मंगलवार, 18 मई 2021

👉 दानवीर कर्ण

एक बार की बात है, कि श्री कृष्ण और अर्जुन कहीं जा रहे थे। रास्ते में अर्जुन ने श्री कृष्ण जी, से पूछा कि हे प्रभु! एक जिज्ञासा है, मेरे मन में, यदि आज्ञा हो तो पूछूँ? श्री कृष्ण जी ने कहा, पूछो अर्जुन। तब अर्जुन ने कहा कि मुझे आज तक यह बात समझ नहीं आई है। कि दान तो मै भी बहुत करता हूँ, परन्तु सभी लोग कर्ण को ही सब से बड़ा दानी क्यों कहते हैं?

यह प्रश्न सुन कर श्री कृष्ण जी मुस्कुराये और बोले कि आज मैं तुम्हारी यह जिज्ञासा अवश्य शान्त करूंगा। श्री कृष्ण जी ने पास की ही दो स्थित पहाड़ियों को सोने का बना दिया। इस के पश्चात् वह अर्जुन से बोले कि "हे अर्जुन" इन दोनों सोने की पहाड़ियों को तुम आस-पास के गाँव वालों में बाँट दो।

अर्जुन प्रभु से आज्ञा ले कर तुरन्त ही यह काम करने के लिए चल दिया। उस ने सभी गाँव वालों को बुलाया और उनसे कहा कि वह लोग पंक्ति बना लें। अब मैं आपको सोना बाटूंगा और सोना बांटना आरम्भ कर दिया।

गाँव वालों ने अर्जुन की बहुत प्रशंसा की। अर्जुन सोने को पहाड़ी में से तोड़ते गए और गाँव वालों को देते गए। लगातार दो दिन और दो रातों तक अर्जुन सोना बाँटते रहे।

उन मे अब तक अहंकार आ चुका था। गाँव के लोग वापस आ कर दोबारा से लाईन में लगने लगे थे। इतने समय पश्चात अर्जुन बहुत थक चुके थे। जिन सोने की पहाड़ियों से अर्जुन सोना तोड़ रहे थे, उन दोनों पहाड़ियों के आकार में कुछ भी कमी नहीं आई थी।

उन्होंने श्री कृष्ण जी से कहा कि अब मुझ से यह काम और न हो सकेगा। मुझे थोड़ा विश्राम चाहिए, प्रभु ने कहा कि ठीक है! तुम अब विश्राम करो और उन्होंने कर्ण को बुला लिया।

उन्होंने कर्ण से कहा कि इन दोनों पहाड़ियों का सोना इन गांव वालों में बाँट दो। कर्ण तुरन्त सोना बाँटने चल दिये। उन्होंने गाँव वालों को बुलाया और उन से कहा यह सोना आप लोगों का है, जिस को जितना सोना चाहिए वह यहां से ले जाये। ऐसा कह कर कर्ण वहां से चले गए।

अर्जुन बोले कि ऐसा विचार मेरे मन में क्यों नही आया?

इस पर श्री कृष्ण जी ने उत्तर दिया, कि तुम्हे सोने से मोह हो गया था। तुम स्वयं यह निर्णय कर रहे थे, कि किस गाँव वाले की कितनी आवश्यकता है। उतना ही सोना तुम पहाड़ी में से खोद कर उन्हे दे रहे थे।

तुम में दाता होने का भाव आ गया था, दूसरी ओर कर्ण ने ऐसा नहीं किया। वह सारा सोना गाँव वालों को देकर वहां से चले गए। वह नहीं चाहते थे कि उनके सामने कोई उन की जय जय-कार करे या प्रशंसा करे। उनके पीठ पीछे भी लोग क्या कहते हैं, उस से उनको कोई अन्तर नहीं पड़ता।

यह उस व्यक्ति की निशानी है, जिसे आत्मज्ञान प्राप्त हो चुका है। इस प्रकार श्री कृष्ण ने अर्जुन के प्रश्न का उत्तर दिया, अर्जुन को भी उसके प्रश्न का उत्तर मिल चुका था।

