सोमवार, 9 जनवरी 2017
👉 जीवन देवता की साधना-आराधना (भाग 3) 10 Jan
🌹 अध्यात्म तत्त्वज्ञान का मर्म जीवन साधना
🔴 साधकों में भिन्नता देखी जाती है। उनके भिन्न-भिन्न इष्ट देव उपास्य होते हैं। उनसे अनुग्रह अनुकम्पा की आशा की जाती है। और विभिन्न मनोकामनायें पूर्ण करने की अपेक्षा रखी जाती है। इनमें से कितने सफल होते हैं, इस सम्बन्ध में कुछ कहा नहीं जा सकता है। क्योंकि पराधीनता की स्थिति में स्वामी की इच्छा पर सब कुछ निर्भर रहता है। सेवक तो अनुनय-विनय ही करता रह सकता है, किन्तु जीवन देवता के सम्बन्ध में यह बात नहीं है। उसकी अभ्यर्थना सही रूप में बन पड़ने पर वह सब कुछ इसी कल्पवृक्ष के नीचे प्राप्त किया जा सकता है, जिसकी कहीं अन्यत्र से पाने की आशा लगाई जाती है।
🔵 ब्रह्माण्ड का छोटा सा रूप पिण्ड परमाणु है। जो ब्रह्माण्ड में है वह सब कुुछ पदार्थ के सबसे छोटे घटक परमाणु में भी विद्यमान है और सौर मण्डल की समस्त क्रिया-प्रक्रिया अपने में धारण किये हुए है। इसे विज्ञानवेत्ताओं ने एक स्वर से स्वीकार किया है। इसी प्रतिपादन का दूसरा पक्ष यह है कि परमसत्ता ब्रह्माण्डीय चेतना का छोटा किन्तु समग्र प्रतीक जीव है। वेदान्त दर्शन के अनुसार परिष्कृत आत्मा ही परमात्मा है। तत्त्वदर्शन के अनुसार इसी काय कलेवर में समस्त देवताओं का निवास है। परब्रह्म की दिव्य क्षमताओं का समस्त वैभव जीवब्रह्म के प्रसुप्त संस्थानों में समग्र रूप से विद्यमान है। यदि उन्हें जगाया जा सके तो विज्ञात अतीन्द्रिय क्षमतायें और अविज्ञात दिव्य विभूतियाँ जाग्रत, सक्षम एवं क्रियाशील हो सकती हैं।
🔴 तपस्वी, योगी, ऋषि, मनीषि, महामानव सिद्धपुरुष ऐसी ही विभूतियों से सम्पन्न देखे गये हैं। तथ्य शाश्वत और सनातन हैं। जो कभी हो चुका है, वह अब भी हो सकता है। जीवन देवता की साधना से ही महा सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। कस्तूरी के हिरण जैसी बात है। बाहर खोजने में थकान और खीझ ही हाथ लगती है। शान्ति तब मिलती है, जब उस सुगन्ध का केन्द्र अपनी ही नाभि में होने का पता चलता है। परमात्मा के साथ सम्पर्क स्थापित करने के लिये अन्यत्र खोजबीन करने की योजना व्यर्थ है। वह एक देशकाल तक सीमित नहीं है, कलेवरधारी भी नहीं। उसे अति निकटवर्ती क्षेत्र में देखना हो तो वह अपना अन्त:करण ही हो सकता है। समग्र जीवन इसी की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 साधकों में भिन्नता देखी जाती है। उनके भिन्न-भिन्न इष्ट देव उपास्य होते हैं। उनसे अनुग्रह अनुकम्पा की आशा की जाती है। और विभिन्न मनोकामनायें पूर्ण करने की अपेक्षा रखी जाती है। इनमें से कितने सफल होते हैं, इस सम्बन्ध में कुछ कहा नहीं जा सकता है। क्योंकि पराधीनता की स्थिति में स्वामी की इच्छा पर सब कुछ निर्भर रहता है। सेवक तो अनुनय-विनय ही करता रह सकता है, किन्तु जीवन देवता के सम्बन्ध में यह बात नहीं है। उसकी अभ्यर्थना सही रूप में बन पड़ने पर वह सब कुछ इसी कल्पवृक्ष के नीचे प्राप्त किया जा सकता है, जिसकी कहीं अन्यत्र से पाने की आशा लगाई जाती है।
🔵 ब्रह्माण्ड का छोटा सा रूप पिण्ड परमाणु है। जो ब्रह्माण्ड में है वह सब कुुछ पदार्थ के सबसे छोटे घटक परमाणु में भी विद्यमान है और सौर मण्डल की समस्त क्रिया-प्रक्रिया अपने में धारण किये हुए है। इसे विज्ञानवेत्ताओं ने एक स्वर से स्वीकार किया है। इसी प्रतिपादन का दूसरा पक्ष यह है कि परमसत्ता ब्रह्माण्डीय चेतना का छोटा किन्तु समग्र प्रतीक जीव है। वेदान्त दर्शन के अनुसार परिष्कृत आत्मा ही परमात्मा है। तत्त्वदर्शन के अनुसार इसी काय कलेवर में समस्त देवताओं का निवास है। परब्रह्म की दिव्य क्षमताओं का समस्त वैभव जीवब्रह्म के प्रसुप्त संस्थानों में समग्र रूप से विद्यमान है। यदि उन्हें जगाया जा सके तो विज्ञात अतीन्द्रिय क्षमतायें और अविज्ञात दिव्य विभूतियाँ जाग्रत, सक्षम एवं क्रियाशील हो सकती हैं।
