रविवार, 18 दिसंबर 2016

👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 38) 19 Dec

🌹 गम्भीर न रहें, प्रसन्न रहना सीखें

🔵 रोलेण्ड विलियम्स बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे, उनकी जिम्मेदारियां और गतिविधियां भी सुविस्तृत थीं, पर वे अपनी मेज पर उन्हीं फाइलों को आने देते थे जिन्हें आज ही निपटाया जा सकता है। इसी सिद्धांत को अपनाकर वे अत्यन्त सफल व्यवस्थापक बन सके।

🔴 प्रकृति परिवर्तनशील है, उसकी दौड़ इतनी तेज है कि उसकी चाल-नाप सकना सम्भव नहीं। नदी में पैर डालकर थोड़ी देर में उन्हें ऊपर उठाया जाय तो मात्र इतने क्षणों से असंख्यों टन पानी आगे बढ़ गया होगा और पीछे से आने वाले ने उसकी जगह ले ली होगी। इस चाल के साथ किसी का दौड़ सकना सम्भव नहीं, इसी प्रकार भूतकाल की घटनाओं का आकलन करते हुए आज का निर्माण व्यर्थ है। इसी प्रकार भविष्य की उन कल्पनाओं में उड़ते रहने से कोई लाभ नहीं, जो कभी-कभी आशा के विपरीत अनोखे ढंग से बदल जाती है।

🔵 भूत के घटनाक्रमों का सही निष्कर्ष इतना ही है कि हम उन परिवर्तनों से कुछ सीखें और उस नसीहत को ध्यान में रखते हुए आज का कार्यक्रम बनायें। इसी प्रकार भविष्य को यदि सचमुच उत्तम बनाना है तो उसका भी एक ही तरीका है कि वर्तमान का श्रेष्ठतम उपयोग कर गुजरें और उन बोये हुए मीठे फलों को अवसर आने पर चखें। काम कम और चिन्ता अधिक यह बर्बादी का बहुत बुरा तरीका है।

🔴 जार्ज बर्नार्ड शा कहते थे कि हर समय व्यस्त रहो, इससे तुम्हारी वे शक्तियां बच जायेंगी जो सपनों और कल्पनाओं की चक्की में पिसती हैं और शरीर-मन को बुरी तरह निचोड़ देती हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 19 Dec 2016


👉 आज का सद्चिंतन 19 Dec 2016


👉 सतयुग की वापसी (भाग 14) 19 Dec

🌹 संवेदना का सरोवर सूखने न दें  

🔴 गहरी डुबकी लगाने पर इस उलटी रीति का निमित्त कारण भी समझ में आ जाता है। भाव-संवेदनाओं का स्रोत सूख जाने पर सूखे तालाब जैसी शुष्कता ही शेष बचती है। इसे चेतना क्षेत्र की निष्ठुरता या नीरसता भी कह सकते हैं। इस प्रकार उत्पन्न संकीर्ण स्वार्थपरता के कारण मात्र अपना ही वैभव और उपभोग सब कुछ प्रतीत होता है। उससे आगे भी कुछ हो सकता है, यह सूझता ही नहीं। दूसरों की सेवा-सहायता करने में भी आत्मसन्तोष और लोकसम्मान जैसी उपलब्धियाँ संग्रहित हो सकती हैं, इसका अनुमान लगाना, आभास पाना तक कठिन हो जाता है। आँख खराब हो जाने पर दिन में भी मात्र अन्धकार ही दीख पड़ता है। कान के परदे जवाब दे जाएँ तो कहीं से कोई आवाज आती सुनाई नहीं पड़ती। ऐसी ही स्थिति उनकी बन पड़ती है, जिनके लिए अनर्थ स्तर की स्वार्थ पूर्ति ही सब कुछ बनकर रह जाती है। 

