दूसरों के दोष देखना कठिन बात नहीं है। सहज ही, छोटी मोटी भूलों को पकड़ कर किसी की भी आलोचना की जा सकती है। तिल का ताड़ बनाया जा सकता है। शब्दों की भी आवश्यकता नहीं। केवल भू−भ्रंगियों द्वारा नाक सिकोड़ कर अथवा मुँह बिचकाकर आप किसी भी व्यक्ति की आलोचना कर सकते हैं, तथा उसकी भूलों को प्रकाश में ला सकते हैं। किन्तु आलोचना करने से अथवा गलती पकड़ने से क्या वह व्यक्ति आपसे सहमत हो सकता है? “तुम बहुत फूहड़ हो। कितनी गन्दी पड़ी है अलमारी और फाइलों का यह हाल है?
वास्तव में तुम क्लर्की के योग्य नहीं हो।” यह हैं कुछ नपे तुले शब्द, जो एक अधिकारी अपने क्लर्क अथवा सेक्रेट्री से कहता है। यह वाक्य किसी भाँति एक छुरी से कम नहीं है। सीधे सीधे श्रोता के आत्माभिमान पर चोट करता है। उसके अहंभाव, निर्णय−बुद्धि तथा चतुरता पर प्रहार करता है। क्या इससे वह अपना मस्तिष्क बदल देगा। कदापि नहीं प्लेटो और कान्ट के महान तर्कशास्त्र का आश्रय लेकर भी उससे बहस की जाय, तो भी व्यर्थ होगा। क्योंकि आलोचना के इस वाक्य ने उसकी भावनाओं को ठेस पहुँचाई है।
दूसरों के दोष देखना और आलोचना करना एक दो धार वाली तलवार है, जो आलोचक एवं आलोच्य दोनों पर चोट करती है। शत्रुओं की संख्या में वृद्धि करने का इससे सरल मार्ग और कौन सा हो सकता है? एक विद्वान का अनुभव है कि “मैं जब तक अपनी पत्नी के दोष ही देखता रहा, तब तक मेरा गृहस्थ जीवन कदापि शान्तिमय नहीं रहा”। इस प्रकार की प्रवृत्ति उत्पन्न होने पर सामने वाले व्यक्ति के दोष ही नजर पड़ते हैं, गुण नहीं। गुण—यदि उसमें हों भी−तो इस भाँति छिप जाते हैं जैसे तिनके की ओट पहाड़ छिप जाते हैं। पाश्चात्य सुप्रसिद्ध विचारक बेकन के अनुसार—पर छिद्रान्वेषण करना महा मानस रोग है। इससे मुक्त हो जाना ही चाहिये। मैथ्यू आर्नल्ड ने कहा था कि ‘दूसरों के दोष देखना−भगवान के प्रति कृतघ्न होना है।
.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति, अप्रैल 1955 पृष्ठ 24
वास्तव में तुम क्लर्की के योग्य नहीं हो।” यह हैं कुछ नपे तुले शब्द, जो एक अधिकारी अपने क्लर्क अथवा सेक्रेट्री से कहता है। यह वाक्य किसी भाँति एक छुरी से कम नहीं है। सीधे सीधे श्रोता के आत्माभिमान पर चोट करता है। उसके अहंभाव, निर्णय−बुद्धि तथा चतुरता पर प्रहार करता है। क्या इससे वह अपना मस्तिष्क बदल देगा। कदापि नहीं प्लेटो और कान्ट के महान तर्कशास्त्र का आश्रय लेकर भी उससे बहस की जाय, तो भी व्यर्थ होगा। क्योंकि आलोचना के इस वाक्य ने उसकी भावनाओं को ठेस पहुँचाई है।
दूसरों के दोष देखना और आलोचना करना एक दो धार वाली तलवार है, जो आलोचक एवं आलोच्य दोनों पर चोट करती है। शत्रुओं की संख्या में वृद्धि करने का इससे सरल मार्ग और कौन सा हो सकता है? एक विद्वान का अनुभव है कि “मैं जब तक अपनी पत्नी के दोष ही देखता रहा, तब तक मेरा गृहस्थ जीवन कदापि शान्तिमय नहीं रहा”। इस प्रकार की प्रवृत्ति उत्पन्न होने पर सामने वाले व्यक्ति के दोष ही नजर पड़ते हैं, गुण नहीं। गुण—यदि उसमें हों भी−तो इस भाँति छिप जाते हैं जैसे तिनके की ओट पहाड़ छिप जाते हैं। पाश्चात्य सुप्रसिद्ध विचारक बेकन के अनुसार—पर छिद्रान्वेषण करना महा मानस रोग है। इससे मुक्त हो जाना ही चाहिये। मैथ्यू आर्नल्ड ने कहा था कि ‘दूसरों के दोष देखना−भगवान के प्रति कृतघ्न होना है।
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