शनिवार, 11 मई 2019
👉 हीरों का हार
मित्रो ! हमारा मन है कि हमारे पास दस हजार ऐसे व्यक्ति हों, जिनकी हम #माला पहनें, जो हमारे साथ कदम-से-कदम मिलाकर चलें। हमारी व उनकी एक आवाज हो, एक दिशा हो तथा लगातार मिलकर लक्ष्य की ओर बढ़ते रहें। उन्हें किसी बात का डर या भय न हो। इस वर्ष हमारी इच्छा दस हजार हीरे का हार पहनने की है। जब हमारा जुलूस निकले, तो जनता यह समझे कि यह बहुत मालदार आदमी है, बहुत शानदार आदमी है, वजनदार आदमी है।
यहाँ दस हजार हीरों से मेरा मतलब है कि दस हजार ऐसे साथी हो जाएँ, जो नियमित रूप से हमारे कार्य अर्थात् मिशन के लिए समयदान दे सकें। #पैसे की इच्छा नहीं है। इसका मतलब यह है कि हमारे हाथ-पाँव मजबूत हो जाएँ। हाथ-पाँव से हमारा मतलब आपसे है। आप हमारे चलते-फिरते हाड़-माँस के #शक्तिपीठ बन जाएँ। हमने जो उम्मीद शक्तिपीठों से लगाई थी, वह आप स्वयं पूरा करना शुरू कर दें। हमें ज्ञानरथ के लिए नौकर नहीं चाहिए। हमें इसके लिए आपका समयदान चाहिए। विवेकानंद, गाँधी, विनोबा का काम स्वयं उन्होंने किया। इसी तरह यह काम आपको करने होंगे। आपके पास चौबीस घंटे हैं। आठ घंटे काम के लिए, सात घंटे सोने के लिए, पाँच घंटे नित्य काम के लिए रख लें, तो भी आपके पास चार घंटे बचते हैं। आपको नियमित रूप से चार घंटे नित्य मिशन के लिए, समाज के लिए, भगवान् के लिए देना चाहिए।
प. पू. गुरुदेव द्वारा १९८५ में श्रावणी की
पूर्व संध्या पर दिये प्रवचन में से
यहाँ दस हजार हीरों से मेरा मतलब है कि दस हजार ऐसे साथी हो जाएँ, जो नियमित रूप से हमारे कार्य अर्थात् मिशन के लिए समयदान दे सकें। #पैसे की इच्छा नहीं है। इसका मतलब यह है कि हमारे हाथ-पाँव मजबूत हो जाएँ। हाथ-पाँव से हमारा मतलब आपसे है। आप हमारे चलते-फिरते हाड़-माँस के #शक्तिपीठ बन जाएँ। हमने जो उम्मीद शक्तिपीठों से लगाई थी, वह आप स्वयं पूरा करना शुरू कर दें। हमें ज्ञानरथ के लिए नौकर नहीं चाहिए। हमें इसके लिए आपका समयदान चाहिए। विवेकानंद, गाँधी, विनोबा का काम स्वयं उन्होंने किया। इसी तरह यह काम आपको करने होंगे। आपके पास चौबीस घंटे हैं। आठ घंटे काम के लिए, सात घंटे सोने के लिए, पाँच घंटे नित्य काम के लिए रख लें, तो भी आपके पास चार घंटे बचते हैं। आपको नियमित रूप से चार घंटे नित्य मिशन के लिए, समाज के लिए, भगवान् के लिए देना चाहिए।
प. पू. गुरुदेव द्वारा १९८५ में श्रावणी की
पूर्व संध्या पर दिये प्रवचन में से
👉 आत्मवत् सर्व भूतेषु:-
महामुनि मेतार्य ने कृच्छ चांद्रायण तप विधिवत सम्पन्न किया। अनुष्ठान काल में सम्पूर्ण एक मास केवल आँवला के फलों पर ही निर्वाह किया, इससे उनके शरीर में दुर्बलता तो थी किन्तु तपश्चर्या से अर्जित प्राण शक्ति और आँवले के कल्प के कारण उनके सम्पूर्ण शरीर में तेजोवलय स्पष्ट झलक रहा था।
