सोमवार, 15 मई 2017

👉 संजीवनी ने किया नवचेतना का संचार

🌹 (पग- पग पर गुरुदेव ने सिखाया, बचाया और सँवारा)

🔵 गुरु की चमत्कारिक कृपा को जीवन के क्षण- क्षण में अनुभव किया है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि गुरुतत्व की अदृश्य चैतन्यशक्ति सतत मार्गदर्शन, संरक्षण, मंगलमय जीवन, हर प्रगति और हर कर्म के कुशल- क्षेम वहाम्यहम् का वचन निभाती रही है। पूर्वजन्मों के संस्कारवश योग, आसन, उपवास, आदि में अभिरुचि रही। कई एक अतीन्द्रिय अनुभूतियाँ भी हुईं, लेकिन आगे के लिए गुरु की खोज रही। कई आश्रमों, मठों और चर्चित महापुरुषों के सम्पर्क में आया। अनायास ‘कादम्बिनी’ नामक पत्रिका के तंत्र- विशेषांक में आचार्य श्रीराम शर्माजी के तंत्र महाविज्ञान पर एक लेख में शान्तिकुञ्ज और ब्रह्मवर्चस् शोध- संस्थान के बारे में पढ़ने को मिला।

🔴 पत्र- व्यवहार के बाद आने की अनुमति मिली। लेकिन परिवार से जाने की अनुमति नहीं मिली। शान्तिकुञ्ज से फिर वंदनीया माताजी का पत्र पहुँचा- आयुष्यमान आए नहीं, प्रतीक्षा होती रही। यह राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए यज्ञ के राष्ट्रव्यापी अभियान का वर्ष था! दूसरी बार अकेले ही जमालपुर से हरिद्वार बगैर रिजर्वेशन के रेल यात्रा से पहुँचा। लगा, रास्ते भर कोई दिव्य शक्ति संरक्षित करती रही। पहुँचने पर शान्तिकुञ्ज का वातावरण अपूर्व, मनोरम और अलौकिक प्रतीत हुआ। वंदनीया माताजी से भेंट और परामर्श का अवसर मिला। यहाँ हालांकि प्रवचनों में गायत्री और यज्ञ की महिमा को सुना लेकिन वैज्ञानिक तर्क के स्तर पर सहमत नहीं हो पा रहा था।

🔵 क्योंकि ऐसी महिमाएँ पहले भी सुनता रहा था, किसी प्रकार का अनुभव हुआ नहीं था। कई असमंजस के साथ जब ट्रेन से लौट रहा था, सोए रहने की वजह से ट्रेन आगे बढ़ गई थी। टी.टी. किसी न किसी बहाने सबसे कुछ रकम ऐंठ रहा था। उसने मुझसे भी कुछ रकम माँगी। प्रयोग के तौर पर मैंने मन ही मन गायत्री मंत्र जपना आरंभ किया। मेरे हाथ में गुरुदेव की लिखी कोई पुस्तक थी। टीटी ने पुस्तक मेरे हाथ से लेकर पूछा- ‘कहाँ से आ रहे हैं?
 
🔴 मैंने कहा- ‘शांतिकुंज हरिद्वार से।’ टी. टी. ने कहा- ‘हाँ, मेरे एक चाचाजी भी यहाँ से जुड़े हैं, मेरी श्रद्धा है इस संस्था से।’ फिर टी. टी. ने मुझे ससम्मान सही ट्रेन में बैठाया। यह तो गायत्री मंत्र की शक्ति की एक झलक मात्र थी। आचार्य जी के उपलब्ध साहित्य को पढ़ते हुए एक जगह भावना ठहर गई। एक पुस्तक में उन्होंने लिखा था कि जिन्हें विश्वास न हो वे गायत्री मंत्र का जप करके तो देखें। गायत्री मंत्र जप कर रहा था। इसी बीच राज्य स्तर के प्रतिष्ठित विद्वान प्राध्यापक के पुत्र जिनसे मेरी मैत्री थी, अपने पिता के ब्रेन हैमरेज के आघात के बाद एक दिन राय- मशवरे के लिये अपने घर ले गए। मेरे जैसे अदना व्यक्ति के साथ नामी- गिरामी बुद्धिजीवी का आध्यात्मिक विषय पर चर्चा- परिचर्चा मेरे लिये अप्रत्याशित रोमांच था।
    
