रविवार, 5 मार्च 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 06 March 2017


👉 आज का सद्चिंतन 06 March 2017


👉 मुँह की खानी पड़ी नाचती हुई मौत को

🔴 घटना वर्ष १९९७ के दिसम्बर महीने की है। उस समय मैं घोड़ासहन सीमा शुल्क इकाई (निवारण) में निरीक्षक के पद पर तैनात था। घोड़ासहन तहसील भारत नेपाल सीमा पर मोतिहारी जिला में अवस्थित है। मैं मुजफ्फरपुर सीमा शुल्क निवारण प्रमण्डल से स्थानान्तरित होकर वर्ष १९९७ फरवरी माह में घोड़ासहन गया था। हम लोगों का कार्यकाल सीमा शुल्क (इंडो नेपाल बॉर्डर) पर पाँच साल का होता है। फिर हमारी सेवा केन्द्रीय उत्पाद शुल्क विभाग को लौटा दी जाती है।

🔵 सीमा शुल्क में मेरी सेवा का कार्यकाल १९९७ में समाप्त हो रहा था। वर्ष १९९८ में मुझे लौटकर केन्द्रीय उत्पाद शुल्क में आना था। विश्वस्त सूत्रों से मुझे ज्ञात हुआ कि मेरा स्थानान्तरण केन्द्रीय उत्पाद शुल्क, टाटानगर मुख्यालय में होने को है।

🔴 उस समय मेरा छोटा बेटा राँची में अपने तीन दोस्तों के साथ अशोक नगर में रहकर प्लस टू की पढ़ाई डी.ए.वी.जवाहर विद्या मंदिर, श्यामली में कर रहा था। उसका स्वास्थ्य थोड़ा खराब रहता था। इसलिए मैं चाहता था कि मेरा स्थानान्तरण राँची हो जाय, ताकि मेरा पुत्र मेरे साथ रहकर पढ़ाई कर सके। इस आशय का निवेदन करने मैं अपने विभागीय मुख्यालय पटना गया।

🔵 मैं शाम को पटना से बस पकड़कर सीतामढ़ी पहुँचा। बस के लेट हो जाने की वजह से घोड़ासहन जाने की ट्रेन छूट गई। दूसरी ट्रेन करीब बारह बजे रात में थी। मैं घोड़ासहन स्टेशन परिसर में ही ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहा था। ट्रेन करीब २ बजे रात में आई। सीतामढ़ी से घोड़ासहन का सफर २ घंटे में पूरा हुआ।

🔴 तीन बजे के बाद मुझे झपकी आ गई और मैं बैठे- बैठे गहरी निद्रा में चला गया। घोड़ासहन स्टेशन आया। पूड़ी- सब्जी बेचने वालों और दूसरे लोगों के शोरगुल से मेरी नींद खुली। तब तक गाड़ी चल चुकी थी। मैं कच्ची नींद से जागने की वजह से थोड़ा असहज सा था।

🔵 मेरे पास एक पतला ब्रीफकेस था। मैं चलती ट्रेन से उतर गया। पर मुझे लगा कि यह तो घोड़ासहन नहीं है। लोगों ने गलत कह दिया है। मैं फिर ट्रेन पर चढ़ गया। पर लोग कहने लगे कि ये घोड़ासहन ही है। फिर मैं ट्रेन से दूसरी बार उतरने लगा। उतरने के क्रम में एक हाथ में ब्रीफकेस होने की वजह से संतुलन बिगड़ गया, जिससे सीढ़ीवाला रॉड मेरे हाथ से छूट गया और मैं नीचे गिर गया।

🔴 मैं चीखता हुआ पटरी पर तेजी से घूम रहे चक्के के पास जाने लगा। मुझे लगा कि अब या तो मेरी जीवन लीला समाप्त हो जाएगी अथवा मैं अपंग हो जाऊँगा। मैंने मन ही मन पूज्य गुरुदेव को याद किया और उनसे प्रार्थना करने लगा- हे गुरुदेव! मुझे बचा लीजिए।

🔵 अगले ही पल करुणावतार गुरुदेव ने करुणा दिखाई। मुझे लगा कि मेरी पीठ पर किसी पहलवान ने बहुत जोर का प्रहार किया और मैं विपरीत दिशा में उछलता चला गया। इस आकस्मिक प्रहार से मैं क्राउलिंग करता हुआ कम से कम २० फिट की दूरी पर जाकर गिरा। लेकिन मुझे कहीं कोई गहरी चोट नहीं लगी। लुढ़कना बन्द होने के बाद मैं अपने कपड़े झाड़ता हुआ उठ खड़ा हुआ और ब्रीफकेस उठाकर घर की ओर चल पड़ा।