दान देने के बदले में धन्यवाद या बधाई की इच्छा करना  उपहार नहीं सौदा कहलाता है।

यदि हम किसी को कुछ दान या सहयोग करना चाहते हैं। तो हमे यह कार्य बिना किसी अपेक्षा या आशा के करना चाहिए। ताकि यह हमारा सत्कर्म हो, ना कि हमारा अहंकार।

बड़ा दानी वही है जो बिना किसी इच्छा के दान देता है और जब वह दान देता है। तो यह नहीं चाहता, कि कोई मेरी जय जयकार करें। वह तो केवल दान देता है, बदले में उसे और कुछ नहीं चाहिए होता। जो दान देने में ऐसा भाव रखता है, वही असली दान देने वाला कहलाता है।

👉 भक्तिगाथा (भाग १९)

विकारों से मुक्त, भक्तों के आदर्श शुकदेव
    
महर्षि पुलह के आग्रह से देवर्षि भी उत्साहित हुए और कहने लगे कि ‘‘शुकदेव तो गोलोक की अधिष्ठातृशक्ति पराम्बा भगवती श्रीराधा के लीला शुक थे। इसे प्रभु की आह्लादिनी शक्ति मां राधा की भक्तिलीला कहें कि उन्होंने अपने प्रिय शुक को धराधाम भेज दिया। धराधाम में शुकदेव शुक पक्षी के रूप में पर्याप्त समय तक विचरण करते रहे और अपनी इस विचरण यात्रा में वह जा पहुँचे अमरनाथ, जहाँ भगवान् भोलेनाथ, पार्वती को अमर कथा सुना रहे थे। जिज्ञासा पर्वततनया पार्वती की ही थी। उन्होंने पूछा था कि देवाधिदेव आप अजर अमर हैं- जबकि मुझे जन्म लेना और शरीर छोड़ना पड़ता है। इस प्रश्न पर भगवान् भोलेनाथ बोले- प्रिये! मैं आत्मा की अमरता का तत्त्व जानता हूँ। यदि तुम भी यह अमृतमय अमरकथा जान लो तो तुम्हें भी मेरी स्थिति मिल जाएगी। पार्वती के हाँ कहने पर कथा प्रारम्भ हो गयी। परन्तु लीलामयी की लीला- उन्हें बीच में ही निद्रा आ गयी और यह सम्पूर्ण कथा-लीला शुक सुनते रहे।
    
कथा की समाप्ति पर जब भोलेबाबा की भावसमाधि टूटी तो उन्होंने पार्वती को सोते देखा। तब यह कथा किसने सुनी? इस सवाल के उत्तर में उन्होंने शुकदेव को निहारा। पहले तो भोलेनाथ कुपित हुए पर जब शुकदेव जी अपना पक्षी शरीर त्यागकर चेतनअंश से महर्षि व्यास की पत्नी वाटिका के गर्भ में प्रवेश कर गए तो कृपालु भोलेनाथ ने उन्हें अनेकों वरदान दे डाले। गर्भकाल में शुकदेव को भगवान श्रीकृष्ण की कृपा मिली और समयानुसार उनका अवतरण हुआ।
    
आत्मा के अमृततत्त्व के ज्ञाता शुकदेव सदा से नित्य-शुद्ध-बुद्ध एवं मुक्त थे। उनमें किसी भी तरह का कोई कलुष न था। सहज ही उनका चित्त निरोध अवस्था में प्रतिष्ठित था। न्यास उनके स्वभाव में था। आसक्ति उन्हें छू भी नहीं गयी। कर्मों का कीचड़ भला उनमें कैसे लिपटता। उनमें तो भगवान् की भक्ति सहज ही व्याप्त थी। अपने भक्ति संवेदनों से संवेदित होकर शुकदेव वन की ओर तप हेतु चल पड़े। महर्षि व्यास अपने पुत्र को लौकिक एवं वैदिक कर्मों के लिए शिक्षित करना चाहते थे। सो वे भी उनके पीछे-पीछे चल पड़े। पिता-पुत्र में बड़ा रोचक संवाद हुआ। महर्षि व्यास ने उन्हें ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास का आश्रम धर्म समझाने की चेष्टा की।
    