🔴 तपस्वी, योगी, ऋषि, मनीषि, महामानव सिद्धपुरुष ऐसी ही विभूतियों से सम्पन्न देखे गये हैं। तथ्य शाश्वत और सनातन हैं। जो कभी हो चुका है, वह अब भी हो सकता है। जीवन देवता की साधना से ही महा सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। कस्तूरी के हिरण जैसी बात है। बाहर खोजने में थकान और खीझ ही हाथ लगती है। शान्ति तब मिलती है, जब उस सुगन्ध का केन्द्र अपनी ही नाभि में होने का पता चलता है। परमात्मा के साथ सम्पर्क स्थापित करने के लिये अन्यत्र खोजबीन करने की योजना व्यर्थ है। वह एक देशकाल तक सीमित नहीं है, कलेवरधारी भी नहीं। उसे अति निकटवर्ती क्षेत्र में देखना हो तो वह अपना अन्त:करण ही हो सकता है। समग्र जीवन इसी की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 प्रेमी हृदय का मार्ग
🔴 घृणा, विद्वेष, चिडचिडापन, उतावली, अधैर्य अविश्वास यही सब उसकी संपत्ति थे। यों कहिये कि संपूर्ण जीवन ही नारकीय बन चुका था, उसके बौद्धिक जगत में जलन और कुढन के अतिरिक्त कुछ भी तो नहीं था। सारा शरीर सूखकर काँटा हो गया था। पडोसी तो क्या, पीठ पीछे मित्र भी कहते स्टीवेन्सन अब एक-दो महीने का मेहमान रहा है; पता नही कब मृत्यु आए और उसे पकड ले जाए।
🔵 विश्व-विख्यात कवि राबर्ट लुई स्टीवेन्सन के जीवन की तरह आज सैकडों-लाखों व्यक्तियों के जीवन मनोविकार ग्रस्त हो गये हैं, पर कोई सोचता भी नहीं कि यह मनोविकार शरीर की प्रत्येक जीवनदायिनी प्रणाली पर विपरीत प्रभाव डालते हैं। रूखा, सूखा बिना विटामिन प्रोटीन और चर्बी के भोजन से स्वास्थ्य खराब नहीं होता; यह तो चिंतन, मनन की गंदगी ऊब और उत्तेजना ही है जो स्वास्थ्य के चौपट कर डालती है शरीर को खा जाती है।
🔴 उक्त तथ्य का पता स्टीवेन्सन को न चलता तो उसकी निराशा भी उसे ले डूबती। पता नही अंत क्या होता ? यह तो अच्छा हुआ कि उसमें बुद्धि से काम लेने की योग्यता थी सो जैसे ही एक मनोवैज्ञानिक मित्र ने उन्हें यह सुझाव दिया कि आप अपने जीवन में परिवर्तन कर डालिए। कुछ दिन के लिए किसी नए स्थान को चले जाइए जहां के लोग आपसे बिल्कुल परिचित न हों। फिर उन्हें अपना कुटुंबी मानकर आप प्रेम, आत्मीयता, श्रद्धा, सद्भावना और उत्सर्ग का अभ्यास कीजिए। आपके जीवन में प्रेम की गहराई जितनी बढे़गी आप उतने ही स्वस्थ होते चले जायेगे यही नहीं आपका यह अब तक का जीवन जो नारकीय बन चुका है, स्वर्गीय आभा में परिवर्तित हुआ दिखाई देगा।
🔵 प्रेम संसार की सृजनात्मक सत्ता है। प्रेम से प्रिय, मधुर और उल्लासवर्धक संसार में कुछ नहीं, जिसने प्रेम करना सीख लिया उसका सूना, उजड़ा और दैन्य-दारिद्रय से ग्रसित जीवन भी हरा-भरा हो गया। यह कथा इस तथ्य का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
🔴 तब श्री स्टीवेन्सन ने थोडा-सा सामान, कुछ पैसे लिए और समोआ द्वीप में जा वसे। पहला दिन, पहला अभ्यास प्रेम का। जिनसे भेंट हुई स्टीवेन्सन का हाथ नमस्कार के लिए पहले उठा कोई घर आया वह चाहे कुली ही रहा हो, ऐसा नही हुआ कि वह स्टीवेन्सन के साथ बैठकर चाय पिये बिना चला गया हो छोटे-छोटे बच्चे रात बेचैनी में काटते सबेरा होते ही स्टीवेन्सन का दरवाजा खटखटाते और बाहर से ही पूछते-अरे यार लुई! तुम अब तक सोए पडे हो कब से खेलने के लिए खड़े हैं आओ बाहर देखो न कितने लोग आ गए हैं?