🔵 मैं लगातार सुन और पढ़ रहा था कि बिना गुरुदीक्षा के साधना फलती नहीं, मंत्र में प्राण नहीं आता। लेकिन तार्किक मन गुरुदीक्षा का अर्थ अधीनता समझ रहा था। कई बार नौ दिवसीय सत्र में दीक्षा के अवसर को टालता रहा। एक बार इसी तरह टालते हुए आश्रम की कैंटीन में बैठा। एक गुजराती महिला ने अनायास पूछा- ‘आप कितनी बार शान्तिकुञ्ज आ चुके हैं?’ मैंने कहा- ‘पाँच बार’ महिला- ‘आपने दीक्षा ली’ - ‘नहीं।’ महिला- ‘इतनी बार शान्तिकुञ्ज आ चुके हैं, दीक्षा नहीं ली?’ यह बात जैसे दिल को छू गई।
 
🔴 एक बार माँ और बहनों को लेकर शान्तिकुञ्ज आया। माँ पहली बार में ही दीक्षित हो गई। दूसरी बार माँ के साथ शान्तिकुञ्ज आया। माँ ने कहा इस बार अवश्य ही दीक्षा ले लो। मैंने दीक्षा तो ली लेकिन अभी भी बेशर्त समर्पण का भाव था नहीं। अभी भी बौद्धिक भूख के रूप में विभिन्न साधना, ध्यान मार्ग की पद्धतियों में भटक रहा था। कई बार ऐसा लगा कि स्वयं गुरुदेव ही मुझे ये सब जानने समझने की सुविधा और अवसर उपलब्ध करा रहे हैं। एक बार आँवलखेड़ा के युगसंधि महापुरश्चरण की अर्द्धपूर्णाहुति के अवसर पर टूंडला किसी धार्मिक सत्संग स्थल पर गया। आगरा आते हुए बस से उतरते वक्त बुरी तरह सड़क पर गिर गया।

🔵 वहाँ के लोगों ने उठाकर सड़क के किनारे लिटाया। सामने एक बड़े पोस्टर में गुरुदेव व माताजी की आशीषमय मुद्रा में बड़ी तस्वीर थी। इस स्थिति में प्रबल आत्मविश्वास से भरी प्रार्थना के साथ इन्हें संरक्षक के रूप में स्वीकारा। अद्भुत! वहाँ के बड़े परोपकारी लोग चैरिटेबिल अस्पताल ले गए। वहाँ अस्थिरोग विशेषज्ञ, चिकित्सकों ने पूरा ख्याल किया। वहाँ सहायक सज्जनों ने बड़ी सद्भावपूर्ण भावना से कांधे पर बिठाकर ट्रेन आदि के सहारे घर पहुँचाया। गायत्री परिवार के लोगों की सामूहिक प्रार्थना के बलबूते मैं स्वस्थ हुआ। कुछ लोग मिशन के कार्य से बुलाने आते। टाल- मटोल करता रहा। एक दिन आधी रात को माँ को गंभीर रूप से बीमार होने के कारण अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। ऑक्सीजन सिलेंडर लगाना पड़ा। मुझे यह गुरुकार्य की अवहेलना का दण्ड लगा।

