एक से ही हों एकाकार
योग पथ पर आगे बढ़ते जाना आसान नहीं है। इसमें आने वाले अँधेरे, अड़चनें, मुश्किलें भी जटिल है। हर नया कदम योग साधक के सामने नयी चुनौती खड़ी करता है। इसका सामना करने के लिए नए सूत्र, नयी तकनीकें और नए ढंग की प्रकाश ज्योति चाहिए। अन्तर्यात्रा विज्ञान की हर नयी कड़ी योग साधक की इसी समस्या का सार्थक समाधान है। योग पथ की गहनता के अनुरूप इसके समाधान की क्षमता भी बढ़ती जाती है। योग साधक इसकी अनुभूति अपनी अन्तर्यात्रा में करते हैं। उन्हें पग-पग पर महर्षि पतंजलि की प्रेरणा एवं ब्रह्मर्षि परम पूज्य गुरुदेव के आशीषों की अनुभूति होती है।
जीवन ऊर्जा के चक्र के अव्यवस्थित हो जाने से जन्मे विघ्नों को समाप्त करने का समाधान महर्षि अपने अगले सूत्र में बताते हैं। और यह सूत्र है-
तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः॥ १/३२॥
शब्दार्थ-तत्प्रतिषेधार्थम्= उनको दूर करने के लिए; एकतत्त्वाभ्यासः= एक तत्त्व का अभ्यास (करना चाहिए)।
अर्थात् उनको (साधना में आने वाले सभी विघ्नों को) दूर करने के लिए एक तत्त्व का अभ्यास करना चाहिए।
महर्षि पतंजलि का यह सूत्र अपने अर्थों में अतिव्यापक है। वह इस सूत्र में एक तत्त्व के अभ्यास को सभी विघ्नों के निराकरण के रूप में तो प्रस्तुत करते हैं, परन्तु वह एक तत्त्व क्या हो? इसका चुनाव योग साधक पर ही छोड़ देते हैं। अब यह योग साधक की साधना के स्वरूप, स्तर पर निर्भर करता है कि वह एक तत्त्व के रूप में किसे चुनता है। परन्तु इतना जरूर है कि वह जिसे भी चुने उसी में उसके मन-प्राण घुलने चाहिए। वहीं पर उनके विचार व भाव केन्द्रित होना चाहिए। यानि कि इस एक तत्त्व को उसके साधना जीवन में चरम आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित होना चाहिए। इसकी स्मृति में उसकी जीवन धारा बहनी चाहिए।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १२७
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या