🔵 स्टीवेन्सन अँगडाई लेकर उठते और कमरे का द्वार खोलकर बाहर आते, बच्चों में ऐसे घुल-मिल जाते कि उन्हें पता भी नहीं चलता कि द्वीप के दूसरे वयस्क प्रौढ, वृद्ध, स्त्री-पुरुष भी वही आ पहुँचे हैं। स्टीवेन्सन उन्हें मीठी-मीठी कहानियाँ सुनाते, अपने और महापुरुषों के जीवन के संस्मरण सुनाते बीच-बीच मे कोई शिक्षात्मक बातें भी कहते जाते, उसका प्रभाव यह होता कि दिन भर लोग कथा के आनंद में झूमते रहते और अपने जीवन की थोड़ी बहुत बुराइयाँ होती, उन्हें निकाल डालने के संकल्प बाँधते। स्टीवेन्सन का स्वास्थ्य तब कोई देखता तो यही कहता-झूठ। यह स्टीवेन्सन नहीं स्टीवेन्सन के शरीर में किसी देवात्मा ने प्रवेश कर लिया है।
🔴 पर सचमुच यह वही स्टीवेन्सन था, जिसने अपने प्रेम से समोआवासियो को संगठित कर, बंदरगाह से नगर तक के ऊबड-खाबड को समान रास्ते चौरस तथा पक्का करा दिया, प्रश्न उठा उस सडक का नाम क्या हो तब सब एक स्वर मे बोल उठे, 'प्रेमी हृदय का मार्ग'। अब तक भी इस सडक का यही नाम है। स्टीवेन्सन इस दुनिया में नहीं होगा तब भी यह सडक उसकी इस प्रेमोपलब्धि की गाथा गाती रहेगी।
🔵 विश्व-विख्यात कवि राबर्ट लुई स्टीवेन्सन के जीवन की तरह आज सैकडों-लाखों व्यक्तियों के जीवन मनोविकार ग्रस्त हो गये हैं, पर कोई सोचता भी नहीं कि यह मनोविकार शरीर की प्रत्येक जीवनदायिनी प्रणाली पर विपरीत प्रभाव डालते हैं। रूखा, सूखा बिना विटामिन प्रोटीन और चर्बी के भोजन से स्वास्थ्य खराब नहीं होता; यह तो चिंतन, मनन की गंदगी ऊब और उत्तेजना ही है जो स्वास्थ्य के चौपट कर डालती है शरीर को खा जाती है।
🔴 उक्त तथ्य का पता स्टीवेन्सन को न चलता तो उसकी निराशा भी उसे ले डूबती। पता नही अंत क्या होता ? यह तो अच्छा हुआ कि उसमें बुद्धि से काम लेने की योग्यता थी सो जैसे ही एक मनोवैज्ञानिक मित्र ने उन्हें यह सुझाव दिया कि आप अपने जीवन में परिवर्तन कर डालिए। कुछ दिन के लिए किसी नए स्थान को चले जाइए जहां के लोग आपसे बिल्कुल परिचित न हों। फिर उन्हें अपना कुटुंबी मानकर आप प्रेम, आत्मीयता, श्रद्धा, सद्भावना और उत्सर्ग का अभ्यास कीजिए। आपके जीवन में प्रेम की गहराई जितनी बढे़गी आप उतने ही स्वस्थ होते चले जायेगे यही नहीं आपका यह अब तक का जीवन जो नारकीय बन चुका है, स्वर्गीय आभा में परिवर्तित हुआ दिखाई देगा।
🔵 प्रेम संसार की सृजनात्मक सत्ता है। प्रेम से प्रिय, मधुर और उल्लासवर्धक संसार में कुछ नहीं, जिसने प्रेम करना सीख लिया उसका सूना, उजड़ा और दैन्य-दारिद्रय से ग्रसित जीवन भी हरा-भरा हो गया। यह कथा इस तथ्य का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
🔴 तब श्री स्टीवेन्सन ने थोडा-सा सामान, कुछ पैसे लिए और समोआ द्वीप में जा वसे। पहला दिन, पहला अभ्यास प्रेम का। जिनसे भेंट हुई स्टीवेन्सन का हाथ नमस्कार के लिए पहले उठा कोई घर आया वह चाहे कुली ही रहा हो, ऐसा नही हुआ कि वह स्टीवेन्सन के साथ बैठकर चाय पिये बिना चला गया हो छोटे-छोटे बच्चे रात बेचैनी में काटते सबेरा होते ही स्टीवेन्सन का दरवाजा खटखटाते और बाहर से ही पूछते-अरे यार लुई! तुम अब तक सोए पडे हो कब से खेलने के लिए खड़े हैं आओ बाहर देखो न कितने लोग आ गए हैं?
🔵 स्टीवेन्सन अँगडाई लेकर उठते और कमरे का द्वार खोलकर बाहर आते, बच्चों में ऐसे घुल-मिल जाते कि उन्हें पता भी नहीं चलता कि द्वीप के दूसरे वयस्क प्रौढ, वृद्ध, स्त्री-पुरुष भी वही आ पहुँचे हैं। स्टीवेन्सन उन्हें मीठी-मीठी कहानियाँ सुनाते, अपने और महापुरुषों के जीवन के संस्मरण सुनाते बीच-बीच मे कोई शिक्षात्मक बातें भी कहते जाते, उसका प्रभाव यह होता कि दिन भर लोग कथा के आनंद में झूमते रहते और अपने जीवन की थोड़ी बहुत बुराइयाँ होती, उन्हें निकाल डालने के संकल्प बाँधते। स्टीवेन्सन का स्वास्थ्य तब कोई देखता तो यही कहता-झूठ। यह स्टीवेन्सन नहीं स्टीवेन्सन के शरीर में किसी देवात्मा ने प्रवेश कर लिया है।
🔴 पर सचमुच यह वही स्टीवेन्सन था, जिसने अपने प्रेम से समोआवासियो को संगठित कर, बंदरगाह से नगर तक के ऊबड-खाबड को समान रास्ते चौरस तथा पक्का करा दिया, प्रश्न उठा उस सडक का नाम क्या हो तब सब एक स्वर मे बोल उठे, 'प्रेमी हृदय का मार्ग'। अब तक भी इस सडक का यही नाम है। स्टीवेन्सन इस दुनिया में नहीं होगा तब भी यह सडक उसकी इस प्रेमोपलब्धि की गाथा गाती रहेगी।
👉 गायत्री विषयक शंका समाधान (भाग 19) 10 Jan
🌹 गायत्री मंत्र कीलित है?
