सोमवार, 7 दिसंबर 2020

👉 पांचजन्य उदघोष

पांचजन्य उदघोष हुआ है, आओ रण में शौर्य दिखाओ।
रणभेरी बज उठी है वीरों, आलस में न समय गवाओ।।
 
सूरज उग रहा पूरब से, मधुर लालिमा छाई है।
ब्रह्मकमल की सुखद सुगंधि, हिमाद्री से आई है।।
समय अभी है परिवर्तन का,आओ मिलकर शंख बजाओ।
पांचजन्य उदघोष हुआ है, आओ रण में शौर्य दिखाओ ।।
 
पतझर बीत गया है मानों, नव बसंत अब द्वार खड़ा है।
दुरभिसंधि की रातें बीती, संकीर्ण शीत बेसुध पड़ा है।।
नवयुग के शुभ स्वागत हेतु, आओ अर्चन थाल सजाओ।
पांचजन्य उदघोष हुआ है, आओ रण में शौर्य दिखाओ।।
 
नवयुग के इस नये प्रहर में, नव निनाद सुर तान सुनो।
कलरव गूंज रहा चहुदिश है, केशव का आह्वान सुनो।।
उठो, चलो दौड़ो अब वीरों, अकर्मण्यता दूर भगाओ ।
पांचजन्य उदघोष हुआ है, आओ रण में शौर्य दिखाओ।
रणभेरी बज उठी है वीरों, आलस में न समय गवाओ।।

उमेश यादव

👉 भक्ति और संपत्ति

एक बार काशी के निकट के एक इलाके के नवाब ने गुरु नानक से पूछा, ‘आपके प्रवचन का महत्व ज्यादा है या हमारी दौलत का? ‘नानक ने कहा, ‘इसका जवाब उचित समय पर दूंगा।’ 

कुछ समय बाद नानक ने नवाब को काशी के अस्सी घाट पर एक सौ स्वर्ण मुद्राएं लेकर आने को कहा। नानक वहां प्रवचन कर रहे थे। नवाब ने स्वर्ण मुद्राओं से भरा थाल नानक के पास रख दिया और पीछे बैठ कर प्रवचन सुनने लगा। वहां एक थाल पहले से रखा हुआ था। 

प्रवचन समाप्त होने के बाद नानक ने थाल से स्वर्ण मुद्राएं मुट्ठी में लेकर कई बार खनखनाया। भीड़ को पता चल गया कि स्वर्ण मुद्राएं नवाब की तरफ से नानक को भेंट की गई हैं। थोड़ी देर बाद अचानक नानक ने थाल से स्वर्ण मुद्राएं उठा कर गंगा में फेंकना शुरू कर दिया। यह देख कर वहां अफरातफरी मच गई। कई लोग स्वर्ण मुदाएं लेने के लिए गंगा में कूद गए। भगदड़ में कई लोग घायल हो गए।.मारपीट की नौबत आ गई। नवाब को समझ में नहीं आया कि आखिर नानक ने यह सब क्यों किया। तभी नानक ने जोर से कहा, ‘भाइयों, असली स्वर्ण मुद्राएं मेरे पास हैं। गंगा में फेंकी गई मुदाएं नकली हैं। आप लोग शांति से बैठ जाइए।’ जब सब लोग बैठ गए तो नवाब ने पूछा, ‘आप ने यह तमाशा क्यों किया?

धन के लालच में तो लोग एक दूसरे की जान भी ले सकते हैं।’नानक ने कहा, ‘मैंने जो कुछ किया वह आपके प्रश्न का उत्तर था। आप ने देख लिया कि प्रवचन सुनते समय लोग सब कुछ भूल कर भक्ति में डूब जाते हैं। लेकिन माया लोगों को सर्वनाश की ओर ले जाती है। प्रवचन लोगों में शांति और सद्भावना का संदेश देता है मगर दौलत तो विखंडन का रास्ता है।‘ नवाब को अपनी गलती का अहसास हो गया।