🔴 अस्पताल के पीछे चबूतरे पर बैठकर गुरुदेव से प्रार्थना की कि अब आपकी सेवा में पूरे तौर पर तत्पर रहूँगा। आश्चर्य! माँ ठीक होने लगी। फिर गायत्री मिशन में बेशर्त पूर्णतः सक्रिय हुआ हूँ। हमारी तीनों बहिनें मिशनरी गतिविधि में अपनी गायन- वादन प्रतिभा से सक्रिय हैं। गुरु के अनुदान स्वरूप उन्हें अच्छी शिक्षा, उत्तम वैवाहिक जीवन प्राप्त हुआ।
एक और घटना जिसने चेतना को उन्नत बनाया और शारीरिक चिकित्सा के स्तर पर अद्भुत अनुभव दे गया। हुआ यूँ, पूरबसराय शक्तिपीठ (मुंगेर) से युवा सम्मेलन के कार्यक्रम से लौटते हुए गेट के पास पथरीले रास्ते से फिसल कर इतनी बुरी तरह गिरा कि बाँये पैर के घुटने में जबरदस्त चोट आई। लाख प्रयास के बावजूद न तो पैर मुड़ पा रहा था और न ही मैं उठ पा रहा था।
  
🔵 बेहद लाचार और असहाय विवशता की स्थिति! वहाँ उपस्थित गायत्री परिजन कई सलाह- मशवरे के बाद मुंगेर के पोलो मैदान के पास एक व्यक्ति के पास ले गए। उसने गहरी चोट कहकर पट्टी बाँध दी, तीन सौ रुपये लिये, फिर मुझे घर लाया गया। भ्रम, भय, आशंका और नासमझी में कुछ दर्द निवारक गोलियों और अन्य उपचारों से मन को बहला रहा था। करवट बदल नहीं पाता था।
 
🔴 करीब पन्द्रह या बीस दिनों के बाद जब स्वतः पट्टी खोली तो मेरा घुटना मुड़ता ही नहीं था। फिर एक्स- रे से जो रिपोर्ट आई उसमें घुटने की चक्री दो टुकड़े में टूटी थी। घुटना बुरी तरह फूला हुआ था। डॉक्टर की सलाह मिली कि स्टील की चक्री प्रत्यारोपित की जाए या हड्डी काटी जाए। बेहद खर्च, सहायक लोगों की कमी, स्वयं विस्तर से भी उठ नहीं पाने की असमर्थता। उस वक्त नगर में विराट गायत्री महायज्ञ का आयोजन होने को था। अत्यंत किंकर्तव्यविमूढ़ सी अवस्था में गुरुदेव से आर्त्त स्वर में रुदन से भरी प्रार्थना ने अंधेरे में पग- पग पर रोशनी बनकर चमत्कारिक कृपाएँ बरसायीं।
  
🔵 स्टिक के साथ चलने के प्रयास में किसी झटके में असहनीय दर्द बढ़ गया। उस रात बहुत रो- रोकर गुरुदेव से प्रार्थना की। रात्रि स्वप्र में एक दिव्य पुरुष ने घुटने को हाथ से छूते हुए कहा कि आप मेरे बताए हुए प्राणायामों को थोड़ी लंबी अवधि तक और गहरे प्रार्थना भाव से करें। पहले भी प्राणायाम के अभ्यास से पेट की बीमारी से राहत पाए थी।
एक उदाहरण द्वारा तत्कालीन गायत्री शक्तिपीठ के उपजोन समन्वयक श्री त्रिवेणी प्रसाद अग्रवाल ने अपनी पत्नी के टूटी हड्डी का केस बताया जो प्राकृतिक ढंग से ठीक हो गया था। एक धार्मिक चेनल पर एक अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रख्यात अस्थि रोग विशेषज्ञ के १०० लोगों पर प्राणायाम के शिविर द्वारा सकारात्मक परिणाम को देखा। दोनों उदाहरणों से आए विश्वास और बिल्कुल सकारात्मक सोच के साथ प्रातः ३.३० बजे, संध्या ४.०० बजे में पर्याप्त समय तक प्रार्थना पूर्ण भाव से प्राणायम की आध्यात्मिक चिकित्सा का अभ्यास आरंभ किया। प्राणायाम- ध्यान के वक्त मैं मिलने वाले लोगों से कम मिलता था। आश्चर्य! पैर धीरे- धीरे मुड़ने लगा।
 