🔴 उस समय मुझे यह पता नहीं चला कि मेरा घुटना एक पत्थर से टकरा गया है और उस घुटने से खून का रिसाव हो रहा है। जब मैं घर पहुँचा, तो मेरी पत्नी ने मुझे टोका कि यह खून कैसा है। सारी बातें सुनकर पत्नी की घबराहट कहीं बहुत अधिक न बढ़ जाए, यह सोचकर मैंने उन्हें सिर्फ इतना बताया कि अँधेरे में मैं एक पत्थर से टकरा गया था। ....और कोई विशेष बात नहीं है।

🔵 आज भी मुझे जब इस घटना की याद आती है, तो मैं सिहर उठता हूँ और गुरुवर की उस अनुकंपा के स्मरण से मेरा रोम- रोम पुलकित हो उठता है।

🌹 जटा शंकर झा राँची (झारखंड)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
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👉 महाकाल का प्रतिभाओं को आमंत्रण (भाग 13)

🌹 प्रतिभा से बढ़कर और कोई समर्थता है नहीं    

🔴 सैनिकों को युद्ध मोर्चों पर पराक्रम दिखाने के लिए तैयार कराने के लिए, उन्हें भेजने वाला तन्त्र यह व्यवस्था भी करता है कि उन्हें आवश्यक सुविधाओं वाली साज-सज्जा मिल सके, अन्यथा वे अपनी ड्यूटी ठीक प्रकार पूरी करने में असमर्थ रहेंगे। नव सृजन के दुहरे मोर्चे पर इसी प्रकार की व्यवस्था, युग परिवर्तन का सरञ्जाम जुटाने वाली सत्ता ने भी कर रखी है।             

🔵 सफलता के उच्च लक्ष्य तक पहुँचने में कितनी ही बाधाएँ पड़ सकती हैं, उन्हें पार करने के लिए-वांछित प्रगति के लिए अनेक आवश्यकताएँ पूरी करनी होती हैं। समझना चाहिए कि इस सन्दर्भ में किसी अग्रगामी आदर्शवादी को निराश न होना पड़ेगा, क्योंकि उसकी पीठ पर सर्वशक्तिमान सत्ता का हाथ जो रहेगा?    

🔴 तेज हवा पीछे से चलती है, तो पैदल वालों से लेकर साइकिल आदि के सहारे लोग कम परिश्रम में आगे बढ़ते जाते हैं और मञ्जिल सरल हो जाती है। इसी प्रकार नव सृजन का लक्ष्य, कल्पना करने वालों को कठिन दीखता तो है, पर उस स्रष्टा को विदित है कि उनकी नव सृजनयोजना को पूरा करने के लिए, जो अपने प्राण हथेली पर रखकर अग्रगमन का साहस दिखा रहे हैं, उन्हें सफलता का लक्ष्य प्रदान करने के लिए क्या-क्या आवश्यकताएँ जुटानी और क्या जिम्मेदारी निभानी चाहिए?

🔵 माँगने वाले भिखमंगे दरवाजे-दरवाजे पर झोली पसारते, दाँत निपोरते, गिड़गिड़ाते और दुत्कारे जाते हैं। मनोकामनाएँ पूरी कराने वाले ईश्वर भक्ति का आडम्बर ओढ़कर इसी प्रकार निराश रहते हैं और उपेक्षा सहते हैं, पर जिन्हें ईश्वर का काम करना पड़ता है, उन्हें तो आदरपूर्वक बुलाया जाता है और अभीष्ट साधनों का उपहार भी दिया जाता है। इन दिनों गर्ज ईश्वर को पड़ी है। उसी का उद्यान समुन्नत करने के लिए कुशल माली चाहिए। उसी की दुनियाँ को समुन्नत, सुसंस्कृत, सुसम्पन्न बनाने के लिए कुशल कलाकारों और शूरवीर सैनिकों की आवश्यकता पड़ रही है। जो उसकी पुकार पर अपनी क्षमता को प्रस्तुत करेंगे, वे दैवी अनुग्रह से किसी प्रकार वंचित न रहेंगे, वरन् इतना कुछ प्राप्त करेंगे, जिसे पाकर वे निहाल बन सकें।      

