तादात्म्य अर्थात् भक्त और इष्ट की अंतःस्थिति का समन्वय एकीकरण। दूसरे शब्दों में ईश्वरीय अनुशासन के अनुरूप जीवनचर्या का निर्धारण। परब्रह्म तो अचिन्त्य है पर उपासना जिस परमात्मा की की जाती है वह आत्मा का ही परिष्कृत रूप है। वेदान्त दर्शन से सोऽहम्, शिवोऽहम्, तत्त्वमसि, अयमात्मा, ब्रह्म आदि शब्दों में अन्तःचेतना के उच्चस्तरीय विशिष्टताओं से भरे- पूरे उत्कृष्टताओं के समुच्चय को ही परमात्मा कहा गया है, उसके साथ ही मिलन का, तादात्म्य का स्वरूप तभी बनता है जब दोनों के मध्य एकता एकात्मता स्थापित हो। इसके लिए साधक अपने आपको कठपुतली की स्थिति में रखता है और अपने अवयवों में बंधे धागों को बाजीगर के हाथों सौंप देता है। दर्शकों को मन्त्र मुग्ध कर देने वाला खेल इस स्थापना के बिना बनता ही नहीं। आत्मा को परमात्मा की उच्चस्तरीय प्रेरणाएँ अपनाने और तदनुरूप जीवनचर्या बनाने पर ही उपासना का समग्र लाभ मिलता है।
लकड़ी और अग्नि की समीपता का प्रतिफल प्रत्यक्ष है। गीली लकड़ी आग के समीप पहुँचते- पहुँचते अपनी नमी गँवाती और उस ऊर्जा से अनुप्राणित होती चली जाती है। जब वह अति निकट पहुँचती है तो फिर आग और लकड़ी एक स्वरूप जैसे हो जाते हैं। साधक को भी ऐसा ही भाव समर्पण करके ईश्वरीय अनुशासन के साथ अपने आपको एक रूप बनाना पड़ता है। चन्दन के समीप वाली झाड़ियों का सुगन्धित हो जाना, स्वाति बूँद के संयोग से सीप में मोती पैदा होना, पारस छूकर लोहे का स्वर्ण बनना, नाले का गंगा में मिलकर गंगाजल बनना, पानी का दूध में मिलकर उसी भाव बिकना, बूँद का समुद्र में मिलकर सुविस्तृत हो जाना जैसे अगणित उदाहरण हैं, जिनके आधार पर यह जाना जा सकता है कि भक्त और भगवान की एकता उपासना का स्तर क्या होना चाहिए। सृष्टि के आदि से अद्यावधि सच्चे भक्तों में से प्रत्येक को ईश्वर के शरणागत होना पड़ा है। आत्म समर्पण का साहस जुटाना पड़ा है।
इसका व्यावहारिक स्वरूप है ईश्वरीय अनुशासन को, उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व को अपनी विचारणा एवं कार्यपद्धति से अनुप्राणित करना। जो इस तत्व दर्शन को जानते, मानते और व्यवहार में उतारते रहे हैं उन सच्चे ईश्वर भक्तों को सुनिश्चित रूप से वे लाभ मिले हैं, जिन्हें उपासना की फल श्रुतियों के रूप में कहा जाता रहा है। पत्नी- पति को आत्म समर्पण करती है। अर्थात उसकी मर्जी पर चलने के लिए अपनी मनोभूमि एवं क्रिया पद्धति को मोड़ती चली जाती है। इस आत्म समर्पण के बदले वह पति के वंश, गोत्र, यश, वैभव की उत्तराधिकारिणी ही नहीं अर्धांगिनी भी बन जाती है। समर्पण विहीन कर्मकाण्ड तो एक प्रकार का वेश्या व्यवसाय या चिन्ह पूजा जैसा निर्जीव ढकोसला ही माना जाएगा। भक्त भगवान के अनुरूप चलता चला जाता है और अन्ततः नर नारायण, पुरुष- पुरुषोत्तम, भक्त भगवान की एक रूपता का स्वयं प्रमाण बनता है। देवात्माओं में परमात्मा स्तर की क्षमतायें ही उत्पन्न हो जाती हैं। इन्हें ही ऋद्धि- सिद्धियाँ कहते हैं।
.....क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
लकड़ी और अग्नि की समीपता का प्रतिफल प्रत्यक्ष है। गीली लकड़ी आग के समीप पहुँचते- पहुँचते अपनी नमी गँवाती और उस ऊर्जा से अनुप्राणित होती चली जाती है। जब वह अति निकट पहुँचती है तो फिर आग और लकड़ी एक स्वरूप जैसे हो जाते हैं। साधक को भी ऐसा ही भाव समर्पण करके ईश्वरीय अनुशासन के साथ अपने आपको एक रूप बनाना पड़ता है। चन्दन के समीप वाली झाड़ियों का सुगन्धित हो जाना, स्वाति बूँद के संयोग से सीप में मोती पैदा होना, पारस छूकर लोहे का स्वर्ण बनना, नाले का गंगा में मिलकर गंगाजल बनना, पानी का दूध में मिलकर उसी भाव बिकना, बूँद का समुद्र में मिलकर सुविस्तृत हो जाना जैसे अगणित उदाहरण हैं, जिनके आधार पर यह जाना जा सकता है कि भक्त और भगवान की एकता उपासना का स्तर क्या होना चाहिए। सृष्टि के आदि से अद्यावधि सच्चे भक्तों में से प्रत्येक को ईश्वर के शरणागत होना पड़ा है। आत्म समर्पण का साहस जुटाना पड़ा है।
इसका व्यावहारिक स्वरूप है ईश्वरीय अनुशासन को, उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व को अपनी विचारणा एवं कार्यपद्धति से अनुप्राणित करना। जो इस तत्व दर्शन को जानते, मानते और व्यवहार में उतारते रहे हैं उन सच्चे ईश्वर भक्तों को सुनिश्चित रूप से वे लाभ मिले हैं, जिन्हें उपासना की फल श्रुतियों के रूप में कहा जाता रहा है। पत्नी- पति को आत्म समर्पण करती है। अर्थात उसकी मर्जी पर चलने के लिए अपनी मनोभूमि एवं क्रिया पद्धति को मोड़ती चली जाती है। इस आत्म समर्पण के बदले वह पति के वंश, गोत्र, यश, वैभव की उत्तराधिकारिणी ही नहीं अर्धांगिनी भी बन जाती है। समर्पण विहीन कर्मकाण्ड तो एक प्रकार का वेश्या व्यवसाय या चिन्ह पूजा जैसा निर्जीव ढकोसला ही माना जाएगा। भक्त भगवान के अनुरूप चलता चला जाता है और अन्ततः नर नारायण, पुरुष- पुरुषोत्तम, भक्त भगवान की एक रूपता का स्वयं प्रमाण बनता है। देवात्माओं में परमात्मा स्तर की क्षमतायें ही उत्पन्न हो जाती हैं। इन्हें ही ऋद्धि- सिद्धियाँ कहते हैं।
.....क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य