बुधवार, 22 अगस्त 2018

👉 मनुष्य की पहचान

🔷 स्वामी विवेकानन्द जब अमेरिका की एक सड़क पर से गुजर रहे थे तो उनकी विचित्र वेशभूषा को देखकर लोग उन्हें मूर्ख समझने और मजाक बनाने लगे। अपने पीछे आती हुई भीड़ के सम्मुख स्वामी जी रुके और उनने पीछे मुड़कर कहा-सज्जनों मेरी वेषभूषा को देखकर आश्चर्य मत करो। आपके देश में सभ्यता की कसौटी पोशाक है। पर मैं जिस देश से आया हूँ वहाँ कपड़ों से नहीं मनुष्य की पहचान उसके चरित्र से होती है।

👉 लोकसेवा का आदर्श

🔷 कुछ पत्रकारों को डा० श्यामाप्रसाद मुखर्जी से भेंट करनी थी। स्टेशन पर पहुँचे। जब उन्होंने डाक्टर साहब को तीसरी श्रेणी के डिब्बे में यात्रा करते देखा, तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। एक पत्रकार तो उस विस्मय को छिपा नहीं सका और डा० मुखर्जी से पूछ ही बैठा- ''आप संभवत: जीवन में पहली बार तीसरी श्रेणी में यात्रा कर रहे है ?"

🔶 ''नहीं, मैं अक्सर इसी में यात्रा करता हूँ ''-डा० मुखर्जी ने उत्तर दिया-''आप जानते हैं कि हमारी संस्था निर्धन है। इस बचत से संस्था को अन्य आवश्यक काम चलाने में सहायता मिलती है।'' पत्रकार मुखर्जी की इस सहज सादगी से बड़े प्रभावित हुए। इस घटना में ही लोक-सेवक का सच्चा आदर्श, सच्चा मर्म छुपा पड़ा है। भक्त आराध्य भगवान से कभी ऊपर नहीं बैठता। तो फिर जनता को जनार्दन मानकर उसकी सेवा-साधना में निरत साधक को ही क्यों स्वयं  को जनता से अलग और पृथक वर्ग मानना चाहिए।

📖 प्रज्ञा पुराण से

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 22 August 2018


👉 आज का सद्चिंतन 22 Aug 2018

👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 34)

👉 बड़े कामों के लिए वरिष्ठ प्रतिभाएँ

🔷 इन दिनों अनौचित्य की बाढ़ को रोकने और दलदल को मधुवन बनाने जैसी समय की चुनौती सामने है। विनाश के तांडव को रोकना और विकास का उल्लास भरा सरंजाम जुटाना ऐसा ही है, जैसे-खाई को पाटना भर ही नहीं, वरन् उस स्थान पर ऊँची मीनार खड़ी करने जैसा दुहरा पराक्रम। इस प्रवाह को पलटना ही नहीं, उलटे को उलटकर सीधा करना भी कह सकते हैं। यों मनुष्य ही असंभव को संभव कर दिखाते रहे हैं, पर उसके लिए कटिबद्ध होना ही नहीं अपने को क्षमता संपन्न सिद्ध करके दिखाना दुहरे पराक्रम का काम है। युग परिवर्तन की इस विषम वेला में ऐसा ही कुछ बन पड़ने की आवश्यकता है, जैसा कि अंधकार से भरी तमिस्रा का स्वर्णिम आभा वाले अरुणोदय के साथ जुड़ना इति और अथ का समन्वित संधिकाल यदाकदा ही आता है। इसकी प्रतीक्षा युग-युगान्तरों तक करनी पड़ती है, इन दिनों ऐसा ही कुछ होने जा रहा है।
  
🔶 विभीषिकाओं का घटाटोप हर दिशा में गर्जन-तर्जन करता देखा जा सकता है। जो चल रहा है, उससे विपत्तियों का संकेत ही मिलता है। दुर्बुद्धि ने चरम सीमा तक पहुँचकर ऐसी संभावना प्रस्तुत कर दी है, जिसे बुरे किस्म की दुर्गति ही कह सकते हैं। प्रवाह को और अधिक उत्तेजित कर देना सरल है, पर उसे उलटकर सृजन की दिशा में योजनाबद्ध रूप से नियोजित कर सकना ऐसा है, जिसकी आशा विश्वकर्माओं से ही की जा सकती है। उन्हीं के लिए दसों दिशाओं से पुकार उठ रही है। उन्हीं को खोज निकालने या नये सिरे से ढालने के लिए समय मचल रहा है। बड़े काम आखिर बड़ों के बिना कर ही कौन सकेगा?
  
