युग-परिवर्तन जैसे महत्वपूर्ण अवसरों पर कुछ महत्वपूर्ण व्यक्ति अग्रिम भूमिका निभाते हैं, पर उनके पीछे एक दिव्य समुदाय पहले से ही किसी अदृश्य सूत्र शृंखला में बँधा आता है और उसी के समन्वित प्रयासों से महत्वपूर्ण परिवर्तन प्रस्तुत होते हैं। राम के साथ रीछ, वानरों की भूमिका रही। कृष्ण के गोवर्धन उठाने में गोप-बालकों का और महाभारत में पाण्डवों का योगदान रहा। बुद्ध की भिक्षु मण्डली में लाखों नर-नारी थे। गाँधी के सत्याग्रहियों की सेना का परिचय सभी को है। समय की महत्वपूर्ण भूमिका पूरी करने के लिए ऐसी ही सामूहिक शक्तियाँ अवतरित होती हैं, भले ही उसके नेतृत्व का श्रेय किसी को भी मिले।
अपना विशिष्ट समय है। इन्हीं क्षणों मानव जाति के भविष्य का भला या बुरा फैसला होने जा रहा है। या तो मनुष्य जाति को युद्ध विभीषिका, बढ़ती जनसंख्या एवं निकट स्तर की आपाधापी में उलझ कर सामूहिक आत्महत्या करनी पड़ेगी या फिर लोक-एकता, समता, ममता, शुचिता जैसे उच्च आदर्शों को अपनाकर मनुष्य में देवत्व के अवतरण और धरती पर स्वर्ग के वातावरण का आनन्द लेंगे। इन निर्णायक घड़ियों में विशिष्ट आत्माओं को विशिष्ट परिश्रम करना पड़ेगा- विशेष कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्व निभाना होगा। इतने बड़े कार्य अनायास ही नहीं हो जाते। उसके लिए जन-मानस का प्रखर मार्ग-दर्शन करने के लिए जागृत आत्माओं को वाणी से नहीं अपने अनुकरणीय आचरण प्रस्तुत करने होते हैं। अखण्ड-ज्योति परिजनों से ऐसी ही अपेक्षा की जा सकती है। उन्हें युग-परिवर्तन की इस विशिष्ट वेला में अपनी जीवन नीति इस प्रकार प्रस्तुत करनी चाहिए जो जनसामान्य के लिए अनुकरणीय बन सके।
हम बारीकी से इस सन्दर्भ में तीखी दृष्टि परिजनों पर डालते रहते हैं। कथनी नहीं करनी से ही किसी का मूल्याँकन होता है। इस दृष्टि से अपने परिजन हमारी अपेक्षा, आकाँक्षा के अनुरूप वजनदार नहीं बैठते तो वह हलकापन हमें अखरता है। पेट और प्रजनन में तो नर-कीटक भी लगे रहते हैं। लोभ और मोहग्रसित आपा-धापी में नर-पशुओं को भी प्रवृत्त देखा जा सकता है। वासना, तृष्णा से प्रेरित नर-वानरों के क्रीड़ा-कौतुक तो पिछड़े क्षेत्रों में भी देखे जा सकते हैं। हम भी उसी स्तर की इच्छा और क्रिया अपनायें रहें तो फिर विशिष्ट समय में विशेष उत्तरदायित्व निभाने के लिए भेजी गई विशेष-आत्माओं का अवतरण ही निरर्थक हो गया। यह कैसी कष्टकर स्थिति है।
परिजनों से हमारी अपेक्षा रही है कि वे वित्तेषणा, पुत्रेषणा, लोकेषणा के दल-दल से अपने को निकालें। सुविस्तृत परिवार पर जब इस दृष्टि से नजर डालते हैं तो सन्तोष स्वल्प और असन्तोष बड़े परिमाण में सामने आ खड़ा होता है। दूसरों की दृष्टि में युग-निर्माण परिवार के सदस्य नव-निर्माण की मूक साधना में अत्यन्त निष्ठापूर्वक संलग्न रहकर मानवी आदर्शों का अभिवर्धन करने वाले, रचनात्मक कार्यों में कीर्तिमान स्थापित करते हुए कहे जाते हैं। किसी हद तक यह मूल्याँकन सही भी है। पर इतने से हमें तो सन्तोष नहीं होता। हमें अधिक चाहिए। परिजनों की जीवन विद्या प्रकाशपूर्ण, अनुकरणीय और प्रेरणाप्रद बन सके, यही अपनी अपेक्षा है। इससे कम में युग की पुकार को पूरा कर सकने वाले प्रयास बन ही नहीं पड़ेंगे। ज्यों-ज्यों कुछ आधा-अधूरा, काना-कुबड़ा चलता भी रहा तो उतने से कितनी देर में-क्या कुछ बन पड़ेगा?
