🔵 संग्रह का मतलब है- स्वर्ग पर अविश्वास, ईश्वर पर अश्रद्धा और भविष्य की अवज्ञा। जब पिछले दिनों हम अपनी अनिवार्य आवश्यकताओं का अर्जन करते रहें, तो कल नहीं कर सकेंगे, इसका कोई कारण नहीं। यदि जीवन सत्य है तो यह भी सत्य है कि जीवनोपयोगी पदार्थ ईश्वरीय कृपा से अन्तिम साँस तक मिलते रहेंगे। नियति ने उसकी समुचित व्यवस्था पहले से ही कर रखी है। तृष्णा तो ऐसी बुद्धिहीनता है, जो निर्वाह के लिए आवश्यक साधन उपलब्ध रहने पर भी निरन्तर अतृप्तिजन्य उद्विग्नता में जलाती रहती है।
🔴 जिन्हें ईश्वर की उदारता पर विश्वास है, वे उदार बनकर जीते हैं। धरती अन्न उपजाती है- अन्न और वनस्पति उगाकर वह समस्त प्राणियों का पेट भरती है, पर यह नहीं सोचती कि मेरा भण्डार खाली हो जाएगा। उसकी यह उदारता सृष्टिक्रम के अनुसार लौटकर उसी के पास वापस आ जाती है, प्राणी पृथ्वी के अनुदान का उपयोग तो करते हैं, पर प्रकारान्तर से उसकी निधि उसी को वापस कर देते हैं। मल-मूत्र, खाद, कूड़ा, मृत शरीर यह सब लौटकर धरती के पास आते हैं और उसकी उर्वरता को सौ गुना बढ़ा देते हैं।
🔵 बादलों का कोष कभी नहीं चुका, वे बार-बार खाली होते रहते हैं, और फिर भर जाते हैं। नदियाँ उदारतापूर्वक देती हैं और यह विश्वास करती हैं कि उनका प्रवाह चलता रहेगा, अक्षय जलस्रोत उसकी पूर्ति करते रहेंगे। वृक्ष प्रसन्नतापूर्वक देते हैं और सोचते हैं कि वे ठूँठ नहीं होंगे। नियति का चक्र उन्हें हरा-भरा रखने की व्यवस्था करता ही रहेगा। कृपणता, संकीर्ण चिन्तन का ही नाम है। ऐसे व्यक्ति कुछ संग्रह तो कर सकते हैं, पर साथ ही बढ़ती हुई तृष्णा के कारण उस सुख से वंचित ही रहते हैं, जो उदार रहने पर उन्हें अनवरत रूप से मिलता रह सकता था।
🔴 पर्वत के उच्चशिखर पर निवास करने वाली चट्टान किसी को कुछ देती नहीं। वह अपनी सम्पदा अपने पास ही समेटे बैठी रहती है। अपनी विभूतियाँ किसी को क्यों दें? यह सोचकर रेतीली मिट्टी की अपेक्षा कहीं अधिक सुदृढ़, समर्थ चट्टान निष्ठुरता बरतती है और कृपण बनी रहती है, लेकिन जब वर्षा होती है, विपुल जलधार बरसती है तो रेतीली मिट्टी आर्द्र हो उठती है। उसकी तृष्णा तृप्त हो जाती है, पर चट्टान को उस लाभ से वंचित ही रहना पड़ता है। भीतर तो एक बूँद घुसती नहीं, बाहर जो नमी आती है उसे भी पवन एक झोंके में सुखा देता है, जबकि खेत की मिट्टी बाहर भी देर से सूखती है। भीतर तो सरसता का सुखद आनन्द चिरकाल तक लेती रहती है। मिट्टी ने कुछ खोया नहीं, चट्टान ने कुछ पाया नहीं। उदारता अपनाकर मिट्टी वरुण देव के स्नेह से अनायास ही सिक्त हो गयी और चट्टान को सूर्य का कोप सदा ही संतप्त करता रहा।
🔵 खिलते हुए पुष्प हमेशा ही हवा की झोली में अपना सौरभ भरते रहते हैं। अपने पराग से कीट, पतंगों, मधुमक्खियों की सतत उदरपूर्ति करते हैं। ईश्वरीय व्यवस्था उन्हें कभी सौरभ और पराग की कमी नहीं होने देती। बहता हुआ पानी स्वच्छ रहता है, उसे लोग पीते और उसी में नहाते हैं। गड्ढे में रुका हुआ पानी सड़ जाता है, पीने योग्य नहीं रहता। कृपणता रुके हुए गड्ढे की तरह है, उसका सञ्चय सड़कर दुर्गन्ध ही उत्पन्न करता है। गड्ढे की संकीर्णता में बँधकर जल देवता की भी दुर्गति होती है। ऐसी दुर्गति से बचें एवं उदार जीवन की गरिमा समझें, देते रहने का आनन्द पाएँ।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 45