🔷 प्रश्न, क्षेत्र विशेष की परिस्थितियों से निपटने का नहीं है और न समुदाय विशेष से निपटने का। अभावों को दूर करने का भी नहीं है और न साधन जुटाने की अनिवार्यता जैसा। अति कठिन कार्य सामने यह है कि संसार भर के मानव समुदाय पर छाई हुई विचार विकृति का परिशोधन किस प्रकार किया जाय? यह कार्य लेखनी, वाणी एवं प्रचार माध्यमों से भी एक सीमा तक ही हो सकता है, सो भी बड़ी मंदगति से, जबकि आवश्यकता इस बात की है कि लोकचिंतन में गहराई तक घुसी हुई भ्रष्टता से कैसे निपटा जाए और उसके फलस्वरूप जो दुराचरण का सिलसिला चल पड़ा है, उसके उद्गम को बंद कैसे किया जाय?

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 44

👉 Scientific Basis of Gayatri Mantra Japa

🔷 The entire Vedic Literature and the sages and savants of the shastric scriptures have given paramount importance to the Gayatri Mantra and have discussed in detail the methods of the japa and sadhana of this great mantra. There is no scripture, which does not sing paeans of the preeminent benefits and supramental effects of this mantra that encompass the personal, global and the cosmic realms of existence. It is said that even if one performs the japa and dhyan (meditation) of this mantra with fervent faith without going through all the prescribed ascetic disciplines of higher-level sadhanas, he attains all the blessings and boons of this mantra.

🔶 Not only the immanent inspirations and the marvellous configuration of specific syllables and sonic patterns, the psychological and spiritual core of this Vedic Mantra is also so sound that it appears to be founded on profound scientific basis. Let us look at some of these aspects to understand the impact of its japa. The amazing structure, functions and complexity of the human body has been the center of deep attention for thousands of scientists, biologists, anatomists and physiologists since long.

🔷 Still a lot remains unknown, especially the body is fine network of nerves, molecular functions, endocrine system and the brain. In comparison, what has been experienced and known about the human body and brain by rigorous yoga-sadhanas seems to be more thorough and significant. In the deep state of trance through devout yoga sadhanas, the Rishis, the yogis of the Vedic times, had found this body a miniature reflection of the entire cosmos, as mentioned in the quote - "Yat Brahmande Tat Pinde".

📖 Akhand Jyoti, Mar Apr 2003

👉 वर्तमान दुर्दशा क्यों? (भाग 4)

🔷 भारतीय शास्त्र चिल्ला चिल्ला कर बताते हैं कि आपत्तियों का कारण अधर्म है। हम देखते हैं कि पिछली शताब्दियों में नैतिकता का स्तर जितना नीचा घटा है उतना सृष्टि के आदि से लेकर पहले कभी नहीं घटा था। इन दिनों बुद्धिबल से, यान्त्रिक शक्ति से, छल प्रबन्ध से, स्वार्थ साधना का ही विशेष ध्यान रखा गया। लूट खसोट की प्रधानता रही। पहले शत्रु के लिए भी उसके चरित्र को नष्ट करने के षड़यंत्र नहीं रचे जाते थे पर इस युग में निर्बल शक्ति वालों को नैतिकता से भी गिरा देने का बुद्धिमान लोगों ने प्रयत्न किया, ताकि वे लोग असत् आचरण के कारण द्वेष, कलह, अशान्ति एवं कुविचारों में उलझे रहें और हमें लूट खसोट का अच्छा अवसर हाथ लगता रहे।

🔶 जब मनुष्यों के मन में सद्वृत्तियाँ रहती हैं तो उनकी सुगंध से दिव्यलोक भरापूरा रहता है और जैसे यज्ञ की सुगंधि से अच्छी वर्षा, अच्छी अन्नोत्पत्ति होती है वैसे ही जनता की सत् भावनाओं के फलस्वरूप ईश्वरी कृपा की- सुख शान्ति की वर्षा होती है। यदि लोगों के हृदय कपट, पाखंड, द्वेष, छल आदि दुर्भावों से भरे रहें तो उससे अदृश्य लोक एक प्रकार की आध्यात्मिक दुर्गन्ध से भर जाते हैं जैसे वायु के दूषित, दुर्गन्धित होने से हैजा आदि बीमारियाँ फैलती हैं वैसे ही पाप वृत्तियों के कारण सूक्ष्म लोकों का वातावरण गंदा हो जाने से युद्ध, महामारी, दारिद्र, अर्थ संकट, दैवी प्रकोप आदि उपद्रवों का आविर्भाव होता है।

