■ संसार की सारी सफलताओं का मूलमंत्र है-प्रबल इच्छा शक्ति। इसी के बल पर विद्या, सम्पत्ति और साधनों का उपार्जन होता है। यही वह आधार है जिस पर आध्यात्मिक तपस्याएँ और साधनाएँ निर्भर रहती हैं। यही वह दिव्य संबल है, जिसे पाकर संसार में खाली हाथ आया मनुष्य वैभवशाली बनकर संसार को चकित कर देता है। यही वह मोहक और वशीकरण मंत्र है, जिसके बल पर एक अकेला पुरुष कोटि-कोटि जनगण को अपना अनुयायी बना लेता है।
□ हमारा प्रत्येक विचार हमारे पथ में काँटे या पुष्प बिखेरता है। हम जैसा चाहें अपने विचारों की शक्ति द्वारा बन सकते हैं। कोई भी विस्फोटक पदार्थ मनुष्य के प्रचण्ड विचारों से बढ़कर शक्ति नहीं रखता। कोई भी संबंधी, देवी, देवता हमारी इतनी सहायता नहीं कर सकता, जितने हमारे विचार। विचारों द्वारा ही हम शक्ति का केन्द्र मन से निकालते हैं और अपने सबसे बड़े मित्र बन सकते है। अतः जब तक हम अपने विचारों को निम्न, निकृष्ट, खोटी वस्तुओं से हटाकर ऊँचे विषयों में नहीं लगाते, तब तक हमारे विचार परमात्मा की निःसीम शक्ति में सामंजस्य प्राप्त नहीं करते।
◆ हमारी सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि हम शुभ विचारों को क्रियात्मक स्वरूप प्रदान नहीं करते। उनको जीवन व्यतीत करने का मौका नहीं देते। पुस्तकों में वर्णित स्वर्ण सूत्रों को कार्य रूप में परिवर्तित करने के लिए प्रयत्नशील नहीं होते। उनके अनुसार जीवन को नहीं मोड़ते। शिक्षाओं पर दत्तचित्त, एकाग्र, दृढ़तापूर्वक अमल नहीं करते। शास्त्रीय विधियों का पूर्ण दिल लगाकर अभ्यास नहीं करते, अपने आचरण को उनके अनुसार नहीं बनाते। केवल पढ़कर या जानकर ही संतुष्ट हो जाते हैं। यही बुजदिली आलस्य, कर्महीनता हमें अग्रसर नहीं होने देती।
◇ आलस्य और दुर्भाग्य एक ही वस्तु के दो नाम हैं। जो आलसी है वह न श्रम का महत्त्व समझता है, न समय का मूल्य। ऐसे मनुष्य को कोई सफलता नहीं मिल सकती। सौभाग्य का पुरस्कार उनके लिए सुरक्षित है, जो उसका मूल्य चुकाने के लिए तत्पर हैं। यह मूल्य कठोर श्रम के रूप में चुकाया जाता है। समय ही भगवान् की दी हुई सम्पदा है। हमारी हर श्वास बड़ी मूल्यवान है। यदि प्रस्तुत क्षणों का ठीक तरह उपयोग करते रहा जाय, तो बूँद-बूँद से घट भरने की तरह अगणित सफलताएँ और समृद्धियाँ अनायास ही इकट्ठी होने लगेंगी।
■ आलसी का भविष्य अंधकारपूर्ण है। जिसे श्रम करने में रुचि नहीं, जो मेहनत से डरता है, आरामतलबी जिसे पसंद है, जो समय को ज्यों-त्यों करके अस्त-व्यस्त करता रहता है, समझना चाहिए दुर्भाग्य इसके पीछे लग गया। यह कुछ उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकना तो दूर, यदि संयोगवश उत्तराधिकार में कुछ मिल गया है तो उसे भी स्थिर न रख सकेगा। कहते हैं-लक्ष्मी आलसी के घर नहीं रहती। सुना जाता है कि दारिद्र्य वहाँ घोंसला बनाता है, जहाँ आलस्य की सघनता छाई रहती है।
□ आराम की जिन्दगी बिताना केवल निर्जीव, निरुद्देश्य और निकम्मे लोगों को रुचिकर हो सकता है। वे ही उसे सौभाग्य गिन सकते हैं। प्रगतिशील, महत्त्वाकांक्षी लोगों की दृष्टि में तो यह एक मानसिक रुग्णता है, जिसके कारण व्यक्ति का भाग्य, भविष्य, बल और वर्चस्व निरन्तर घटता ही जाता है। अपने देश का दुर्भाग्य श्रम के प्रति उपेक्षा करने की दुष्प्रवृत्ति के साथ आरंभ हुआ है और वह तब तक बना ही रहेगा, जब तक कि हम प्रगतिशील लोगों की तरह परिश्रम के प्रति प्रगाढ़ आस्था उत्पन्न न करेंगे।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य