
कर्मगति टारे नाहि टरे।
गुरु वशिष्ट पण्डित बड़ ज्ञानी, रचि पचि लगन धरै ।
पिता मरण और हरण सिया को, वन में विपति परै।।

          
🔴 वशिष्ट जैसे गुरु के होते हुए भी राम कर्म गति को टाल न सके। उन्हें भी पिता का मरण, सिया का हरण एवं वन की विपत्तियाँ सहन करनी पड़ीं। यह विपत्तियाँ कहीं से अकस्मात् टूट पड़ती हैं या ईश्वर नाराज होकर दुःख-दण्ड देता है, ऐसा समझना ठीक न होगा। ‘पंचाध्यायी’ का निश्चित मत है कि सब प्रकार के दुःख अपने ही बुलाने से आते हैं। रामायण का मत भी इस सम्बन्ध में यही है-
काहु न कोउ दुःख सुखकर दाता।
निज-निज कर्म भोग सब भ्राता।।


🔵 दूसरा कोई भी प्राणी या पदार्थ किसी को दुःख देने की शक्ति नहीं रखता। सब लोग अपने ही कर्मों का फल भोगते हैं और उसी भोग से रोते, चिल्लाते रहते हैं। जीव की पीछे से ऐसी कठोर व्यवस्था बँधी हुई है, जो कर्मों का फल तैयार करती रहती है। मछली पानी में तैरती है, उसकी पूँछ पानी को काटती हुई पीछे-पीछे एक रेखा-सी बनाती चलती है। साँप रेंगता जाता है और रेत पर उसकी लकीर बनती जाती है, जो काम हम करते हैं, उनके संस्कार बनते जाते हैं। बुरे कर्मों के संस्कार स्वयं बोई हुई कँटीली झाड़ी की तरह अपने लिए ही दुःखदायी बन जाते हैं।

🔴 अब हम तीन प्रकार के कर्म, उनके तीन प्रकार के स्वभाव एवं तीन तरह के फल की चर्चा आरम्भ करते हैं। सुख तो मनुष्य की स्वाभाविक स्थिति है। सुकर्म करना स्वभाव है, इसलिए सुख प्राप्त करना भी स्वाभाविक ही है। कष्ट दुःख में होता है। दुःख से ही लोग डरते-घबराते हैं, उसी से छुटकारा पाना चाहते हैं। इसलिए दुःखों का ही विवेचन यहाँ होना उचित है। आरोग्यवर्द्धक शास्त्र और चिकित्सा-शास्त्र दो अलग-अलग शास्त्र हैं। इसी प्रकार सुख-दुःख के भी दो अलग विज्ञान हैं। सुख-वृद्धि के लिए धर्माचरण करना चाहिए जैसे कि स्वास्थ्य वृद्धि के लिए पौष्टिक पदार्थों का सेवन किया जाता है। दुःख निवृत्ति के लिए, रोग का निवारण करने के लिए उसका निदान और चिकित्सा जानने की आवश्यकता है। कर्म की गहन गति की जानकारी प्राप्त करने से दुःखों का मर्म समझ में आता है। दुःखों के कारण को छोड़ देने से सहज ही दुःखों से निवृत्ति हो जाती है। आइए, अब हम दुःखों का स्वरूप आपके सामने रखने का प्रयत्न करें।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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