👉 अविश्वास और सन्देह

हर किसी पर अविश्वास करने वाले, सब को संदेह और तुच्छता की दृष्टि से देखने वाले व्यक्ति अपने मन में ऐसा सोचते हैं कि हम बहुत बुद्धिमान हैं किसी की बातों में नहीं आते और चौकस रहकर अपनी जरा भी हानि नहीं होने देते पर वस्तुतः यह उनकी भारी भूल है। अविश्वासी को किसी का सच्चा प्रेम नहीं मिल सकता। भावना छिपती नहीं, जब दूसरे को सह मालूम पड़ता है कि यह हमारे प्रति अविश्वास करता है तो वह भी सच्चा प्रेम नहीं कर सकता और न सहानुभूति रखता है। ऐसी प्रकृति के व्यक्ति आमतौर से मित्रविहीन देखे गये हैं। माना कि विश्वास में खतरा है। 

यदि खरे खोटे की परख न करके हर किसी पर विश्वास करने लग जाय तो उसमें ठगे जाने का खतरा भी है। पर साथ ही यह भी निश्चित है कि किसी ने कभी दूसरों को अपना बनाया है तो उसे उस पर पूरा विश्वास अवश्य करना पड़ा है। एक व्यक्ति दूसरे का गुलाम तभी बनता है जब उसमें अपने लिए सच्ची सहानुभूति एवं आस्था अनुभव करता है। दाम्पत्ति जीवन में, भाई-भाइयों में जहाँ भी सच्ची आत्मीयता पाई जायगी वहाँ उसके मूल में विश्वास वफादारी और गहरा आत्म−भाव अवश्य होगा। अविश्वास के वातावरण में एक ऐसी घुटन रहती है कि मनुष्य वहाँ से अलग हटकर ही सन्तोष की साँस ले पाता है। परायों को अपना बनाने और अपनों को पराया बनाने में यह विश्वास एवं अविश्वास ही प्रमुख कारण रहा होता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1962 

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ७९)

बड़ा गहरा है—प्राण व मन का नाता

इस संदर्भ में महर्षि हठयोग में वर्णित प्राणायाम की जटिल प्रक्रियाओं व प्रयोगों में उलझना नहीं चाहते। उनका समूचा आग्रह चित्तशोधन पर है। इसे सुगम बनाया जा सकता है, यदि श्वास को लयबद्ध करने की कोई सुगम-सरल विधि अन्वेषित की जाय। परम पूज्य गुरुदेव द्वारा अन्वेषित व विकसित प्राणाकर्षण प्राणायाम महर्षि के इस सूत्र की बड़ी सुगम व प्रयोगात्मक व्याख्या है। इसमें जटिलता बिल्कुल भी नहीं है, किन्तु प्रभाव व्यापक है। इस प्रक्रिया को बताते हुए गुरुदेव कहते हैं कि प्रातःकाल नित्यकर्म से निवृत्त होकर साधना के लिए किसी शान्तिदायक स्थान में आसन बिछाकर बैठिये, दोनों हाथों को घुटनों पर रखिये, मेरुदण्ड सीधा रहे, नेत्र बन्द कर लीजिये।
    
फेफड़ों में भरी हुई सारी हवा बाहर निकाल दीजिये, अब धीरे-धीरे नासिका द्वारा साँस लेना आरम्भ कीजिये, जितनी अधिक मात्रा में फेफड़े में हवा भर सकें भर लीजिये। अब कुछ देर उसे भीतर रोके रखिये। इसके पश्चात् साँस को धीरे-धीरे नासिका द्वारा बाहर निकालना आरम्भ कीजिये। हवा को जितना अधिक खाली कर सकें-कीजिये। अब कुछ देर साँस को बाहर ही रोक दीजिये अर्थात् बिना साँस के रहिये। इसके बाद पूर्ववत् वायु को खींचना आरम्भ कीजिये। यह एक प्राणाकर्षण प्राणायाम हुआ। परम पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि साँस खींचने को रेचक, निकालने को पूरक और रोके रहने को कुम्भक कहते हैं। कुम्भक के दो भेद हैं-साँस को भीतर रोके रहना-अंतःकुम्भक और खाली करके बिना साँस के रहना-बाह्य कुम्भक कहलाता है। रेचक व पूरक में समय बराबर लगना चाहिए, जबकि कुम्भक में उसका आधा समय ही पर्याप्त है।
    
