शनिवार, 11 फ़रवरी 2017
👉 गुरु चिन्तन से मिली कारागार से मुक्ति
🔴 यह घटना तुलसीपुर पुरानी बाजार जिला बलरामपुर उ.प्र. की है। श्री घनश्याम वर्मा दो भाई थे। बड़े भाई सीताराम जी थे, जिनके बच्चे नहीं थे। घनश्याम वर्मा जी के चार बच्चे सन्तोष, अशोक, रवि टिंकू एवं एक बच्ची थी। सीताराम जी के बच्चे न होने के कारण सम्पत्ति को लेकर भारी विवाद था। परिवार के अलावा अन्य लोग भी उनकी सम्पत्ति को हड़पना चाहते थे। दोनों परिवार में बँटवारा था। अलग बनाते खाते थे। मेरा इस परिवार से परिचय कुछ ही दिन पूर्व हुआ था। वर्मा जी के यहाँ बच्चे का जन्म दिवस संस्कार था। यज्ञ के माध्यम से संस्कार सम्पन्न हुआ। संस्कार के माध्यम से मैंने गुरुदेव एवं मिशन की जानकारी दी। उस समय मथुरा से एक ग्रन्थ प्रकाशित हुआ था ‘‘ऋषि चिन्तन के सान्निध्य में’’। इस ग्रन्थ की स्थापना घर- घर में कराई जा रही थी। मैंने इस ग्रन्थ का एक पृष्ठ पढ़कर सुनाया, जिससे प्रभावित होकर उन्होंने भी अपने घर में ग्रन्थ को स्थापित किया। इसके बाद नियमित उपासना एवं ‘‘ऋषि चिन्तन के सान्निध्य में’’ ग्रन्थ का नियमित स्वाध्याय का क्रम चल पड़ा।
🔵 घटना 2003- 04 की है। सीताराम जी किसी कार्यवश बाहर गए हुए थे। जाने का प्रयोजन किसी को मालूम नहीं था। वे कब जाते, कब आते इस विषय में भाई के परिवार में किसी को कुछ मालूम नहीं रहता था; क्योंकि दोनों परिवार के निकास द्वार अलग- अलग दिशा में थे। एक दिन पड़ोस के एक व्यक्ति ने घनश्याम जी से सीताराम जी के बारे में पूछा कि कहाँ है, तो घनश्याम जी ने अनभिज्ञता जताई। पड़ोस के व्यक्ति ने कहा कि कई दिन से दिखाई नहीं पड़ रहे हैं और घर में ताला भी नहीं लगा है। लोगों ने घर के आस- पास जाकर देखा घर से अजीब- सी दुर्गन्ध आ रही थी। उन्होंने घनश्याम वर्मा के घर में यह बात बताई। घनश्याम वर्मा जी का बड़ा लड़का अन्य कुछ व्यक्तियों को साथ लेकर घर में घुसा। घर में सभी जगह देखा- कुछ नहीं मिला, जिससे दुर्गन्ध का कारण मालूम हो सके। काफी देर बाद देखा कि बाथरूम के दरवाजे में ताला लगा था। ताला तोड़ कर देखा तो सीताराम जी की लाश पड़ी थी। कई दिनों से पड़े रहने के कारण लाश से दुर्गन्ध आ रही थी। तुरन्त पुलिस स्टेशन को सूचित किया। यह घटना हवा की तरह चारों तरफ फैल चुकी थी। काफी भीड़ इकट्ठी हो गयी थी। पुलिस आई। सभी लोगों के सामने लाश को बाहर निकाला गया। लाश को पुलिस ने पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया। पुलिस छानबीन करने लगी।
🔴 घटना के दो तीन दिन बाद पुलिस आई और घनश्याम वर्मा जी के दो पुत्र सन्तोष और अशोक को पकड़ ले गई। उनके दोनों बच्चे एक एम.एससी. दूसरा बी.एससी कर रहा था। साथ ही वे सिविल परीक्षा की तैयारी भी कर रहे थे। काफी छान- बीन हुई। जाँच के परिणाम स्वरूप अदालत ने दोनों बच्चों को दोषी मानकर गोण्डा भेजा। उसके पश्चात् आदर्श कारागार लखनऊ भेज दिया गया। इतनी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद दोनों बच्चों की श्रद्धा कम नहीं हुई, बल्कि उस समय को वे स्वाध्याय एवं जप में लगाते। लेख भी लिखते और हमेशा प्रसन्न रहते। इस घटना को ईश्वरीय इच्छा और परीक्षा की घड़ी भर मानकर चलते रहे। कहते हैं कि जो सच्चा आध्यात्मिक होता है वह सुख दुःख से परे होता है। उसका दुःख तपस्या के समान होता है। ऐसा ही कुछ इन बच्चों के साथ हो रहा था।
🔵 एक दिन जेलर राउण्ड लगा रहे थे। सभी जगह चेक करने के बाद वे सन्तोष के कमरे में पहुँचे तो देखा एक युवक बहुत शान्त भाव में बैठा कुछ अध्ययन कर रहा है। जेलर मन ही मन सोचने लगे कि जेल में कैदी हमेशा परेशान, उद्विग्न और चिंतित रहते हैं। कुछ तो ऐसे विकराल होते हैं कि उनका जीवन कभी सुधरता नहीं है। सामान्य कैदियों को भी वे अपने जैसा बना लेते हैं। उन्होंने अपने चिन्तन को विराम दिया और अनायास ही सन्तोष के पास पहुँच गए। जेलर ने पूछा- क्या हाल है? बच्चे ने सहज भाव से उत्तर दिया सब कुछ गुरुदेव की कृपा से ठीक है। उनकी कृपा से स्वाध्याय एवं ध्यान का अच्छा अवसर मिला है, वही कर रहा हूँ। बच्चे के विश्वास भरे शब्दों को सुनकर जेलर दंग रह गए। सोचा लोग अपनी परेशानी बताते हैं, मैं उनकी परेशानी दूर करता हूँ। इसे तो कोई परेशानी ही नहीं है। वे सोच में पड़ गए। उत्सुकता बढ़ी। उन्होंने पूछा कि कौन हैं तुम्हारे गुरुदेव? और यह स्वाध्याय और ध्यान कैसा? उस बच्चे ने ‘ऋषि चिन्तन के सान्निध्य में’ पुस्तक का हवाला दिया और पुस्तक का एक पृष्ठ पढ़कर सुनाया- किसी परिस्थिति में विचलित न हों (पृष्ठ सं. ६७)। सुनकर जेलर बहुत प्रभावित हुए और उस पुस्तक के लिए अनुरोध किया कि कुछ दिन के लिए मुझे दे दो। बच्चे ने कहा कि यह पुस्तक मेरे गुरुजी ने दी है, इसे नहीं दे सकता। परन्तु जब मेरे पिताजी मुझसे मिलने आएँगे तो दूसरी पुस्तक आपके लिए मँगवा दूँगा। इस घटना से जेलर को उन बच्चों से आत्मिक लगाव हो गया।
🔴 जेलर प्रतिदिन दोनों बच्चों से मिलने आते। हाल−चाल पूछते और गुरुदेव के चिन्तन को सुनकर जाते, जो उस दिन का चिन्तन होता। अन्ततः परिणाम यह हुआ कि जेलर ने स्वयं सिफारिश कर बच्चों को जेल से रिहा करवा दिया। जेलर बच्चों के गुणों से परिचित हो चुके थे उन्हें विश्वास हो चुका था कि ये बच्चे निर्दोष हैं। बच्चों ने जेलर को गुरुदेव का वह अनुपम ग्रन्थ भेंट किया। जेलर ने भी गुरुदेव के साहित्य से प्रभावित होकर गुरुसत्ता से जुड़ने का सुयोग प्राप्त किया। इस प्रकार घनश्याम जी के दोनों बच्चे गुरुकृपा से अपने जीवन को संस्कारित करने के साथ औरों के लिए भी प्रेरणास्रोत बन गए। गुरुकृपा की शक्ति की पहचान बहुत ही सहज ढंग से उनने कई लोगों को करा दी।
🌹 चन्द्रमणि शुक्ला दे.सं.वि.वि., हरिद्वार (उत्तराखण्ड)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