अनुष्ठान समाप्त कर वे राजगृह की ओर चल पड़े। नियमानुसार वे दिन में एक बार किसी सद्गृहस्थ के घर भोजन ग्रहण कर लोक-कल्याण के कार्यों में जुटे रहते थे। उनकी लोक कल्याणकारी वृति देख कर मगध का हर नागरिक उनके आतिथ्य को अपना परम सौभाग्य मानता था।
आज वे राजगृह के स्वर्णकार के द्वार पर खड़े थे। स्वर्णकार कोई आभूषण बनाने के लिये स्वर्ण के छोटे-छोटे गोल, दाने बना कर ढेर करता जा रहा था। द्वार पर खड़े मेतार्य को देखा तो उसका हाथ वही रुक गया “ अतिथि देवोभव “ कहकर उसने मुनि मेतार्य का हार्दिक स्वागत किया। उनकी भिक्षा का प्रबन्ध करने के लिए जैसे ही वह अन्दर गया वृक्ष पर बैठे पक्षी उतर कर वहाँ आ गये जहाँ स्वर्णकार सोने के दाने गढ़ रहा था।
उन्होंने इन दानों को अन्न समझा सो जब तक स्वर्णकार वापस लौटे सारे दाने चुग डाले और उड़कर डाली में जा बैठे।
स्वर्णकार बाहर आया और सोने के बिखरे दानों को गायब पाया तो उसके गुस्से का ठिकाना न रहा। उसने देख द्वार पर मुनि मेतार्य चुपचाप बैठे है आतिथ्य भूल गया-पूछा- “आचार्य प्रवर यहाँ कोई आया तो नहीं|”
“नहीं तात! मेरे सिवाय और तो कोई नहीं आया|” मेतार्य ने सहज ही उत्तर दिया।
इस पर स्वर्णकार को क्रोध और भी बढ़ गया उसने निश्चय कर लिया मेतार्य ने ही वह स्वर्ण चुरा लिया और अब यहाँ ढोंग करके बैठा है।
मेतार्य से उसने पूछा- “स्वर्णकण तुमने चुराये हैं?”
इस पर वे कुछ न बोले। अब तो स्वर्णकार को और भी विश्वास हो गया कि मेतार्य ही वास्तविक चोर हैं सो उसने अन्य कुटुम्बियों को भी बुला लिया और उनकी अच्छी मरम्मत की। जितनी बार पूछा जाता- ‘तुमने स्वर्ण चुराया है|’ मेतार्य चुप रहते- कुछ भी न बोलते इससे उनका संदेह और बढ़ जाता।
अन्त में निश्चय किया गया कि मेतार्य के मस्तक पर गोले चमड़े की पट्टी बाँध कर चिल-चिलाती धूप में पटक दिया जाये। यही किया गया उनके मत्थे पर चमड़े की गीली पट्टी बाँध दी गई और धूप में कर दिया गया। जैसे जैसे पट्टी सूखती गई महर्षि का सिर कसता गया। शरीर पहले ही दुर्बल हो रहा था। पीड़ा सहन न हो सकी। वे चक्कर खाकर गिर पड़े। दिन उन्होंने प्राणान्तक पीड़ा में बिताया।
साँझ हो चली। वृक्ष पर बैठे पक्षियों ने बीट की तो वह दाने नीचे गिरे। किसी ने देखा तो कहा- “अरे सोने के दाने तो पक्षियों ने चुन लिये महर्षि को क्यों कष्ट दे रहे हो।“ स्वर्णकार हक्का बक्का रह गया।
उसने दौड़कर महर्षि के माथे की पट्टी खोली उन्हें जल पिलाया और दुःखी स्वर में पूछा- “महामहिम! आपने बता दिया होता कि स्वर्ण दाने पक्षियों ने चुगे हैं तो आपकी यह दुर्दशा क्यों होती?”