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 निर्भीक-सहिष्णुता

🔵 निर्भीकता, सहनशीलता और समदर्शिता सच्चे संत के आवश्यक गुण माने गए हैं। जो किसी भय अथवा दबाव में आकर अपने पथ से विचलित हो उठे, अपने व्यक्तिगत अपमान अथवा कष्ट से उत्तेजित अथवा विक्षुब्ध हो उठे अथवा जो किसी लोभ-लालच, ऊँच-नीच, धनी-निर्धन, पद पदवी के कारण किसी के प्रति अंतर माने उसे सच्चा संत नहीं कहा जा सकता, सच्चा संत भगवान् के राज्य में निर्भय विचरता और व्यवहार करता है, सुख-दुःख, मान-अपमान को उसका कौतुक मानता और प्राणी मात्र में समान दृष्टिकोण रखता है। उसको न कहीं भय होता है, न दु:ख और न ऊँच-नीच।

🔴 सिक्खों के आदि गुरु नानक साहब में यह सभी गुण पूरी मात्रा में मौजूद थे और वे वास्तव में एक सच्चे संत थे। गुरु नानक गाँव के जमींदार दौलत खाँ के मोदीखाने में नौकर थे। जमींदार बड़ा सख्त और जलाली आदमी था, किंतु गुरु नानक न तो कभी उससे दबे न डरे। बल्कि एक बार जब उन्होंने तीन दिन की विचार समाधि के बाद अपना पूर्ण परीक्षण कर विश्वास कर लिया कि अब उन्होंने जन-सेवा के योग्य पूर्ण संतत्व प्राप्त कर लिया है तब वे दौलतखाँ को यह बतलाने गये कि अब नौकरी नहीं करेंगे, बल्कि शेष जीवन जन सेवा में लगाएँगे।

🔵 जमींदार ने उन्हें अपने बैठक खाने में बुलवाया गुरुनानक गये और बिना सलाम किए उसके बराबर आसन पर बैठ गये जमींदार की भौंहे तन गई बोला-नानक! मेरे मोदी होकर तुमने मुझे सलाम नहीं किया और आकर बराबर में बैठ गए। यह गुस्ताखी क्यों की ? नानक ने निर्भीकता से उत्तर दिया दौलतखान! आपका मोदी नानक तो मर गया है, अब उस नानक का जन्म हुआ है, जिसके हृदय में भगवान् की ज्योति उतर आई है, अब जिसके लिए दुनिया में सब बराबर हैं। जो सबको अपना प्यारा भाई समझता है। कहते-कहते नानक के मुख पर एक तेज चमकने लगा। जमींदार ने कुछ देखा और कुछ समझा, 'फिर भी कहा-अगर आप किसी में अंतर नहीं समझते और मुझे अपना भाई समझते हैं, तो मेरे साथ मस्जिद में नमाज पढने चलिए। नानक ने जरा संकोच नहीं किया और एक एकेश्वरवादी संत उसके साथ मस्जिद चला गया।

🔴 जिस समय नानक मक्का की यात्रा को गए, घटना उस समय की है। निर्द्वद्व संत दिन भर स्थान-स्थान पर सत्संग करते, मुसलमान धर्म का स्वरूप समझते और अपने धर्म का प्रचार करते फिरते रहे। एक रात में मस्ती के साथ एक मैदान में पड़कर सो रहे थे। संयोगवश उनके पैर काबा की ओर फैले हुए थे। उधर से कई मुसलमान निकले। वे बडे ही संकीर्ण विचार वाले थे। गुरुनानक को काबे की तरफ पैर किए लेटा देखा तो आपे से बाहर हो गए। पहले तो उन्होने उन्हें काफिर आदि कहकर बहुत गालियाँ दीं और तब भी जब उनकी नीद न टूटी तो लात-घूँसों से मरने लगे। नानक जागे और नम्रता से बोले- "भाई क्या गलती हो गई जो मुझ परदेशी को आप लोग मार रहे है ?

