गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 16 Dec 2016


👉 आज का सद्चिंतन 16 Dec 2016


👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 35)

🌹 गम्भीर न रहें, प्रसन्न रहना सीखें
🔵 स्वादिष्ट व्यंजन की कल्पना मात्र से मुंह में पानी भर आता है। शोक समाचार पाकर उदासी छा जाती है, चेहरा लटक जाता है। प्रफुल्ल मुखाकृति से आन्तरिक प्रसन्नता का पता चलता है। इस प्रकार अदृश्य होते हुए भी मन की हलचलों का भला और बुरा प्रभाव जीवन में पग-पग पर अनुभव होता है।

🔴 मनुष्य अपने मानस का प्रतिबिम्ब है। मानसिक दशा का स्वास्थ्य के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। नवीनतम शोधों के आधार पर तो यह भी कहा जाने लगा है कि रोग शरीर में नहीं, बल्कि मस्तिष्क में उत्पन्न होता है। यही कारण है कि उत्तम और समग्र स्वास्थ्य के लिए मन का स्वस्थ होना सबसे जरूरी है।

🔵 राबर्ट लुई स्टीवेन्सन ने अंग्रेजी में कई साहसिक उपन्यास लिखे हैं, उन्हें पढ़ने वाले सोचते थे कि लेखक भी योद्धा जैसा दिखने वाला कोई भारी भरकम कद्दावर होगा, जबकि वास्तविकता यह थी कि उनने अपनी अधिकांश प्रसिद्ध कृतियां रुग्णावस्था में चारपाई पर पड़े हुए लिखीं। शंकराचार्य अपने जीवन के उत्तरार्ध में भगन्दर के मरीज रहे, वैद्य ने उनकी स्थिति को देखते हुए शारीरिक श्रम करने तथा चलने-फिरने की मनाही की थी। परन्तु उस जर्जर काया को लेकर ही उनने चारों धामों की स्थापना, शास्त्रार्थ द्वारा दिग्विजय तथा पातंजलि के भाष्य आदि का गुरुत्तर कार्य भी सम्पन्न किया।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गृहस्थ-योग (भाग 35) 16 Dec

🌹 परिवार की चतुर्विधि पूजा
🔵 ऐसी दुखदायी स्थिति उत्पन्न न होने पाये इसके लिये समझौते ही नीति से काम लेना पड़ता है। अपनी मर्जी पर अड़ने, या उसे दूसरों पर बलात् थोपने की अपेक्षा अपने आपको नरम बनना पड़ता है। जिस सीमा तक कोई दुष्परिणाम उपस्थित न होता हो उस सीमा तक समझौता कर लेना चाहिए। यह ठीक है कि घर के लोगों को ठीक मार्ग पर रखना अपना कर्तव्य है। पर यह भी ठीक है कि पूर्ण रूप से किसी को तत्काल इच्छानुवर्ती बना लेना भी सुगम नहीं। थोड़ा झुकने से ही काम चलता है। समझौते की नीति से गुजर होती है।

🔴 सरकस के लिये जानवरों को साधने वाले मास्टर जानते हैं कि उजड़ जंगली जानवरों को रास्ते पर लाने में, इच्छित खेल सिखाने में, कितनी देर लगती है, कितना नरम गरम होना पड़ता है। बिल्कुल कड़ाई और बिल्कुल ढील यह दोनों ही बातें उपयोगी नहीं। बीच के रास्ते से चलना, उदारता और सहनशीलता के आधार पर काम करना ही हितकर होता है इसी आधार पर घर की सुख शान्ति कायम रह सकती है।

🔵 शान्ति, सन्तोष और व्यवस्था कायम रखने का तरीका यह है कि आत्म त्याग की नीति को प्रधानता दी जाय। आप अपना उदाहरण ऐसा रखें, जिसे देखकर घर के अन्य लोगों को भी आत्म-त्याग की प्रेरणा मिले। ‘‘मुझे कम आपको ज्यादा’’ यह भाव जितनी ही प्रधानता प्राप्त करेंगे उतनी ही शान्ति और सुव्यवस्था कायम रहेगी। गृहस्थ योगी को अपने को एक निस्वार्थ, निष्पक्ष एवं सद्भावी सेवक के रूप में घर वालों के सामने उपस्थित करना चाहिए। घर के लोगों से मुझे क्या लाभ मिलता है?

