जो शिष्य हैं उनकी समर्पित भावनाओं में तांत्रिक प्रश्र स्वयं ही अपना समाधान पाते जाते हैं। ज्यों- ज्यों प्रश्रों के समाधान होते जाते हैं- त्यों तर्क विलीन हो जाते हैं। तब श्रद्धा का उदय होता है। श्रद्धा तर्क के विलय ही परम भाव दशा है। यहाँ न तो तर्कों का अभाव है और न ही तर्कों की दमन, बल्कि तर्कों की सम्पूर्ण विलीनता है। सघन श्रद्धा में ही नीरवता प्रकट होती है। परम शान्ति अथवा समाधि इसी के अनेकों रूप हैं। भेद शब्दों का है भावों का नहीं। यह सत्य शास्त्र अथवा पण्डित नहीं अनुभवी साधक बताते हैं। श्रद्धा की सम्पूर्णता को समाधि का नाम देना अतिशयोक्ति नहीं अनुभूति है। ईश्वर प्रणिधान की चर्चा करते हुए महिष पतंजलि भी इससे अपनी सांकेतिक सहमति जताते हैं।
इस नीरवता की भावदशा में परम ज्ञान का उदय होता है। यही परम प्रज्ञा के महामंदिर का द्वार है। यहीं साधक का ब्राह्मी चेतना से संवाद होता है। यहीं उसे उसके सद्गुरु का परम ब्रह्म परमेश्वर के रूप में साक्षात्कार होता है। ‘गुरुर्ब्रह्मा, गुरुविष्णु गुरुरेव महेश्वरः, गुरुः साक्षात् परमब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः’ इस मंत्र के अर्थ की अनुभूति चेतना की इसी अवस्था में होती है। यहीं उससे कहा जाता है कि तुम अब काट चुके अब बोने की तैयारी करो। जिन्दगी के सामन्य क्रियाकलापों में बोने के बाद काटा जाता है। पर यहाँ बड़ी उलटबाँसी है, यहाँ काटने के बाद बोया जाता है।
क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्डया
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