🔵 मुसलमान गाली देते हुए बोले- 'तुझे सूझता नहीं कि इधर कबा-खुदा का घर है और तू उधर ही पैर किये लेटा है।''

🔴 नानक ने कहा- 'उसे सब जगह और सब तरफ न मानकर किसी एक खास जगह में मानना, मनुष्य की अपनी बौद्धिक सकीर्णता है। अच्छा हो कि आप लोग भी उसे मेरी ही तरह सब जगह और सब तरफ मानें। इसी में खुदा की बडाई है और इसी में हमारी सबकी भलाई है।''

🔵 गुरु नानक की सहनशीलता, निर्भीकता और ईश्वरीय निष्ठा देखकर मुसलमानो का अज्ञान दूर हो गया। उन्होंने उन्हे सच्चा संत समझा और अपनी मूल की माफी माँगकर उनका आदर किया।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 65, 66

👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 29)

🌹 विचारशील लोग दीर्घायु होते हैं
🔴 जो विचार देर तक मस्तिष्क में बना रहता है, वह अपना एक स्थायी स्थान बना लेता है। यही स्थायी विचार मनुष्य का संस्कार बन जाता है। संस्कारों का मानव-जीवन में बहुत महत्व है। सामान्य-विचार कार्यान्वित करने के लिए मनुष्य को स्वयं प्रयत्न करना पड़ता है, किन्तु सरकार उसको यन्त्रवत् संचालित कर देता है। शरीर-यन्त्र जिनके द्वारा सारी क्रियायें सम्पादित होती हैं, सामान्य विचारों के अधीन नहीं होता।

🔵 इसके विपरीत इस पर संस्कारों का पूर्ण आधिपत्य होता है। न चाहते हुए भी, शरीर-यन्त्र संस्कारों की प्रेरणा से हठात् सक्रिय हो उठता है और तदनुसार आचरण प्रतिपादित करता है। मानव जीवन में संस्कारों का बहुत महत्व है। इन्हें यदि मानव-जीवन का अधिष्ठाता और आचरण का प्रेरक कह दिया जाय तब भी असंगत न होगा।

🔴 केवल विचार मात्र ही मानव चरित्र के प्रकाशक प्रतीत नहीं होते। मनुष्य का चरित्र विचार और आचार दोनों से मिलकर बनता है। संसार में बहुत से ऐसे लोग पाये जा सकते हैं, जिनके विचार बड़े उदात्त महान् और आदर्श पूर्ण होते हैं, किन्तु उनकी क्रियायें उसके अनुरूप नहीं होती। विचार पवित्र हों और कर्म अपावन तो यह सच्चरित्रता नहीं होती।

🔵 इसी प्रकार बहुत से लोग ऊपर से बड़े ही सत्यवादी, आदर्शवादी और धर्म-कर्म वाले दीखते हैं, किन्तु उनके भीतर कलुषपूर्ण विचारधारा बहती रहती है। ऐसे व्यक्ति भी सच्चे चरित्र वाले नहीं माने जा सकते। सच्चा चरित्रवान् वही माना जायेगा और वास्तव में वही होता है जो विचार और आचार दोनों को समान रूप से उच्च और पुनीत रखकर चलता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 7)

🌹 अनास्था की जननी-दुर्बुद्धि

🔵 ऊँची सतह के बड़े तालाब में अधिक पानी होता है। पास में ही कोई कम पानी वाला गड्ढा हो तो दोनों की तुलना में असाधारण अंतर होगा। इतने पर भी यदि दोनों के बीच एक नाली बना दी जाए तो ऊँचे तालाब का पानी नीचे गड्ढे को भरना जल्दी आरंभ कर देगा और वह सिलसिला तब तक चलता रहेगा, जब तक कि दोनों जलाशय एक सतह पर नहीं आ जाते। नीचे वाले गड्ढे का पानी निश्चित रूप से ऊँचा उठेगा; भले ही इसमें ऊँचे वाले को कुछ घाटा ही क्यों न रहा हो।

🔴 ईश्वर-सान्निध्य के लिये किये गये प्रयास अंधविश्वास नहीं है। यदि उनका सही तरीका न समझ सके तो मृगतृष्णा में भटकने वाले हिरण की तरह भ्रमग्रस्तों जैसी धमाचौकड़ी मचाते रहेंगे। तब तो खिन्नता, विपन्नता और असफलताएँ ही हाथ लगेंगी। यदि रुके बिना धीरे-धीरे चलने वाली चींटी भी पर्वत शिखर पर जा पहुँचती है तो फिर कोई कारण नहीं कि ईश्वर-सान्निध्य का सही मार्ग विदित हो जाने पर उस प्रयोजन में आश्चर्यजनक सफलता न मिल सके।          

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 दीक्षा और उसका स्वरूप (भाग 11)