🔴 जिन्हें ईश्वर की उदारता पर विश्वास है, वे उदार बनकर जीते हैं। धरती अन्न उपजाती है- अन्न और वनस्पति उगाकर वह समस्त प्राणियों का पेट भरती है, पर यह नहीं सोचती कि मेरा भण्डार खाली हो जाएगा। उसकी यह उदारता सृष्टिक्रम के अनुसार लौटकर उसी के पास वापस आ जाती है, प्राणी पृथ्वी के अनुदान का उपयोग तो करते हैं, पर प्रकारान्तर से उसकी निधि उसी को वापस कर देते हैं। मल-मूत्र, खाद, कूड़ा, मृत शरीर यह सब लौटकर धरती के पास आते हैं और उसकी उर्वरता को सौ गुना बढ़ा देते हैं।
🔵 बादलों का कोष कभी नहीं चुका, वे बार-बार खाली होते रहते हैं, और फिर भर जाते हैं। नदियाँ उदारतापूर्वक देती हैं और यह विश्वास करती हैं कि उनका प्रवाह चलता रहेगा, अक्षय जलस्रोत उसकी पूर्ति करते रहेंगे। वृक्ष प्रसन्नतापूर्वक देते हैं और सोचते हैं कि वे ठूँठ नहीं होंगे। नियति का चक्र उन्हें हरा-भरा रखने की व्यवस्था करता ही रहेगा। कृपणता, संकीर्ण चिन्तन का ही नाम है। ऐसे व्यक्ति कुछ संग्रह तो कर सकते हैं, पर साथ ही बढ़ती हुई तृष्णा के कारण उस सुख से वंचित ही रहते हैं, जो उदार रहने पर उन्हें अनवरत रूप से मिलता रह सकता था।
🔴 पर्वत के उच्चशिखर पर निवास करने वाली चट्टान किसी को कुछ देती नहीं। वह अपनी सम्पदा अपने पास ही समेटे बैठी रहती है। अपनी विभूतियाँ किसी को क्यों दें? यह सोचकर रेतीली मिट्टी की अपेक्षा कहीं अधिक सुदृढ़, समर्थ चट्टान निष्ठुरता बरतती है और कृपण बनी रहती है, लेकिन जब वर्षा होती है, विपुल जलधार बरसती है तो रेतीली मिट्टी आर्द्र हो उठती है। उसकी तृष्णा तृप्त हो जाती है, पर चट्टान को उस लाभ से वंचित ही रहना पड़ता है। भीतर तो एक बूँद घुसती नहीं, बाहर जो नमी आती है उसे भी पवन एक झोंके में सुखा देता है, जबकि खेत की मिट्टी बाहर भी देर से सूखती है। भीतर तो सरसता का सुखद आनन्द चिरकाल तक लेती रहती है। मिट्टी ने कुछ खोया नहीं, चट्टान ने कुछ पाया नहीं। उदारता अपनाकर मिट्टी वरुण देव के स्नेह से अनायास ही सिक्त हो गयी और चट्टान को सूर्य का कोप सदा ही संतप्त करता रहा।
🔵 खिलते हुए पुष्प हमेशा ही हवा की झोली में अपना सौरभ भरते रहते हैं। अपने पराग से कीट, पतंगों, मधुमक्खियों की सतत उदरपूर्ति करते हैं। ईश्वरीय व्यवस्था उन्हें कभी सौरभ और पराग की कमी नहीं होने देती। बहता हुआ पानी स्वच्छ रहता है, उसे लोग पीते और उसी में नहाते हैं। गड्ढे में रुका हुआ पानी सड़ जाता है, पीने योग्य नहीं रहता। कृपणता रुके हुए गड्ढे की तरह है, उसका सञ्चय सड़कर दुर्गन्ध ही उत्पन्न करता है। गड्ढे की संकीर्णता में बँधकर जल देवता की भी दुर्गति होती है। ऐसी दुर्गति से बचें एवं उदार जीवन की गरिमा समझें, देते रहने का आनन्द पाएँ।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 45