प्रभु प्रेम से मिलेगा—वैराग्य का चरम
इस बारे में गुरुदेव प्रायः नारद मोह की कथा सुनाया करते थे। देवर्षि नारद पहले महान् ज्ञानी योग साधक थे। उनकी योग साधना अति प्रखर थी। विवेक उनमें पूर्णतया प्रज्वलित था। अपनी साधना की प्रचण्ड अविरामता में उन्होंने हिमालय में समाधि लगा ली। उनकी योग साधना का तेज ऐसा बढ़ा की देव शक्तियाँ परेशान हो गयी। देवलोक वासियों ने उन्हें डिगाने के लिए भाँति-भाँति के मायाजाल रचे। एक के बाद एक नए तरीके अपनाए, पर कोई कामयाबी न मिली। अन्तिम अस्त्र के रूप में उन्होंने कामदेव को सम्पूर्ण सेना के साथ भेजा। काम की सारी कलाएँ, अप्सराओं की सारी नृत्यलीलाएँ देवर्षि नारद के वैराग्य के सामने पराजित हो गयी। अन्ततः उन सबने देवर्षि से क्षमा याचना की और वापस अपने लोक चले गए।
काम को पराजित करने वाले नारद को अपने महान् वैराग्य का गर्व हो गया। अपनी काम विजय की कथा उन्होंने शिव, ब्रह्मा एवं विष्णु को सुना डाली। सर्वेश्वर ने उनके गर्वहरण के लिए लीला रची। जिन नारद के वैराग्य का प्रभाव कुछ ऐसा था कि - ‘काम कला कछु मुनिहि न व्यापी। निज भय डरेउ मनोभव पापी॥’ अर्थात् काम की कोई भी कला मुनिवर को नहीं व्यापी और वह कामदेव अपने पाप से डर गया। वही नारद कुछ ऐसे हो गए कि- ‘जप तप कुछु न होई तेहि काला। हे विधि मिलहि कवन विधि बाला॥’ अर्थात् उनसे उस समय कुछ भी जप-तप नहीं बन पड़ा। बस वे यही सोचने लगे कि हे विधाता किस तरह मेरा विवाह इस कन्या से हो जाय।
यह कथा सुनाते हुए गुरुदेव ने कहा था—सब कुछ होने पर भी जब तक अहं का भगवान् में समर्पण, विसर्जन, विलय नहीं होता, तब तक कभी वैराग्य सिद्ध नहीं होता। भक्तिमार्ग में पहले ही कदम पर अहं का बलिदान करना पड़ता है। इसीलिए भक्त को अपने आप ही सिद्ध वैराग्य मिल जाता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भक्ति की महिमा की अरण्यकाण्ड में बड़ी ही सुन्दर चर्चा की है। नारद की जिज्ञासा के उत्तर में भगवान् कहते हैं-
जनहि मोर बल निज बल ताही।
दुह का काम क्रोध रिपु आही॥
यह विचारि पंडित मोहि भजहीं।
पायहु ज्ञान भगति नहि तजहीं॥
भक्त को मेरा बल (भगवान् का बल) रहता है और ज्ञानी को अपने बल (स्व विवेक) का सहारा रहता है। काम क्रोध दोनों के ही शत्रु हैं। यह सोचकर विद्वज्जन मेरी भक्ति करते हैं। ज्ञान मिलने पर भी इसका त्याग नहीं करते। गुरुदेव कहते थे कि भक्त में वैराग्य की परम भावदशा प्रकट होती है। उसके लिए विराग (वैराग्य) आराध्य के प्रति वि+राग यानि कि विशिष्ट राग बन जाता है। श्रीरामकृष्ण देव इस प्रसंग पर कहा करते थे कि एक बार उनके प्रति प्रेम जग जाय, तो फिर रम्भा-तिलोत्तमा जैसी रूपसी अप्सराएँ चिता भस्म जैसी त्याज्य लगने लगती हैं। भगवद्गीता में श्री कृष्ण ने भी यही सत्य कहा है-
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसोवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निर्वतते॥—गीता-२/५९
यानि कि विषय भोग तो उसके भी छूट जाते हैं, जो इन्द्रिय से विषयों को नहीं ग्रहण कर रहा है, पर रस तो प्रभु दर्शन के बाद ही छूटता है। यह परं दृष्ट्वा स्थिति ही पर वैराग्य है, जो प्रभु भक्ति से सहज प्राप्त है। इस वैराग्य में ही समाधान की समाधि है।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ७५
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या