शनिवार, 28 अगस्त 2021

👉 ईश्वर को पाना है तो हम उसकी मर्जी पर चलें

🔷 ईश्वर की प्रप्ति के लिए ऐसा दृष्टिकोण एवं क्रिया- कलाप अपनाना पड़ता है, जिसे प्रभु समर्पित जीवन कहा जा सके ।। जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आत्मिक प्रगति का मार्ग अपनाना पड़ता और वह यह है कि हम प्रभु से प्रेरणा की याचाना करें और उद्देश्य यही है कि मनुष्य अपने लक्ष्य को, इष्ट को समझें और उसे प्राप्त करने के  लिए प्रबल प्रयास करें। उपासना कोई क्रिया कृत्य नहीं है। उसे जादू नहीं समझा जाना चाहिए।

🔶 आत्म परिष्कार और आत्म विकास का तत्वदर्शन ही अध्यात्म है। उपासना उसी मार्ग पर जीवन प्रक्रिया को धकेलने वाली एक शास्त्रानुमोदित ओैर अनुभव प्रतिपादित पद्धति है। इतना समझने पर प्रकाश की ओर चल सकना बन पड़ता  है। जो ऐसा साहस जुटाते हैं, उन्हें निश्चत रूप से ईश्वर मिलता है। अपने को ईश्वर के हाथ बेच देने वाला व्यक्ति ही ईश्वर को खरीद सकने में समर्थ होता है। ईश्वर के संकेतों पर चलने वाले में ही इतनी सामर्थ्य उत्पन्न होती है कि ईश्वर को अपने संकेतों पर चला सके।       

🔷 बुद्धिमत्ता इसी में है कि मनुष्य प्रकाश की ओर चले। ज्योति का अबलम्बन ग्रहण करे। ईश्वर की साझेदारी जिस जीवन में बन पड़ेगी, उसमें घटा पड़ने की कोई सम्भावना नहीं है। यह शांति और प्रगति का मार्ग है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ५४)

समर्थ सत्ता को खोजें

घटना 29 जून सन् 1954 की है। न्यूयार्क अमेरिका के एक डॉक्टर श्री रेमर की धर्मपत्नी विश्राम कर रही थी। उनकी एक पुत्री—जेस्सी 9 माह पूर्व ही अपनी दादी के पास कैलिफोर्निया गई हुई थी। मां-बेटी के बीच की भौगोलिक दूरी 3000 किलोमीटर थी। अकस्मात श्रीमती रेमर चीख कर पलंग से खड़ी हो गई डॉक्टर साहब दौड़े-दौड़े आये। पूछा क्या बात है? श्रीमती रेमर ने कहा—मैंने अभी-अभी जेस्सी के चीखने की आवाज सुनी, ऐसा लगा वह किसी संकट में है। डॉक्टर ने धर्मपत्नी के शरीर का परीक्षण किया।
उस समय और कोई बात तो नहीं हुई किन्तु दो दिनों तक घर में विलक्षण मायूसी छाई रही। तीसरे दिन वह निराशा की स्थिति पूर्ण विहाग में तब बदल गई जब सचमुच जेस्सी के दुर्घटनाग्रस्त होने का तार मिला। आश्चर्य की बात यह थी कि श्रीमती रेमर ने जिस समय यह चीख सुनी वह और जेस्सी के कार ऐक्सीडेंट-जिससे उसका प्राणान्त हुआ—का समय एक ही था।

एक अन्य घटना—फ्रान्स के रियर एडमिरल गैलरी की आत्मकथा से उद्धृत।—आठ घन्टियां (एट बेल्स) नामक उक्त आत्मकथा में गैलरी महाशय लिखते हैं—मुझे सोमवार को अपनी ड्यूटी पर जाना था। रविवार की रात जब मैं सोया तो स्वप्न देखा कि मैं अपने जहाज पर बैठा हूं, जहाज चलने की तैयारी में है। यात्री ऊपर आ रहे हैं, दो युवक आते हैं, मैंने उनसे नाम पूछा—एक ने अपना नाम डिक ग्रेन्स दूसरे ने पाप-कनवे बताया। तभी जहाज में एकाएक विस्फोट होता पर यही दोनों जख्मी होते हैं और पाप मर जाता है। स्वप्न इतनी गम्भीर मनःस्थिति में देखा था कि सोकर उठने के बाद भी वह मानस पटल पर छाया रहा। जब कि आये दिन दिखने वाले स्वप्न जोर देने पर भी याद नहीं आते।