🔵 घटना 2003- 04 की है। सीताराम जी किसी कार्यवश बाहर गए हुए थे। जाने का प्रयोजन किसी को मालूम नहीं था। वे कब जाते, कब आते इस विषय में भाई के परिवार में किसी को कुछ मालूम नहीं रहता था; क्योंकि दोनों परिवार के निकास द्वार अलग- अलग दिशा में थे। एक दिन पड़ोस के एक व्यक्ति ने घनश्याम जी से सीताराम जी के बारे में पूछा कि कहाँ है, तो घनश्याम जी ने अनभिज्ञता जताई। पड़ोस के व्यक्ति ने कहा कि कई दिन से दिखाई नहीं पड़ रहे हैं और घर में ताला भी नहीं लगा है। लोगों ने घर के आस- पास जाकर देखा घर से अजीब- सी दुर्गन्ध आ रही थी। उन्होंने घनश्याम वर्मा के घर में यह बात बताई। घनश्याम वर्मा जी का बड़ा लड़का अन्य कुछ व्यक्तियों को साथ लेकर घर में घुसा। घर में सभी जगह देखा- कुछ नहीं मिला, जिससे दुर्गन्ध का कारण मालूम हो सके। काफी देर बाद देखा कि बाथरूम के दरवाजे में ताला लगा था। ताला तोड़ कर देखा तो सीताराम जी की लाश पड़ी थी। कई दिनों से पड़े रहने के कारण लाश से दुर्गन्ध आ रही थी। तुरन्त पुलिस स्टेशन को सूचित किया। यह घटना हवा की तरह चारों तरफ फैल चुकी थी। काफी भीड़ इकट्ठी हो गयी थी। पुलिस आई। सभी लोगों के सामने लाश को बाहर निकाला गया। लाश को पुलिस ने पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया। पुलिस छानबीन करने लगी।
🔴 घटना के दो तीन दिन बाद पुलिस आई और घनश्याम वर्मा जी के दो पुत्र सन्तोष और अशोक को पकड़ ले गई। उनके दोनों बच्चे एक एम.एससी. दूसरा बी.एससी कर रहा था। साथ ही वे सिविल परीक्षा की तैयारी भी कर रहे थे। काफी छान- बीन हुई। जाँच के परिणाम स्वरूप अदालत ने दोनों बच्चों को दोषी मानकर गोण्डा भेजा। उसके पश्चात् आदर्श कारागार लखनऊ भेज दिया गया। इतनी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद दोनों बच्चों की श्रद्धा कम नहीं हुई, बल्कि उस समय को वे स्वाध्याय एवं जप में लगाते। लेख भी लिखते और हमेशा प्रसन्न रहते। इस घटना को ईश्वरीय इच्छा और परीक्षा की घड़ी भर मानकर चलते रहे। कहते हैं कि जो सच्चा आध्यात्मिक होता है वह सुख दुःख से परे होता है। उसका दुःख तपस्या के समान होता है। ऐसा ही कुछ इन बच्चों के साथ हो रहा था।
🔵 एक दिन जेलर राउण्ड लगा रहे थे। सभी जगह चेक करने के बाद वे सन्तोष के कमरे में पहुँचे तो देखा एक युवक बहुत शान्त भाव में बैठा कुछ अध्ययन कर रहा है। जेलर मन ही मन सोचने लगे कि जेल में कैदी हमेशा परेशान, उद्विग्न और चिंतित रहते हैं। कुछ तो ऐसे विकराल होते हैं कि उनका जीवन कभी सुधरता नहीं है। सामान्य कैदियों को भी वे अपने जैसा बना लेते हैं। उन्होंने अपने चिन्तन को विराम दिया और अनायास ही सन्तोष के पास पहुँच गए। जेलर ने पूछा- क्या हाल है? बच्चे ने सहज भाव से उत्तर दिया सब कुछ गुरुदेव की कृपा से ठीक है। उनकी कृपा से स्वाध्याय एवं ध्यान का अच्छा अवसर मिला है, वही कर रहा हूँ। बच्चे के विश्वास भरे शब्दों को सुनकर जेलर दंग रह गए। सोचा लोग अपनी परेशानी बताते हैं, मैं उनकी परेशानी दूर करता हूँ। इसे तो कोई परेशानी ही नहीं है। वे सोच में पड़ गए। उत्सुकता बढ़ी। उन्होंने पूछा कि कौन हैं तुम्हारे गुरुदेव? और यह स्वाध्याय और ध्यान कैसा? उस बच्चे ने ‘ऋषि चिन्तन के सान्निध्य में’ पुस्तक का हवाला दिया और पुस्तक का एक पृष्ठ पढ़कर सुनाया- किसी परिस्थिति में विचलित न हों (पृष्ठ सं. ६७)। सुनकर जेलर बहुत प्रभावित हुए और उस पुस्तक के लिए अनुरोध किया कि कुछ दिन के लिए मुझे दे दो। बच्चे ने कहा कि यह पुस्तक मेरे गुरुजी ने दी है, इसे नहीं दे सकता। परन्तु जब मेरे पिताजी मुझसे मिलने आएँगे तो दूसरी पुस्तक आपके लिए मँगवा दूँगा। इस घटना से जेलर को उन बच्चों से आत्मिक लगाव हो गया।
🔴 जेलर प्रतिदिन दोनों बच्चों से मिलने आते। हाल−चाल पूछते और गुरुदेव के चिन्तन को सुनकर जाते, जो उस दिन का चिन्तन होता। अन्ततः परिणाम यह हुआ कि जेलर ने स्वयं सिफारिश कर बच्चों को जेल से रिहा करवा दिया। जेलर बच्चों के गुणों से परिचित हो चुके थे उन्हें विश्वास हो चुका था कि ये बच्चे निर्दोष हैं। बच्चों ने जेलर को गुरुदेव का वह अनुपम ग्रन्थ भेंट किया। जेलर ने भी गुरुदेव के साहित्य से प्रभावित होकर गुरुसत्ता से जुड़ने का सुयोग प्राप्त किया। इस प्रकार घनश्याम जी के दोनों बच्चे गुरुकृपा से अपने जीवन को संस्कारित करने के साथ औरों के लिए भी प्रेरणास्रोत बन गए। गुरुकृपा की शक्ति की पहचान बहुत ही सहज ढंग से उनने कई लोगों को करा दी।
🌹 चन्द्रमणि शुक्ला दे.सं.वि.वि., हरिद्वार (उत्तराखण्ड)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
👉 संकल्प तोड़ना ठीक बात नहीं
🔴 कांग्रेस के इतिहास में शोलापुर कांड लगभग जलियाँ वाला कांड जैसा ही था। वहाँ मार्शल ला लगा दिया गया था। देश भर से वालंटियर वहाँ जाते थे और गोलियां की बौछार द्वारा चने की तरह भून दिये जाते थे।
🔵 लालबहादुर शास्त्री ने भी अपना नाम वालंटियरों में भेज दिया। यह खबर टंडन जी को लगी तो उन्हें शास्त्रीजी के जीवनरक्षा की चिंता हुई। उन्होंने शास्त्रीजी की माता जी को खबर भेजी किसी तरह शास्त्रीजी को वहाँ जाने से तुम्हीं रोको वह और किसी की बात मानने वाले नहीं।''
🔴 भारतीय माताओं का वात्सल्य और मोह अन्यतम कहा जा सक्ता है। विशेषकर ऐसी स्थिति में जबकि जीवन-मरण की समस्या प्रस्तुत हुई हो उनका मोह उग्र होना स्वाभाविक ही कहा जा सकता है, वे हर संभव प्रयास करती हैं कि बच्चा रूक जाए, अमुक कार्य न करे, जिससे कोई हानि हो या जीवन को खतरा उत्पत्र हो।
🔵 शास्त्री जी की माता जी ग्रामीण जीवन में पली थीं। यह आशा थी कि वे इस समाचार से व्याकुल हो उठेंगी और शास्त्रीजी को शोलापुर न जाने देंगी।
🔴 पर हुआ कुछ दूसरा ही। जैसे ही उनके पास यह खबर पहुँची, वह रोष में भरकर बोलीं- मेरे बच्चे ने जो संकल्प लिया है उसे पूरा करना ही चाहिए। मैं उसे रोक नहीं सकती। बच्चे का शहीद होना सौभाग्य मानूँगी, पर उसे कर्तव्य से गिरते सहन नहीं कर सकती। प्रतिज्ञाऐं किन्हीं महत्वपूर्ण कार्यों की पूर्ति के लिये की जाती हैं, उन्हें निभाना मनुष्य का परम धर्म है। जो उसकी अवहेलना करता है उसकी आत्मा कमजार होती है। मेरा बच्चा कमजोर आत्मा वाला कायर और कर्तव्यद्युत कहलाए, यह हमारी शान के प्रतिकूल है। मैं उसे सहर्ष शोलापुर जाने की आज्ञा देती हूँ।
🔵 धर्म और आदर्शों की रक्षा ऐसी ही माताओं से होती है, जो बेटे के स्थूल शरीर की अपेक्षा उसके गुणों से मुहब्बत रखती हैं, जिन्हें चाम प्यारा नहीं होता, आत्माभिमान प्यारा होता है। माता जी की इस दृढ मनस्विता को ही श्रेय दिया जा सकता है, जो सामान्य परिस्थितियों से बढकर शास्त्री जी भारतीय इतिहास आकाश में उज्ज्वल नक्षत्र की तरह चमके। कर्तव्यपालन की अडिगता धैर्य, निर्भीकता और संकल्प-ज्ञयता के भाव उनकी माता जी के ही देन थे।
🔴 यह आदर्श हर भारतीय माता का आदर्श होना चाहिए। बच्चों के आत्म-विकास में चरित्र और गुणों का स्थान सर्वोपरि है, यदि बच्चे को ऐसी किसी कसौटी से गुजरना पडे़ तो माताओं को उनके गुण-गौरव को ही प्रोत्साहन देना चाहिए, भले ही भौतिक दृष्टि से हानि ही क्यों न हो?
