मंगलवार, 3 नवंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ६०)

बाँसुरी बनें, तो गूँजे प्रभु का स्वर

योग पथ पर चलने के लिए जितनी भी तकनीकें हैं, उनके शुरूआती दौर में अहंकार को बड़ा रस मिलता है। लेकिन भक्ति मार्ग में ऐसा कोई रस नहीं है। यहाँ अहंता को प्रारम्भ से ही निराश होना पड़ता है। जबकि दूसरे मार्गों में अहंता अन्तिम छोर पर निराश होती है। जब बात योग साधना की हो, तो अहंता को तो निराश होना ही पड़ेगा। पर हठयोग, राजयोग, ज्ञानयोग, नादयोग आदि जितनी भी योग विधियाँ हैं, वहाँ शुरूआत में बड़ी विचित्रताएँ हैं। तकनीक की विचित्रता, अनुभूति की विचित्रता, पथ की  विचित्रता- बड़े ही विचित्र लोभ यहाँ है। तमाशो से भरी जादूगरी यहाँ पर है। यहाँ पर ऐसा बहुत कुछ है, जहाँ अहंकार को रस मिले। उसे मजा आए। इसीलिए इन सबके लिए उसमें भारी आकर्षण है।
    
लेकिन ईश्वर भक्ति में ऐसा कोई आकर्षण नहीं है। यहाँ तो पहले ही कदम पर अहंकार को जलना-गलना एवं मरना-मिटना पड़ता है। अहंकार की मौत, ‘जो सिर काटे भुईं धरै’ के कबीर वचन यहाँ पर, इस पथ पर पाँव रखते ही सार्थक होते हैं। यही वजह है कि अहंकारी को भक्ति सुहाती नहीं है। उसे यह सब बड़ा अटपटा-बेतुका लगता है। अहंकारी के लिए भक्ति बुद्धिहीनता से भरा क्रियाकलाप है। यहाँ पर उसे हानि ही हानि नजर आती है। पर जो निष्कपट हृदय है, उनके लिए यह परम तृप्ति का मार्ग है। प्रभु में समर्पित, प्रभु में विसर्जित एवं प्रभु में विलीन। इससे बड़ा सुख और भला कहाँ हो सकता है।
    
ब्रह्मर्षि गुरुदेव स्वयं अपने बारे में कहा करते थे कि लोग मुझे लेखक समझते हैं, ज्ञानी मानते हैं। किसी की नजरों में मैं महायोगी हूँ। पर अपनी नजर में मैं केवल एक भक्त हूँ। अपने गुरु का, अपने भगवान् का निष्कपट भक्त। मैंने अपनी जिन्दगी का कण-कण, क्षण-क्षण, अणु-अणु अपने प्रभु की भक्ति में गुजारा है। मैंने तो स्वयं को बस केवल एक पोली बाँसुरी भर बना लिया। सच तो यह है कि अपने पूरे जीवन में मैंने कुछ किया ही नहीं। बस, प्रभु जो करते रहे, वही होता रहा। मैंने स्वयं को भगवान् के हाथों में सौंप दिया। मेरे जीवन में वही साधना बने, वही साधक और वही साध्य रहे। एक में तीन और तीन में एक, यही गणित मेरे जीवन में इस्तेमाल होती रही।
    
परम पूज्य गुरुदेव के इस जीवन दर्शन में महर्षि पतंजलि के इस सूत्र की सहज व्याख्या है। ईश्वर में समाकर जीव स्वयं ईश्वर बन जाता है। गुरुदेव कहते हैं, गंगाजल में समा जाने वाले गन्दे नाले को भी लोग गंगाजल कहने लगते हैं। इसमें महिमा गंगा की है और भावभरे समर्पण की। समर्पण करने से केवल क्षुद्रताओं का नाश होता है। केवल दुर्बलताएँ-हीनताएँ तिरोहित होती हैं, मिलता बहुत कुछ है। बस जो यह समझ सके। यह समझ में आने पर एक पल में सब कुछ घटित हो जाता है। जो ईश्वर में समर्पित होते हैं- उनके जीवन का अवसाद उत्सव में रूपान्तरित हो जाता है। 

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १०३
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

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