आश्चर्य वहां से प्रारम्भ हुआ जब मैंने आफिस जाकर जहाज के यात्रियों की लिस्ट पर दृष्टि दौड़ाई मुझे यह देखकर भारी हैरानी हुई कि जो नाम इससे पहले कभी सुने भी नहीं थे—जो रात स्वप्न में देखे थे वे सचमुच उस लिस्ट में थे। यह देखते ही हृदय किसी अज्ञात आशंका से भर गया। फिर भी जीवन की गति तो कोई न चलाना चाहे तो भी चलती है। जहाज ने ठीक समय पर प्रस्थान किया पर अभी उसने अच्छी तरह बन्दरगाह भी नहीं छोड़ा था कि एक इंजन में विस्फोट हुआ, केवल डिकग्रेन्स और पाप कनवे दुर्घटनाग्रस्त हुये, जिनमें से पाप कनबे की तत्काल मृत्यु हो गई।

एक तीसरी घटना—डरहम की एक स्त्री से सम्बन्धित है, पैरासाइकोलॉजी संस्थान कैलीफोर्निया के रिकार्ड से ली गई—डरहम की एक स्त्री अपने बच्चों के साथ स्नान के लिये निकली। घर में उस समय उक्त महिला अर्थात् उस स्त्री की सास ही रह गई। अभी वह स्त्री वहां से कुछ सौ गज ही मोड़ पार कर गई होगी कि उसकी सास बुरी तरह चिल्लाई—बहू को खतरा है। पास-पड़ौस के लोग दौड़े और इस पागलपन पर हंसे भी। किन्तु दो घन्टे पीछे ही शेरिफ ने सूचना दी कि रास्ते में ऐक्सिडेन्ट हो जाने से अस्पताल में महिला का प्राणान्त हो गया है।

ऊपर एक ही तरह की तीन घटनायें दी हैं जो न तो भाव सम्प्रेषण (टेलेपैथी) है और न ही परोक्षदर्शन (क्लेरबायेन्स)। टेलीपैथी का अर्थ उस आभास से है जिसमें किसी मित्र, परिचित, कुटुम्बी या प्रिय परिजन द्वारा भावनाओं की अत्यधिक गहराई से याद किया गया हो और वह संवेदना इस व्यक्ति तक पहुंची हो। इसी तरह दूर-दर्शन का अर्थ तो मात्र भौगोलिक दूरी को किसी अतीन्द्रिय क्षमता से पार कर किसी घटना का आभास पाया गया हो। ऊपर तीन घटनायें प्रस्तुत की गई हैं उनमें एक का सम्बन्ध वर्तमान से है तो शेष दो का अतीत और भविष्य से। जो हो रहा है वह देखा जा सकता है जो हो चुका है उसे भी जाना जा सकता है कि अभी तक जो हुआ ही नहीं यदि उसकी जानकारी हो जाती है तो उसे न तो दूरदर्शन ही कहा जायेगा और न ही दूर संचार। वास्तव में इस तरह की अनुभूतियां आये दिन हर किसी को होती रहती हैं। और उनका मानव-जीवन से गहन आध्यात्मिक सम्बन्ध भी है। तथापि उन्हें समझ पाया हर किसी के लिये सम्भव नहीं होता।