🔵 शास्त्रीजी रोक दिये गये होते तो उनकी आत्मा आत्महीनता और प्रायश्चित के बोझ से दब गई होती। दबी हुई आत्माएँ तो सच्ची और न्याय की बात भी स्पष्ट नहीं कह पाती देश और समाज को राह दिखाना उन बेचारों के बूते कहाँ? जो प्रतिज्ञाएँ करते है और मरकर भी उन्हें पूरा करने का प्रयत्न करते है, एसे दृढ स्वभाव के व्यक्ति आगे चलकर कुछ बडे काम कर पाते है।
🔴 शास्त्रीजी शोलापुर गये। उन्होंने मृत्यु की परवाह नहीं की। जेल चले गए यातनाएँ सहीं, पर उन्होंने की हुई प्रतिज्ञाओं से कभी पीछे कदम न हटाया। कर्तव्यपालन की इस दृढता ने एक छोटे-से आदमी को बडा बना दिया। साधारण ग्रामीण को अंतराष्ट्रीय ख्याति का प्रधानमंत्री बना दिया।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 23, 24
🔵 लालबहादुर शास्त्री ने भी अपना नाम वालंटियरों में भेज दिया। यह खबर टंडन जी को लगी तो उन्हें शास्त्रीजी के जीवनरक्षा की चिंता हुई। उन्होंने शास्त्रीजी की माता जी को खबर भेजी किसी तरह शास्त्रीजी को वहाँ जाने से तुम्हीं रोको वह और किसी की बात मानने वाले नहीं।''
🔴 भारतीय माताओं का वात्सल्य और मोह अन्यतम कहा जा सक्ता है। विशेषकर ऐसी स्थिति में जबकि जीवन-मरण की समस्या प्रस्तुत हुई हो उनका मोह उग्र होना स्वाभाविक ही कहा जा सकता है, वे हर संभव प्रयास करती हैं कि बच्चा रूक जाए, अमुक कार्य न करे, जिससे कोई हानि हो या जीवन को खतरा उत्पत्र हो।
🔵 शास्त्री जी की माता जी ग्रामीण जीवन में पली थीं। यह आशा थी कि वे इस समाचार से व्याकुल हो उठेंगी और शास्त्रीजी को शोलापुर न जाने देंगी।
🔴 पर हुआ कुछ दूसरा ही। जैसे ही उनके पास यह खबर पहुँची, वह रोष में भरकर बोलीं- मेरे बच्चे ने जो संकल्प लिया है उसे पूरा करना ही चाहिए। मैं उसे रोक नहीं सकती। बच्चे का शहीद होना सौभाग्य मानूँगी, पर उसे कर्तव्य से गिरते सहन नहीं कर सकती। प्रतिज्ञाऐं किन्हीं महत्वपूर्ण कार्यों की पूर्ति के लिये की जाती हैं, उन्हें निभाना मनुष्य का परम धर्म है। जो उसकी अवहेलना करता है उसकी आत्मा कमजार होती है। मेरा बच्चा कमजोर आत्मा वाला कायर और कर्तव्यद्युत कहलाए, यह हमारी शान के प्रतिकूल है। मैं उसे सहर्ष शोलापुर जाने की आज्ञा देती हूँ।
🔵 धर्म और आदर्शों की रक्षा ऐसी ही माताओं से होती है, जो बेटे के स्थूल शरीर की अपेक्षा उसके गुणों से मुहब्बत रखती हैं, जिन्हें चाम प्यारा नहीं होता, आत्माभिमान प्यारा होता है। माता जी की इस दृढ मनस्विता को ही श्रेय दिया जा सकता है, जो सामान्य परिस्थितियों से बढकर शास्त्री जी भारतीय इतिहास आकाश में उज्ज्वल नक्षत्र की तरह चमके। कर्तव्यपालन की अडिगता धैर्य, निर्भीकता और संकल्प-ज्ञयता के भाव उनकी माता जी के ही देन थे।
🔴 यह आदर्श हर भारतीय माता का आदर्श होना चाहिए। बच्चों के आत्म-विकास में चरित्र और गुणों का स्थान सर्वोपरि है, यदि बच्चे को ऐसी किसी कसौटी से गुजरना पडे़ तो माताओं को उनके गुण-गौरव को ही प्रोत्साहन देना चाहिए, भले ही भौतिक दृष्टि से हानि ही क्यों न हो?
🔵 शास्त्रीजी रोक दिये गये होते तो उनकी आत्मा आत्महीनता और प्रायश्चित के बोझ से दब गई होती। दबी हुई आत्माएँ तो सच्ची और न्याय की बात भी स्पष्ट नहीं कह पाती देश और समाज को राह दिखाना उन बेचारों के बूते कहाँ? जो प्रतिज्ञाएँ करते है और मरकर भी उन्हें पूरा करने का प्रयत्न करते है, एसे दृढ स्वभाव के व्यक्ति आगे चलकर कुछ बडे काम कर पाते है।
🔴 शास्त्रीजी शोलापुर गये। उन्होंने मृत्यु की परवाह नहीं की। जेल चले गए यातनाएँ सहीं, पर उन्होंने की हुई प्रतिज्ञाओं से कभी पीछे कदम न हटाया। कर्तव्यपालन की इस दृढता ने एक छोटे-से आदमी को बडा बना दिया। साधारण ग्रामीण को अंतराष्ट्रीय ख्याति का प्रधानमंत्री बना दिया।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 23, 24
👉 जीवन देवता की साधना-आराधना (भाग 35) 12 Feb
🌹 साप्ताहिक और अर्द्ध वार्षिक साधनाएँ
🔴 साप्ताहिक विशेष साधना में चार विशेष नियम विधान अपनाने पड़ते हैं। ये हैं- १ उपवास, (२) ब्रह्मचर्य, (३) मौन तथा (४) प्राण संचय। इनमें से कुछ ऐसे हैं जिनके लिये मात्र संयम ही अपनाना पड़ता है। दो के लिये कुछ कृत्य विशेष करने पड़ते हैं। जिह्वा और जननेन्द्रिय, यही दो दसों इन्द्रियों में प्रबल हैं। इन्हें साधने से इन्द्रियसंयम सध जाता है। यह प्रथम चरण पूरा हुआ तो समझना चाहिये कि अगले मनोनिग्रह में कुछ विशेष कठिनाई न रह जायेगी।
🔵 जिह्वा का असंयम अतिमात्रा में अभक्ष्य भक्षण के लिये उकसाती है। कटु, असत्य, अनर्गल और असत् भाषण भी उसी के द्वारा बन पड़ता है। इसलिये एक ही जिह्वा को रसना और वाणी इन दो इन्द्रियों के नाम से जाना जाता है। जिह्वा की साधना के लिये अस्वाद का व्रत लेना पड़ता है। नमक, मसाले, शक्कर, खटाई आदि के स्वाद जिह्वा को चटोरा बनाते हैं। सात्विक और सुपाच्य पदार्थों की उपेक्षा करते हैं। तले, भुने, तेज मसालों वाले, मीठे पदार्थों में जो चित्र-विचित्र स्वाद मिलते हैं, उनके लिये जीभ ललचाती रहती है।
🔴 इस आधार पर अभक्ष्य ही रुचिकर लगता है। ललक में अधिक मात्रा उदरस्थ कर ली जाती है, फलत: पेट खराब रहने लगता है। सड़न से रक्त विषैला होता है और दूषित रक्त अनेकानेक बीमारियों का निमित्त कारण बनता है। इस प्रकार जिह्वा की विकृतियाँ जहाँ सुनने वालों को पतन के विक्षोभ के गर्त में धकेलती हैं, वहाँ अपनी स्वस्थ्यता पर भी कुठाराघात करती हैं। इन दोनों विपत्तियों से बचाने में जिह्वा का संयम एक तप साधना का प्रयोजन पूरा करता है। नित्य न बन पड़े तो सप्ताह में एक दिन तो जिह्वा को विश्राम देना ही चाहिये, ताकि वह अपने उपरोक्त दुर्गुणों से उबरने का प्रयत्न कर सके।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 साप्ताहिक विशेष साधना में चार विशेष नियम विधान अपनाने पड़ते हैं। ये हैं- १ उपवास, (२) ब्रह्मचर्य, (३) मौन तथा (४) प्राण संचय। इनमें से कुछ ऐसे हैं जिनके लिये मात्र संयम ही अपनाना पड़ता है। दो के लिये कुछ कृत्य विशेष करने पड़ते हैं। जिह्वा और जननेन्द्रिय, यही दो दसों इन्द्रियों में प्रबल हैं। इन्हें साधने से इन्द्रियसंयम सध जाता है। यह प्रथम चरण पूरा हुआ तो समझना चाहिये कि अगले मनोनिग्रह में कुछ विशेष कठिनाई न रह जायेगी।
🔵 जिह्वा का असंयम अतिमात्रा में अभक्ष्य भक्षण के लिये उकसाती है। कटु, असत्य, अनर्गल और असत् भाषण भी उसी के द्वारा बन पड़ता है। इसलिये एक ही जिह्वा को रसना और वाणी इन दो इन्द्रियों के नाम से जाना जाता है। जिह्वा की साधना के लिये अस्वाद का व्रत लेना पड़ता है। नमक, मसाले, शक्कर, खटाई आदि के स्वाद जिह्वा को चटोरा बनाते हैं। सात्विक और सुपाच्य पदार्थों की उपेक्षा करते हैं। तले, भुने, तेज मसालों वाले, मीठे पदार्थों में जो चित्र-विचित्र स्वाद मिलते हैं, उनके लिये जीभ ललचाती रहती है।
🔴 इस आधार पर अभक्ष्य ही रुचिकर लगता है। ललक में अधिक मात्रा उदरस्थ कर ली जाती है, फलत: पेट खराब रहने लगता है। सड़न से रक्त विषैला होता है और दूषित रक्त अनेकानेक बीमारियों का निमित्त कारण बनता है। इस प्रकार जिह्वा की विकृतियाँ जहाँ सुनने वालों को पतन के विक्षोभ के गर्त में धकेलती हैं, वहाँ अपनी स्वस्थ्यता पर भी कुठाराघात करती हैं। इन दोनों विपत्तियों से बचाने में जिह्वा का संयम एक तप साधना का प्रयोजन पूरा करता है। नित्य न बन पड़े तो सप्ताह में एक दिन तो जिह्वा को विश्राम देना ही चाहिये, ताकि वह अपने उपरोक्त दुर्गुणों से उबरने का प्रयत्न कर सके।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 सफलता के मणिमुक्तक पाएँ, तो कैसे?
