रविवार, 26 जुलाई 2020

👉 परिजनों से हमारी अपेक्षा

युग-परिवर्तन जैसे महत्वपूर्ण अवसरों पर कुछ महत्वपूर्ण व्यक्ति अग्रिम भूमिका निभाते हैं, पर उनके पीछे एक दिव्य समुदाय पहले से ही किसी अदृश्य सूत्र शृंखला में बँधा आता है और उसी के समन्वित प्रयासों से महत्वपूर्ण परिवर्तन प्रस्तुत होते हैं। राम के साथ रीछ, वानरों की भूमिका रही। कृष्ण के गोवर्धन उठाने में गोप-बालकों का और महाभारत में पाण्डवों का योगदान रहा। बुद्ध की भिक्षु मण्डली में लाखों नर-नारी थे। गाँधी के सत्याग्रहियों की सेना का परिचय सभी को है। समय की महत्वपूर्ण भूमिका पूरी करने के लिए ऐसी ही सामूहिक शक्तियाँ अवतरित होती हैं, भले ही उसके नेतृत्व का श्रेय किसी को भी मिले।

अपना विशिष्ट समय है। इन्हीं क्षणों मानव जाति के भविष्य का भला या बुरा फैसला होने जा रहा है। या तो मनुष्य जाति को युद्ध विभीषिका, बढ़ती जनसंख्या एवं निकट स्तर की आपाधापी में उलझ कर सामूहिक आत्महत्या करनी पड़ेगी या फिर लोक-एकता, समता, ममता, शुचिता जैसे उच्च आदर्शों को अपनाकर मनुष्य में देवत्व के अवतरण और धरती पर स्वर्ग के वातावरण का आनन्द लेंगे। इन निर्णायक घड़ियों में विशिष्ट आत्माओं को विशिष्ट परिश्रम करना पड़ेगा- विशेष कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्व निभाना होगा। इतने बड़े कार्य अनायास ही नहीं हो जाते। उसके लिए जन-मानस का प्रखर मार्ग-दर्शन करने के लिए जागृत आत्माओं को वाणी से नहीं अपने अनुकरणीय आचरण प्रस्तुत करने होते हैं। अखण्ड-ज्योति परिजनों से ऐसी ही अपेक्षा की जा सकती है। उन्हें युग-परिवर्तन की इस विशिष्ट वेला में अपनी जीवन नीति इस प्रकार प्रस्तुत करनी चाहिए जो जनसामान्य के लिए अनुकरणीय बन सके।

हम बारीकी से इस सन्दर्भ में तीखी दृष्टि परिजनों पर डालते रहते हैं। कथनी नहीं करनी से ही किसी का मूल्याँकन होता है। इस दृष्टि से अपने परिजन हमारी अपेक्षा, आकाँक्षा के अनुरूप वजनदार नहीं बैठते तो वह हलकापन हमें अखरता है। पेट और प्रजनन में तो नर-कीटक भी लगे रहते हैं। लोभ और मोहग्रसित आपा-धापी में नर-पशुओं को भी प्रवृत्त देखा जा सकता है। वासना, तृष्णा से प्रेरित नर-वानरों के क्रीड़ा-कौतुक तो पिछड़े क्षेत्रों में भी देखे जा सकते हैं। हम भी उसी स्तर की इच्छा और क्रिया अपनायें रहें तो फिर विशिष्ट समय में विशेष उत्तरदायित्व निभाने के लिए भेजी गई विशेष-आत्माओं का अवतरण ही निरर्थक हो गया। यह कैसी कष्टकर स्थिति है।

परिजनों से हमारी अपेक्षा रही है कि वे वित्तेषणा, पुत्रेषणा, लोकेषणा के दल-दल से अपने को निकालें। सुविस्तृत परिवार पर जब इस दृष्टि से नजर डालते हैं तो सन्तोष स्वल्प और असन्तोष बड़े परिमाण में सामने आ खड़ा होता है। दूसरों की दृष्टि में युग-निर्माण परिवार के सदस्य नव-निर्माण की मूक साधना में अत्यन्त निष्ठापूर्वक संलग्न रहकर मानवी आदर्शों का अभिवर्धन करने वाले, रचनात्मक कार्यों में कीर्तिमान स्थापित करते हुए कहे जाते हैं। किसी हद तक यह मूल्याँकन सही भी है। पर इतने से हमें तो सन्तोष नहीं होता। हमें अधिक चाहिए। परिजनों की जीवन विद्या प्रकाशपूर्ण, अनुकरणीय और प्रेरणाप्रद बन सके, यही अपनी अपेक्षा है। इससे कम में युग की पुकार को पूरा कर सकने वाले प्रयास बन ही नहीं पड़ेंगे। ज्यों-ज्यों कुछ आधा-अधूरा, काना-कुबड़ा चलता भी रहा तो उतने से कितनी देर में-क्या कुछ बन पड़ेगा?

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर १९७६

👉 Accept Your Flaws

Whenever one commits a mistake he instantly feels a shock in the inner self. But the next moment his (extrovert) conscious mind comes into action and advices to ignore and hide it because there will insult, penalty or some other unpleasant experience if others come to know about it… This idea further accrues lame excuses, false arguments and triggers him find ways to somehow protect himself and allege someone else for whatever wrong has been done.