🔴 ढाई महिने में पैर के सहारे बैठने लगा। एक रात्रि स्वप्र में डॉ० प्रणव पण्ड्या ने निर्दिष्ट किया कि प्राणायाम के साथ- साथ रोम- रोम में, हर कोशिका में सविता संचार और सोऽहम का भाव करें। प्राणायाम करते हुए भाव रहता कि अंतरिक्ष से सर्वश्रेष्ठ ईश्वरीय चिकित्सा, औषधि की आशीषमय चेतना का प्रवाह घुटने में हो रहा है। प्रबल विश्वास के साथ हाथ के स्पर्श से ईश्वरीय चेतना को घुटनों में प्रवाहित होने का ध्यान करता। स्टिक के सहारे अब धीरे- धीरे टहलना आरंभ किया।
 
🔵 गायत्री जयंती के दिन सन् २००७ में रक्त- दान शिविर के कार्यक्रम में किसी तरह गया था। इस बीच आन्तरिक जगत में अद्भुत दिव्य अनुभूति, अलौकिक स्वप्रनों का क्रम बना रहा। स्टिक के सहारे ही यज्ञों की टोलियों में जाने, स्वाध्याय- मंडल चलाने जैसी कई गतिविधियों में सक्रियता बढ़ी। पहले तो स्थिति इतनी बुरी थी कि ह्वील चेयर ओर बैशाखी के सहारे चलने की अवसादजन्य सोच थी। लेकिन प्रार्थनामय प्राणायाम से टूटी हड्डी जुड़ने की अद्भुत चिकित्सा हुई। मिशन के लिय महत्वपूर्ण दायित्व निभाने के अवसर मिले। एकांत की साधना से संचित प्रारब्ध कटे। शांति, दिव्यता की अलौकिक अनुभूति और गुरुदेव के आशीषमय कृपाओं के प्रति अन्तरतम से चिर कृतज्ञ हूँ।

🌹 मनोज मिश्र जमालपुर (बिहार)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/a/sang.1

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 102)

🌹 तीसरी हिमालय यात्रा-ऋषि परम्परा का बीजारोपण

🔴 इसे परीक्षा का एक घटनाक्रम ही कहना चाहिए कि पाँच बोर का लोडेड रिवाल्वर शातिर हाथों में भी काम न कर सका। जानवर काटने के छुरे के बारह प्रहार मात्र प्रमाण के निशान छोड़कर अच्छे हो गए। आक्रमणकारी अपने बम से स्वयं घायल होकर जेल जा बैठा। जिसके आदेश से उसने यह किया था, उसे फाँसी की सजा घोषित हुई। असुरता के आक्रमण असफल हुए। एक उच्चस्तरीय दैवी प्रयास को निष्फल कर देना सम्भव न हो सका। मारने वाले से बचाने वाला बड़ा सिद्धि हुआ।

🔵 इन दिनों एक से पाँच करने की सूक्ष्मीकरण विधा चल रही है। इस लिए क्षीणता तो आई है, तो भी बाहर से काया ऐसी है, जिसे जितने दिन चाहे जीवित रखा जा सके, पर हम जान-बूझकर इसे इस स्थिति में रखेंगे नहीं। कारण कि सूक्ष्म शरीर से अधिक काम लिया जा सकता है और स्थूल शरीर उसमें किसी कदर बाधा ही डालता है।

🔴 शरीर की जीवनीशक्ति, असाधारण रही है। उसके द्वारा दस गुना काम लिया गया है। शंकराचार्य, विवेकानन्द बत्तीस-पैंतीस वर्ष जिए, पर ३५० वर्ष के बराबर काम कर सके। हमने ७५ वर्षों में विभिन्न स्तर के इतने काम किए हैं कि उनका लेखा-जोखा लेने पर वे ७५० वर्ष से कम में होने वाले सम्भव प्रतीत नहीं होते। यह सारा समय नवसृजन की एक से एक अधिक सफल भूमिकाएँ बनाने में लगा है। निष्क्रिय-निष्प्रयोजन और खाली कभी नहीं रहा है।