🌹 निर्मल-उदात्त जीवन की ओर

🔴 यह बिलकुल नामुमकिन बात है। उसके पीछे कोई दम नहीं है। इसके पीछे राई भर सच्चाई नहीं है। इतनी ही राई भर की सच्चाई उसके भीतर है कि आदमी पूजा पाठ करे और भगवान् का नाम ले, ताकि भगवान् का काम जिसको हम भूल गये, उसको हम याद करें, भगवान् के कामों के लिए कदम बढ़ायें। बस इतना ही पूजा- पाठ का मतलब है। अगर हम पूजा- पाठ ढेरों के ढेरों करते रहें और भगवान् की खुशामद करते रहें, भगवान् को जाल में फँसाने के लिए अपनी चालाकियाँ इस्तेमाल करते रहें और ये मानते रहें कि भगवान् ऐसा बेवकूफ आदमी है कि माला घुमाने के बाद में अपना नाम सुनने के बाद में अपनी खुशामद लेकर के और रिश्वत लेकर के हमारे मन चाहे प्रयोजन पूरा कर देगा और हमको भौतिक सम्पदाओं से परिपूर्ण कर देगा और हमको आत्मिक शान्ति दे देगा, तो यह बिलकुल ही नामुमकिन बात है।

🔴 भगवान् के स्वरूप को हम समझने में बिलकुल असमर्थ हैं। ये सिर्फ चालाकियाँ हैं। इसके पीछे जो छिपी हुई बात थी, उतनी ही बात छिपी हुई थी कि लोग यह समझ पायें कि भगवान् और जीव का कोई सम्बन्ध है। भगवान् की कोई इच्छा है। मनुष्य के जीवन के साथ में भगवान् की कुछ प्रेरणाएँ जुड़ी हुई हैं। उन बातों को याद कराने के लिए और उन बातों को स्मरण कराने के लिए ही सारा पूजा- पाठ का, सारे के सारे आध्यात्मिकता का खाँचा जान- बूझकर खड़ा किया गया है। आदमी अपने को कैसा भूला हुआ है?    

🔵 अपने आप को शरीर समझता है, आत्मा अपने आप को नहीं समझता। उसकी याद दिलाने के लिए ये सब कुछ है और इसमें कुछ दम नहीं है। अगर आदमी को यह (ईश्वरीय अनुशासनों का) ध्यान ही न हो, घटिया और कमीना जीवन जिये, खुराफात, पूजा- पाठ करके लम्बे- चौड़े ख्वाब देखे, तो उस आदमी को शेखचिल्ली के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता।    

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 68)

🌹 प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्य क्षेत्र का निर्धारण

🔴 नैतिक क्रान्ति-बौद्धिक क्रान्ति और सामाजिक क्रान्ति सम्पन्न की जानी है। इसके लिए उपयुक्त व्यक्तियों का संग्रह करना और जो करना है उससे सम्बन्धित विचारों को व्यक्त करना अभी से आवश्यक है। इसलिए तुम अपना घर-गाँव छोड़कर मथुरा जाने की तैयारी करो। वहाँ छोटा घर लेकर एक मासिक पत्रिका आरम्भ करो। साथ ही क्रान्तियों के सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी देने का प्रकाशन भी। अभी तुम से इतना काम बन पड़ेगा। थोड़े ही दिन उपरांत तुम्हें दुर्वासा ऋषि की तपस्थली में मथुरा के समीप एक भव्य गायत्री मंदिर बनाना है। सह कर्मियों के आवागमन, निवास, ठहरने आदि के लिए। इसके उपरांत 24 महापुरश्चरण के पूरे हो जाने की पूर्णाहुति स्वरूप एक महायज्ञ करना है।

🔵 अनुष्ठानों की परम्परा जप के साथ यज्ञ करने की है। तुम्हारे 24 लक्ष के 24 अनुष्ठान पूरे हो जा रहे हैं। इसके लिए एक सहस्र कुण्डों की यज्ञशाला में एक हजार मांत्रिकों द्वारा 24 लाख आहुतियों का यज्ञ आयोजन किया जाना है। उसी अवसर पर ऐसा विशालकाय संगठन खड़ा हो जाएगा। जिसके द्वारा तत्काल धर्मतंत्र से जन जागृति का कार्य प्रारम्भ किया जा सके। यह अनुष्ठान की पूर्ति का प्रथम चरण है। लगभग 24 वर्षों में इस दायित्व की पूर्ति के उपरांत तुम्हें सप्त सरोवर हरिद्वार जाना है, जहाँ रहकर वह कार्य पूरा करना है, जिसके लिए ऋषियों की विस्मृत परम्पराओं को पुनर्जागृति करने हेतु तुमने स्वीकृति सूचक सम्मति दी थी।’’

