सोमवार, 29 अप्रैल 2019

अंतःकरण के धन को ढ़ूंढो | Look for the Treasure Within Yourself

👉 आज का सद्चिंतन 29 April 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 29 April 2019


👉 सकारात्मक सोच की शक्ति!

हम हमेशा एक कहावत सुनते हैं, जैसा हम सोचते हैं वैसा ही हम बन जाते हैं. ये कहावत पूरी तरह से सही हैं, क्योकि हमारा Mind एक वक्त में एक ही विचार कर सकता हैं Negative या Positive!

आप लोग हमेशा सुनते होंगे, हमें positive सोच रखनी चाहिए negative नहीं. क्या है ये positive और negative विचार?

दुनिया में हो रही घटनाओं को देखने का हम सभी का अपना अलग अलग नजरिया होता है। कुछ लोग इसे negative रूप में देखते हैं, अर्थात हमेशा कुछ न कुछ कमी निकालते रहते हैं जब कि कुछ लोग उसी घटना को positive रूप में देखते हैं और उसमे ये खोजते है कि इसमें क्या अच्छाई है, और उसी अच्छाई से सिख लेकर नित अपना जीवन सफल बनाते चले जाते हैं। वास्तव में हमारे जीवन में जो होता हैं अच्छे के लिए होता है। हमें कुछ समय के लिए उस घटना से दुःख जरुर होता है लेकिन बाद में यही पता चलता है कि ये हमारे लिए अच्छा ही हुआ।

आइये पढ़ते हैं एक कहानी >>>

एक ऋषि के दो शिष्य थे जिनमें से एक शिष्य सकारात्मक सोच वाला था वह हमेशा दूसरों की भलाई का सोचता था और दूसरा बहुत नकारात्मक सोच रखता था और स्वभाव से बहुत क्रोधी भी था। एक दिन महात्मा जी अपने दोनों शिष्यों की परीक्षा लेने के लिए उनको जंगल में ले गये।

जंगल में एक आम का पेड़ था जिस पर बहुत सारे खट्टे और मीठे आम लटके हुए थे। ऋषि ने पेड़ की ओर देखा और शिष्यों से कहा की इस पेड़ को ध्यान से देखो। फिर उन्होंने पहले शिष्य से पूछा की तुम्हें क्या दिखाई देता है।

शिष्य ने कहा कि ये पेड़ बहुत ही विनम्र है लोग इसको पत्थर मारते हैं फिर भी ये बिना कुछ कहे फल देता है। इसी तरह इंसान को भी होना चाहिए, कितनी भी परेशानी हो विनम्रता और त्याग की भावना नहीं छोड़नी चाहिए। फिर दूसरे शिष्य से पूछा कि तुम क्या देखते हो, उसने क्रोधित होते हुए कहा की ये पेड़ बहुत धूर्त है बिना पत्थर मारे ये कभी फल नहीं देता इससे फल लेने के लिए इसे मारना ही पड़ेगा।

इसी तरह मनुष्य को भी अपने मतलब की चीज़ें दूसरों से छीन लेनी चाहिए। गुरु जी हँसते हुए पहले शिष्य की बडाई की और दूसरे शिष्य से भी उससे सीख लेने के लिए कहा। सकारात्मक सोच हमारे जीवन पर बहुत गहरा असर डालती है। नकारात्मक सोच के व्यक्ति अच्छी चीज़ों मे भी बुराई ही ढूंढते हैं।

उदाहरण के लिए:- गुलाब के फूल को काँटों से घिरा देखकर नकारात्मक सोच वाला व्यक्ति सोचता है की “इस फूल की इतनी खूबसूरती का क्या फ़ायदा इतना सुंदर होने पर भी ये काँटों से घिरा है ”जबकि उसी फूल को देखकर सकारात्मक सोच वाला व्यक्ति बोलता है की “वाह! प्रकृति का कितना सुंदर कार्य है की इतने काँटों के बीच भी इतना सुंदर फूल खिला दिया” बात एक ही है लेकिन फ़र्क है केवल सोच का।