🔴 यह तांत्रिक साधनाओं का प्रकरण है। वैदिक-पक्ष में इस प्रकार के कड़े प्रतिबन्ध नहीं हैं, क्योंकि वे सौम्य हैं। उनमें मात्र आत्मबल बढ़ाने और दिव्य क्षमताओं को विकसित करने की ही शक्ति है। अनिष्ट करने के लिए उनका प्रयोग नहीं होता। इसलिए दुरुपयोग का अंश न रहने के कारण सौम्य मंत्रों का कीलन नहीं हुआ है। उनके लिए उत्कीलन की ऐसी प्रक्रिया नहीं अपनानी पड़ती जैसी कि तंत्र-प्रयोजनों में। फिर भी उपयुक्त शिक्षा एवं चिकित्सा के लिए उपयुक्त निर्धारण एवं समर्थ सहयोग, संरक्षण की तो आवश्यकता रहती ही है।
🔵 उपयुक्त औषधियां उपलब्ध करने पर भी चिकित्सक के अनुभव एवं संरक्षण की उपयोगिता रहती है। रोगी अपनी मर्जी से अपना इलाज करने लगे—विद्यार्थी अपने मन से चाहे जिस क्रम से पढ़ने लगे, तो उसकी सफलता वैसी नहीं हो सकती, जैसी कि उपयुक्त सहयोग मिलने पर हो सकती है। बिना मार्गदर्शन, बिना सहयोग, संरक्षण के, एकाकी यात्रा पर चल पड़ने वाले अनुभवहीन यात्री को जो कठिनाइयां उठानी पड़ती हैं, वे ही स्वेच्छाचारी साधकों के सामने बनी रहती हैं। वे आश्रयहीन तिनके की तरह हवा के झोंकों के साथ इधर-उधर भटकते छितराते रहते हैं।
🔴 इस दृष्टि से मार्गदर्शन इतनी मात्रा में तो सभी साधनाओं के लिए आवश्यक है कि उन्हें अनुभवी संरक्षण में सम्पन्न किया जाय। स्वेच्छाचार न बरता जाय। जो इस प्रयोजन को पूरा कर सकें, समझना चाहिए कि उनकी गायत्री-साधना का उत्कीलन हो गया और उनकी साधना सरल एवं सफलता सुनिश्चित हो गई।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 यह तांत्रिक साधनाओं का प्रकरण है। वैदिक-पक्ष में इस प्रकार के कड़े प्रतिबन्ध नहीं हैं, क्योंकि वे सौम्य हैं। उनमें मात्र आत्मबल बढ़ाने और दिव्य क्षमताओं को विकसित करने की ही शक्ति है। अनिष्ट करने के लिए उनका प्रयोग नहीं होता। इसलिए दुरुपयोग का अंश न रहने के कारण सौम्य मंत्रों का कीलन नहीं हुआ है। उनके लिए उत्कीलन की ऐसी प्रक्रिया नहीं अपनानी पड़ती जैसी कि तंत्र-प्रयोजनों में। फिर भी उपयुक्त शिक्षा एवं चिकित्सा के लिए उपयुक्त निर्धारण एवं समर्थ सहयोग, संरक्षण की तो आवश्यकता रहती ही है।
🔵 उपयुक्त औषधियां उपलब्ध करने पर भी चिकित्सक के अनुभव एवं संरक्षण की उपयोगिता रहती है। रोगी अपनी मर्जी से अपना इलाज करने लगे—विद्यार्थी अपने मन से चाहे जिस क्रम से पढ़ने लगे, तो उसकी सफलता वैसी नहीं हो सकती, जैसी कि उपयुक्त सहयोग मिलने पर हो सकती है। बिना मार्गदर्शन, बिना सहयोग, संरक्षण के, एकाकी यात्रा पर चल पड़ने वाले अनुभवहीन यात्री को जो कठिनाइयां उठानी पड़ती हैं, वे ही स्वेच्छाचारी साधकों के सामने बनी रहती हैं। वे आश्रयहीन तिनके की तरह हवा के झोंकों के साथ इधर-उधर भटकते छितराते रहते हैं।
🔴 इस दृष्टि से मार्गदर्शन इतनी मात्रा में तो सभी साधनाओं के लिए आवश्यक है कि उन्हें अनुभवी संरक्षण में सम्पन्न किया जाय। स्वेच्छाचार न बरता जाय। जो इस प्रयोजन को पूरा कर सकें, समझना चाहिए कि उनकी गायत्री-साधना का उत्कीलन हो गया और उनकी साधना सरल एवं सफलता सुनिश्चित हो गई।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 पराक्रम और पुरुषार्थ (भाग 13) 10 Jan
🌹 कठिनाइयों से डरिये मत, जूझिये
🔵 देखा गया है कि जिन आशंकाओं से त्रस्त होकर चिन्तित रहा जाता है उनमें से अधिकांश निराधार ही हैं। इस सन्दर्भ में जर्मन वैज्ञानिकों द्वारा किया गया एक सर्वेक्षण बहुत महत्वपूर्ण है। वहां के मनःशास्त्रियों के एक दल ने जनवरी सन् 1979 में चिन्तातुर लोगों की पड़ताल के लिए एक प्रश्नावली तैयार की और उसे एक प्रसिद्ध पत्रिका में इस आग्रह के साथ प्रकाशित किया कि पाठक उसके उत्तर दें। करीब पांच हजार पाठकों ने उत्तर दिये। इन उत्तरों का विश्लेषण किया गया। और उनसे जो निष्कर्ष प्राप्त हुए उनके अनुसार 40 प्रतिशत व्यक्तियों की चिन्ता ऐसी समस्याओं को लेकर थी, जिनकी केवल आशंका थी, वे सामने नहीं आई थीं।
🔴 30 प्रतिशत समस्यायें ऐसी थीं जिनके कारण बहुत मामूली से और उन्हें थोड़ी सी सूझबूझ से सुलझाया जा सकता था। 12 प्रतिशत व्यक्तियों की चिन्तायें स्वास्थ्य सम्बन्धी थीं और वह भी ऐसी नहीं जो उपचार से ठीक न हो सकें। 10 प्रतिशत समस्यायें ऐसी थीं जिनके लिए दौड़-धूप करना, दूसरों का सहयोग लेना और थोड़ी परेशानी उठाना आवश्यक प्रतीत हुआ। केवल 8 प्रतिशत चिन्तायें ही ऐसी थीं, जिन्हें कुछ वजनदार कहा जा सकता था और जिन्हें पूरी तरह हल न किया जा सका तो उनके कारण कुछ हानि उठाने की सम्भावना विद्यमान थी।