वेदान्त दर्शन के अनुसार सृष्टि में एक ‘ब्राह्मी चेतना’ या परमात्मा ही एक ऐसा तत्व है जो सर्वव्यापी है अर्थात् ब्रह्माण्ड उसी में अवस्थित है। वह काल की सीमा से परे है अर्थात् भूत, भविष्य वर्तमान तीनों भी उसी में समाहित हैं। उक्त तीनों घटनाओं का उल्लेख करते हुए ‘एक्स्प्लोरिंग साइकिक फेनामेना बियाण्ड एण्ड मैटर’ पुस्तक के लेखक श्री डी. स्काट रोगों ने उक्त तथ्य का स्मरण कराते हुये लिखा है कि भावनायें तथा विचार ‘प्राणशक्ति की स्फुरणा’ (डिस्चार्ज आफ वाइटल फोर्स) के रूप में होती हैं। यह स्फुरणा यदि एक ही समय में एक-दूसरे को आत्मसात् करती है तब तो वह दूर संचार हो सकता है किन्तु यदि वह समय की सीमाओं का अतिक्रमण करता है तो उसका अर्थ यही होगा कि माध्यम को आधार-भूत सत्ता या ब्राह्मी चेतना होती है। इस चेतना की कल्पना आइन्स्टीन ने भी सापेक्षवाद के सिद्धान्त में की है और यह लिखा है कि यदि प्रकाश की गति से भी कोई तीव्र गति वाला तत्व होता है तो उसके लिये बीते कल, आज और आने वाले कल में कोई अन्तर ही न रहेगा। भारतीय शास्त्र पग-पग पर उसी महान् सत्ता में अपने आप घुलाने और परम पद पाने की बात कहते हैं निस्सन्देह वह एक अति समर्थ, अत्यन्त संवेदनशील स्थिति होगी। यह घटनायें इस दिक्कालातीत चिन्मय ब्रह्म सत्ता से अपनी अभिन्नता जुड़ने की अनुभूति ही हो सकती है। क्षणिक सम्पर्क इतना आश्चर्यजनक हो सकता है तो उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति कितनी सामर्थ्य प्रदान करने वाली होगी—तब मनुष्य को किसी प्रकार के अभाव वस्तुतः क्योंकर सताते होंगे?

ऋग्वेद में एक ऋचा आती है—‘अग्निना अग्नि समिध्यते, अर्थात् अग्नि से अग्नि प्रदीप्त होती है। आत्मज्ञान आत्मानुभूति से ब्रह्म प्राप्ति इसी सिद्धान्त पर होती है। उपरोक्त घटनायें ‘अन्त स्फुरण’ तथा ‘आत्म जागृति’ की क्षणिक अनुभूतियां हैं। रेडियो घुमाते-घुमाते अनायास कोई अति सूक्ष्म स्टेशन सैकिंड के सौवें हिस्से में पकड़ में आ जाता है फिर ढूंढ़ने से भी नहीं मिलता। यह घटनायें वैसा ही तत्व बोध हैं, विस्तृत अनुभूति, ज्ञान प्राप्ति, ईश्वर की शक्तियों को अनुभव करने के लिये तो आत्म परिष्कार की गहराई में ही उतरना पड़ेगा। जो लोग सांसारिकता में ही पड़े रहेंगे वे न तो उस महान् को अनुभव कर सकेंगे न पा सकेंगे। वे तो ऐसी घटनाओं पर भी अटकलें ही लगाते रहेंगे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ८४
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ५४)

गोपियों के कृष्ण प्रेम का मर्म

महर्षि आपस्तम्ब कुछ बोले तो नहीं, परन्तु उनके मुख पर संकोच का सच और लज्जा की लालिमा थी परन्तु इसकी अनदेखी करके देवर्षि कह रहे थे- ‘‘जब प्रभु ने ब्रजधरा पर अवतार लीला रची थी उस समय महर्षि विद्रुम को भी यही भ्रम हुआ था। उन्होंने अखिल ब्रह्माण्डनायक सर्वलोकाधिपति सर्वेश्वर को संसार के मानदण्डों पर कसना चाहा। परन्तु.......’’, ऐसा कहते देवर्षि एक पल के लिए ठहरे तभी ब्रह्मर्षि वशिष्ठ बोल पड़े- ‘‘हे देवर्षि! यह भक्तिकथा विस्तार से कहें।’’ आपस्तम्ब ने भी उनकी ओर हाथ जोड़ते हुए कहा- ‘‘भगवन! आप हमारे अज्ञान को क्षमा करते हुए, कृष्ण करूणा के कण हमें भी प्रदान करें।’’
    
उत्तर में देवर्षि मुस्कराए और कहने लगे- ‘‘ब्रजभूमि में वह शारदीय नवरात्रि थी। गोपकन्याओं एवं गोपबालाओं ने महामाया कात्यायिनी का सविधिव्रत किया था। उनके इस व्रत की सम्पूर्ण व्यवस्था स्वयं भगवती पूर्णमासी ने की थी। भगवती पूर्णमासी को ब्रजभूमि के सभी लोग अपनी आराध्य देवी मानते थे। उनके किसी भी कार्य में कोई रोक-टोक नहीं करता था। गोपियों का यह व्रत सम्पूर्ण विधान से चल रहा था। वे त्रिकाल यमुना स्नान करतीं, त्रिसन्ध्या में भगवती कात्यायनी का पूजन करतीं और तीनों ही कालों में वह देवी-महात्म्य की कथा सुनतीं। उन्हें यह कठिन साधना करते हुए नवरात्रि के सात दिन पूरे हो चुके थे।
    
