सोमवार, 10 जुलाई 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 10 July 2023

सज्जनोचित परम्परा यही रही है कि यदि किसी के पास अतिरिक्त आय के स्रोत हैं तो उसमें से उपयोग, उपभोग उतना ही करे जितना कि उस समाज के औसत आदमी को उपलब्ध है। शेष को दान के रूप में समाज को वापिस लौटा देना चाहिए। यह प्रथा जब से बंद हुई, लोग लालचवश अधिक संग्रह करने और उसका विलासिता में अधिक उपयोग करने लगे तो समाज अनेक प्रकार के विप्लव, उपद्रव खड़े हो गये।

चाहे साम्यवादी पद्धति से मनुष्य को बलात् विवश किया जाय कि वह आवश्यकतानुसार लेने और सामर्थ्यानुसार काम करने की सर्वोपयोगी विधि व्यवस्था का पालन करे, चाहे आध्यात्मवादी अपरिग्रही आदर्श स्वेच्छा पूर्वक अपनाने की सादगी का देश के सामान्य नागरिक स्तर का निर्वाह करते हुए जो बचे उसे बिना किसी अहंकार या विज्ञापन के विशुद्ध कर्त्तव्य बुद्धि से समाज को दान रूप में लौटा दे-पद्धति कोई भी क्यों न हो दोनों का निष्कर्ष एक है।

ब्राह्मण-ब्राह्मण के बीच ऊँच-नीच है और अछूट-अछूत के के बीच छूआछात है। आदमी-आदमी के बीच छोटाई-बड़ाई हो सकती है, पर उसका आधार गुण, कर्म, स्वभाव, सेवा, सदाचार, परमार्थ जैसी उत्कृष्टताएँ होनी चाहिए। किसी को नीच तो माना जा सकता है, पर उसका कारण उसकी दुष्टता, दुबुर्दि ही होनी चाहिए। जन्म, जाति, वंश के रूप में सभी ब्रह्माजी के पुत्र, मनु की संतान हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 सहयोग और सहिष्णुता (अन्तिम भाग)

यह आवश्यक नहीं कि हमारे सभी विचार ठीक ही हों, हमारी मान्यता, धारणा, एवं आकांक्षा हमारे लिए ठीक हो सकती है पर यह आवश्यक नहीं कि दूसरों को भी उन्हें मानने के लिए बाध्य किया जाय। अनेक दार्शनिक, धार्मिक, सामाजिक एवं राजनैतिक मतभेद प्रायः ऐसे होते हैं जिनमें दोनों ही पथ भ्रान्त पाये जाते है। इनके सम्बन्ध में हमें अधिक सहिष्णुता का परिचय देना चाहिए। कुछ विरोध ऐसे हैं जिन्हें अपराध कहते हैं, जिनके लिए राजदंड की व्यवस्था है। चोरी, हत्या, लूट, छल, दुराचार आदि अनैतिक कर्मों के लिए अवश्य ही प्रबल विरोध किया जाना चाहिए, उसमें जरा भी सहिष्णुता की जरूरत नहीं है परन्तु स्मरण रहे वह ‘प्रबल विरोध’ ऐसा नहीं जो उलटे हमें ही अपराधी बना दे। दण्ड देने योग्य विवेक हर एक में नहीं होता, खास तौर से जिसका अपराध किया है उसमें तो बिलकुल ही नहीं होता, इसलिए दण्ड के लिए उदार, विवेकवान न्यायप्रिय एवं निष्पक्ष व्यक्ति को ही पंच चुनना चाहिए। न्यायालयों और न्यायाधीशों की स्थापना इसी आधार पर हुई है।

संसार में कोई भी दो मनुष्य एक सी आकृति के नहीं मिलते। प्रभु की रचना ऐसी ही है कि हर मनुष्य की आकृति में कुछ न कुछ अन्तर रखा गया है। आकृति की भाँति विचारों, विश्वासों और स्वभावों में भी अन्तर होता है। जैसे विभिन्न आकृतियों के मनुष्य एक साथ प्रेमपूर्वक रह सकते हैं वैसे ही विभिन्न मनोभूमियों के मनुष्यों को भी एक साथ रहने में, प्रेम पूर्वक सुसम्बन्ध बनाये रहने में कोई अड़चन न होनी चाहिए। समाज की सुख-शान्ति, एकता और उन्नति इसी सहिष्णुता पर निर्भर है। असहिष्णुता लोगों का समाज, सदा कलह और संघर्षों से जर्जर होता रहता है वह किसी भी दृष्टि से कोई उन्नति नहीं कर पाता।

गायत्री माता की गोद में चढ़ना, उसका प्रिय पुत्र बनना निश्चय ही हमारे लिए अतीव आनन्ददायक एवं कल्याणकारक सिद्ध होता है। माता उन्हीं लोगों को अपना स्नेह भाजन बनाती है जो उसकी आज्ञा मानते है उसकी व्यवस्था पर आस्था रखते हैं। गायत्री की जो 24 आज्ञाएँ हमारे लिए निर्धारित हैं वे इस महामन्त्र के 24 अक्षरों में सन्निहित है। ‘गो’ शब्द द्वारा माता की आज्ञा यह है कि हम छल की कायरता का परित्याग करें और सहिष्णुता एवं उदारता के साथ जनसमाज में मधुर सम्बन्ध स्थापित करते हुए शान्तिमय जीवन का निर्माण करें।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- दिसम्बर 1952 पृष्ठ 3


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