🔷 संसार की सुख शान्ति इस बात के ऊपर निर्भर है कि प्रेम, दया, सहानुभूति, उदारता और न्याय का व्यवहार अन्य लोगों के साथ किया जावे, जब इस प्रकार के विचार और व्यवहार की अधिकता होती है तो संसार में ईश्वरीय कृपा के सुन्दर आनन्ददायक परिणाम दिखाई पड़ते हैं सब लोग सुख शान्ति के साथ प्रफुल्लता मय जीवन बिताते हैं, किन्तु जब स्वार्थ लिप्सा में अन्धे होकर मनुष्य एक दूसरे को नीचा दिखाने के प्रयत्न करते हैं तो उसके दुर्गन्धित धुँए से सबका दम घुटने लगता हैं विपत्ति, आपदा और कष्टों के पहाड़ चारों ओर से टूटने लगते हैं। दुख दारिद्र का नंगा नाच होने लगता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 महायोगी अरविन्द
📖 अखण्ड ज्योति, जनवरी 1943 पृष्ठ 5
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1943/January/v1.5

👉 हमारी चेतावनी को अनदेखा न करें

🔷 भले ही लोग सफल नहीं हो पा रहे हैं पर सोच और कर यही रहे हैं कि वे किसी प्रकार अपनी वर्तमान सम्पत्ति को जितना अधिक बढ़ा सकें, दिखा सकें उसकी उधेड़ बुन में जुटे रहें। यह मार्ग निरर्थक है। आज की सबसे बड़ी बुद्धिमानी यह है कि किसी प्रकार गुजारे की बात सोची जाए। परिवार के भरण-पोषण भर के साधन जुटाये जायें और जो जमा पूँजी पास है उसे लोकोपयोगी कार्य में लगा दिया जाए। जिनके पास नहीं है वे इस तरह की निरर्थक मूर्खता में अपनी शक्ति नष्ट न करें। जिनके पास गुजारे भर के लिए पैतृक साधन मौजूद हैं, जो उसी पूँजी के बल पर अपने वर्तमान परिवार को जीवित रख सकते हैं वे वैसी व्यवस्था बना कर निश्चित हो जायें और अपना मस्तिष्क तथा समय उस कार्य में लगायें, जिसमें संलग्न होना परमात्मा को सबसे अधिक प्रिय लग सकता है।

🔶 जो जितना समय बचा सकता है वह उसका अधिकाधिक भाग नव-निर्माण जैसे इस समय के सर्वोपरि पुण्य परमार्थ में लगाने के लिये तैयार हो जाए। समय ही मनुष्य की व्यक्तिगत पूँजी है, श्रम ही उसका सच्चा धर्म है। इसी धन को परमार्थ में लगाने से मनुष्य के अन्तःकरण में उत्कृष्टता के संस्कार परिपक्व होते हैं। धन वस्तुतः समाज एवं राष्ट्र की सम्पत्ति है। उसे व्यक्तिगत समझना एक पाप एवं अपराध है। जमा पूँजी में से जितना अधिक दान किया जाए वह तो प्रायश्चित मात्र है। सौ रुपये की चोरी करके कोई पाँच रुपये दान कर दें तो वह तो एक हल्का सा प्रायश्चित ही हुआ। मनुष्य को अपरिग्रही होना चाहिए। इधर कमाता और उधर अच्छे कर्मों में खर्च करता रहे यही भलमनसाहत का तरीका है। जिसने जमा कर लिया उसने बच्चों को दुर्गुणी बनाने का पथ प्रशस्त किया और अपने को लोभ-मोह के माया बंधनों में बाँधा। इस भूल का जो जितना प्रायश्चित कर ले, जमा पूँजी को सत्कार्य में लगा दे उतना उत्तम है। प्रायश्चित से पाप का कुछ तो भार हल्का होता ही है। पुण्य परमार्थ तो निजी पूँजी से होता है। वह निजी पूँजी है- समय और श्रम। जिसका व्यक्तिगत श्रम और समय परमार्थ कार्यों में लगा समझना चाहिए कि उसने उतना ही अपना अन्तरात्मा निर्मल एवं सशक्त बनाने का लाभ ले लिया।

🔷 परमार्थ प्रयोजनों के लिये समय का अभाव केवल एक ही कारण से रहता है कि मनुष्य तुच्छ स्वार्थों को सर्वोत्तम समझता है और उन्हीं की पूर्ति को प्रमुखता देता है। जो कार्य बेकार लगेगा उसी के लिये समय न बचेगा। परमार्थ को बेकार की बात माना जायेगा तो उसके लिये समय कहाँ से बचेगा? भगवान की युग की पुकार को उपेक्षणीय माना जायेगा तो उसके लिए श्रम या धन खर्च करने की सुविधा कहाँ रह जायेगी? अपनी आत्मा को मिथ्या प्रवंचनाओं से नहीं ठगना चाहिए। समय,श्रम या धन न बचने का बहाना नहीं बनाना चाहिए। प्रबुद्ध, विवेकशील एवं जागृत आत्माओं से परमेश्वर कुछ बड़ी आशा करता है। उसी के अनुरूप हमें अपनी गतिविधियों को मोड़ना चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी
📖 अखण्ड ज्योति, मार्च 1967 पृष्ठ 34, 35
http://literature.awgp.org/hindi/akhandjyoti/1967/March/v1.34

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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