तभी अष्टमी तिथि को प्रातः महर्षि विद्रुम ब्रज पधारे। वे स्वभावतः ही महामाया के मन्दिर में प्रणाम के लिए गए। महर्षि विद्रुम जगदम्बा के अनन्य भक्त थे। मन्दिर पहुंचने पर उन्हें गोपियों ने प्रणाम किया और आशीर्वाद की याचना की। उनकी इस याचना पर महर्षि ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की, तुम्हारा मनोरथ क्या है? उत्तर में एक गोपी ने गम्भीर स्वर में कहा-हम सभी श्रीकृष्ण को पति के रूप में प्राप्त करना चाहती हैं।
    
अब महर्षि के चौंकने की बारी थी। उन्होंने हतप्रभ होते हुए कहा- सभी? ‘हाँ’ सभी ने समवेत स्वर में इस एक शब्द का उच्चारण किया। इस उत्तर को सुनकर महर्षि विद्ऱुम तो जैसे जड़ हो गए। उन्हें कुछ सूझ ही नहीं पिड़ा। बस वह देखते रह गए, ये विवाहित एवं अविवाहित स्त्रियाँ, सबकी सब एक साथ श्रीकृष्ण को पति के रूप में पाना चाहती हैं।
    
उन्हें इस तरह देखते हुए पाकर गोपियों में एक हंसने लगी और बोली-हमारे व्रत पर इतना आश्चर्य क्यों कर रहे हैं महर्षि? श्रीकृष्ण तो सभी जीवात्माओं के स्वाभाविक स्वामी हैं। उन परमेश्वर को छोड़कर भला जीव के जीवन का सम्पूर्ण स्वामी कौन हो सकता है? परन्तु उस गोपी के कथन का अर्थ महर्षि समझ न सके। उन्हें बस यही लगा कि इस ब्रजभूमि में यह भारी अनाचार फैल रहा है? इसे कोई रोकता क्यों नहीं? यह नन्द गोप का बेटा परमात्मा कब से हो गया। उनके मन में प्रश्न तो अनेक उभरे परन्तु उन्होंने कहा कुछ नहीं। बस जगन्माता के मन्दिर के परिसर में बैठकर मार्गदर्शन की याचना करने लगे। वह विह्वल होकर पुकार रहे थे, अपनी इस सन्तान को प्रबोध दो माता।
    
न जाने कितनी देर तक उनकी यह प्रार्थना चलती रही। उन्हें होश तो तब आया जब गोपियों के साथ आयी भगवती पूर्णमासी ने उन्हें स्पर्श करते हुए चेताया। अद्भुत था वह स्पर्श। इस स्पर्श से उनके सामने का संसार बदल गया। उन्होंने भगवती पूर्णमासी की ओर देखा और बस देखते रह गये-अरे वह तो स्वयं योगमाया थीं। फिर उन्होंने गोपियों से घिरी श्रीराधा जी को देखा, स्वयं मूल प्रकृति वृषभानुदुलारी का रूप धरे थीं। अब उनकी दृष्टि महामाया कात्यायनी के श्रीविग्रह की ओर गयी। उन्होंने देखा कि जगदम्बा स्वयं साकार होकर गोपबालाओं की पूजा स्वीकार कर रही थीं। ये गोपबालाएँ भी और कोई नहीं जन्म-जन्मान्तर से तप साधना कर रहीं तत्त्वज्ञानी आत्माएँ थीं। कैसा अपूर्व दृश्य था वह। स्वयं आदिशक्ति पूजा कर भी रहीं थीं, करा भी रहीं थीं और करवा भी रहीं थीं। अब महर्षि विद्रुम ने घबराकर आंखें बन्द कर लीं। उन्हें भक्ति के सत्य का अनुभव होने लगा।’’ कुछ ऐसी ही अनुभूति महर्षि आपस्तम्ब को भी हो रही थी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ९८

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