नित्यज्ञानी शुकदेव पिता के इस कथन पर बोले- हे पिता यदि स्त्री

त्याग का व्रत लेने वाले ब्रह्मचारी मुक्त हो सकते तो सृष्टि के सभी नपुंसक मुक्त हो जाते, क्योंकि वे सभी स्त्री त्यागी हैं। यदि मुक्ति गृहस्थी करने वाले- सन्तान को जन्म देने वालों को मिलती तो पेट-प्रजनन में जुटे सभी मनुष्य एवं पशु मुक्त होते। और यदि मुक्ति वन में रहने वाले वानप्रस्थों को मिलती तो वन में विचरण करने वाले वन पशु नित्य मुक्त होते। यदि संन्यास लेने और भिक्षा मांगने वाले मुक्त हो पाते तो संसार के समस्त भिक्षुक मुक्त होते। पर ऐसा नहीं है, मुक्ति तो ऋत् के ज्ञान  में है- ‘‘ऋतम् ज्ञानेन मुक्ति’’।
    
यह चर्चा हो रही थी और शुकदेव आगे बढ़ते जा रहे थे। एक स्थान पर पर्वतीय नदी में कुछ नवयुवतियाँ, स्वर्ग की अप्सराएँ स्नान कर रही थीं। शुकदेव उनके पास से निकले-परन्तु उनमें कोई परिवर्तन न आया। वे यथावत स्नान करती रहीं। परन्तु जब महर्षि व्यास उधर से निकले तो उन्होंने अपने वस्त्र सम्हाले। उनके मुख पर लाज की रेखाएँ चमक उठीं। इस अनोखे प्रसंग पर महर्षि व्यास चकित हुए और उनसे बोले कि यह कैसी विचित्र बात है कि मुझ वृद्ध को देखकर तो तुम्हें लाज आती है परन्तु मेरे युवा पुत्र को देखकर तुम तनिक भी लज्जित नहीं हुईं। वैसे ही निर्वस्त्र स्नान करती रहीं।
    
महर्षि के इस कथन के उत्तर में इन देवस्त्रियों ने  कहा- महर्षि आपके पुत्र आयु से युवा हैं- परन्तु उनका चित्त सहज निरुद्ध अवस्था में है। वे लोक और वेद का न्यास कर चुके हैं। उनकी भावना में भावमय भगवान् प्रतिष्ठित हैं। वे साक्षात् भक्ति हैं। जबकि आप के साथ ऐसा नहीं है। आप में तप है, ज्ञान है परन्तु भक्ति की सम्पूर्ण प्रतिष्ठा नहीं हो पायी है। आप का चित्त मोह से चंचल है। उसे निरोध अवस्था में प्रतिष्ठित करने के लिए अभी आपको बहुत कुछ करना पड़ेगा। देवस्त्रियों की इस दो टूक बात से महर्षि को चेत हुआ। उन्हें शुकदेव की उच्चतम अवस्था का भान हुआ।’’ इस कथा को सुनाते हुए देवर्षि बोले- ‘‘हे महर्षियों, शुकदेव का जीवन सभी भक्तों के लिए आदर्श है। उनकी भावनाएँ भगवान् में ही विहार करती है।’’ महर्षि पुलह ने सिर हिलाकर देवर्षि का अनुमोदन किया। भक्तिगाथा की अगली कड़ी की सभी को प्रतीक्षा थी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ४२

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग १९)

👉 समस्त दुखों का कारण अज्ञान

अपनी आंखें सघन रात्रि में घोर अन्धकार का अनुभव करती हैं, कुछ भी देख नहीं सकतीं। पर उसी स्थिति में उल्लू, चमगादड़, बिल्ली, चीता आदि प्राणी भली प्रकार से देखते हैं। विज्ञान कहता है कि जगत में प्रकाश सर्वदा और सर्वत्र विद्यमान है। अन्धकार नाम की कोई चीज इस दुनिया में नहीं है। मनुष्य की आंखें एक सीमा तक के ही प्रकाश कम्पनों को देख पाती हैं जब प्रकाश की गति मनुष्य की नेत्र शक्ति की सीमा से कम होती है तो उसे अन्धकार प्रतीत होता है।

