बुधवार, 4 मई 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग २५

प्रशंसा का मिठास चखिए और दूसरों को चखाइए

कोरे कागज पर काली स्याही के अक्षर छपाकर इस माध्यम द्वारा हम अपने हृदयगत भावों को आपकी अंतःचेतना में उड़ेलने का प्रयत्न कर रहे हैं। हमारा लिखना और आपका पढना निःस्सार है यदि किसी कर्म प्रवृत्ति के लिए इससे प्रेरणा न मिले। आज इस पुस्तक को साक्षी बनाकर हम-आप हृदय से हृदय का वार्तालाप कर रहे हैं। आपके विचार इस समय एकांत की शांति में हैं इस अवसर पर हम अपनी समस्त सद्भावनाओं को एकत्रित करके, आपके सच्चे हित चिंतन से प्रेरित होकर, घुटने टेक कर विनयपूर्वक यह प्रार्थना कर रहे हैं कि बंधु जीवन की अमूल्य घडियो का महत्त्व समझो, सुर दुर्लभ मानव जीवन को यो ही बर्बाद मत करो, नरक की यातना में मत तपो, यह बिलकुल आपके हाथ की बात है कि आज के अव्यस्थित जीवन को स्वर्गीय आनंद से परिपूर्ण बना लें। पिछले दिनों आपसे गलतियाँ हो चुकी हैं इसके लिए न तो लज्जित होने की जरूरत है और न दु:खी, या निराश होने की। सच्चा पश्चाताप यह है कि गलती की पुनरावृत्ति न होने दी जाए। बुरे भूतकाल को यदि आप नापसंद करते और अच्छे भविष्य की आशा करते हैं तो वर्तमान काल का सुव्यवस्थित रीति से निर्माण करना आरंभ कर दीजिए। वह शुभ आज ही है, अब ही है, इसी क्षण ही है जबकि अपने चिर संचित सद्ज्ञान को कार्य रूप में लाना चाहिए। अब आप इसके लिए तत्पर हो जाइए कि उत्तम श्रेणी का, उच्चकोटि का, सद्गुणों से परिपूर्ण जीवन बिताते हुए इस लोक और परलोक में दिव्य आनंद का उपभोग करेंगे।

सात्विक जीवन में प्रवेश पाने के लिए आप अच्छे गुणों को अपने में धारण करने का प्रयत्न आरंभ कर दीजिए। विनय, नम्रता, मुस्कराहट, प्रसन्नता, मधुर भाषण, प्रेमभाव, आत्मीयता-यह सब प्रशंसनीय गुण हैं, यदि आपके भीतर पुराने दुर्भावों के संचित संस्कार भरे हैं और वे मन ही मन झुँझलाहट, क्रोध, स्वार्थ जैसी निम्नकोटि की आदतों को भड़काते रहते हैं तो हताश मत हूजिए ।
 
बाहरी मन से ही सही, बनावट से ही सही, इन गुणों को नकली तौर से प्रकट करना आरंभ कीजिए। मन में चिड़चिड़ाहट हो भीतर ही भीतर क्रोध आ रहा हो, इतने में कोई बाहर का आदमी आता है तो आप भीतर की वृत्तियों को बदल दीजिए और चेहरे पर प्रसन्नता की रेखाएँ प्रकट करिए मुस्कराइए और हँसते उसका अभिवादन कीजिए। किसी अन्य कारण से क्रोध आ रहा है तो भी  मधुर भाषण करिए नाराजी को दबा दीजिए। यदि किसी के प्रति प्रेम या आत्मीयता की न्यूनता है तो भी उसे कुछ बढा कर प्रकट करने का प्रयत्न करिए। मन में बसने वाले दुर्भावों को दबा कर उनके स्थान पर सद्भावों को जरा बढा-चढा कर प्रकट करने का अभ्यास आरंभ कीजिए। अभ्यास से किसी काम में सफलता मिलती है। जो गुण सोए हुए पड़े हैं, उन्हें जगाने के लिए बनावटी सहारा लगाने की आवश्यकता पड़े तो वैसा करना चाहिए। छोटे बालक को खड़ा होना और चलना सिखाने के लिए लकड़ी की गाडी का सहारा दिया जाता है या उँगली पकड़ कर चलाया जाता है। निस्संदेह यह बनावटी सहायता है, इसकी तुलना अपने आप दौड़ने वाले बालक की सफलता से नहीं हो सकती तो भी अपने समय पर वह भी आवश्यक है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ ३७

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👉 भक्तिगाथा (भाग १२७)

भक्ति का आचारशास्त्र

ब्रह्मर्षि वशिष्ठ की यह बात सुनेकर ऋषि क्रतु ने कहा- ‘‘इस सन्दर्भ में मुझे ब्राह्मणपुत्र सुशान्त शर्मा के जीवन की घटनाओं का स्मरण हो रहा है।’’ सुशान्त शर्मा का जीवनक्रम सम्पूर्ण तो नहीं, परन्तु थोड़ा-बहुत ब्रह्मर्षि वशिष्ठ को भी पता था। उन्होंने भी इसे सुनने में अपनी रूचि दिखायी। ऋषि क्रतु कह रहे थे- ‘‘सुशान्त शर्मा का जन्म संस्कारवान ब्राह्मण कुल में हुआ था। यह ब्रह्मनिष्ठ श्रोत्रिय ब्राह्मणों का पावन कुल था। वेद-शास्त्र का पठन-पाठन, नित्य यज्ञ, अग्निहोत्र, भगवान नारायण की भक्ति, इस परिवार के सभी सदस्यों के जीवन के अनिवार्य व अविभाज्य अंग थे। यहाँ इस परिवार की नारियाँ भी नित्य त्रैकालिक संन्ध्या वंदन करती थीं। परिवार के सभी सदस्य यहाँ तक कि पालतु-पशु भी एकादशी के दिन निराहार रहते थे।

