शनिवार, 28 नवंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ७४)

एक से ही हों एकाकार

योग पथ पर आगे बढ़ते जाना आसान नहीं है। इसमें आने वाले अँधेरे, अड़चनें, मुश्किलें भी जटिल है।  हर नया कदम योग साधक के सामने नयी चुनौती खड़ी करता है। इसका सामना करने के लिए नए सूत्र, नयी तकनीकें और नए ढंग की प्रकाश ज्योति चाहिए। अन्तर्यात्रा विज्ञान की हर नयी कड़ी योग साधक की इसी समस्या का सार्थक समाधान है। योग पथ की गहनता के अनुरूप इसके समाधान की क्षमता भी बढ़ती जाती है। योग साधक इसकी अनुभूति अपनी अन्तर्यात्रा में करते हैं। उन्हें पग-पग पर महर्षि पतंजलि की प्रेरणा एवं ब्रह्मर्षि परम पूज्य गुरुदेव के आशीषों की अनुभूति होती है।

जीवन ऊर्जा के चक्र के अव्यवस्थित हो जाने से जन्मे विघ्नों को समाप्त करने का समाधान महर्षि अपने अगले सूत्र में बताते हैं। और यह सूत्र है-
तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः॥ १/३२॥
शब्दार्थ-तत्प्रतिषेधार्थम्= उनको दूर करने के लिए; एकतत्त्वाभ्यासः= एक तत्त्व का अभ्यास (करना चाहिए)।
अर्थात् उनको (साधना में आने वाले सभी विघ्नों को) दूर करने के लिए एक तत्त्व का अभ्यास करना चाहिए।
    
महर्षि पतंजलि का यह सूत्र अपने अर्थों में अतिव्यापक है। वह इस सूत्र में एक तत्त्व के अभ्यास को सभी विघ्नों के निराकरण के रूप में तो प्रस्तुत करते हैं, परन्तु वह एक तत्त्व क्या हो? इसका चुनाव योग साधक पर ही छोड़ देते हैं। अब यह योग साधक की साधना के स्वरूप, स्तर पर निर्भर करता है कि वह एक तत्त्व के रूप में किसे चुनता है। परन्तु इतना जरूर है कि वह जिसे भी चुने उसी में उसके मन-प्राण घुलने चाहिए। वहीं पर उनके विचार व भाव केन्द्रित होना चाहिए। यानि कि इस एक तत्त्व को उसके साधना जीवन में चरम आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित होना चाहिए। इसकी स्मृति में उसकी जीवन धारा बहनी चाहिए।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १२७
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 दूरदर्शिता का तकाजा

जो आज का, अभी का, तुरन्त का लाभ सोचता है और इसके लिए कल की हानि की भी परवा नहीं करता वह उतावला मन विपत्तियों को आमंत्रण देता रहता है। प्रत्येक महान कार्य समयसाध्य और श्रमसाध्य होता है। उसकी पूर्ति के लिए आरंभ में बहुत कष्ट सहना पड़ता है, प्रतीक्षा करनी होती है और धैर्य रखना होता है। जिसमें इतना धैर्य नहीं वह तत्काल के छोटे लाभ पर ही फिसल पड़ता है और कई बार तो यह भी नहीं सोचता कि कल इसका क्या परिणाम होगा? चोर, ठग, बेईमान, उचक्के लोग तुरन्त कुछ फायदा उठा लेते हैं पर जिन व्यक्तियों को एक बार दुख दिया उनसे सदा के लिए संबन्ध समाप्त हो जाते हैं। फिर नया शिकार ढूँढ़ना पड़ता है। ऐसे लोग अपने ही परिचितों की नजर को बचाते हुए अतृप्ति और आत्मग्लानि से ग्रसित प्रेत−पिशाच की तरह जहाँ−तहाँ मारे−मारे फिरते रहते हैं और अन्त में उनका कोई सच्चा सहायक नहीं रह जाता। 

वासना के वशीभूत होकर लोग ब्रह्मचर्य की मर्यादा का उल्लंघन करते रहते हैं। तत्काल तो उन्हें कुछ प्रसन्नता होती है पर पीछे उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य ही चौपट हो जाता है पर पीछे विरोध एवं शत्रुता का सामना करना पड़ता है तो उस क्षणिक आवेश पर पछताने की बात ही हाथ में शेष रह जाती है। स्कूल पढ़ने जाना छोड़कर फीस के पैसे सिनेमा में खर्च कर देने वाले विद्यार्थी को उस समय अपनी करतूत पर दुख नहीं वरन् गर्व ही होता है पर पीछे जब वह अशिक्षित रह जाता है और जीवन को कष्टमय प्रक्रियाओं के साथ व्यतीत करता है तब उसे अपनी भूल का पता चलता है। दूरदर्शिता और अदूरदर्शिता का अन्तर स्पष्ट है। उसके परिणाम भी साफ हैं। मन की अदूरदर्शिता एक विपत्ति है। जिसमें तुरन्त का कुछ लाभ भले ही दिखाई पड़े पर अंत बड़ा दुखदायी होता है। मन में इतनी विवेकशीलता होनी ही चाहिए कि वह आज की, अभी की ही बात न सोचकर कल की, भविष्य की और अन्तिम परिणाम की बात सोचें। जिसने अपने विचारों में दूरदर्शिता के लिए स्थान रखा है उसे ही बुद्धिमान कहा जा सकता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1962 

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