अब ये हम पर निर्भर करता है कि हम अपने दुखों को देखकर और दुखी होते चले जाएँ ये इससे सिख लेकर अपने जीवन को एक नयी दिशा में ले जाएँ। प्रकृति का ये नियम है कि आप जितना संघर्ष करोगे आपके सफलता का प्रतिशत उतना ही अधिक होगा। इसलिए संघर्ष करना हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिसा इससे भागे नहीं बल्क़ि इसे अपना दोस्त बना लें।

आप जब चाहे Negative Thinking को Positive Thinking में बदल सकते हैं। यदि आप Positive Thinking को पुरे निश्चय के साथ कई बार दोहराए की मुझे इस काम से डर नहीं लगता या कोई आशंका नहीं हैं मैं इसे बहुत अच्छे से पूरा करुगा या मेरा ये काम अवश्य सिद्ध होगा, तो आप निश्चत ही अपने काम में सफल हो जाऐगे।

अंत में कोई परिस्थिति कितनी भी बुरी क्यों न हो हमें उसे सकरात्मक नजरिये से देखना चाहिए क्योंकि ये हमारे जीवन को सफल बना सकता है, हमें इसकी power को अनदेखा नहीं करनी चाहिए।

👉 The Absolute Law Of Karma (Part 12)

MENTAL SUFFERINGS (Daivik–Dukhas):

All types of sorrows, mental suffering, are results of ‘Mental Sins’. Worry, anxiety, anger, humiliation, animosity, separation from a beloved one, fear, grief, etc. are signs of divine justice for mental sins. Mental sins are those willful karmas (deliberate acts) of mind, which are carried out under the influence of strong negative emotional stimuli. We may call mental sins as corrupt functions of mind like jealousy, perfidy, deception, annoyance, cruelty, etc., which pollute the environment around the inner psyche.Mental sins do not provide any physical gratification. Like a smoke-filled room, an environment created by pollutants of mind suffocates the soul. The soul, being a portion of the omnipresent Divinity, is intrinsically pure. It does not permit accumulation of sinful thoughts around itself and is always eager to push out of pollutants in someway or the other, in the same manner, as the body expels the harmful food. The soul is meticulously careful about its purity. The moment it finds the mental sins polluting its environment, it feels uncomfortable and immediately reacts to discard the pollutants. Though our external conscious mind is hardly aware, the inner, subtle mind is always seeking the opportunities to throw off this burden. Sometime, somehow, from somewhere, it involves man in situations, which neutralize the samskars created by mental sins through such reactions as humiliation, failure, disrepute, etc.

Death of a beloved person, loss in business and property, public-defamation, poverty etc. are also mental agonies. Such situations bringout the inner pain to the surface and the aggrieved person weeps, wails and is reminded of the futility of worldly attachments and impermanency of material things. Situations creating acute unhappiness bring out a greater awareness of the need for righteous living. Man is motivated to refrain from committing sinful deeds in future and follow an upright path in life. While attending funerals, people are reminded of the urgency of living a purposeful life. When suffering from financial loss man seeks God’s help. On being defeated and becoming unsuccessful, vanity is deflated. When the intoxication is over, the drunk begins to talk sense.

The only purpose of mental distress is to cleanse the mind of garbage of mental pollutants such as jealously, ingratitude, selfishness, cruelty, heartlessness cunning, hypocrisy and egoism. Through suffering, the intelligent divine mechanism ensures removal of samskars created by Prarabdha Karmas (discussed later). Pain and anguish spring forth to wash out the deleterious samskars generated by Prarabdha Karmas. Apparently, sins like theft, burglary, robbery, adultery, kidnapping and violence are committed physically, but since these are basically outer manifestation of mental stimuli such acts fall in the category of mental sins.

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✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 20

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