🔵 यह तो हुआ चिन्ताओं का विश्लेषण। अधिकांश व्यक्ति ऐसे कारणों से चिन्तित रहते हैं जो वास्तव में कोई कारण नहीं होते। उनके कारणों को देखकर यही कहा जा सकता है कि उन्हें चिन्तित रहने की आदत है। हालांकि चिन्ता से किसी समस्या का, वास्तव में कोई समस्या है तो भी समाधान नहीं होता। देखा गया है कि चिंताग्रस्त रहने वाले व्यक्ति निश्चिन्त व्यक्तियों की अपेक्षा कहीं अधिक घाटे में रहते हैं। निश्चिन्त रहने वाले, मन-मौजी और मस्त लोगों की नियत समय पर ही समस्या का सामना करना पड़ता है, जबकि चिन्तातुर लोग बहुत पहले से ही मानसिक सन्तुलन खो बैठते हैं और हड़बड़ी के कारण अपना अच्छा स्वास्थ्य भी गंवा बैठते हैं। मस्तिष्क जितना भी अधिक समस्याओं से उलझा रहेगा, उतना ही वह समस्याओं को सुलझाने में असमर्थ हो जायेगा। क्रोधी, आवेश, ग्रस्त, आक्रोश भरे हुए दिमाग एक प्रकार से विक्षिप्त जैसे हो जाते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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🔵 देखा गया है कि जिन आशंकाओं से त्रस्त होकर चिन्तित रहा जाता है उनमें से अधिकांश निराधार ही हैं। इस सन्दर्भ में जर्मन वैज्ञानिकों द्वारा किया गया एक सर्वेक्षण बहुत महत्वपूर्ण है। वहां के मनःशास्त्रियों के एक दल ने जनवरी सन् 1979 में चिन्तातुर लोगों की पड़ताल के लिए एक प्रश्नावली तैयार की और उसे एक प्रसिद्ध पत्रिका में इस आग्रह के साथ प्रकाशित किया कि पाठक उसके उत्तर दें। करीब पांच हजार पाठकों ने उत्तर दिये। इन उत्तरों का विश्लेषण किया गया। और उनसे जो निष्कर्ष प्राप्त हुए उनके अनुसार 40 प्रतिशत व्यक्तियों की चिन्ता ऐसी समस्याओं को लेकर थी, जिनकी केवल आशंका थी, वे सामने नहीं आई थीं।
🔴 30 प्रतिशत समस्यायें ऐसी थीं जिनके कारण बहुत मामूली से और उन्हें थोड़ी सी सूझबूझ से सुलझाया जा सकता था। 12 प्रतिशत व्यक्तियों की चिन्तायें स्वास्थ्य सम्बन्धी थीं और वह भी ऐसी नहीं जो उपचार से ठीक न हो सकें। 10 प्रतिशत समस्यायें ऐसी थीं जिनके लिए दौड़-धूप करना, दूसरों का सहयोग लेना और थोड़ी परेशानी उठाना आवश्यक प्रतीत हुआ। केवल 8 प्रतिशत चिन्तायें ही ऐसी थीं, जिन्हें कुछ वजनदार कहा जा सकता था और जिन्हें पूरी तरह हल न किया जा सका तो उनके कारण कुछ हानि उठाने की सम्भावना विद्यमान थी।
🔵 यह तो हुआ चिन्ताओं का विश्लेषण। अधिकांश व्यक्ति ऐसे कारणों से चिन्तित रहते हैं जो वास्तव में कोई कारण नहीं होते। उनके कारणों को देखकर यही कहा जा सकता है कि उन्हें चिन्तित रहने की आदत है। हालांकि चिन्ता से किसी समस्या का, वास्तव में कोई समस्या है तो भी समाधान नहीं होता। देखा गया है कि चिंताग्रस्त रहने वाले व्यक्ति निश्चिन्त व्यक्तियों की अपेक्षा कहीं अधिक घाटे में रहते हैं। निश्चिन्त रहने वाले, मन-मौजी और मस्त लोगों की नियत समय पर ही समस्या का सामना करना पड़ता है, जबकि चिन्तातुर लोग बहुत पहले से ही मानसिक सन्तुलन खो बैठते हैं और हड़बड़ी के कारण अपना अच्छा स्वास्थ्य भी गंवा बैठते हैं। मस्तिष्क जितना भी अधिक समस्याओं से उलझा रहेगा, उतना ही वह समस्याओं को सुलझाने में असमर्थ हो जायेगा। क्रोधी, आवेश, ग्रस्त, आक्रोश भरे हुए दिमाग एक प्रकार से विक्षिप्त जैसे हो जाते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 67)
🌹 बौद्धिक क्रान्ति की तैयारी
🔴 भारतीय संस्कृति के अनुरूप विशुद्ध अध्यात्मदर्शन की रूप रेखा प्रस्तुत करने के लिये आर्ष ग्रन्थों को सर्वसुलभ बनाने की आवश्यकता अनुभव हुई। उसकी पूर्ति के लिये चारों वेदों का सायण भाष्य के आधार पर हिन्दी अनुवाद किया गया और उसे सर्वसुलभ मूल्य पर छापा गया। उसी प्रकार 108 उपनिषदों का भाष्य तीन बड़ी जिल्दों में और छह को दर्शनों का विस्तृत भाष्य छह जिल्दों में प्रस्तुत करके उसे प्रकाशित कराया गया। अब गीता का एक विश्व कोष तैयार किया जा रहा है जो 18 बड़ी-बड़ी जिल्दों में प्रकाशित होगा। इसमें संसार भर के समस्त गीता भाष्यों का समावेश तथा उनमें दीखने वाली उलझनों का विस्तृत समाधान होगा। यह ग्रन्थ इस दृष्टि से इन पंक्तियों के लेखक ने विगत 65 वर्षों के निरन्तर श्रम से प्रस्तुत किया है ताकि बौद्धिक क्रान्ति तथा सामाजिक क्रान्ति की अपनी योजना को भारतीय संस्कृति का पुनरुद्धार मात्र सिद्ध किया जा सके।