🔵 बुद्धि को भगवान् के खेत में बोया और वह असाधारण प्रतिभा बनकर प्रकटी। अभी तक लिखा हुआ साहित्य इतना है कि जिसे शरीर के वजन से तोला जा सके। यह सभी उच्च कोटि का है। आर्षग्रंथों के अनुवाद से लेकर प्रज्ञा युग की भावी पृष्ठभूमि बनाने वाला ही सब कुछ लिखा गया है। आगे का सन् २००० तक का हमने अभी से लिखकर रख दिया है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/3.6

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 16 May 2017


👉 आज का सद्चिंतन 16 May 2017


👉 हम प्रगतिशील बनें

🔵 प्रगतिशीलता का अर्थ है-एक नवचेतना, एक जागरूक विवेक, जिसके आधार पर कोई अपना हित-अहित ठीक तरह से देख-समझ सके। जो राष्ट्र गुण-दोष, हानि-लाभ के दृष्टिकोण से किसी बात का निर्णय करके अपने लिए मार्ग निर्धारित करते हैं, वे राष्ट्र प्रगतिशील ही कहे जाएँगे। जो अपनी अहितकर कुरीतियों, प्रथाओं एवं परम्पराओं को छोड़ने के लिए और उनके स्थान पर नई, उपयोगी एवं समयानुसार प्रथा-परम्पराएँ प्रचलित करने के लिए खुशी-खुशी तैयार रहते हैं, वे समाज ही जाग्रत् चेतना के पुंज कहे जाएँगे।

🔴 इसके विपरीत जो समाज अथवा राष्ट्र अपने पुराने संस्कारों और पिछड़ेपन को कसकर पकड़े हुए किसी गलत रास्ते पर इसलिए चलते हैं कि उस पर वे बहुत समय से चले आ रहे हैं, प्रगतिशील समाज नहीं कहे जाते। अहितकर प्रथा-परम्पराओं को गले लगाए रहना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि अमुक समाज पिछड़ा हुआ समाज है।
  
🔵 बहुत कुछ प्राचीन होने पर भी प्रगतिशीलता की दृष्टि से हमारे भारतीय राष्ट्र की गणना अभी नवोदित राष्ट्रों में ही है। उसने अभी केवल राजनैतिक स्वतंत्रता ही उपलब्ध की है। उन्नति एवं विकास के नाम पर अभी उसे कुछ खास उपलब्धियाँ नहीं प्राप्त हो सकी हैं। यह बात ठीक है कि देश की उन्नति के प्रयत्न चल रहे हैं, किन्तु उन सब प्रयत्नों की पृष्ठभूमि केवल आर्थिक ही है। मात्र आर्थिक उन्नति से ही कोई राष्ट्र समुन्नत राष्ट्र नहीं बन सकता। किसी राष्ट्र की वास्तविक उन्नति तो उसकी सामाजिक उन्नति में ही निहित रहती है।

🔴 इस कटु सत्य को स्वीकार करने पर किसे आपत्ति हो सकती है कि हमारा समाज प्रगतिशीलता के नाम पर बिलकुल निकम्मा बना हुआ है। इसका अस्तित्व अभी भी जातीय द्वेष, साम्प्रदायिक बैर के पंक में डूबा है। अब तक उसमें स्वतंत्र चिंतन और नवचेतना नहीं आ सकी है, किन्तु यदि अपने भारतीय राष्ट्र को शक्तिशाली बनना है, अपनी स्वतंत्रता को सुरक्षित रखना है, तो उसे अपनी उन आंतरिक दुर्बलताओं को दूर करना ही होगा, जो उसकी वास्तविक प्रगति के पथ में अवरोध बनी हुई हैं।

🔵 सारा संसार जानता है कि भारतीय समाज के पास न तो बुद्धि की कमी है, न विद्या की और न वीरता की न बलिदान की। यदि उसमें कोई कमी है, तो केवल उस प्रगतिशीलता की, जिसकी आज के युग में बहुत आवश्यकता है। आज जब अपने समाज, अपने राष्ट्र को अग्रगामी बनाने के लिए संसार के सारे लोग प्रयत्नशील हो रहे हैं, तब क्या कारण है कि हम भारतीय ही अपने पिछड़ेपन से पीछा छुड़ाकर प्रतिशीलता के पथ पर आगे न बढ़ें?

🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 71

👉 नारी को समुचित सम्मान एवं उत्थान दीजिए। (भाग 2)

🔵 नारी जन्मदात्री है। समाज का प्रत्येक भावी सदस्य उसकी गोद में पल कर संसार में खड़ा होता है। उसके स्तन का अमृत पीकर पुष्ट होता है। उसकी हँसी से हँसना और उसकी वाणी से बोलना सीखता है। उसकी कृपा से ही जीकर और उसके ही अच्छे-बुरे संस्कार लेकर अपने जीवन क्षेत्र में उतरता है। तात्पर्य यह कि जैसी माँ होगी, सन्तान अधिकाँशतः उसी प्रकार की होगी।

🔴 भारत के अतीत-कालीन गौरव में नारियों का बहुत कुछ अंश-दान रहा है। उस समय संतान की अच्छाई-बुराई का सम्बन्ध माँ की मर्यादा के साथ जुड़ा था। वह अपनी मान-मर्यादा की प्रतिष्ठा के लिये सन्तान को बड़े उत्तरदायित्वपूर्ण ढंग से पालती थी। देश, काल और समाज की आवश्यकता के अनुरूप सन्तान देना अपना परम-पावन कर्तव्य समझती थी। यही कारण है कि जब-जब युगानुसार सन्त, महात्मा, त्यागी, दानी योद्धा, वीर और बलिदानियों की आवश्यकता पड़ी, उसने अपनी गोद में पाल-पाल कर दिये।

🔵 किन्तु वह अपने इस दायित्व को निभा तब ही सकी है। जब उसको स्वयं अपना विकास करने का अवसर दिया गया है। जिस माँ का स्वयं अपना विकास न हुआ हो, वह भला विकासशील संतान दे भी कैसे सकती है। जिसको देश-काल की आवश्यकता और समाज की स्थिति और संसार की गतिविधि का ज्ञान ही न हो, वह उसके अनुसार अपनी सन्तान को किस प्रकार बना सकती है? अपने इस दायित्व को ठीक प्रकार से निभा सकने के लिये आवश्यक है कि नारी को सारे शैक्षणिक एवं सामाजिक अधिकार समुचित रूप से दिये जायें।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1966 पृष्ठ 27

👉 इक्कीसवीं सदी का संविधान - हमारा युग निर्माण सत्संकल्प (भाग 3)

🌹  हमारा युग निर्माण सत्संकल्प

🔵 हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।

🔴 शरीर को भगवान् का मंदिर समझकर आत्म-संयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।

🔵 मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाए रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रख रहेंगे।

🔴 इंद्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम का सतत अभ्यास करेंगे।

🔵 अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानेंगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे।

🔴 मर्यादाओं को पालेंगे, वर्जनाओं से बचेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे।

🔵 समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का एक अविच्छिन्न अंग मानेंगे।

🔴 चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे।

🔵 अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे।

🔴 मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को मानेंगे।

🔵 दूसरों के साथ वह व्यवहार न करेंगे, जो हमें अपने लिए पसंद नहीं।

🔴 नर-नारी परस्पर पवित्र दृष्टि रखेंगे।

🔵 संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे।

🔴 परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्त्व देंगे।

🔵 सज्जनों को संगठित करने, अनीति से लोहा लेने और नव-सृजन की गतिविधियों में पूरी रुचि लेंगे।

🔴 राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान् रहेंगे। जाति, लिंग, भाषा, प्रांत, सम्प्रदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेदभाव न बरतेंगे।

🔵 मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनाएँगे, तो युग अवश्य बदलेगा।

🔴 ‘‘हम बदलेंगे-युग बदलेगा’’, ‘‘हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा’’ इस तथ्य पर हमारा परिपूर्ण विश्वास है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...