महर्षि मुस्कराये और बोले- “वैसा करने से जो दंड मैंने भुगता उससे भी कठोर दंड इन अज्ञानी पक्षियों को भुगतना पड़ता।“
महर्षि की इस महा दयालुता पर सबको रोमाँच हो आया। स्वर्णकार बोला- “जो प्राणिमात्र में अपनी तरह अपनी ही आत्मा को देखता है वही सच्चा साधु है।“
📖 अखण्ड ज्योति, मार्च-1971
अनुष्ठान समाप्त कर वे राजगृह की ओर चल पड़े। नियमानुसार वे दिन में एक बार किसी सद्गृहस्थ के घर भोजन ग्रहण कर लोक-कल्याण के कार्यों में जुटे रहते थे। उनकी लोक कल्याणकारी वृति देख कर मगध का हर नागरिक उनके आतिथ्य को अपना परम सौभाग्य मानता था।
आज वे राजगृह के स्वर्णकार के द्वार पर खड़े थे। स्वर्णकार कोई आभूषण बनाने के लिये स्वर्ण के छोटे-छोटे गोल, दाने बना कर ढेर करता जा रहा था। द्वार पर खड़े मेतार्य को देखा तो उसका हाथ वही रुक गया “ अतिथि देवोभव “ कहकर उसने मुनि मेतार्य का हार्दिक स्वागत किया। उनकी भिक्षा का प्रबन्ध करने के लिए जैसे ही वह अन्दर गया वृक्ष पर बैठे पक्षी उतर कर वहाँ आ गये जहाँ स्वर्णकार सोने के दाने गढ़ रहा था।
उन्होंने इन दानों को अन्न समझा सो जब तक स्वर्णकार वापस लौटे सारे दाने चुग डाले और उड़कर डाली में जा बैठे।
स्वर्णकार बाहर आया और सोने के बिखरे दानों को गायब पाया तो उसके गुस्से का ठिकाना न रहा। उसने देख द्वार पर मुनि मेतार्य चुपचाप बैठे है आतिथ्य भूल गया-पूछा- “आचार्य प्रवर यहाँ कोई आया तो नहीं|”
“नहीं तात! मेरे सिवाय और तो कोई नहीं आया|” मेतार्य ने सहज ही उत्तर दिया।
इस पर स्वर्णकार को क्रोध और भी बढ़ गया उसने निश्चय कर लिया मेतार्य ने ही वह स्वर्ण चुरा लिया और अब यहाँ ढोंग करके बैठा है।
मेतार्य से उसने पूछा- “स्वर्णकण तुमने चुराये हैं?”
इस पर वे कुछ न बोले। अब तो स्वर्णकार को और भी विश्वास हो गया कि मेतार्य ही वास्तविक चोर हैं सो उसने अन्य कुटुम्बियों को भी बुला लिया और उनकी अच्छी मरम्मत की। जितनी बार पूछा जाता- ‘तुमने स्वर्ण चुराया है|’ मेतार्य चुप रहते- कुछ भी न बोलते इससे उनका संदेह और बढ़ जाता।
अन्त में निश्चय किया गया कि मेतार्य के मस्तक पर गोले चमड़े की पट्टी बाँध कर चिल-चिलाती धूप में पटक दिया जाये। यही किया गया उनके मत्थे पर चमड़े की गीली पट्टी बाँध दी गई और धूप में कर दिया गया। जैसे जैसे पट्टी सूखती गई महर्षि का सिर कसता गया। शरीर पहले ही दुर्बल हो रहा था। पीड़ा सहन न हो सकी। वे चक्कर खाकर गिर पड़े। दिन उन्होंने प्राणान्तक पीड़ा में बिताया।
साँझ हो चली। वृक्ष पर बैठे पक्षियों ने बीट की तो वह दाने नीचे गिरे। किसी ने देखा तो कहा- “अरे सोने के दाने तो पक्षियों ने चुन लिये महर्षि को क्यों कष्ट दे रहे हो।“ स्वर्णकार हक्का बक्का रह गया।
उसने दौड़कर महर्षि के माथे की पट्टी खोली उन्हें जल पिलाया और दुःखी स्वर में पूछा- “महामहिम! आपने बता दिया होता कि स्वर्ण दाने पक्षियों ने चुगे हैं तो आपकी यह दुर्दशा क्यों होती?”
