शुक्रवार, 27 मई 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 57) :-- 👉 अन्तरात्मा का सम्मान करना सीखें

🔵 एक सूफी दरवेश अमीरूल्लाह हुए हैं। यह बड़े पहुँचे हुए फकीर थे। इनके सान्निध्य में अनेकों को अपने मन की खोई हुई शान्ति वापस मिलती थी। दरवेश अमीरूल्लाह का हर पल, हर क्षण खुदा की इबादत में बीतता है। हिन्दू- मुसलमान, गरीब- अमीर सभी के अपने थे वह। गाँव के लोग उन्हें अमीर बाबा कहकर बुलाते थे। इन्हीं के गाँव में सांझ के समय एक युवक आया। उसके कपड़ों की हालत देखकर लगता था कि वह काफी दूर से चला आ रहा है। फकीर के पास पहुँचकर उसने साष्टांग प्रणाम किया। और उनका शिष्य होने की इच्छा प्रकट की।
    
🔴 दरवेश अमीर बाबा ने उसकी ओर बड़ी बेधक नजरों से देखा और बोले, यदि तुम शिष्य होना चाहते हो, तो पहले शिष्य की जिन्दगी का ढंग सीखो। यह क्या है बाबा? युवक के जिज्ञासा करने पर दरवेश अमीर बाबा ने कहा, बेटा! शिष्य अपनी अन्तरात्मा का सम्मान करना जानता है। वह इन्द्रिय लालसाओं के लिए, थोड़े से स्वार्थ के लिए या फिर अहंकार की झूठी शान के लिए अपना सौदा नहीं करता। वह ऐसी जिन्दगी जीता है जो खुदा के एक सच्चे व नेक बन्दे को जीनी चाहिए। बाबा की इन बातों को सुनते हुए उस युवक को लग रहा था कि दरवेश अपनी बातों का और खुलासा करें।
  
🔵 सो उनके मनोभावों को पढ़ते हुए दरवेश बाबा बोले, बेटा! दुनिया का आम इन्सान दुनिया के सामने झूठी, नकली जिन्दगी जीता है। वह भय के कारण, समाज के डर की वजह से समाज में अपने अच्छे होने का नाटक करता है। परन्तु समाज की ओट में, चोरी- छुपे अनेकों बुरे काम कर लेता है। अपने मन में बुरे ख्यालों व ख्वाबों में रस लेता है। परन्तु खुदा का नेक बन्दा कभी ऐसा नहीं करता। क्योंकि वह जानता है, खुदा सड़क और चौराहों में भी है और कमरों की बन्द दीवारों के भीतर भी। यहाँ तक कि अन्तर्मन के दायरों में भी उसकी उपस्थिति है। सो वह हर कहीं- हर जगह अपने कर्म, विचार व भावनाओं में पाक- साफ होकर जीता है। यही अन्तरात्मा का सम्मान करने का तरीका है। जो ऐसा करते हैं, वे अपने पीर- गुरु को सहज प्यार करते हैं। भगवान् की कृपा भी उन पर सदा बरसती रहती है। इस कृपा की और अधिक सघन अनुभूति कैसे हो। इस रहस्य को शिष्य संजीवनी के अगले सूत्र में बताया जाएगा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/antar

👉 गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (अन्तिम भाग)



🔵 साधना से सम्पन्नता की सिद्धि या सफलता प्राप्त के शाश्वत सिद्धांत पर ये सभी बातें लागू होती हैं। छुटपुट कर्मकाण्डों की लकीर पीट लेने से अभीष्ट सफलता कहाँ मिलती है? उसके लिये श्रम साधना, मनोयोग, साधनों का दुरुपयोग आदि सभी आवश्यक हैं।

🔴 गायत्री के आकर्षक महात्म्य जो बताये जाते रहे हैं, वे किसी को मिलते हैं- किसी को नहीं। इसका एक ही कारण है- उपासना व साधना के मध्य अविच्छिन्न संबंध। दोनों परस्पर पूरक हैं। उपासना से तात्पर्य है- उत्कृष्टता की देवसत्ता के साथ तादात्म्य स्थापित करना, साधना का अर्थ है- अपने गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता का अनुपात अधिकाधिक मात्रा में बढ़ाना। यदि गायत्री तत्वज्ञान को सही रूप में समझा गया होगा तो साधक को निर्धारित उपासना कृत्य श्रद्धापूर्वक स्वीकार करना पड़ेगा, साथ ही आत्म-परिष्कार की जीवन साधना में भी उतनी ही तत्परता के साथ संलग्न होना पड़ेगा। दोनों का मिलन होते ही चमत्कार दृष्टिगोचर होने लगते हैं। भ्रष्ट जीवन के रहते दैवी अनुकम्पाएँ मिल सकना संभव नहीं। जो देवताओं को फुसलाकर अपना उल्लू साधना चाहते हैं पर चिन्तन और चरित्र में उत्कृष्टता का समावेश नहीं करते, ऐसे ही लोगों की उपासना प्रायः निष्फल रहती है। इसी प्रकार लोग विभिन्न शंकाएं उठाते देखे गये हैं और कुतर्क का जाल बुनकर भावना के क्षेत्र में कुहराम मचाते पाये गये हैं।

🔵 बिना किसी जाति, लिंग, देश और धर्म का अन्तर किये मानव मात्र को गायत्री उपासना करने और उससे लाभान्वित होने का पूरा-पूरा अधिकार है। इस सम्बन्ध में अधकचरे ज्ञान के आधार पर उठायी गई प्रतिगामी टिप्पणियों से अप्रभावित हो, जिन्हें भी आत्मिक प्रगति में तनिक भी रुचि हो, बिना किसी आशंका-असमंजस के श्रद्धापूर्वक गायत्री उपासना करते रहना चाहिये।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति जुलाई पृष्ठ 49
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1983/July.49

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