🔵 युग-निर्माण विचार धारा को स्थायी साहित्य का रूप देने के लिये सर्व साधारण के उपयुक्त ‘युग-निर्माण पुस्तक माला’ प्रकाशित की जा रही है। हर वर्ष की प्रकाशित पुस्तकों का विज्ञापन प्रायः पुस्तक के अन्तिम टाइटिल पृष्ठ पर छपा होता है। आगे भी प्रयत्नपूर्वक बौद्धिक क्रान्ति का प्रयोजन पूर्ण करने वाला साहित्य छपता रहेगा। प्रयत्न यह किया जा रहा है कि उठते हुए राष्ट्र की बौद्धिक भूख बुझाने के लिए अनेक संस्थानों द्वारा अनेक भाषाओं में अनेक प्रकार का प्रकाशन बहुत बड़े पैमाने पर होने लगे।
🔴 हर शाखा में युग-निर्माण पुस्तकालय स्थापित किए जा रहे हैं। जहां से निःशुल्क घर-घर पुस्तकें पहुंचाने और वापिस लाने की प्रक्रिया आरम्भ करके जन मानस को अभीष्ट दिशा में ढाला जा सके।
🔵 पिछले दिनों मथुरा गायत्री तपोभूमि में दो प्रकार के शिक्षण शिविरों की योजनाएं चलती रही हैं। (1) संजीवन विद्या शिविर। (2) गीता प्रशिक्षण शिविर। दोनों ही एक-एक महीने के लिये होते रहे किस महीने में कौन शिविर होगा इसकी सूचनाएं समय-समय पर अखण्ड ज्योति में छपती रहती थी। इन दोनों शिविरों की रूप रेखा आगे दी जा रही है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 भारतीय संस्कृति के अनुरूप विशुद्ध अध्यात्मदर्शन की रूप रेखा प्रस्तुत करने के लिये आर्ष ग्रन्थों को सर्वसुलभ बनाने की आवश्यकता अनुभव हुई। उसकी पूर्ति के लिये चारों वेदों का सायण भाष्य के आधार पर हिन्दी अनुवाद किया गया और उसे सर्वसुलभ मूल्य पर छापा गया। उसी प्रकार 108 उपनिषदों का भाष्य तीन बड़ी जिल्दों में और छह को दर्शनों का विस्तृत भाष्य छह जिल्दों में प्रस्तुत करके उसे प्रकाशित कराया गया। अब गीता का एक विश्व कोष तैयार किया जा रहा है जो 18 बड़ी-बड़ी जिल्दों में प्रकाशित होगा। इसमें संसार भर के समस्त गीता भाष्यों का समावेश तथा उनमें दीखने वाली उलझनों का विस्तृत समाधान होगा। यह ग्रन्थ इस दृष्टि से इन पंक्तियों के लेखक ने विगत 65 वर्षों के निरन्तर श्रम से प्रस्तुत किया है ताकि बौद्धिक क्रान्ति तथा सामाजिक क्रान्ति की अपनी योजना को भारतीय संस्कृति का पुनरुद्धार मात्र सिद्ध किया जा सके।
🔵 युग-निर्माण विचार धारा को स्थायी साहित्य का रूप देने के लिये सर्व साधारण के उपयुक्त ‘युग-निर्माण पुस्तक माला’ प्रकाशित की जा रही है। हर वर्ष की प्रकाशित पुस्तकों का विज्ञापन प्रायः पुस्तक के अन्तिम टाइटिल पृष्ठ पर छपा होता है। आगे भी प्रयत्नपूर्वक बौद्धिक क्रान्ति का प्रयोजन पूर्ण करने वाला साहित्य छपता रहेगा। प्रयत्न यह किया जा रहा है कि उठते हुए राष्ट्र की बौद्धिक भूख बुझाने के लिए अनेक संस्थानों द्वारा अनेक भाषाओं में अनेक प्रकार का प्रकाशन बहुत बड़े पैमाने पर होने लगे।
🔴 हर शाखा में युग-निर्माण पुस्तकालय स्थापित किए जा रहे हैं। जहां से निःशुल्क घर-घर पुस्तकें पहुंचाने और वापिस लाने की प्रक्रिया आरम्भ करके जन मानस को अभीष्ट दिशा में ढाला जा सके।
🔵 पिछले दिनों मथुरा गायत्री तपोभूमि में दो प्रकार के शिक्षण शिविरों की योजनाएं चलती रही हैं। (1) संजीवन विद्या शिविर। (2) गीता प्रशिक्षण शिविर। दोनों ही एक-एक महीने के लिये होते रहे किस महीने में कौन शिविर होगा इसकी सूचनाएं समय-समय पर अखण्ड ज्योति में छपती रहती थी। इन दोनों शिविरों की रूप रेखा आगे दी जा रही है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 19)
🌞 जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय
🔴 उस दिन उन्होंने हमारा समूचा जीवनक्रम किस प्रकार चलना चाहिए, इसका स्वरूप एवं पूरा विवरण बताया। बताया ही नहीं, स्वयं लगाम हाथ में लेकर चलाया भी। चलाया ही नहीं, हर प्रयास को सफल भी बनाया।
🔵 उस दिन हमने सच्चे मन से उन्हें समर्पण किया। वाणी ने नहीं, आत्मा ने कहा-‘‘जो कुछ पास में है, आपके निमित्त ही अर्पण। भगवान् को हमने देखा नहीं, पर वह जो कल्याण कर सकता था, वही कर रहे हैं। इसलिए आप हमारे भगवान् हैं। जो आज सारे जीवन का ढाँचा आपने बताया है, उसमें राई-रत्ती प्रमाद न होगा।’’