महर्षि मुस्कराये और बोले- “वैसा करने से जो दंड मैंने भुगता उससे भी कठोर दंड इन अज्ञानी पक्षियों को भुगतना पड़ता।“
महर्षि की इस महा दयालुता पर सबको रोमाँच हो आया। स्वर्णकार बोला- “जो प्राणिमात्र में अपनी तरह अपनी ही आत्मा को देखता है वही सच्चा साधु है।“
📖 अखण्ड ज्योति, मार्च-1971
👉 The Absolute Law Of Karma (Part 15)
PASSIVE ACQUIESCENCE BEFORE EVIL ACTS IS ALSO SINFUL
It is seen that in a society the affluent and powerful exploiters suffer much less from natural disasters than the submissive, under – privileged masses. The brunt of excessive rains or droughts is mainly borne by the poor farmers. The laws of divine justice regard tolerance of a sin as a greater offence than its committal. There is a saying that “the father of a tyrant is a coward”. Cowardice and timidity tend to invite suppression and oppression from some quarter or the other. Big powerful fish is always on the prowl for the timid small fish. The latter may manage to escape from one but some other big fish will devour it.
Laws of divine justice consider cowardice, weakness and ignorance as grave sins. It is not surprising that these invite harsher punishments. Natural disasters should be taken as stealthy acts of divine grace. These are frequently manifested by the invisible Supreme Justice for removal of corruption from the society. Natural calamities are not aberrations of nature. Instead, these are reactions of out-of-tune actions of living beings themselves. It is like the process of refining in the blast furnace. Through such
loud warnings, God mercifully tells us again and again to work for eradicating sins from the society. In the next chapter we shall discuss how and when divine justice gives rewards and punishments for the various types of good and evil karmas.
.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 27
It is seen that in a society the affluent and powerful exploiters suffer much less from natural disasters than the submissive, under – privileged masses. The brunt of excessive rains or droughts is mainly borne by the poor farmers. The laws of divine justice regard tolerance of a sin as a greater offence than its committal. There is a saying that “the father of a tyrant is a coward”. Cowardice and timidity tend to invite suppression and oppression from some quarter or the other. Big powerful fish is always on the prowl for the timid small fish. The latter may manage to escape from one but some other big fish will devour it.
Laws of divine justice consider cowardice, weakness and ignorance as grave sins. It is not surprising that these invite harsher punishments. Natural disasters should be taken as stealthy acts of divine grace. These are frequently manifested by the invisible Supreme Justice for removal of corruption from the society. Natural calamities are not aberrations of nature. Instead, these are reactions of out-of-tune actions of living beings themselves. It is like the process of refining in the blast furnace. Through such
loud warnings, God mercifully tells us again and again to work for eradicating sins from the society. In the next chapter we shall discuss how and when divine justice gives rewards and punishments for the various types of good and evil karmas.
.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 27
👉 आत्मचिंतन के क्षण 11 May 2019