🔵 शरीर से चेतना निकल जाने पर मात्र लाश ही पड़ी रह जाती है, जिसे ठिकाने न लगाया जाए तो स्वयं सड़ने लगेगी, घिनौना वातावरण उत्पन्न करेगी। जब तक कि शरीर में चेतना विद्यमान थी, वह जीवित शरीर को समर्थ एवं सुन्दर बनाए हुए थी। निर्जीव तो नीरस और निष्ठुर ही हो सकता है। मुरदा तो समीप बैठे आश्रितों या स्वजनों का विलाप भी नहीं सुनता, उस पर कुछ ध्यान भी नहीं देता। मानो उन सबसे उसका कभी दूर का सम्बन्ध भी न रहा हो। भाव-संवेदनाओं का स्रोत सूख जाने पर मनुष्य भी ऐसा ही घिनौना हो जाता है। अपना हित-अनहित तक उसे नहीं सूझता, तो दूसरों की सेवा-सहायता करने की उत्कण्ठा उठने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है। 

🔴 जीवितों और मृतकों की अलग-अलग दुनिया है। मुरदे श्मशान, कब्रिस्तान में जगह घेरकर जा बैठते हैं और उधर से निकलने वालों को भूत-प्रेतों की तरह डराते-भगाते रहते हैं। जीवितों में से भला कोई ऐसी हरकत करता है? उन्हें तो आवश्यक प्रयासों में ही निरत देखा जाता है। इन दिनों संवेदनाहीनों को प्रेतों जैसी और संवेदनशीलों को जीवितों जैसी गतिविधियाँ अपनाए हुए प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गृहस्थ-योग (भाग 38) 19 Dec

🌹 परिवार की चतुर्विधि पूजा

🔵 सूक्ष्म दृष्टि से यह निरीक्षण करते रहना चाहिये कि घर के हर एक स्त्री, पुरुष, बालक को शारीरिक और मानसिक उन्नति का समुचित अवसर मिल रहा है या नहीं? जीवन विकास और भविष्य निर्माण के स्वाभाविक अधिकार से कोई वंचित तो नहीं हो रहा है? किसी अनावश्यक सुविधा और किसी पर अनुचित दबाव तो नहीं पड़ रहा है? इन तीनों प्रश्नों पर बारीकी से नजर डालते रहने से यह बात मालूम होती रहती है कि  किस व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता है।

🔴 कुछ ऐसी प्रथा चल पड़ी हैं कि लड़कियों की अपेक्षा लड़कों को, स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों को, और बिना कमाने वालों या कम कमाने वालों की अपेक्षा अधिक कमाने वाले को, अधिक सुविधा दी जाती है। खाने, पहनने, मनोरंजन तथा सम्मान पाने में वे आगे रहते हैं। बेचारी लड़कियां और स्त्रियां तो एक प्रकार के फालतू प्राणी समझे जाते हैं, उनकी सुविधा एवं आवश्यकता और विकास की ओर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। यह अन्याय मिटना और मिटाया जाना चाहिए। स्त्रियों, लड़कियों, न कमाने वालों और रोगी, वृद्ध या असमर्थों को भी उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप समुचित सुविधायें मिलनी चाहिये।

🔵 यह चिन्ता करना गलत है कि कम आमदनी होने के कारण घर के सब लोगों की आवश्यकता किस प्रकार पूरी की जा सकेगी? छोटी आमदनी होने पर जीवन निर्वाह का व्यवस्था क्रम मितव्ययी और सादगीपूर्ण बना लेना चाहिए। मोटा कपड़ा, मोटा अनाज, साधारण रहन-सहन रखने और टीपटाप, फैशन, तड़क-भड़क, दिखावट की अनावश्यक चीजों का स्वेच्छा और प्रसन्नता पूर्वक त्याग कर देने से थोड़ी आमदनी में अच्छी तरह काम चल सकता है। अमीर, फिजूल खर्च, फैशन परस्त, छैल छबीले लोगों की नकल करने में अनावश्यक पैसा खर्च करने में कुछ भी बुद्धिमानी नहीं है। सादगी में सात्विकता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 51)