🔴 मथुरा की कार्य शैली, आदि से अंत तक किस प्रकार सम्पन्न की जानी है, इसकी एक सुविस्तृत रूपरेखा उन्होंने आदि से अंत तक समझाई। इसी बीच आर्ष साहित्य के अनुवाद प्रकाशन, प्रचार की तथा गायत्री परिवार के संगठन और उसके सदस्यों को काम सौंपने की रूपरेखा उन्होंने बता दी।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 69)

🌹 हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू

🔴 आमतौर से लोग रोते- कलपते, रोग- शोक से सिसकते- बिलखते किसी प्रकार जिन्दगी की लाश ढोते हैं। वस्तुत: इन्हीं को तपस्वी कहा जाना चाहिए। कष्ट, त्याग, उद्वेग यदि आत्मिक प्रगति के पथ पर चलते हुए सहा जाता, तो मनुष्य योगी, सिद्ध पुरुष, महामानव, देवता ही नहीं भगवान् भी बन सकता था। बेचारों ने पाया कुछ नहीं, खोया बहुत। वस्तुत: यही सच्चे परोपकारी, आत्मदानी और बलिदानी हैं, जिन्होने परिश्रम से लेकर पाप की गठरी ढोने तक का दुस्साहस कर डाला और जो कमाया था उसे साले- बहनोई, बेटे- भतीजों के लिए छोड़कर स्वयं खाली हाथ चल दिए। दूसरे के सुख के लिए स्वयं कष्ट सहने वाले वस्तुत: यही महात्मा, ज्ञानी, परमार्थी अपने को दीखते हैं। वे स्वयं अपने को मायाग्रस्त और पथभ्रष्ट कहते हैं तो कहते रहें

🔵 अपने इर्द- गिर्द घिरे असंख्यों मानव देहधारियों के अन्तरंग और बहिरंग जीवन की- उसकी प्रतिक्रिया परिणति को जब- हम देखते हैं,तो लगता है, इन सबसे सुख और सुविधा जनक जीवन हमीं ने जी लिया। हानि  अधिक से अधिक इतनी हुई कि हमें कम सुविधा और सम्पन्नता का जीवन जीना पड़ा। सम्मान कम रहा और गरीब जैसे दीखे, सम्पदा न होने के कारण दुनियाँ वालों ने हमें छोटा समझा और अवहेलना की। बस इससे अधिक घाटा किसी आत्मवादी को नहीं हो सकता, पर इस अभाव से अपना कुछ भी हर्ज नहीं हुआ, न कुछ काम रुका। दूसरे षड़ष व्यंजन खाते रहे, हमने जौ- चना खाकर काम चलाया। 

🔴 दूसरे जीभ के अत्याचार से पीड़ित होकर रुग्णता का कष्ट सहते रहे, हमारा सस्ता आहार ठीक तरह पचता रहा और निरोगिता बनाये रहा। घाटे में हम क्या रहे? जीभ का क्षणिक जायका खोकर हमने "किवाड़- पापड़" होने की उक्ति सार्थक होती देखी। जहाँ तक जायके का प्रश्न है, उस दृष्टि से तुलना करने पर विलासियों की तुलना में हमारी जौ की रोटी अधिक मजेदार थी। धन के प्रयास में लगे लोग बढ़िया कपड़े, बढ़िया घर, बढ़िया साज- सज्जा अपनाकर अपना अहंकार पूरा करने और लोगों पर रौब गाँठने की विडम्बना में लगे रहे। हम स्वल्प साधनों में उतना ठाठ तो जमा नहीं सके, पर सादगी ने जो आत्म- संतोष और आनन्द प्रदान किया उससे कम प्रसन्नता नहीं हुई, चाहे छिछोरे- बचकाने लोग मखौल उड़ाते रहे हों, पर वजनदार लोगों ने सादगी के पर्दे के पीछे झाँकती हुई महानता को सराहा और उसके आगे सिर झुकाया। नफे में कौन रहा, विडम्बना बनाने वाले या हम?

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books/sunsaan_ke_shachar/hamari_jivan_saadhna.3

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