🔵 सफलता पानी है तो उसके लिए प्रबल संकल्प शक्ति तथा सतत् अध्यवसाय एक अनिवार्य शर्त है। स्वतः हम हर कार्य में सफल होते चले जाएँगे, कोई दैवी अनुकम्पा किसी के आशीर्वाद से, कुछ तन्त्र-मन्त्र-कर्मकाण्डादि से हम पर बरसती चली जाएगी, यह आशा करना तो शेखचिल्ली का सपना भर है। सफलता के मणिमुक्तक यूँ ही धूल में बिखरे हुए नहीं पड़े हैं। उन्हें पाने के लिए गहरे में उतरने की हिम्मत इकट्टी करनी होगी, कठोर परिश्रम करने व करते रहने की शपथ लेनी होगी। कठोर, दमतोड़ और टपकते स्वेद कणों वाला परिश्रम ही जीवन का सबसे श्रेष्ठ उपहार है। इसी के फलस्वरूप लौकिक जीवन की समस्त सफलताओं-विभूतियों को पाया जा सकता है।
🔴 सुअवसर की प्रतीक्षा में बैठे रहना, कुछ न कर काहिली में उपलब्ध समय रूपी सम्पदा को गँवा बैठना तो मानव जीवन की सबसे बड़ी मूर्खता है। उद्यम के लिए हर घड़ी हरपल एक शुभ मुहूर्त है, सुअवसर है। सस्ती सफलता-शीघ्र सिद्धि प्राप्त करने की ललक के फेर में पड़े रहने से वस्तुतः कुछ भी लाभ नहीं। कुण्डली, फलित ज्योतिष-सर्वार्थ सिद्धि योग आदि में समयक्षेप अवसर चूक जाने के बाद काफी फछतावा देता है। चिरस्थायी प्रगति के लिए राजमार्ग पर अनवरत परिश्रम और अपराजेय साहस को साथ लेकर चलना होगा।
🔵 पगडण्डियाँ या ‘‘शार्टकट’’ ढूँढ़ना बेकार है। वे भटका सकती हैं। जिनने भी कुछ सफलता पायी है, जिसे इतिहास में लिखा गया, उन्हें गहराई तक खोदने व उतरने के लिए कटिबद्ध होना पड़ा है। विजय श्री का वरण करने के लिए कमर कसना, आस्तीन चढ़ाना और खोदने की प्रक्रिया आरम्भ कर देना आवश्यक है, पर ध्यान यह भी रखा जाना चाहिए कि अनावश्यक उतावली से कहीं कुदाली से पैर ही न कट जायँ।
🔴 परिस्थितियाँ, साधन एवं क्षमता का समन्वय करके आगे बढ़ना ही समझदारी है। यही सफलता के लिए अपनायी गयी सही रीति-नीति है, किन्तु यह तथ्य गाँठ बाँध लिया जाना चाहिए कि सफलता केवल समझदारी पर ही तो निर्भर नहीं है, उसका मूल्य माथे से टपकने वाले श्रम-सीकरों से ही चुकाना पड़ता है।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 12
🔴 सुअवसर की प्रतीक्षा में बैठे रहना, कुछ न कर काहिली में उपलब्ध समय रूपी सम्पदा को गँवा बैठना तो मानव जीवन की सबसे बड़ी मूर्खता है। उद्यम के लिए हर घड़ी हरपल एक शुभ मुहूर्त है, सुअवसर है। सस्ती सफलता-शीघ्र सिद्धि प्राप्त करने की ललक के फेर में पड़े रहने से वस्तुतः कुछ भी लाभ नहीं। कुण्डली, फलित ज्योतिष-सर्वार्थ सिद्धि योग आदि में समयक्षेप अवसर चूक जाने के बाद काफी फछतावा देता है। चिरस्थायी प्रगति के लिए राजमार्ग पर अनवरत परिश्रम और अपराजेय साहस को साथ लेकर चलना होगा।
🔵 पगडण्डियाँ या ‘‘शार्टकट’’ ढूँढ़ना बेकार है। वे भटका सकती हैं। जिनने भी कुछ सफलता पायी है, जिसे इतिहास में लिखा गया, उन्हें गहराई तक खोदने व उतरने के लिए कटिबद्ध होना पड़ा है। विजय श्री का वरण करने के लिए कमर कसना, आस्तीन चढ़ाना और खोदने की प्रक्रिया आरम्भ कर देना आवश्यक है, पर ध्यान यह भी रखा जाना चाहिए कि अनावश्यक उतावली से कहीं कुदाली से पैर ही न कट जायँ।
🔴 परिस्थितियाँ, साधन एवं क्षमता का समन्वय करके आगे बढ़ना ही समझदारी है। यही सफलता के लिए अपनायी गयी सही रीति-नीति है, किन्तु यह तथ्य गाँठ बाँध लिया जाना चाहिए कि सफलता केवल समझदारी पर ही तो निर्भर नहीं है, उसका मूल्य माथे से टपकने वाले श्रम-सीकरों से ही चुकाना पड़ता है।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 12
👉 मन: स्थिति बदले तो परिस्थिति बदले (भाग 15)
🌹 विचारों का महत्व और प्रभुत्व
🔴 शुभ हो या अशुभ, मनुष्य के हर विचार का एक निश्चित मूल्य तथा प्रभाव होता है। यह बात रसायन-शास्त्र के नियमों की तरह प्रामाणिक है। सफलता-असफलता सम्पर्क में आने वाले दूसरे लोगों से मिलने वाले सुख-दुःख का आधार विचार ही माने गये हैं। विचारों को जिस दिशा में उन्मुख किया जाता है उस दिशा में तदनुकूल तत्व आकर्षित होकर मानव मस्तिष्क में एकत्रित हो जाते हैं। सारी सृष्टि में एक सर्वव्यापी जीवन-तरंग आन्दोलित हो रही है। प्रत्येक मनुष्य के विचार उस तरंग में सब ओर प्रवाहित होते रहते हैं, जो उस तरंग के समान ही सदाजीवी होते हैं। वह एक तरंग ही समस्त प्राणियों के बीच से होती हुई बहती है। जिस मनुष्य की विचार-धारा जिस प्रकार की होती है, जीवन-तरंग में मिले जैसे विचार उसके साथ उसके मानस में निवास बना लेते हैं। मनुष्य का दूषित अथवा निर्दोष विचार सर्वव्यापी जीवन तरंग से अपने अनुरूप अन्य विचारों को आकर्षित कर उन्हें अपने साथ बसा लेगा और इस प्रकार अपनी जाति की वृद्धि कर लेगा।
🔵 मनुष्य का समस्त जीवन उसके विचारों के सांचे में ही ढलता है। सारा जीवन आन्तरिक विचारों के अनुसार ही प्रकट होता है। कारण के अनुरूप कार्य के नियम के समान ही प्रकृति का यह निश्चित नियम है कि मनुष्य जैसा भीतर होता है, वैसा ही बाहर। मनुष्य के भीतर की उच्च अथवा निम्न स्थिति का बहुत कुछ परिचय उसके बाह्य स्वरूप को देखकर पाया जा सकता है। जिसके शरीर पर अस्त-व्यस्त, फटे-चीथड़े और गन्दगी दिखलाई दे, समझ लीजिये कि यह मलीन विचारों वाला व्यक्ति है, इसके मन में पहले से ही अस्त-व्यस्तता जड़ जमाये बैठी है।
🔴 विचार-सूत्र से ही आन्तरिक और बाह्य-जीवन का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। विचार जितने परिष्कृत, उज्ज्वल और दिव्य होंगे, अन्तर भी उतना ही उज्ज्वल तथा दैवी सम्पदाओं से आलोकित होगा। वही प्रकाश स्थूल कार्यों में प्रकट होगा। जिस कलाकार अथवा साहित्यकार की भावनायें जितनी ही प्रखर और उच्चकोटि की होंगी, उनकी रचना भी उतनी ही उच्च और उत्तम कोटि की होगी।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 शुभ हो या अशुभ, मनुष्य के हर विचार का एक निश्चित मूल्य तथा प्रभाव होता है। यह बात रसायन-शास्त्र के नियमों की तरह प्रामाणिक है। सफलता-असफलता सम्पर्क में आने वाले दूसरे लोगों से मिलने वाले सुख-दुःख का आधार विचार ही माने गये हैं। विचारों को जिस दिशा में उन्मुख किया जाता है उस दिशा में तदनुकूल तत्व आकर्षित होकर मानव मस्तिष्क में एकत्रित हो जाते हैं। सारी सृष्टि में एक सर्वव्यापी जीवन-तरंग आन्दोलित हो रही है। प्रत्येक मनुष्य के विचार उस तरंग में सब ओर प्रवाहित होते रहते हैं, जो उस तरंग के समान ही सदाजीवी होते हैं। वह एक तरंग ही समस्त प्राणियों के बीच से होती हुई बहती है। जिस मनुष्य की विचार-धारा जिस प्रकार की होती है, जीवन-तरंग में मिले जैसे विचार उसके साथ उसके मानस में निवास बना लेते हैं। मनुष्य का दूषित अथवा निर्दोष विचार सर्वव्यापी जीवन तरंग से अपने अनुरूप अन्य विचारों को आकर्षित कर उन्हें अपने साथ बसा लेगा और इस प्रकार अपनी जाति की वृद्धि कर लेगा।