★ ये शिला देख रहे हैं आप ये वही शिला है जो आप मंदिरों में पाते हैं, जिसके समक्ष आप शीश झुकाते हैं, हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हैं, विनती करते हैं। अब सोचिये ये शिला बनती किससे है, पाषाण के एक खण्ड से, बिल्कुल साधारण सा पाषाण का खण्ड। यदि यही पाषाण का खण्ड आपको कहीं और मिल जाए तो आप क्या करोगे? ठोकर मार दोगे?? वो पाषाण आपके लिए अधिक महत्व नहीं रखता। अब यही मनुष्य के साथ भी होता है। अब या तो आप सम्मान पा सकते हैं या ठोकर खा सकते हैं, प्रयत्न आपका होगा। यदि आप अपने भीतर अच्छे विचार जगाएँ, शुभ कर्म करें, कठिनाइयों का, संकटों का सामना करें, सदाचार के मार्ग पर चलें तो आपको सम्मान अवश्य प्राप्त होगा अन्यथा विफलता का मार्ग तो आपके पास है ही।
◆ कहते हैं यदि भाग्य साथ न हो, यदि भाग्य ही खराब हो, नदी का पानी भी खारा बन जाता है। ये बात अनुचित है। हर बात के लिए, हर समस्या के लिए, भाग्य दोषी नहीं हो सकता। कई बार हमारी असावधानी भी होती है। सावधान रहना अत्यंत आवश्यक है। हम आने वाले समय के लिए सावधान नहीं रहते और जब अचानक संकट हमारे समक्ष आ जाता है, तो स्वयं को संभाल नहीं पाते, क्योंकि हम सज्ज नहीं रहते? उस परिस्थिति में हम हार जाते हैं? सावधानी अत्यंत आवश्यक है, जब आप किसी अंजान राह पर निकलते हैं, तो सर्वप्रथम अपना एक पैर अपनी धरा पर जमाए रखना और दूसरे पैर से आने वाली भूमि का आकलन करना जरूरी है। ये समस्या है ऐसा मानना सावधानी का अंत है। आने वाले भविष्य का आकलन करना क्योंकि कुछ भी कर लो आप आने वाली परिस्थिति को तो देख नहीं सकते। यदि भविष्य में आपके संकट ही लिखा है तो आने वाले संकट का सामना करने के लिए आप सावधानी की ढाल का तो उपयोग कर सकते हैं।
◇ विषपान करने के बाद भी महादेव देवों के देव महादेव कहलाते हैं? वहीं दूसरी ओर अमृतपान करने के पश्चात भी राहू और केतू असुर ही कहलाते हैं? क्यों?? इसका कारण है भाव। आपके कर्मों के पीछे जो आपका भाव है, अत्यंत महत्वपूर्ण है। ये संसार किसी व्यक्ति को वहीं से तो जानता है, कर्मों के पीछे उसके भाव से। यदि कोई परोपकार करे और उसके पीछे भाव स्वार्थ का हो, तो वो परोपकारी मनुष्य अपने आप अपना महत्व खो देता है। यदि आपके कर्म के पीछे भाव उचित हो तो श्राप भी वरदान में परिवर्तित हो सकता है। यदि आपके कर्म का भाव अनुचित हो तो वरदान को श्राप का रूप लेने में अधिक समय नहीं लगता। ये सारा खेल है कर्मों का और भावों का।
◆ कहते हैं यदि भाग्य साथ न हो, यदि भाग्य ही खराब हो, नदी का पानी भी खारा बन जाता है। ये बात अनुचित है। हर बात के लिए, हर समस्या के लिए, भाग्य दोषी नहीं हो सकता। कई बार हमारी असावधानी भी होती है। सावधान रहना अत्यंत आवश्यक है। हम आने वाले समय के लिए सावधान नहीं रहते और जब अचानक संकट हमारे समक्ष आ जाता है, तो स्वयं को संभाल नहीं पाते, क्योंकि हम सज्ज नहीं रहते? उस परिस्थिति में हम हार जाते हैं? सावधानी अत्यंत आवश्यक है, जब आप किसी अंजान राह पर निकलते हैं, तो सर्वप्रथम अपना एक पैर अपनी धरा पर जमाए रखना और दूसरे पैर से आने वाली भूमि का आकलन करना जरूरी है। ये समस्या है ऐसा मानना सावधानी का अंत है। आने वाले भविष्य का आकलन करना क्योंकि कुछ भी कर लो आप आने वाली परिस्थिति को तो देख नहीं सकते। यदि भविष्य में आपके संकट ही लिखा है तो आने वाले संकट का सामना करने के लिए आप सावधानी की ढाल का तो उपयोग कर सकते हैं।
◇ विषपान करने के बाद भी महादेव देवों के देव महादेव कहलाते हैं? वहीं दूसरी ओर अमृतपान करने के पश्चात भी राहू और केतू असुर ही कहलाते हैं? क्यों?? इसका कारण है भाव। आपके कर्मों के पीछे जो आपका भाव है, अत्यंत महत्वपूर्ण है। ये संसार किसी व्यक्ति को वहीं से तो जानता है, कर्मों के पीछे उसके भाव से। यदि कोई परोपकार करे और उसके पीछे भाव स्वार्थ का हो, तो वो परोपकारी मनुष्य अपने आप अपना महत्व खो देता है। यदि आपके कर्म के पीछे भाव उचित हो तो श्राप भी वरदान में परिवर्तित हो सकता है। यदि आपके कर्म का भाव अनुचित हो तो वरदान को श्राप का रूप लेने में अधिक समय नहीं लगता। ये सारा खेल है कर्मों का और भावों का।
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