🔴 उस दिन उनने भावी जीवन सम्बन्धी थोड़ी सी बातें विस्तार से समझाईं। १-गायत्री महाशक्ति के चौबीस वर्ष में चौबीस महापुरश्चरण, २-अखण्ड घृत दीप की स्थापना, ३-चौबीस वर्ष में एवं उसके बाद समय-समय पर क्रमबद्ध मार्गदर्शन के लिए चार बार हिमालय अपने स्थान पर बुलाना, प्रायः छः माह से एक वर्ष तक अपने समीपवर्ती क्षेत्र में ठहराना।
🔵 इस संदर्भ में और भी विस्तृत विवरण जो उनको बताना था, सो बता दिया। विज्ञ पाठकों को इतनी ही जानकारी पर्याप्त है, जितना ऊपर उल्लेख है। उनके बताए निर्देशानुसार सारे काम जीवन भर निभते चले गए एवं वे उपलब्धियाँ हस्तगत होती रहीं, जिन्होंने आज हमें वर्तमान स्थिति में ला बिठाया है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/jivana.3
🔴 उस दिन उन्होंने हमारा समूचा जीवनक्रम किस प्रकार चलना चाहिए, इसका स्वरूप एवं पूरा विवरण बताया। बताया ही नहीं, स्वयं लगाम हाथ में लेकर चलाया भी। चलाया ही नहीं, हर प्रयास को सफल भी बनाया।
🔵 उस दिन हमने सच्चे मन से उन्हें समर्पण किया। वाणी ने नहीं, आत्मा ने कहा-‘‘जो कुछ पास में है, आपके निमित्त ही अर्पण। भगवान् को हमने देखा नहीं, पर वह जो कल्याण कर सकता था, वही कर रहे हैं। इसलिए आप हमारे भगवान् हैं। जो आज सारे जीवन का ढाँचा आपने बताया है, उसमें राई-रत्ती प्रमाद न होगा।’’
🔴 उस दिन उनने भावी जीवन सम्बन्धी थोड़ी सी बातें विस्तार से समझाईं। १-गायत्री महाशक्ति के चौबीस वर्ष में चौबीस महापुरश्चरण, २-अखण्ड घृत दीप की स्थापना, ३-चौबीस वर्ष में एवं उसके बाद समय-समय पर क्रमबद्ध मार्गदर्शन के लिए चार बार हिमालय अपने स्थान पर बुलाना, प्रायः छः माह से एक वर्ष तक अपने समीपवर्ती क्षेत्र में ठहराना।
🔵 इस संदर्भ में और भी विस्तृत विवरण जो उनको बताना था, सो बता दिया। विज्ञ पाठकों को इतनी ही जानकारी पर्याप्त है, जितना ऊपर उल्लेख है। उनके बताए निर्देशानुसार सारे काम जीवन भर निभते चले गए एवं वे उपलब्धियाँ हस्तगत होती रहीं, जिन्होंने आज हमें वर्तमान स्थिति में ला बिठाया है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 19)
🌞 हिमालय में प्रवेश
आलू का भालू
🔵 आज गंगोत्री यात्रियों का एक दल और भी साथ मिल गया। उस दल में सात आदमी थे- पाँच पुरुष, दो स्त्रियाँ। हमारा बोझा तो हमारे कन्धे पर था पर उन सातों का बिस्तर एक पहाड़ी कुली लिए चल रहा था। कुली देहाती था, उसकी भाषा भी ठीक तरह समझ में नहीं आती थी। स्वभाव का भी अक्खड़ और झगड़ालू जैसा था। झाला चट्टी की ओर ऊपरी पठार पर जब हम लोग चल रहे थे, तो उँगली का इशारा करके उसने कुछ विचित्र डरावनी- सी मुद्रा के साथ कोई चीज दिखाई और अपनी भाषा में कुछ कहा। सब बात तो समझ में नहीं आई, पर दल के एक आदमी ने इतना ही समझा भालू- भालू वह गौर से उस ओर देखने लगा। घना कुहरा उस समय पड़ रहा था, कोई चीज ठीक से दिखाई नहीं पड़ती थी, पर जिधर कुली ने इशारा किया था, उधर काले- काले कोई जानवर उसे घूमते नजर आये।
🔴 जिस साथी ने कुली के मुँह से भालू- भालू सुना था और उसके इशारे की दिशा में काले- काले जानवर घूमते दीखे थे, वह बहुत डर गया। उसने पूरे विश्वास के साथ यह समझ लिया कि नीचे भालू- रीछ घूम रहे हैं। वह पीछे था पैर दाब कर जल्दी- जल्दी आगे लपका कि वह भी हम सबके साथ मिल जाय, कुछ देर में वह हमारे साथ आ गया। होंठ सूख रहे थे और भय से काँप रहा था। उसने हम सबको रोका और नीचे काले जानवर दिखाते हुए बताया कि भालू घूम रहे हैं अब यहाँ जान का खतरा है।
🔵 डर तो हम सभी गये, पर यह न सूझ पड़ रहा था कि किया क्या जाये? जंगल काफी घना था- डरावना भी, उसमें रीछ के होने की बात असम्भव न थी। फिर हमने पहाड़ी रीछों की भयंकरता के बारे में भी कुछ बढी़ चढ़ी बातें परसों ही साथी यात्रियों से सुनी थी जो दो वर्ष पूर्व मानसरोवर गये थे। डर बढ़ रहा था काले जानवर हमारी ओर आ रहे थे। घने कुहरे के कारण शक्ल तो साफ नहीं दीख रही थी, पर रंग के काले और कद में बिलकुल रीछ जैसे थे, फिर कुली ने इशारे से भालू होने की बात बता दी है, अब संदेह की बात नहीं। सोचा- कुली से ही पूछें कि अब क्या करना चाहिए पीछे मुड़कर देखा तो कुली ही गायब था।