But this is the beginning of a vicious cycle. Hiding a flaw even for once induces a tendency to do so again and again. This gradually becomes a habit and one stops caring for what is wrong and what is not. The mist of falsehood darkens and weakens his inner self and cultivates sinful tendencies.

Confessing for own weakness or misdeeds in fact shows one’s spiritual courage and inner purity. So, if one accepts his own flaws or apologizes for whatever wrong he has committed, he would elevate his dignity. This is a brave act. It enhances one’s inner strength. With same strength, one should vow not to repeat such mistakes. Doing this will gradually refine him and accelerate his progress along the righteous path of progress on the worldly as well as spiritual fronts.

📖  Akhand Jyoti, April 1946

👉 विरोध न करना पाप का परोक्ष समर्थन (भाग २)

दिन-दहाड़े सरे-बाजार गुण्डागर्दी होती रहती है और यह भले बनने वाले लोग चुपचाप उस तमाशे को देखते रहते हैं। गुण्डों की हिम्मत बढ़ती है और वे आये दिन दूने उत्साह से वैसी ही हरकतें करते हैं। यदि देखने वाली भीड़ ने जोर से एक साथ शोर ही मचा दिया होता तो सरे आम गुण्डागर्दी करने वालों के पैर उखड़ सकते थे और दुर्घटना बच सकती थी। अनाचार की घटनाएँ घटती हैं, पुलिस छानबीन करती है, पर प्रत्यक्षदर्शी भले मानुसों में से गवाही देने एक भी नहीं जाता। झंझट से बचने में ही जिन्हें खैर दीखती है वे अनाचार का सामना करने में जो थोड़ी बहुत कठिनाई उठानी पड़ती है, उसका झंझट क्यों मोल लें? इस भीरुता पर प्रत्यक्ष रूप से गुण्डागर्दी का लाँछन तो नहीं लगाया जा सकता, पर प्रत्यक्ष रूप से अनीति को खाद-पानी देने की जिम्मेदारी उसी की है। अपनी लड़की से कोई गुण्डा छेड़खानी करे तो लोग बदनामी के डर से उसे छिपाने की कोशिश करते हैं। इससे दुहरी हानि होती है। अगले दिनों लड़की को फिर कोई छेड़े तो वह बेचारी चुपचाप उसे सहन करती रहती है। जानती है अभिभावकों में सामना करने की हिम्मत तो है नहीं। छिपाने का ही उपदेश देंगे ऐसी दशा में उसे छिपाने की बात स्वयं ही करती रहे तो क्या हर्ज है? दूसरी ओर छेड़ने वालों का साहस सौ गुना हो जाता है वे चक्रवर्ती शासक की तरह मूँछें ऐंठते और ताल ठोकते फिरते हैं। मानो इन सज्जन कहलाने वाले कायरों को उन्होंने मक्खी-मच्छर की तरह अपना वशवर्ती बना लिया हो।

छोटे-बड़े प्रत्येक अनाचार के अवसर पर यही दृश्य देखने को मिलता है। विरोध, प्रतिरोध, असहयोग करने के लिए साहस दिखा सकने वाले ढूंढ़े नहीं मिलते वरन् क्षमा का उपदेश देने, गन्दगी पर मिट्टी डालने की बात कहने वाले लोगों की भीड़ सामने आ खड़ी होती है और रोकथाम के लिए जो कुछ किया जा सकता था वह सम्भव ही नहीं हो पाता। स्थिति कितनी दयनीय और कितनी विषम है। लगता है लोगों ने पाप को सुरक्षित रखने और उसे फलने-फूलने देने की ऐसी नीति अपना ली है जो बाहर से निर्दोष लगती है किन्तु वस्तुतः वही अनाचार को बढ़ावा देने में खाद पानी का काम करती है।

भगवान की अवतार प्रतिज्ञा में धर्म की स्थापना और अधर्म के नाश का उभय-पक्षीय आश्वासन है। प्रत्येक अवतार के चरित्र में इन दोनों ही तत्वों का समावेश है। अधिक बारीकी से देखने पर प्रतीत होगा कि अवतारों ने धर्मोपदेश तो कम दिये हैं वरन् पाप से जूझने और उसे निरस्त करके छोड़ने की आक्रोश प्रक्रिया में ही अपना अधिक समय लगाया है। रामचरित्र में विश्वामित्र यज्ञ रक्षा से लेकर पंचवटी, दण्ड कारण्य आदि में जूझते हुए अन्ततः लंका युद्ध में जा डटने के ही प्रसंग भरे पड़े हैं। कृष्ण चरित्र में भी उनके जन्मकाल से ही असुरों से जूझने की महाभारत रचाने की और अन्ततः अपने ही वंश वालों को नष्ट होने देने की संरचना में समय बीता। भगवान परशुराम, भगवान नृसिंह, वाराह, भगवती, दुर्गा आदि के अवतार चरित्रों में अनीति से संघर्ष का ही प्रसंग बढ़ा-चढ़ा है। उनके साथी समर्थकों की सेना को धर्म स्थापना का-जप हवन का कितना समय मिला कह नहीं सकते पर स्पष्ट है कि भगवत् भक्तों ने ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए अपनी सामर्थ्य झोंक देने का आदर्श उपस्थित किया। रीछ-वानरों ने, ग्वाल-बालों ने पाण्डवों ने, प्रधानतया अनीति विरोधी तप साधना में ही अपना जीवन घुलाया था।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर १९७६

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...