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 48)

🌹 कला और उसका सदुपयोग

🔴 मानव अन्तःकरण को पुलकित एवं भावविभोर करने की क्षमता कला में रहती है। कला का वासना को भड़काने में इन दिनों बड़ा हाथ रहा है। अब इस महान शक्ति को हमें जीवन निर्माण एवं समाज रचना की महान प्रक्रिया में लगाना होगा। कला शाश्वत है। उसमें दोष कुछ नहीं वरन् मानव अन्तःकरण का सीधा स्पर्श करने की क्षमता से सम्पन्न होने के कारण वह आवश्यक है और अभिवन्दनीय है । विरोध का एक मात्र तथ्य है कला का दुरुपयोग, इसे रोका जाना चाहिये और इस सृजनात्मक शक्ति को जन मानस की श्रेष्ठता की ओर प्रेरित करने के लिये प्रयुक्त करना चाहिए।
इस सन्दर्भ में नीचे आठ सुझाव प्रस्तुत किये जाते हैं—

🔵 69. वक्तृत्व कला विकास— बोलना संसार की सबसे बड़ी कला है। व्यक्तिगत जीवन में जन सहयोग का लाभ प्राप्त करना मुख्यतया मनुष्य के बोलने, बात करने की शैली पर निर्भर है। मीठा बोलने से पराये अपने हो जाते हैं और कटु भाषण से अपने पराये बनते हैं। जीवन की प्रगति में उतनी और कोई बात सहायक नहीं होती जितनी शिष्ट, मधुर, उदार और परिमार्जित वाणी। इसी प्रकार सामाजिक जीवन में सफलता प्राप्त करने का भी बहुत कुछ श्रेय विधिवत् वक्तृता पर ही निर्भर रहता है।

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पने पक्ष को ठीक प्रतिपादित करने में वही व्यक्ति सफल होता है जिसकी भाषण-शैली परिमार्जित है। युग-निर्माण के लिए प्रधानतया हम सबको इसी शस्त्र का पग-पग पर उपयोग करना पड़ेगा। इसलिए उसका अभ्यस्त भी होना ही चाहिये। व्यक्तिगत वार्तालाप में और जन समूह के सामने भाषण देने में किन तथ्यों का ध्यान रखना और किन बातों का अभ्यास करना आवश्यक है, इसका प्रशिक्षण अखण्ड-ज्योति के सदस्यों को विधिवत् मिलना चाहिए। अन्यथा बौद्धिक क्रान्ति का यह विशाल अभियान किस प्रकार व्यापक बन सकेगा?

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गहना कर्मणोगति: (भाग 17)

🌹 कर्मों की तीन श्रेणियाँ

(2) प्रारब्ध
🔵   वे मानसिक कर्म होते हैं, जो स्वेच्छापूर्वक जानबूझकर, तीव्र भावनाओं से प्रेरित होकर किए जाते हैं। इन कार्यों को विशेष मनोयोग के साथ किया जाता है, इसलिए उनका संस्कार भी बहुत बलवान बनता है। हत्या, खून, डकैती, विश्वासघात, चोरी, व्याभिचार जैसे प्रचण्ड क्रूरकर्मों की प्रतिक्रिया अंतःकरण में बहुत ही तीव्र होती है, उस विजातीय द्रव्य को बाहर निकाल देने के लिए आध्यात्मिक पवित्रता निरंतर व्यग्र बनी रहती है और एक न एक दिन उसे निकाल कर बाहर कर ही देती है।
    