सुशान्त शर्मा को इस कुल के पावन संस्कार मिले थे। उसका जीवन अपने परिवार के सदस्यों के साथ आव्याहत गति से चल रहा था। लेकिन बीच में दैव का दुर्विपाक आ गया। क्रूर काल ने अपने कठोर कर्म विधान का कुटिल कुचक्र चलाया। सुशान्त शर्मा के पिता असमय बीमार हुए और चल बसे। उसकी माता, पिता का वियोग न सहन कर सकी और उन्होंने देह का त्याग कर दिया। अब तक सुशान्त किशोरवय का हो चुका था। रिश्तेदारों की दृष्टि उसके धन की ओर थी, सो उन्होंने किशोर सुशान्त को सत्पथ से जीवन के कुपथ पर लाने की सोची।

उभरते युवक सुशान्त से सुसंस्कार कुसंग के प्रभाव से धूमिल होने लगे। रिश्तेदारों व उनके सहयोगी मिलकर उसे नगरवधू लावण्या के रूप व यौवन के चर्चे सुनाने लगे। उसे बार-बार उकसाते कि एक बार वह रूपवती लावण्या के रूप को निहार ले। बार-बार लावण्या के रूप की चर्चा ने युवक सुशान्त के मन को डिगा दिया। उन लोगों ने उसे यह भी समझाया कि यदि वह द्यूत क्रीड़ा सीख ले तो अपने धन को थोड़े समय में कई गुना कर सकता है। जो लोग उसे ये सारी बातें बता रहे थे वे सबके सब नास्तिक थे। प्रकारान्तर से स्त्री, धन व नास्तिक का चरित्र उसके जीवन में घुलने लगा।

जैसे विष शरीर के रक्त प्रवाह में घुल जाता है, वैसे ही स्त्री, धन व नास्तिकता का विष उसके चिन्तन व भावनाओं में घुलने लगा। दिन-पक्ष व मास बीतते गए। धीरे-धीरे सुशान्त के सुसंस्कारों पर उसके कुसंगी संगी-साथियों के कुसंस्कारों का लेप चढ़ने लगा। उसकी अन्तर्चेतना में प्रकाश घटने लगा और अन्धकार की तीव्रता बढ़ती गयी। घर-परिवार और उसके माता-पिता के वैरी भी इस कुचक्र में शामिल हो गए। अब तो उसके अन्तर्मन में दोष और द्वेष की भरमार हो गयी।

हालांकि इसका प्रारम्भ स्त्रीचरित्र के श्रवण से ही हुआ था। रूपवती नगरवधू लावण्या के रूप की चर्चा ने उसे सम्मोहित कर दिया। इन कुटिल कुचक्र रचने वालों की प्रेरणा और इनके कुसंग से वशीभूत होकर आखिरकार वह एक दिन लावण्या के यहाँ चला गया। बस फिर क्या, कुसंग का विष तीव्र से तीव्रतर होता गया। धन की लालसा ने उसे द्युत की ओर मोड़ दिया। नास्तिकों के संग में नारायण स्मरण तो पहले ही विलीन हो चुका था। अब तो पुराने वैरी, जिसे उसने कभी देखा भी न था, उनसे बदला लेने की आग उसे झुलसाने लगी।

इस महाकल्मष में भक्ति, भक्त व भगवान की पावनता विलीन होने लगी। उसका चिन्तन-चरित्र व व्यवहार जो पहले आस्तिकता, धार्मिकता एवं आध्यात्मिकता की त्रिवेणी में नित्य स्नात रहता था, अब उसकी स्थिति परिवर्तित हो गयी। अब तो बस वासना, तृष्णा व अहंता ही बची थी। यहाँ तक कि स्त्री, धन, वैरी व नास्तिक के चरित्र में आकण्ठ डूब जाने के कारण उसे अब कभी याद भी नहीं रहता था कि बीते दिन वह नित्य यज्ञ-अग्निहोत्र भी किया करता था। एकादशी व्रत व नारायण नाम स्मरण तो अब शायद उसकी स्मृतियों में भी न बचे थे। काल प्रवाह में उभरी कर्म की कुटिल रेखाओं ने उसकी मति, गति व नियति बदल दी। चिन्तन, भाव एवं कर्म, सभी क्षेत्रों में विकृति फैल गयी। अब उसे जो देखता वही हैरान हो जाता। किसी को विश्वास भी न होता कि यही ब्राह्मणश्रेष्ठ शशांक का संस्कारवान पुत्र सुशान्त है। पर कोई क्या करता, स्त्री, धन, नास्तिक एवं वैरी के चरित्र का प्रभाव ही कुछ ऐसा होता है। इस फेर में उसके भविष्य के पथ पर अंधेरा घना होता जा रहा था।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २४९

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