आकाश में अनेक रंगों के भिन्न-भिन्न गति वाले प्रकाश कम्पन चलते रहते हैं। मनुष्य के नेत्र उनमें से केवल सात रंगों की स्वल्प जितनी प्रकाश तरंगों को ही अनुभव कर पाते हैं और शेष को देखने में असमर्थ रहते हैं। पीलिया रोग हो जाने पर हर वस्तु पीली दीखती है। ‘रैटिनाइटिस पिग मैन्टोजा’ रोग हो जाने पर एक सीधी रेखा धब्बे या बिन्दुओं के रूप में दिखाई देती है। आकाश को ही लीजिये वह हमें नीली चादर वाला गोलाकार पर्दे जैसा लगा दीखता है और लगता है उसमें समतल तारे टके हुए हैं। पर क्या वह ज्ञान सही है? क्या आकाश की सीमा उतनी ही है जितनी आंखों से दीखता है? क्या तारे उतने ही छोटे हैं जितने कि आंखों को प्रतीत होते हैं? क्या वे सब समतल बिछे हैं? क्या आकाश का रंग वस्तुतः नीला है? इन प्रश्नों का उत्तर खगोल शास्त्र के अनुसार नहीं हो सकता है। पर इन आंखों को क्या कहा जाय जो हमें यथार्थता से सर्वत्र भिन्न प्रकार की जानकारी देती हैं और भ्रम में डालती हैं।

यही हाल नासिका का है। हमें कितनी ही वस्तुएं गन्ध हीन लगती हैं। पर वस्तुतः उनमें गन्ध रहती है और उनके स्तर अगणित प्रकार के होते हैं। कुत्तों की नाक इस गन्ध स्तर की भिन्नता को समझती है और बिछुड़ जाने पर अपने घर तक उसे पहुंचा देती है। प्रशिक्षित कुत्ते इसी गन्ध के आधार पर चोरी हत्या आदि अपराध करने वालों को ढूंढ़ निकालते हैं। यही बात सुगन्ध दुर्गन्ध के भेद भाव से सम्बन्धित है। प्याज लहसुन आदि की गन्ध कितनों को बड़ी अरुचिकर लगती है, भोजन में थोड़ी सी भी पड़ जाने से मितली आती हैं पर कितनों को इनके बिना भोजन में जायका ही नहीं आता। यही बात सिगरेट शराब आदि की गन्ध के बारे में भी है। इन परिस्थितियों में नासिका के आधार पर यथार्थता का निर्णय कैसे किया जाय?

जिह्वा स्वादों की जो अनुभूति कराती है वह भी वस्तुस्थिति नहीं है। खाद्य पदार्थ के साथ मुख के स्राव मिलकर एक विशेष प्रकार का सम्मिश्रण बनाते हैं उसी को मस्तिष्क स्वाद के रूप में अनुभव करता है। यदि वही वास्तविकता होती तो नीम के पत्ते मनुष्य की तरह ऊंट को भी कड़ुए लगते और वह भी उन्हें न खाता। ऊंट को नीम की पत्तियों का स्वाद मनुष्य की जिह्वा अनुभूतियों से सर्वथा भिन्न प्रकार का होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि पदार्थों का वास्तविक स्वाद जीभ पकड़ नहीं पाती। भिन्न-भिन्न प्राणी अपनी जीभ बनावट के अनुसार उसका स्वाद अनुभव करते हैं। कच्चा मांस मनुष्य के लिए अरुचिकर होता है यह इसी को मांसभोजी पशु बड़ी रुचि पूर्वक खाते हैं। मलीन वस्तुओं को मनुष्य की जीभ सहज स्वीकार नहीं कर सकती पर शूकर को उसमें प्रिय स्वाद की अनुभूति होती है। मुंह में छाले हो जाने पर बुखार या अपच रहने पर अथवा ‘गुड़ मार बूटी’ खाकर रसना मूर्छित कर देने पर वस्तु के स्वाद का अनुभव नहीं होता। इस अधूरी जानकारी वाली जिह्वा इन्द्रिय को सत्य की साक्षी के रूप में कैसे प्रामाणिक माना जाय?

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ २८
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी*

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