🔴 हम बता चुके हैं कि हमारी अंतःचेतना निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह हमारे हर काम को देखती रहती है और उसकी न्यूनता-अधिकता के परिणाम के अनुसार दण्ड की व्यवस्था करती रहती है। चूँकि मानसिक दण्ड अपने आप अंदर ही अंदर पूरा नहीं हो सकता, इसके लिए दूसरे साधनों की भी आवश्यकता होती है, दण्ड कार्य को पूरा करने लिए सूक्ष्म लोक में से उसी प्रकार का घटनाक्रम उपस्थित करने के लिए हमारी अंतःचेतना एक वातावरण तैयार करती है। इस तैयारी में कभी बहुत समय भी लग जाता है। जैसे छल स्वभाव के निवारण के लिए शोक रूपी दण्ड की आवश्यकता है। अब यह देखा जाएगा कि छल किस दर्जे का है, उसकी शुद्धि किस दर्जे के शोक से पूरी हो सकती है।

🔵 अंतःचेतना वैसी ही परिस्थितियाँ पैदा करने में भीतर ही भीतर लगी रहेगी। वह शरीर में ऐसे तत्त्व पैदा करेगी, जिससे पुत्र उत्पन्न हो, उस पुत्र शरीर में ऐसी आत्मा का मेल मिलवाएगी, जिसे अपने कर्मों के अनुसार दस वर्ष ही जीना पर्याप्त हो, दस वर्ष का पुत्र हो जाने पर वही हमारी अंतःचेतना गुप्त रूप से पुत्र पर पिल पड़ेगी और उसे रोगी करके मार डालगी एवं शोक का इच्छित अवसर पैदा कर देगी। ऐसे अवसर तैयार करने में केवल अपना ही कार्य अकेला नहीं होता, वरन् दूसरे पक्ष का भी कार्य होता है। दोनों ओर की चेतनाएँ अपने-अपने लिए अवसर तलाश करती फिरती हैं और फिर जब उन्हें इच्छित जोड़ मिल जाता है, तो एक घटना की ठीक भूमिका बँध जाती है। ऐसे कार्यों में कई बार एक, दो, तीन या कई जन्मों का समय लग जाता है। लड़की के लिए वर और वर के लिए लड़की की तलाश बहुत दिनों तक जारी रहती है, सैकड़ों प्रसंग उठाए जाते हैं, पर कुछ न कुछ कमी होने से वे तय नहीं होते, जब दोनों पक्ष रजामंद हो जाते हैं, तो विवाह जल्द हो जाता है। इसी प्रकार पिता को पुत्र शोक और पुत्र को अल्पायु का संयोग, जब दोनों ही विधान ठीक बैठ जाते हैं, तो वे एकत्रित हो जाते हैं।

🔴 अफ्रीका में वेन्सस नामक एक दस फुट ऊँचा एक झाड़ होता है, इसकी डालियों में से सूत जैसे अंकुर फुटते हैं। यह अंकुर बढते हैं और इधर-उधर हवा में झूलते रहते हैं। दूसरा कोई अंकुर जब उससे छू जाता है, तो वे दोनों आपस में गुँथ जाते हैं और रस्सी की तरह बल डालकर एक हो जाते हैं। जब तक दूसरे अंकुर से भेंट न हो, तब तक सूत बढ़ते ही रहते हैं और कभी न कभी वे किसी न किसी से मिल जाते हैं। कोई सूत तो चार छः अंगुल दूरी पर ही जाकर किसी से मिलकर लिपट जाता है, कोई-कोई चार फुट लंबा होने के बाद सफल होता है। यही हालत कर्मफलों की है। शारीरिक दण्ड एकांगी है विष खाते ही तुरंत मृत्यु हो जाती है, परंतु मानसिक दण्ड में अपवाद है।