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर १९७६
अपना विशिष्ट समय है। इन्हीं क्षणों मानव जाति के भविष्य का भला या बुरा फैसला होने जा रहा है। या तो मनुष्य जाति को युद्ध विभीषिका, बढ़ती जनसंख्या एवं निकट स्तर की आपाधापी में उलझ कर सामूहिक आत्महत्या करनी पड़ेगी या फिर लोक-एकता, समता, ममता, शुचिता जैसे उच्च आदर्शों को अपनाकर मनुष्य में देवत्व के अवतरण और धरती पर स्वर्ग के वातावरण का आनन्द लेंगे। इन निर्णायक घड़ियों में विशिष्ट आत्माओं को विशिष्ट परिश्रम करना पड़ेगा- विशेष कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्व निभाना होगा। इतने बड़े कार्य अनायास ही नहीं हो जाते। उसके लिए जन-मानस का प्रखर मार्ग-दर्शन करने के लिए जागृत आत्माओं को वाणी से नहीं अपने अनुकरणीय आचरण प्रस्तुत करने होते हैं। अखण्ड-ज्योति परिजनों से ऐसी ही अपेक्षा की जा सकती है। उन्हें युग-परिवर्तन की इस विशिष्ट वेला में अपनी जीवन नीति इस प्रकार प्रस्तुत करनी चाहिए जो जनसामान्य के लिए अनुकरणीय बन सके।
हम बारीकी से इस सन्दर्भ में तीखी दृष्टि परिजनों पर डालते रहते हैं। कथनी नहीं करनी से ही किसी का मूल्याँकन होता है। इस दृष्टि से अपने परिजन हमारी अपेक्षा, आकाँक्षा के अनुरूप वजनदार नहीं बैठते तो वह हलकापन हमें अखरता है। पेट और प्रजनन में तो नर-कीटक भी लगे रहते हैं। लोभ और मोहग्रसित आपा-धापी में नर-पशुओं को भी प्रवृत्त देखा जा सकता है। वासना, तृष्णा से प्रेरित नर-वानरों के क्रीड़ा-कौतुक तो पिछड़े क्षेत्रों में भी देखे जा सकते हैं। हम भी उसी स्तर की इच्छा और क्रिया अपनायें रहें तो फिर विशिष्ट समय में विशेष उत्तरदायित्व निभाने के लिए भेजी गई विशेष-आत्माओं का अवतरण ही निरर्थक हो गया। यह कैसी कष्टकर स्थिति है।
परिजनों से हमारी अपेक्षा रही है कि वे वित्तेषणा, पुत्रेषणा, लोकेषणा के दल-दल से अपने को निकालें। सुविस्तृत परिवार पर जब इस दृष्टि से नजर डालते हैं तो सन्तोष स्वल्प और असन्तोष बड़े परिमाण में सामने आ खड़ा होता है। दूसरों की दृष्टि में युग-निर्माण परिवार के सदस्य नव-निर्माण की मूक साधना में अत्यन्त निष्ठापूर्वक संलग्न रहकर मानवी आदर्शों का अभिवर्धन करने वाले, रचनात्मक कार्यों में कीर्तिमान स्थापित करते हुए कहे जाते हैं। किसी हद तक यह मूल्याँकन सही भी है। पर इतने से हमें तो सन्तोष नहीं होता। हमें अधिक चाहिए। परिजनों की जीवन विद्या प्रकाशपूर्ण, अनुकरणीय और प्रेरणाप्रद बन सके, यही अपनी अपेक्षा है। इससे कम में युग की पुकार को पूरा कर सकने वाले प्रयास बन ही नहीं पड़ेंगे। ज्यों-ज्यों कुछ आधा-अधूरा, काना-कुबड़ा चलता भी रहा तो उतने से कितनी देर में-क्या कुछ बन पड़ेगा?
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर १९७६