🌹 कला और उसका सदुपयोग

🔴 73. प्रदर्शनियों का आयोजन— प्रदर्शनियों के जगह-जगह आयोजन किये जांय। वर्तमान काल की सामाजिक एवं नैतिक बुराइयों के कारण होने वाले दुष्परिणामों के बड़े-बड़े चित्र बनाकर उन्हें सुसज्जित रूप से किसी कमरे या टेण्ट में लगाया जाय और दर्शकों को चित्रों के आधार पर वस्तु स्थिति समझाई जाय तो यह एक बड़ा प्रभावशाली तरीका होगा। बुराइयों की बढ़ोत्तरी की चिन्ताजनक स्थिति से भी जनता को अवगत रखा जाना आवश्यक है। इसके लिए पत्रों में छपे छुए समाचारों या रिपोर्टों के उद्धरण छोटे अक्षरों में चित्रों की भांति ही सुसज्जित बना कर प्रदर्शित किए जा सकते हैं।

🔵 बुराइयों के प्रति क्षोभ और घृणा, सतर्कता, विरोध और संघर्ष की भावना उत्पन्न करने के लिए जिस प्रकार चित्रों और वाक्य-पटों का प्रदर्शन आवश्यक है, इसी प्रकार अच्छाइयों की बढ़ती हुई प्रगति एवं घटनाओं की जानकारी कराने वाले चित्र एवं वाक्य-पट इन प्रदर्शनियों में रहें, जिससे सेवा, त्याग, प्रेम, उदारता की भावनाओं को चरितार्थ करने, सन्मार्ग पर चलने और सत्कर्म करने के लिए प्रेरणा मिले। इस प्रकार की प्रदर्शनियां मेले-उत्सवों पर तथा अन्य अवसरों पर करते रहने के लिए व्यवस्थित योजना बनाकर चला जाय तो इससे भावनाओं के उत्कर्ष में बड़ी सहायता मिलेगी।

🔴 74. अभिनय और लीलाएं— भगवान राम और कृष्ण की लीलाएं जगह-जगह धूम-धाम से होती हैं। इनके व्यवस्थापक ऐसा प्रयत्न करें कि उनमें से निरर्थक एवं मनोरंजक अंश कम करके शिक्षा एवं सन्मार्ग के प्रेरणा उत्पन्न करने वाले अंश बढ़ा दें। उपस्थित जनता को समझाने को भी सुधरा हुआ ढंग काम में लाया जाय।

🔵 जगह-जगह अगणित मेले-ठेले होते हैं, उनके पीछे कोई न कोई इतिहास या परम्परा होती है। इसको किसी लीला, अभिनय, एकांकी, प्रदर्शनी, गायन, संगीत, पोस्टर आदि के रूप से उपस्थित किया जाय, जिससे उन मेलों में आने वाली जनता उन आयोजनों के मूल कारणों को समझे और उस मेले का कुछ भावनात्मक लाभ भी उठाये। रामलीला आदि में अभिनय करने वाले या उनका संचालन करने में कुशल लोग अपने-अपने क्षेत्रों में ऐसे आयोजनों का प्रबन्ध कर सकते हैं। इससे मेलों का आकर्षण भी बढ़ेगा और प्रचार कार्य की भी श्रेष्ठ व्यवस्था बनेगी।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गहना कर्मणोगति: (भाग 21) 19 Dec

🌹 अपनी दुनियाँ के स्वयं निर्माता

🔵  एक दार्शनिक का मत है कि संसार एक निष्प्राण वस्तु है। इसे हम जैसा बनाना चाहते हैं, यह वैसा ही बन जाता है। जीव चैतन्य है और कर्त्ता है। संसार पदार्थ है और जड़ है। चैतन्य कर्ता में यह योग्यता होती है कि वह जड़ पदार्थ की इच्छा और आवश्यकता का उपयोग कर सके। कुम्हार के सामने मिट्टी रखी हुई है, वह उससे घड़ा भी बना सकता है और दीपक भी। सुनार के सामने सोना रखा हुआ है, वह उससे मनचाहा आभूषण बना सकता है। दर्जी के हाथ में सुई है और कपड़ा भी। वह चाहे तो कुर्ता सी सकता है, चाहे पाजामा। संसार ठीक इसी प्रकार हमारे सामने रखा हुआ है। उसमें सत्, रज, तम तीनों का मिश्रण है। चुनने वाला आदमी अपनी मर्जी के मुताबिक उनमें से चाहे जो वस्तु चुन सकता है।
    