🔵 मनुष्य का समस्त जीवन उसके विचारों के सांचे में ही ढलता है। सारा जीवन आन्तरिक विचारों के अनुसार ही प्रकट होता है। कारण के अनुरूप कार्य के नियम के समान ही प्रकृति का यह निश्चित नियम है कि मनुष्य जैसा भीतर होता है, वैसा ही बाहर। मनुष्य के भीतर की उच्च अथवा निम्न स्थिति का बहुत कुछ परिचय उसके बाह्य स्वरूप को देखकर पाया जा सकता है। जिसके शरीर पर अस्त-व्यस्त, फटे-चीथड़े और गन्दगी दिखलाई दे, समझ लीजिये कि यह मलीन विचारों वाला व्यक्ति है, इसके मन में पहले से ही अस्त-व्यस्तता जड़ जमाये बैठी है।
🔴 विचार-सूत्र से ही आन्तरिक और बाह्य-जीवन का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। विचार जितने परिष्कृत, उज्ज्वल और दिव्य होंगे, अन्तर भी उतना ही उज्ज्वल तथा दैवी सम्पदाओं से आलोकित होगा। वही प्रकाश स्थूल कार्यों में प्रकट होगा। जिस कलाकार अथवा साहित्यकार की भावनायें जितनी ही प्रखर और उच्चकोटि की होंगी, उनकी रचना भी उतनी ही उच्च और उत्तम कोटि की होगी।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 7)
🌹 विचारों का महत्व और प्रभुत्व
🔴 शुभ हो या अशुभ, मनुष्य के हर विचार का एक निश्चित मूल्य तथा प्रभाव होता है। यह बात रसायन-शास्त्र के नियमों की तरह प्रामाणिक है। सफलता-असफलता सम्पर्क में आने वाले दूसरे लोगों से मिलने वाले सुख-दुःख का आधार विचार ही माने गये हैं। विचारों को जिस दिशा में उन्मुख किया जाता है उस दिशा में तदनुकूल तत्व आकर्षित होकर मानव मस्तिष्क में एकत्रित हो जाते हैं। सारी सृष्टि में एक सर्वव्यापी जीवन-तरंग आन्दोलित हो रही है। प्रत्येक मनुष्य के विचार उस तरंग में सब ओर प्रवाहित होते रहते हैं, जो उस तरंग के समान ही सदाजीवी होते हैं। वह एक तरंग ही समस्त प्राणियों के बीच से होती हुई बहती है। जिस मनुष्य की विचार-धारा जिस प्रकार की होती है, जीवन-तरंग में मिले जैसे विचार उसके साथ उसके मानस में निवास बना लेते हैं। मनुष्य का दूषित अथवा निर्दोष विचार सर्वव्यापी जीवन तरंग से अपने अनुरूप अन्य विचारों को आकर्षित कर उन्हें अपने साथ बसा लेगा और इस प्रकार अपनी जाति की वृद्धि कर लेगा।
🔵 मनुष्य का समस्त जीवन उसके विचारों के सांचे में ही ढलता है। सारा जीवन आन्तरिक विचारों के अनुसार ही प्रकट होता है। कारण के अनुरूप कार्य के नियम के समान ही प्रकृति का यह निश्चित नियम है कि मनुष्य जैसा भीतर होता है, वैसा ही बाहर। मनुष्य के भीतर की उच्च अथवा निम्न स्थिति का बहुत कुछ परिचय उसके बाह्य स्वरूप को देखकर पाया जा सकता है। जिसके शरीर पर अस्त-व्यस्त, फटे-चीथड़े और गन्दगी दिखलाई दे, समझ लीजिये कि यह मलीन विचारों वाला व्यक्ति है, इसके मन में पहले से ही अस्त-व्यस्तता जड़ जमाये बैठी है।
🔴 विचार-सूत्र से ही आन्तरिक और बाह्य-जीवन का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। विचार जितने परिष्कृत, उज्ज्वल और दिव्य होंगे, अन्तर भी उतना ही उज्ज्वल तथा दैवी सम्पदाओं से आलोकित होगा। वही प्रकाश स्थूल कार्यों में प्रकट होगा। जिस कलाकार अथवा साहित्यकार की भावनायें जितनी ही प्रखर और उच्चकोटि की होंगी, उनकी रचना भी उतनी ही उच्च और उत्तम कोटि की होगी।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 शुभ हो या अशुभ, मनुष्य के हर विचार का एक निश्चित मूल्य तथा प्रभाव होता है। यह बात रसायन-शास्त्र के नियमों की तरह प्रामाणिक है। सफलता-असफलता सम्पर्क में आने वाले दूसरे लोगों से मिलने वाले सुख-दुःख का आधार विचार ही माने गये हैं। विचारों को जिस दिशा में उन्मुख किया जाता है उस दिशा में तदनुकूल तत्व आकर्षित होकर मानव मस्तिष्क में एकत्रित हो जाते हैं। सारी सृष्टि में एक सर्वव्यापी जीवन-तरंग आन्दोलित हो रही है। प्रत्येक मनुष्य के विचार उस तरंग में सब ओर प्रवाहित होते रहते हैं, जो उस तरंग के समान ही सदाजीवी होते हैं। वह एक तरंग ही समस्त प्राणियों के बीच से होती हुई बहती है। जिस मनुष्य की विचार-धारा जिस प्रकार की होती है, जीवन-तरंग में मिले जैसे विचार उसके साथ उसके मानस में निवास बना लेते हैं। मनुष्य का दूषित अथवा निर्दोष विचार सर्वव्यापी जीवन तरंग से अपने अनुरूप अन्य विचारों को आकर्षित कर उन्हें अपने साथ बसा लेगा और इस प्रकार अपनी जाति की वृद्धि कर लेगा।
🔵 मनुष्य का समस्त जीवन उसके विचारों के सांचे में ही ढलता है। सारा जीवन आन्तरिक विचारों के अनुसार ही प्रकट होता है। कारण के अनुरूप कार्य के नियम के समान ही प्रकृति का यह निश्चित नियम है कि मनुष्य जैसा भीतर होता है, वैसा ही बाहर। मनुष्य के भीतर की उच्च अथवा निम्न स्थिति का बहुत कुछ परिचय उसके बाह्य स्वरूप को देखकर पाया जा सकता है। जिसके शरीर पर अस्त-व्यस्त, फटे-चीथड़े और गन्दगी दिखलाई दे, समझ लीजिये कि यह मलीन विचारों वाला व्यक्ति है, इसके मन में पहले से ही अस्त-व्यस्तता जड़ जमाये बैठी है।
🔴 विचार-सूत्र से ही आन्तरिक और बाह्य-जीवन का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। विचार जितने परिष्कृत, उज्ज्वल और दिव्य होंगे, अन्तर भी उतना ही उज्ज्वल तथा दैवी सम्पदाओं से आलोकित होगा। वही प्रकाश स्थूल कार्यों में प्रकट होगा। जिस कलाकार अथवा साहित्यकार की भावनायें जितनी ही प्रखर और उच्चकोटि की होंगी, उनकी रचना भी उतनी ही उच्च और उत्तम कोटि की होगी।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 सामाजिक क्रान्ति (भाग 1)
