रविवार, 16 अगस्त 2020

👉 प्रवेश से पहले जानें अथ का अर्थ (भाग ४)

संकल्पवान ही आत्मतत्त्व को  जान पाते हैं। गुरुदेव का समूचा जीवन इसी संकल्प का पर्याय था। उनके समूचे जीवन में, अन्तर्चेतना में अविराम लयबद्धता थी; तभी उनके गुरु ने उन्हें जो अनुशासन दिया, वह बड़ी प्रसन्नतापूर्वक पालन करते रहे। अनुशासन से मिलता-जुलता अंग्रेजी का शब्द है- डिसिप्लिन। यह डिसिप्लिन शब्द बड़ा सुन्दर है। यह उसी जड़, उसी उद्गम से आया है, जहाँ से डिसाइपल शब्द आया है। इससे यही प्रकट होता है कि अनुशासन शिष्य का सहज धर्म है। केन्द्रस्थ, लयबद्ध, संकल्पवान व्यक्ति ही गुरु के दिए गए अनुशासन को स्वीकार, शिरोधार्य कर सकता है। ऐसे ही व्यक्ति के अन्दर विकसित होती है, जानने की क्षमता।
  
सत्य और तत्त्व से अनभिज्ञ लोग संकल्पवान होने का मतलब हठी होना समझ लेते हैं। पर नहीं, अंतस् में केन्द्रित होने के साथ आवश्यक है—विनम्रता, ग्रहणशीलता और सद्गुरु की चेतना की ओर खुला होना। जो तैयार है, सचेत है, प्रतीक्षारत और प्रार्थनामय है, उसी में सीखने की क्षमता आती है। यह सीखना गुरु के सान्निध्य में होता है। सद्गुरु के हृदय में जल रही सत्य की ज्योति के संस्पर्श से ही शिष्य के हृदय की ज्योति जलती है। यही है सत्संग का मतलब। वैसे तो सत्संग बहुप्रचलित शब्द है, लेकिन अर्थ कम लोगों को मालूम है। इस शब्द का प्रयोग प्रायः गलत ही किया जाता है।

सत्संग का मतलब है—सत्य का गहरा सान्निध्य। इसका अर्थ है, सत्य के पास होना, उन सद्गुरु के अनुशासन में रहना, जो सत्य से एकात्म है। बस सद्गुरु  के निकट बने रहना, खुले हुए, ग्रहणशील और प्रतीक्षारत। यदि साधक की यह प्रतीक्षा गहरी और सघन हो जाती है, तब एक गहन आत्ममिलन घटित होता है। इसके लिए जरूरी नहीं है कि सदा ही गुरु से शारीरिक निकटता हो। परम पूज्य गुरुदेव के शब्दों में- उन्हें जीवन भर में सिर्फ तीन बार अपनी गुरुसत्ता से मिलने का सौभाग्य मिला; पर आत्म- मिलन अबाध, अविराम और सतत था। दरअसल गुरु के बताए गए अनुशासनों में उनकी चेतना तरंगित होती है। इन्हें स्वीकारने और अपनाने का अर्थ है- उनकी चेतना को स्वीकारना और अपनाना। ‘अथ’ के घटित होते ही, शिष्यत्व के प्रकट होते ही साधक को एक अलग ही भाषा समझ में आने लगती है। तब शारीरिक निकटता जरूरी नहीं है, क्योंकि नयी भाषा है ही गैर शारीरिक। तब दूरी से कोई फर्क नहीं पड़ता, शिष्य एवं गुरु का सम्पर्क बना रहता है। केवल स्थान की दूरी ही नहीं, समय से भी कोई अन्तर नहीं पड़ता। गुरु का शरीर न रहे, लेकिन शिष्य का सम्पर्क तब भी बना रहता है। भौतिक शरीर को त्यागने के बावजूद भी गुरु-शिष्य बड़े मजे से मिलते रहते हैं। बिना किसी बाधा या व्यवधान के उनमें भावों एवं विचारों का आदान-प्रदान चलता रहता है।
  
यह चमत्कार है—योग के अनुशासन का। गुरु द्वारा दिए गए व्रतबन्ध को श्रद्धापूर्वक स्वीकारने से शिष्य के जीवन में अनेकों चमत्कार घटते हैं। परम पूज्य गुरुदेव का जीवन स्वयं ही इसका जीता-जागता प्रमाण रहा। कोई गुरु कभी भी अपने शिष्य से दूर नहीं होता। वह कभी मरता नहीं उनके लिए, जो श्रद्धा सहित उसके अनुशासन को स्वीकार कर सकते हैं। वह मदद करता रहता है। वह हमेशा यहाँ ही होता है—शिष्य के पास। उसका सच्चा वासस्थान तो अपने शिष्य का हृदय होता है। प्रेम, श्रद्धा एवं आस्था स्थान और समय दोनों को मिटा देती है। अनुशासन देने वाला गुरु और प्राणपण से गुरु के अनुशासन को मानने वाला शिष्य दोनों एकदम पास-पास होते हैं। उनमें सदा ही सत्संग चलता रहता है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १३
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 Maintain Inner Peace and Poise in Adverse Circumstances


One cannot take right decision or take appropriate action when one’s mind is unsteady and restless. Whatever an agitated and bewildered person thinks or does remains one-sided. Any work undertaken in such a mental state normally leads to failure. Fits of frenzy, whether they are due to anger or depression, push a person into an unstable condition. Under such a state of mind, it becomes difficult to maintain rapport with family and friends. The imbalance of mind is much more harmful than the adverse situations created by external factors. This imbalance of mind makes a person ridiculous, unstable and unreliable.

Mental instability and perturbation result in psychosomatic disorders. A person overpowered by restlessness, due to anger, envy, hatred, etc, neither remains calm himself nor allows others to remain so. The blood goes on boiling and the brain attains a state of turmoil. Consequently the whole of life is sucked into a whirlpool of turbulence. The digestive system gets deteriorated and the blood circulation becomes irregular. An agitated mind causes sleeplessness and temporary madness. If such a state continues for a longer duration, one’s health is severely affected. Therefore, keeping oneself well-poised and peaceful under all circumstances is the true art of living.

Akhand Jyoti

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