🔴 कल्पना की दौड़ने एक ही अनुमान लगाया कि वह जान का खतरा देखकर कहीं छिप गया है या किसी पेड़ पर चढ़ गया है। हमलोगों ने अपने भाग्य के साथ अपने को बिलकुल अकेला असहाय पाया। हम सब एक जगह बिलकुल नजदीक इकट्ठे हो गये। दो- दो ने चारों दिशाओं की ओर मुँह कर लिए, लोहे की कील गड़ी हुई लाठियाँ जिन्हें लेकर चल रहे थे, बन्दूकों की भाँति सामने तान ली और तय कर लिया कि जिस पर रीछ हमला करे, वे उसके मुँह में कील गड़ी लाठी ठूँस दें और साथ ही सब लोग उस पर हमला कर दें, कोई भागे नहीं अन्त तक सब साथ रहें चाहे जिएँ चाहे मरें। योजना के साथ सब लोग धीरे- धीरे आगे बढ़ने लगे,रीछ जो पहले हमारी ओर आते दिखाई दे रहे थे, नीचे की ओर उतरने लगे, हम लोगों ने चलने की रफ्तार काफी तेज करदी, दूनी से अधिक। जितनी जल्दी हो सके, खतरे को पार कर लेने की ही सबकी इच्छा थी। ईश्वर का नाम सबकी जीभ पर था। मन में भय बुरी तरह समा रहा था। इस प्रकार एक- डेढ़ मील का रास्ता पार किया।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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आलू का भालू
🔵 आज गंगोत्री यात्रियों का एक दल और भी साथ मिल गया। उस दल में सात आदमी थे- पाँच पुरुष, दो स्त्रियाँ। हमारा बोझा तो हमारे कन्धे पर था पर उन सातों का बिस्तर एक पहाड़ी कुली लिए चल रहा था। कुली देहाती था, उसकी भाषा भी ठीक तरह समझ में नहीं आती थी। स्वभाव का भी अक्खड़ और झगड़ालू जैसा था। झाला चट्टी की ओर ऊपरी पठार पर जब हम लोग चल रहे थे, तो उँगली का इशारा करके उसने कुछ विचित्र डरावनी- सी मुद्रा के साथ कोई चीज दिखाई और अपनी भाषा में कुछ कहा। सब बात तो समझ में नहीं आई, पर दल के एक आदमी ने इतना ही समझा भालू- भालू वह गौर से उस ओर देखने लगा। घना कुहरा उस समय पड़ रहा था, कोई चीज ठीक से दिखाई नहीं पड़ती थी, पर जिधर कुली ने इशारा किया था, उधर काले- काले कोई जानवर उसे घूमते नजर आये।
🔴 जिस साथी ने कुली के मुँह से भालू- भालू सुना था और उसके इशारे की दिशा में काले- काले जानवर घूमते दीखे थे, वह बहुत डर गया। उसने पूरे विश्वास के साथ यह समझ लिया कि नीचे भालू- रीछ घूम रहे हैं। वह पीछे था पैर दाब कर जल्दी- जल्दी आगे लपका कि वह भी हम सबके साथ मिल जाय, कुछ देर में वह हमारे साथ आ गया। होंठ सूख रहे थे और भय से काँप रहा था। उसने हम सबको रोका और नीचे काले जानवर दिखाते हुए बताया कि भालू घूम रहे हैं अब यहाँ जान का खतरा है।
🔵 डर तो हम सभी गये, पर यह न सूझ पड़ रहा था कि किया क्या जाये? जंगल काफी घना था- डरावना भी, उसमें रीछ के होने की बात असम्भव न थी। फिर हमने पहाड़ी रीछों की भयंकरता के बारे में भी कुछ बढी़ चढ़ी बातें परसों ही साथी यात्रियों से सुनी थी जो दो वर्ष पूर्व मानसरोवर गये थे। डर बढ़ रहा था काले जानवर हमारी ओर आ रहे थे। घने कुहरे के कारण शक्ल तो साफ नहीं दीख रही थी, पर रंग के काले और कद में बिलकुल रीछ जैसे थे, फिर कुली ने इशारे से भालू होने की बात बता दी है, अब संदेह की बात नहीं। सोचा- कुली से ही पूछें कि अब क्या करना चाहिए पीछे मुड़कर देखा तो कुली ही गायब था।
🔴 कल्पना की दौड़ने एक ही अनुमान लगाया कि वह जान का खतरा देखकर कहीं छिप गया है या किसी पेड़ पर चढ़ गया है। हमलोगों ने अपने भाग्य के साथ अपने को बिलकुल अकेला असहाय पाया। हम सब एक जगह बिलकुल नजदीक इकट्ठे हो गये। दो- दो ने चारों दिशाओं की ओर मुँह कर लिए, लोहे की कील गड़ी हुई लाठियाँ जिन्हें लेकर चल रहे थे, बन्दूकों की भाँति सामने तान ली और तय कर लिया कि जिस पर रीछ हमला करे, वे उसके मुँह में कील गड़ी लाठी ठूँस दें और साथ ही सब लोग उस पर हमला कर दें, कोई भागे नहीं अन्त तक सब साथ रहें चाहे जिएँ चाहे मरें। योजना के साथ सब लोग धीरे- धीरे आगे बढ़ने लगे,रीछ जो पहले हमारी ओर आते दिखाई दे रहे थे, नीचे की ओर उतरने लगे, हम लोगों ने चलने की रफ्तार काफी तेज करदी, दूनी से अधिक। जितनी जल्दी हो सके, खतरे को पार कर लेने की ही सबकी इच्छा थी। ईश्वर का नाम सबकी जीभ पर था। मन में भय बुरी तरह समा रहा था। इस प्रकार एक- डेढ़ मील का रास्ता पार किया।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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