प्राणायाम की यह प्रक्रिया विचार शुद्धि, भाव शुद्धि व संस्कार शुद्धि के उद्देश्य को पूरा करे, इसके लिए इस प्रयोग के साथ भावों का जुड़ना जरूरी है। पूरक करते समय यह भावना करनी चाहिए कि मैं जन शून्य लोक में अकेला बैठा हूँ और मेरे चारों ओर विद्युत जैसी चैतन्य जीवनी शक्ति का समुद्र लहरें ले रहा है। साँस द्वारा वायु के साथ-साथ प्राण शक्ति को मैं अपने अन्दर खींच रहा हूँ। अन्तःकुम्भक करते समय यह भावना करनी चाहिए कि उस चैतन्य शक्ति को मैं अपने भीतर भर रहा हूँ। समस्त नस-नाड़ियों में अंग-प्रत्यंगों में वह शक्ति स्थिर हो रही है। उसे सोंखकर देह का रोम-रोम चैतन्य, प्रफुल्लित, सतेज व परिपुष्ट हो रहा है। रेचक करते समय भावना करनी चाहिए कि शरीर में संचित मल, रक्त में मिले हुए विष, मन में धँसे हुए विकार साँस छोड़ने के साथ वायु के साथ-साथ बाहर निकाले जा रहे हैं। बाह्य कुम्भक करते समय भावना करनी चाहिए कि अन्दर के दोष बाहर निकालकर भीतर का दरवाजा बन्द कर लिया है, ताकि ये विकार वापस न लौटने पायें। इन भावनाओं के साथ प्राणाकर्षण प्राणायाम करना चाहिए। आरम्भ में पाँच प्राणायाम करें, फिर क्रमशः सुविधानुसार बढ़ाते जायें।
    
ठीक तरह से प्राणाकर्षण करने पर सूर्यचक्र जाग्रत होने लगता है। ऐसा लगता है कि पसलियों के जोड़ व आमाशय के स्थान पर जो गड्ढा है वहाँ सूर्य के समान एक छोटा सा प्रकाश बिन्दु मानव नेत्रों से दीख रहा है। वह गोला आरम्भ में छोटा, थोड़े प्रकाश का और धुँधला मालूम पड़ता है, किन्तु जैसे-जैसे अभ्यास बढ़ने लगता है, वैसे-वैसे यह स्वच्छ बड़ा और प्रकाशवान् होता है। जिनका अभ्यास बढ़ा-चढ़ा है। उन्हें आँख बन्द करते ही अपना सूर्य चक्र साक्षात् सूर्य की तरह तेजपूर्ण दिखाई देने लगता है।
    
प्राणाकर्षण की इस प्रक्रिया से प्राण प्रवाह में निर्मलता आती है। और प्राणों की इस निर्मलता से विचारों की उत्तेजना, उद्वेलन स्वतः ही शान्त हो जाते हैं और अन्ततः संस्कारों के शुद्ध होने की प्रक्रिया चल पड़ती है। इस प्रक्रिया से चित्त स्वस्थ-प्रसन्न होता चला जाता है। यदि विवेक व वैराग्य का सम्बल बना रहे और इससे मिलने वाली अतीन्द्रिय सामर्थ्य व सिद्धियों को दरकिनार किया जा सके, तो अन्ततः समाधि की अनुभूति मिलने में भी देर नहीं लगती।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १३५
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 Revolution

It is an established truth that whoever listened to and heeded the call of the “Budham, Dhamman, Sangham saranam gachchhami” to protest against the then prevalent malpractices. Thousands and thousands forsook everything and followed him. He ushered in a reform through intellectual revolution. A similar miracle was wrought by Gandhiji. One and a half thousand years of slavery and suppression had left the populace emaciated, and it lacked the courage and wherewithal to take on the mighty British Empire.

A small number of satyagrahis were simply no match. But the widespread and deep resentment coalesced into the great freedom struggle. Circumstances started turning favourable, and India became independent. The present age is witnessing a spiritual-intellectual revolution. The divisive  human consciousness bound to be transformed into the unitive cosmic consciousness. Indian culture is on the threshold of becoming world culture. The emergence of a New Era is imminent.

📖 From Akhand Jyoti

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