👉 युग ऋषि की अमृतवाणी
🔴 धर्मतंत्र का तीसरा कार्य जो करने का है, जिससे कि मनुष्य की अन्तःचेतना विकसित होती हो, वो है ‘सामाजिक क्रान्ति’। समाज की छुट-पुट बुराइयाँ जो सामने दिखाई पड़ती हैं, इनको दूर करने के लिये विरोध और आंदोलन करने की तो जरूरत है ही, लेकिन श्रेष्ठ समाज बनाने के लिये जिन रचनात्मक वस्तुओं को जीवन में धारण करने की जरूरत है, वो उच्चस्तरीय सिद्धान्त हैं, जो व्यक्ति को समाजपरक बनाते हैं। ‘‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’’ की मान्यता जन-जन के अन्तःकरण में जगायी जानी चाहिए। हरेक के मन में ये विश्वास होना चाहिये कि जो हम दूसरों से अपेक्षा करते हैं, वही हमें दूसरों के साथ में व्यवहार करना चाहिए। सामाजिक क्रान्ति के लिये ये सिद्धान्त आवश्यक है कि हर आदमी के मन में गहराई तक प्रवेश कर जाए।
🔵 हममें से हर आदमी के मन में एक विचार उत्पन्न किया जाना चाहिये कि ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ ‘सारा विश्व ही हमारा कुटुम्ब है’। दो-पाँच आदमी नहीं, बल्कि यह सारी वसुधा ही हमारा कुटुम्ब है और जिस तरीके से अपने घर का और बाल-बच्चों का हम ध्यान रखते हैं, उसी तरीके से समस्त विश्व में सुख और शान्ति के लिये ध्यान रखना और प्रयत्न करना आवश्यक है। सामाजिक क्रान्ति के लिये उन आध्यात्मिक सिद्धान्तों को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए, जिसमें कि महत्त्वपूर्ण ऐसे सिद्धान्त बने हुए हैं, जिसमें व्यक्ति अपने व्यक्तिवाद के ऊपर अंकुश करके समाजपरक बनता चला जाये।
🔴 ‘आत्मनः प्रतिकूलानि परेषाम् नः समाचरेत्’ का सिद्धान्त अगर हम अपने जीवन में धारण कर लें तो हमारे सामाजिक जीवन में श्रेष्ठता का आ जाना स्वाभाविक है। मिल-बाँट कर खाने की वृत्ति अगर हमारे भीतर हो तो जो आज हम सबके पास है, उसी से सबका गुजारा बड़े मजे से हो सकता है। हम उदारता से उपार्जन करें। उपार्जन का उपयोग करना सीखें, उपभोग नहीं।
🔵 समता हमारे जीवन का अंग रहनी चाहिए। सर्व समाजों में समता। जिसमें नर-नारी की समता और आर्थिक समता का भी ऊँचा स्थान होना चाहिये। हममें से प्रत्येक व्यक्ति को श्रेष्ठ नागरिक बनना चाहिये और सहकारिता के सिद्धान्तों को अपनाकर पारिवारिक जीवन में और सामाजिक जीवन में हर काम की व्यवस्था बनानी चाहिए। अनीति और अन्याय जहाँ कहीं भी दिखाई पड़े, उससे लड़ने के लिये हमको जटायु जैसा साहस एकत्रित करना चाहिए।
🌹 आज की बात समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/amart_vachan_jivan_ke_sidha_sutra/samajik_karnti
🔴 धर्मतंत्र का तीसरा कार्य जो करने का है, जिससे कि मनुष्य की अन्तःचेतना विकसित होती हो, वो है ‘सामाजिक क्रान्ति’। समाज की छुट-पुट बुराइयाँ जो सामने दिखाई पड़ती हैं, इनको दूर करने के लिये विरोध और आंदोलन करने की तो जरूरत है ही, लेकिन श्रेष्ठ समाज बनाने के लिये जिन रचनात्मक वस्तुओं को जीवन में धारण करने की जरूरत है, वो उच्चस्तरीय सिद्धान्त हैं, जो व्यक्ति को समाजपरक बनाते हैं। ‘‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’’ की मान्यता जन-जन के अन्तःकरण में जगायी जानी चाहिए। हरेक के मन में ये विश्वास होना चाहिये कि जो हम दूसरों से अपेक्षा करते हैं, वही हमें दूसरों के साथ में व्यवहार करना चाहिए। सामाजिक क्रान्ति के लिये ये सिद्धान्त आवश्यक है कि हर आदमी के मन में गहराई तक प्रवेश कर जाए।
🔵 हममें से हर आदमी के मन में एक विचार उत्पन्न किया जाना चाहिये कि ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ ‘सारा विश्व ही हमारा कुटुम्ब है’। दो-पाँच आदमी नहीं, बल्कि यह सारी वसुधा ही हमारा कुटुम्ब है और जिस तरीके से अपने घर का और बाल-बच्चों का हम ध्यान रखते हैं, उसी तरीके से समस्त विश्व में सुख और शान्ति के लिये ध्यान रखना और प्रयत्न करना आवश्यक है। सामाजिक क्रान्ति के लिये उन आध्यात्मिक सिद्धान्तों को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए, जिसमें कि महत्त्वपूर्ण ऐसे सिद्धान्त बने हुए हैं, जिसमें व्यक्ति अपने व्यक्तिवाद के ऊपर अंकुश करके समाजपरक बनता चला जाये।
🔴 ‘आत्मनः प्रतिकूलानि परेषाम् नः समाचरेत्’ का सिद्धान्त अगर हम अपने जीवन में धारण कर लें तो हमारे सामाजिक जीवन में श्रेष्ठता का आ जाना स्वाभाविक है। मिल-बाँट कर खाने की वृत्ति अगर हमारे भीतर हो तो जो आज हम सबके पास है, उसी से सबका गुजारा बड़े मजे से हो सकता है। हम उदारता से उपार्जन करें। उपार्जन का उपयोग करना सीखें, उपभोग नहीं।
🔵 समता हमारे जीवन का अंग रहनी चाहिए। सर्व समाजों में समता। जिसमें नर-नारी की समता और आर्थिक समता का भी ऊँचा स्थान होना चाहिये। हममें से प्रत्येक व्यक्ति को श्रेष्ठ नागरिक बनना चाहिये और सहकारिता के सिद्धान्तों को अपनाकर पारिवारिक जीवन में और सामाजिक जीवन में हर काम की व्यवस्था बनानी चाहिए। अनीति और अन्याय जहाँ कहीं भी दिखाई पड़े, उससे लड़ने के लिये हमको जटायु जैसा साहस एकत्रित करना चाहिए।
🌹 आज की बात समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/amart_vachan_jivan_ke_sidha_sutra/samajik_karnti
👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 101)
🌹 प्रगतिशील जातीय संगठनों की रूपरेखा
🔴 4. कार्य का आरम्भ:-- यह प्रगतिशील जातीय सभाओं का संगठन-कार्य अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्यों द्वारा आरम्भ किया जा रहा है। इसलिए प्रेरक सदस्यों की तरह आरंभ में वे ही अपनी-अपनी उपजाति का क्षेत्रीय संगठन बना लें। क्षेत्र की परिधि साधारणतया 50-50 मील चारों ओर होनी चाहिए। सौ मील लम्बे और सौ मील चौड़े क्षेत्र में भी सैकड़ों गांव कस्बे होते हैं, उतने क्षेत्र को ठीक तरह संगठित कर सकना भी कठिन नहीं है। इसलिए आरम्भ में भले ही यह क्षेत्र अधिक विस्तृत हों, पर अन्त में इनका कार्य-क्षेत्र उतना ही बड़ा रहना चाहिए, जितने में कि कार्यकर्त्ता गण आसानी से आपस में मिलते-जुलते रह सकें। इस दृष्टि से सौ-सौ मील की लम्बाई-चौड़ाई का क्षेत्र पर्याप्त है। विशेष परिस्थिति होने पर ही उसे घटाया-बढ़ाया जाय।
