■ मानसिक शुद्धि, पवित्रता एवं एकाग्रता पर आधारित है, जिसका मन जितना पवित्र और शुद्ध होगा, उसके सकंल्प उतने ही बलवान् एवं प्रभावशाली होंगे। सन्त- महात्माओं के शाप, वरदान की चमत्कारी घटनाएँ उनकी मन की पवित्रता एवं एकाग्रता के ही परिणाम हैं। इस तथ्य से सारे विश्व के सभी धर्म शास्त्रों ने मन को पवित्र बनाने पर जोर दिया है।
□ हम सुख- भोगों पर दुखों का सहर्ष स्वागत करने के लिये तैयार रहें, सुविधायें प्राप्त करें ,पर कठिनाइयों से जूझने की हिम्मत भी रखें ।। समाज और साहचर्य में रहकर जीवन को शुद्ध और एकान्त में आत्म- चिंतन, आत्म- निरीक्षण की साधना भी चलती रहे, तो हम स्वस्थ और स्वाभाविक जीवन जीते हुये भी अपना जन्मउद्घेश्य पूरा कर सकते हैं, शाश्वत शान्ति प्राप्त कर सकते हैं।
◆ थोड़ी सी व्याकुल आराधना, जिसमें जीवात्मा अपनी स्थिति को भूल कर अपने आपको उनमें मिला दे, बस उसी प्रेम के भूखे हैं- भगवान्। स्वामी का सेवक से, राजा का प्रजा से, पिता का पुत्र से जो सम्बन्ध होता है, परमात्मा और मनुष्य का प्रेम भी वैसे ही आधार भूत और छल रहित होता है। जब मनुष्य अपने आपको उस परम पिता को ही अनन्य भाव से सौंप देता है, तो उसकी सारी कठिनाइयाँ दूर हो जाती हैं।
◇ समाज में जैसा भी आदर्श होगा, उसके अनुरूप ही प्रवृत्तियाँ पनपेंगी एवं गतिविधियाँ चल पड़ेगी। श्रेष्ठ आदर्शाों एवं सिद्धान्तों आभाव मेंं गतिविधियों में उत्कृष्टता का समावेश नहीं रहा। जिसके कारणों की गहराई में जाने पर एक ही तथ्य का पता लगता है, वह है बुद्धि द्वारा मानवी सम्वेदना की उपेक्षा किया जाना।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
□ हम सुख- भोगों पर दुखों का सहर्ष स्वागत करने के लिये तैयार रहें, सुविधायें प्राप्त करें ,पर कठिनाइयों से जूझने की हिम्मत भी रखें ।। समाज और साहचर्य में रहकर जीवन को शुद्ध और एकान्त में आत्म- चिंतन, आत्म- निरीक्षण की साधना भी चलती रहे, तो हम स्वस्थ और स्वाभाविक जीवन जीते हुये भी अपना जन्मउद्घेश्य पूरा कर सकते हैं, शाश्वत शान्ति प्राप्त कर सकते हैं।
◆ थोड़ी सी व्याकुल आराधना, जिसमें जीवात्मा अपनी स्थिति को भूल कर अपने आपको उनमें मिला दे, बस उसी प्रेम के भूखे हैं- भगवान्। स्वामी का सेवक से, राजा का प्रजा से, पिता का पुत्र से जो सम्बन्ध होता है, परमात्मा और मनुष्य का प्रेम भी वैसे ही आधार भूत और छल रहित होता है। जब मनुष्य अपने आपको उस परम पिता को ही अनन्य भाव से सौंप देता है, तो उसकी सारी कठिनाइयाँ दूर हो जाती हैं।
◇ समाज में जैसा भी आदर्श होगा, उसके अनुरूप ही प्रवृत्तियाँ पनपेंगी एवं गतिविधियाँ चल पड़ेगी। श्रेष्ठ आदर्शाों एवं सिद्धान्तों आभाव मेंं गतिविधियों में उत्कृष्टता का समावेश नहीं रहा। जिसके कारणों की गहराई में जाने पर एक ही तथ्य का पता लगता है, वह है बुद्धि द्वारा मानवी सम्वेदना की उपेक्षा किया जाना।
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