🔴 जैसे क्रूरता से प्रेरित होकर किसी की हत्या की गई, वह यदि प्रकट हो गयी तो राज्य द्वारा दण्ड मिल जाएगा, किंतु यदि हत्यारे ने अपना कार्य छिपा लिया तो उसका अंतःकरण तुरंत ही पाप दण्ड न दे बैठेगा, वरन् उसी दिन से वेन्सस पेड़ की तरह अंकुर फोड़कर इस तलाश में फिरेगा कि हिंसा वृत्ति से घृणा कराने के लिए हिंसा में जो दुःख होता है, उसका अनुभव उसे कराऊँ। जब दूसरी ओर का भी कोई अंकुर मिल जाता है, तो दोनों आपस में लिपट कर एक निर्धारित घटना की भूमिका बन जाते हैं। उपरोक्त कारणों से कभी-कभी अचानक सत्कर्म करते हुए भी दुःख उपस्थित हो जाता है और कभी-कभी बुरे काम करते हुए भी दुःख नहीं मिलता, इसका कारण उपयुक्त अवसर तैयार होने में विलम्ब लगना ही होता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/gah/karma.1

👉 सतयुग की वापसी (भाग 11) 16 Dec

🌹 महान् प्रयोजन के श्रेयाधिकारी बनें  

🔴 नि:सन्देह कठिनाई बड़ी है और उसे पार करना भी दुरूह है। पर हमें उस परम सत्ता के सहयोग पर विश्वास करना चाहिए जो इस समूची सृष्टि को उगाने, उभारने, बदलने जैसे क्रियाकलापों को ही अपना मनोविनोद मानती और उसी में निरन्तर निरत रहती है। मनुष्य के लिए छोटे काम भी कठिन हो सकते हैं, पर भगवान् की छत्रछाया में रहते कोई भी काम असम्भव नहीं कहा जा सकता। विषम वेलाओं में अपनी विशेष भूमिका निभाने के लिए तो ‘‘सम्भवामि युगे-युगे के सम्बन्ध में वह वचनबद्ध भी है। फिर इन दिनों समस्त संसार पर छाई हुई विपन्नता की वेला में उसके परिवर्तन, प्रयास गतिशील क्यों न होंगे? जराजीर्ण मरणासन्न में नवजात जैसा परिवर्तन प्रत्यावर्तन करते रहना जिसका प्रिय विनोद है, उसे इस अँधेरे को उजाले में बदल देने जैसा प्रभात पर्व लाने में क्यों कुछ कठिनाई होगी?

🔵 युग परिवर्तन में दृश्यमान भूमिका तो प्रामाणिक प्रतिभाओं की ही रहेगी, पर उसके पीछे अदृश्य सत्ता का असाधारण योगदान रहेगा। कठपुतलियों के दृश्यमान अभिनय के पीछे भी तो बाजीगर की अँगुलियों से बँधे हुए तार ही प्रधान भूमिका निभाते हैं। सर्वव्यापी सत्ता निराकार है, पर घटनाक्रम तो दृश्यमान शरीरों द्वारा ही बन पड़ते हैं। देवदूतों में ऐसा ही उभयपक्षीय समन्वय होता है। शरीर तो मनुष्यों के ही काम करते हैं पर उन श्रेयाधिकारियों का पथ प्रदर्शन, अनुदानों का अभिवर्षण उसी महान् सत्ता द्वारा होता है, उपनिषद् जिसे ‘अणोरणीयान्, महतो महीयान्’ कहकर उसका परिचय देने का प्रयास करता है।

🔴 हवाई जहाज के लिए उपयुक्त हवाई पट्टियाँ पहले से ही विनिर्मित करनी होती हैं। शासनाध्यक्षों के लिए साफ-सुथरे सुरक्षित और उपयुक्त स्थान की पहले से ही व्यवस्था करनी पड़ती है। जिस महान् प्रयोजन में इन दिनों परमेश्वर की महती भूमिका सम्पन्न होने जा रही है, उसका श्रेय तो उन जागरूकों, आदर्शवादियों और प्रतिभा संपन्नों को ही मिलेगा, जिनने अपने व्यक्तित्व को, परम सत्ता के साथ जुड़ सकने जैसी स्थिति को विनिर्मित कर लिया है। इसी आवश्यकता पूर्ति को कोई चाहे तो युगसाधना भी कह सकता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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