🔴 बाग में कीचड़ भी है, गंदगी भी है और फूलों की सुगंध भी है। कीड़े कीचड़ में घुस पड़ते हैं, मक्खियाँ गंदगी खोज निकालती हैं और भौंरे सुगंधित फूल पर जा पहुँचते हैं। सब को अपनी इच्छित वस्तु मिल जाती है, चमगादड़ और उल्लू रात में भी प्रकाश फैलाते हैं, मधु-मक्खियों को घास के बीच मिठाई के ढेर मिल जाते हैं, साँप को ओस में भी विषवर्धक तत्त्व प्राप्त हो जाते हैं। त्रिगुणमयी प्रकृति में तीनों तरह की वस्तुएँ मौजूद हैं। इस दुकान पर खट्टा, मीठा, नमकीन तीनों तरह का सौदा बिकता है। जो जैसा ग्राहक आता है, अपनी मन पसंद का सामान खरीद ले आता है। इस भण्डार में किसी वस्तु की कमी नहीं है। हर वस्तु के गोदाम भरे हुए हैं। माता ने षट् रस व्यंजन तैयार करके रखे हैं जिस बच्चे की जो रुचि हो खुशी-खुशी खा सकता है।     

🔵 त्रिगुणमयी प्रकृति के दोनों पहलू मौजूद हैं, एक भला, दूसरा बुरा, एक काला, दूसरा सफेद, एक धर्म, दूसरा अधर्म, एक सुख, दूसरा दुःख। चुनाव की पूरी-पूरी आजादी आपको है। दुनियाँ का असली रूप क्या है, यह आरम्भ में ही बताया जा चुका है, पर वह एक तात्त्विक व्याख्या है, व्यावहारिक दृष्टि से हर व्यक्ति की अपनी एक अलग दुनियाँ है। एक व्यक्ति चोर है, उसके मानसिक आकर्षण से बहुत से चोरों से उसकी मैत्री हो जाएगी और जेल में, समाज में, घर में सब जगह उसे चोरी की ही चर्चा मिलेगी। घर वाले उससे बात करेंगे, तो चोरी की, माता बुरा बताएगी स्त्री अच्छा, कोई चोरी का समर्थन करेगा, कोई विरोध करेगा। घर से बाहर निकलने पर उसके परिचित लोग उससे जब मिलेंगे, उससे पेशे चोरी के बारे में ही भला-बुरा वार्तालाप करेंगे, अपने साथी चोरों से मिलेगा, तो वही चोरी की बातें होंगी, जेल में भी चोर-चोर मौसरे भाई की तरह मिल बैठेंगे और अपने प्रिय विषय की बातें खूब घुल-घुल कर करेंगे।

🔴 इस प्रकार उस चोर के लिए यह सारा संसार चोरी की धुरी पर नाचता हुआ दिखाई देगा। उसको विश्व का सबसे बड़ा काम चोरी ही दिखाई पड़ेगा। अन्य बातों की ओर उसका ध्यान बहुत ही स्वल्प जाएगा। अन्य कार्यों पर उसकी उपेक्षा दृष्टि ही पड़ेगी। इसी प्रकार व्याभिचारी व्यक्ति की दृष्टि में संपूर्ण स्त्रियाँ वेश्याएँ, व्याभिचारिणी, कुमार्गगामिनी दिखाई देंगी, उसी प्रकार की पुस्तकें तस्वीरें खिंच-खिंच कर उसके पास जमा हो जाएँगी। संगी-साथी उसी प्रकार के मिल जाएँगे, उसके मस्तिष्क में सबसे बड़ा प्रश्न काम-वासना सम्बन्धी ही खड़ा रहेगा। नशेबाज अपने स्वभाव के भाई-वृंदों को समेटकर अपनी अलग दुनियाँ बना लेते हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/gah/aapni.1

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...