🔵 अखण्ड-ज्योति सदस्यों के यह उपजातियों के आधार पर क्षेत्रीय संगठन तुरन्त बन जाने चाहिए। इसके लिए कुछ अधिक सेवा-भावी व्यक्तियों को आगे आना चाहिए और इन सब सदस्यों से मिलकर उन्हें मीटिंग के लिए आमन्त्रित करना चाहिए। सब लोग इकट्ठे होकर अपनी-अपनी सदस्यता को नियमित कर लें। दस व्यक्तियों की कार्य-समिति गठित करलें और प्रधान-मन्त्री तथा कोषाध्यक्ष चुन लें। युग-निर्माण केन्द्रों में पांच व्यक्तियों की कार्य-समिति होती है और एक शाखा संचालक ही पदाधिकारी रहता है, पर इन जातीय संगठनों में उपरोक्त तीन पदाधिकारी और 10 सदस्य रहने चाहिए, क्योंकि इनका कार्य-क्षेत्र बड़ा है।
🔴 5. क्षेत्रीय संगठनों का विस्तार:-- यह प्रारम्भिक गठन हो जाने के बाद इन प्रेरक सदस्यों को अपने-अपने कार्य-क्षेत्र में सदस्य बनाने के लिए छोटी-छोटी मित्र-मण्डलियों के रूप में नये सदस्य भर्ती करने निकल पड़ना चाहिए। जिन गांवों में कम से कम पांच सदस्य भी बन जांय, वहां ग्राम सभाएं बना दी जांय। प्रयत्न यह होना चाहिए कि जहां भी जिस उपजाति के लोग हों, उनकी एक-एक ग्राम-सभा वहां गठित रहे। क्षेत्रीय सभाओं के अन्तर्गत जितनी ग्राम सभाएं होंगी, वह उतनी ही सफल मानी जायेंगी और उनकी गतिविधियां उतनी ही बढ़ सकेंगी। इसलिए क्षेत्रीय संगठनों के कार्यकर्त्ताओं को दौरा करके अपना कार्य-क्षेत्र सुगठित कर लेने के लिए तत्परतापूर्वक लग जाना ही पड़ेगा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://awgpskj.blogspot.in/2017/02/100-11-feb.html
🔴 4. कार्य का आरम्भ:-- यह प्रगतिशील जातीय सभाओं का संगठन-कार्य अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्यों द्वारा आरम्भ किया जा रहा है। इसलिए प्रेरक सदस्यों की तरह आरंभ में वे ही अपनी-अपनी उपजाति का क्षेत्रीय संगठन बना लें। क्षेत्र की परिधि साधारणतया 50-50 मील चारों ओर होनी चाहिए। सौ मील लम्बे और सौ मील चौड़े क्षेत्र में भी सैकड़ों गांव कस्बे होते हैं, उतने क्षेत्र को ठीक तरह संगठित कर सकना भी कठिन नहीं है। इसलिए आरम्भ में भले ही यह क्षेत्र अधिक विस्तृत हों, पर अन्त में इनका कार्य-क्षेत्र उतना ही बड़ा रहना चाहिए, जितने में कि कार्यकर्त्ता गण आसानी से आपस में मिलते-जुलते रह सकें। इस दृष्टि से सौ-सौ मील की लम्बाई-चौड़ाई का क्षेत्र पर्याप्त है। विशेष परिस्थिति होने पर ही उसे घटाया-बढ़ाया जाय।
🔵 अखण्ड-ज्योति सदस्यों के यह उपजातियों के आधार पर क्षेत्रीय संगठन तुरन्त बन जाने चाहिए। इसके लिए कुछ अधिक सेवा-भावी व्यक्तियों को आगे आना चाहिए और इन सब सदस्यों से मिलकर उन्हें मीटिंग के लिए आमन्त्रित करना चाहिए। सब लोग इकट्ठे होकर अपनी-अपनी सदस्यता को नियमित कर लें। दस व्यक्तियों की कार्य-समिति गठित करलें और प्रधान-मन्त्री तथा कोषाध्यक्ष चुन लें। युग-निर्माण केन्द्रों में पांच व्यक्तियों की कार्य-समिति होती है और एक शाखा संचालक ही पदाधिकारी रहता है, पर इन जातीय संगठनों में उपरोक्त तीन पदाधिकारी और 10 सदस्य रहने चाहिए, क्योंकि इनका कार्य-क्षेत्र बड़ा है।
🔴 5. क्षेत्रीय संगठनों का विस्तार:-- यह प्रारम्भिक गठन हो जाने के बाद इन प्रेरक सदस्यों को अपने-अपने कार्य-क्षेत्र में सदस्य बनाने के लिए छोटी-छोटी मित्र-मण्डलियों के रूप में नये सदस्य भर्ती करने निकल पड़ना चाहिए। जिन गांवों में कम से कम पांच सदस्य भी बन जांय, वहां ग्राम सभाएं बना दी जांय। प्रयत्न यह होना चाहिए कि जहां भी जिस उपजाति के लोग हों, उनकी एक-एक ग्राम-सभा वहां गठित रहे। क्षेत्रीय सभाओं के अन्तर्गत जितनी ग्राम सभाएं होंगी, वह उतनी ही सफल मानी जायेंगी और उनकी गतिविधियां उतनी ही बढ़ सकेंगी। इसलिए क्षेत्रीय संगठनों के कार्यकर्त्ताओं को दौरा करके अपना कार्य-क्षेत्र सुगठित कर लेने के लिए तत्परतापूर्वक लग जाना ही पड़ेगा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://awgpskj.blogspot.in/2017/02/100-11-feb.html
👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 49)
🌹 भावी रूपरेखा का स्पष्टीकरण
🔴 नन्दन वन के प्रवास का अगला दिन और भी विस्मयकारी था। पूर्व रात्रि में गुरुदेव के साथ ऋषिगणों के साक्षात्कार के दृश्य फिल्म की तरह आँखों के समक्ष घूम रहे थे। पुनः गुरुदेव की प्रतीक्षा थी, भावी निर्देशों के लिए। धूप जैसे ही नन्दन-वन के मखमली कालीन पर फैलने लगी, ऐसा लगा जैसे स्वर्ग धरती पर उतर आया हो। भाँति-भाँति के रंगीन फूल ठसाठस भरे थे और चौरस पठार पर बिखरे हुए थे। दूर से देखने पर लगता था कि मानों गली चा बिछा हो।
🔵 सहसा गुरुदेव का स्थूल शरीर रूप में आगमन हुआ उन्होंने आवश्यकतानुसार पूर्व रात्रि के प्रतिकूल अब वैसा ही स्थूल शरीर बना लिया था जैसा कि प्रथम बार प्रकाश पुंज के रूप में पूजा घर में अवतरित होकर हमें दर्शन दिया था
🔴 वार्तालाप को आरम्भ करते हुए उन्होंने कहा-‘‘हमें तुम्हारे पिछले सभी जन्मों की श्रद्धा और साहसिकता का पता था। अब की बार यहाँ बुलाकर तीन परीक्षाएँ ली और जाँचा कि बड़े कामों का वजन उठाने लायक मनोभूमि तुम्हारी बनी या नहीं। हम इस पूरी यात्रा में तुम्हारे साथ रहे और घटनाक्रम तथा उनके साथ उठती प्रतिक्रिया को देखते रहे तो और भी अधिक निश्चिंतता हो गई। यदि स्थिति सुदृढ़ और विश्वस्त न रही होती, तो इस क्षेत्र के निवासी सूक्ष्म शरीरधारी ऋषिगण तुम्हारे समक्ष प्रकट न होते और मन की व्यथा न कहते’’ उनके कथन का प्रयोजन यही था कि काम छूटा हुआ है, उसे पूरा किया जाए। समर्थ देखकर ही उनने अपने मनोभाव प्रकट किए, अन्यथा दीन, दुर्बल, असमर्थों के सामने इतने बड़े लोग अपना मन खोलते ही कहाँ हैं?
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/bhavi
🔴 नन्दन वन के प्रवास का अगला दिन और भी विस्मयकारी था। पूर्व रात्रि में गुरुदेव के साथ ऋषिगणों के साक्षात्कार के दृश्य फिल्म की तरह आँखों के समक्ष घूम रहे थे। पुनः गुरुदेव की प्रतीक्षा थी, भावी निर्देशों के लिए। धूप जैसे ही नन्दन-वन के मखमली कालीन पर फैलने लगी, ऐसा लगा जैसे स्वर्ग धरती पर उतर आया हो। भाँति-भाँति के रंगीन फूल ठसाठस भरे थे और चौरस पठार पर बिखरे हुए थे। दूर से देखने पर लगता था कि मानों गली चा बिछा हो।
🔵 सहसा गुरुदेव का स्थूल शरीर रूप में आगमन हुआ उन्होंने आवश्यकतानुसार पूर्व रात्रि के प्रतिकूल अब वैसा ही स्थूल शरीर बना लिया था जैसा कि प्रथम बार प्रकाश पुंज के रूप में पूजा घर में अवतरित होकर हमें दर्शन दिया था
🔴 वार्तालाप को आरम्भ करते हुए उन्होंने कहा-‘‘हमें तुम्हारे पिछले सभी जन्मों की श्रद्धा और साहसिकता का पता था। अब की बार यहाँ बुलाकर तीन परीक्षाएँ ली और जाँचा कि बड़े कामों का वजन उठाने लायक मनोभूमि तुम्हारी बनी या नहीं। हम इस पूरी यात्रा में तुम्हारे साथ रहे और घटनाक्रम तथा उनके साथ उठती प्रतिक्रिया को देखते रहे तो और भी अधिक निश्चिंतता हो गई। यदि स्थिति सुदृढ़ और विश्वस्त न रही होती, तो इस क्षेत्र के निवासी सूक्ष्म शरीरधारी ऋषिगण तुम्हारे समक्ष प्रकट न होते और मन की व्यथा न कहते’’ उनके कथन का प्रयोजन यही था कि काम छूटा हुआ है, उसे पूरा किया जाए। समर्थ देखकर ही उनने अपने मनोभाव प्रकट किए, अन्यथा दीन, दुर्बल, असमर्थों के सामने इतने बड़े लोग अपना मन खोलते ही कहाँ हैं?
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/bhavi
👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 49)
🌞 हिमालय में प्रवेश (सुनसान की झोंपड़ी)
🔵 मनुष्य की यह एक अद्भुत विशेषता है कि वह जिन परिस्थितियों में रहने लगता है उनका अभ्यस्त भी हो जाता है। जब मैंने इस निर्जन वन की सुनसान कुटियों में प्रवेश किया तो सब ओर सूना ही सूना लगता था। अन्तर का सूनापन जब बाहर निकल पड़ता तो सर्वत्र सुनसान ही दीखता था। पर अब जबकि अन्तर की लघुता धीरे-धीरे विस्तृत होती जा रही है, चारों ओर अपने ही अपने हंसते-बोलते नजर आते हैं। अब सूनापन कहां? अब अन्धेरे में डर किसका?
🔴 अमावस्या की अंधेरी रात, बादल घिरे हुए, छोटी-छोटी बूंदें, ठण्डी वायु का कम्बल को पार कर भीतर घुसने का प्रयत्न। छोटी-सी कुटिया में पत्तों की चटाई पर पड़ा हुआ यह शरीर आज फिर असुखकर अनभ्यस्तता अनुभव करने लगा। नींद आज फिर उचट गई। विचारों का प्रवाह फिर चल पड़ा। स्वजन सहचरों से भरे सुविधाओं से सम्पन्न घर और इस सघनतामिस्र की चादर लपेटे वायु के झोकों से थर-थर कांपती हुई जल से भीग कर टपकती पर्ण कुटी की तुलना होने लगी। दोनों के गुण-दोष गिने जाने लगे।
🔵 शरीर असुविधा अनुभव कर रहा था। मन भी उसी का सहचर ठहरा। वही क्यों इस असुविधा में प्रसन्न होता? दोनों की मिली भगत जो है। आत्मा के विरुद्ध ये दोनों एक हो जाते हैं। मस्तिष्क तो इनका खरीदा हुआ वकील है। जिसमें इनकी रुचि होती है उसी का समर्थन करते रहना इसने अपना व्यवसाय बनाया हुआ है। राजा के दरबारी जिस प्रकार हवा का रुख देखकर बात करने की कला में निपुण होते थे, राजा को प्रसन्न रखने, उसकी हां में हां मिलाने में दक्षता प्राप्त किये रहते थे, वैसा ही यह मस्तिष्क भी है। मन की रुचि देखकर उसी के अनुकूल यह विचार प्रवाह को छोड़ देता है। समर्थन में अगणित कारण हेतु, प्रयोजन और प्रमाण उपस्थित कर देना इसके बायें हाथ का खेल है। सुविधाजनक घर के गुण और इस कष्टकारक निर्जन के दोष बताने में वह बैरिस्टरों के कान काटने लगा। सनसनाती हुई हवा की तरह उसका अभिभाषण भी जोरों से चल रहा था।
🔴 इतने में सिरहाने की ओर छोटे से छेद में बैठे हुए झींगुर ने अपना मधुर संगीत गान आरम्भ कर दिया। एक से प्रोत्साहन पाकर दूसरा बोला। दूसरे की आवाज सुनकर तीसरा, फिर उससे चौथा, इस प्रकार उसी कुटी में अपने-अपने छेदों में बैठे कितने ही झींगुर एक साथ गाने लगे। उनका गायन यों उपेक्षा बुद्धि से तो अनेकों बार सुना था। उसे कर्कश, व्यर्थ और मूर्खतापूर्ण समझा था, पर आज मन के लिए कुछ और काम न था। वह ध्यान पूर्वक इस गायन के उतार, चढ़ावों को परखने लगा। निर्जन की निन्दा करते-करते वह थक भी गया था। इस चंचल बन्दर को हर घड़ी नये-नये प्रकार के काम जो चाहिए। झींगुर की गान-सभा का समा बंधा तो उसी में रस लेने लगा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔵 मनुष्य की यह एक अद्भुत विशेषता है कि वह जिन परिस्थितियों में रहने लगता है उनका अभ्यस्त भी हो जाता है। जब मैंने इस निर्जन वन की सुनसान कुटियों में प्रवेश किया तो सब ओर सूना ही सूना लगता था। अन्तर का सूनापन जब बाहर निकल पड़ता तो सर्वत्र सुनसान ही दीखता था। पर अब जबकि अन्तर की लघुता धीरे-धीरे विस्तृत होती जा रही है, चारों ओर अपने ही अपने हंसते-बोलते नजर आते हैं। अब सूनापन कहां? अब अन्धेरे में डर किसका?
🔴 अमावस्या की अंधेरी रात, बादल घिरे हुए, छोटी-छोटी बूंदें, ठण्डी वायु का कम्बल को पार कर भीतर घुसने का प्रयत्न। छोटी-सी कुटिया में पत्तों की चटाई पर पड़ा हुआ यह शरीर आज फिर असुखकर अनभ्यस्तता अनुभव करने लगा। नींद आज फिर उचट गई। विचारों का प्रवाह फिर चल पड़ा। स्वजन सहचरों से भरे सुविधाओं से सम्पन्न घर और इस सघनतामिस्र की चादर लपेटे वायु के झोकों से थर-थर कांपती हुई जल से भीग कर टपकती पर्ण कुटी की तुलना होने लगी। दोनों के गुण-दोष गिने जाने लगे।
🔵 शरीर असुविधा अनुभव कर रहा था। मन भी उसी का सहचर ठहरा। वही क्यों इस असुविधा में प्रसन्न होता? दोनों की मिली भगत जो है। आत्मा के विरुद्ध ये दोनों एक हो जाते हैं। मस्तिष्क तो इनका खरीदा हुआ वकील है। जिसमें इनकी रुचि होती है उसी का समर्थन करते रहना इसने अपना व्यवसाय बनाया हुआ है। राजा के दरबारी जिस प्रकार हवा का रुख देखकर बात करने की कला में निपुण होते थे, राजा को प्रसन्न रखने, उसकी हां में हां मिलाने में दक्षता प्राप्त किये रहते थे, वैसा ही यह मस्तिष्क भी है। मन की रुचि देखकर उसी के अनुकूल यह विचार प्रवाह को छोड़ देता है। समर्थन में अगणित कारण हेतु, प्रयोजन और प्रमाण उपस्थित कर देना इसके बायें हाथ का खेल है। सुविधाजनक घर के गुण और इस कष्टकारक निर्जन के दोष बताने में वह बैरिस्टरों के कान काटने लगा। सनसनाती हुई हवा की तरह उसका अभिभाषण भी जोरों से चल रहा था।
🔴 इतने में सिरहाने की ओर छोटे से छेद में बैठे हुए झींगुर ने अपना मधुर संगीत गान आरम्भ कर दिया। एक से प्रोत्साहन पाकर दूसरा बोला। दूसरे की आवाज सुनकर तीसरा, फिर उससे चौथा, इस प्रकार उसी कुटी में अपने-अपने छेदों में बैठे कितने ही झींगुर एक साथ गाने लगे। उनका गायन यों उपेक्षा बुद्धि से तो अनेकों बार सुना था। उसे कर्कश, व्यर्थ और मूर्खतापूर्ण समझा था, पर आज मन के लिए कुछ और काम न था। वह ध्यान पूर्वक इस गायन के उतार, चढ़ावों को परखने लगा। निर्जन की निन्दा करते-करते वह थक भी गया था। इस चंचल बन्दर को हर घड़ी नये-नये प्रकार के काम जो चाहिए। झींगुर की गान-सभा का समा बंधा तो उसी में रस लेने लगा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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