यह निर्विवाद है कि दूसरों के सहयोग की उपेक्षा करके कोई व्यक्ति प्रगतिशील, सुखी एवं समृद्ध होना तो दूर, ठीक तरह जिंदगी के दिन भी नहीं गुजार सकता, इसलिए प्रत्येक बुद्धिमान् व्यक्ति को इस बात की आवश्यकता अनुभव होती है कि वह अपने परिवार का, मित्रों का, साथी-सहयोगियों का तथा सर्वसाधारण का अधिकाधिक सहयोग प्राप्त करे और यह तभी संभव है जब हम दूसरों के साथ अधिक सहृदयता एवं सद्भावना पूर्ण व्यवहार करने का अभ्यास करें।
हर व्यक्ति में दक्षता के बीज समुचित मात्रा में विद्यमान रहते हैं। प्रश्न इतना भर है कि उनके विकास का प्रयत्न किया गया या नहीं? यदि मनुष्य उनके विकास की आवश्यकता सच्चे मन से, गहरी संवेदना के साथ अनुभव करे तो भीतर से इतना उत्साह उठेगा कि प्रसुप्त क्षमताओं के सजग-सक्रिय होने में देर न लगेगी।
आवश्यक नहीं कि हर व्यक्ति को गरीबी या मुसीबत के थपेड़े ही सक्रिय बनावें। प्रश्न दिलचस्पी का है। यदि कार्य की दक्षता को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया जाय और उस आधार पर अपनी प्रतिभा, गरिमा को विकसित करने का लक्ष्य रखा जाय तो यह विश्वास जमेगा कि हाथ में लिया हुआ हर काम अपने वर्चस्व का प्रमाण बनकर बाहर आये। अधूरे और बेतुके काम को यदि अपनी निन्दा, निकृष्टता का उद्घोष समझा जा सके तो फिर मन यही कहेगा कि जो कुछ किया जा रहा है, वह शानदार होना चाहिए। ऐसी ही मनःस्थिति में मनुष्य की दक्षता का विकास होता है।
हर व्यक्ति में दक्षता के बीज समुचित मात्रा में विद्यमान रहते हैं। प्रश्न इतना भर है कि उनके विकास का प्रयत्न किया गया या नहीं? यदि मनुष्य उनके विकास की आवश्यकता सच्चे मन से, गहरी संवेदना के साथ अनुभव करे तो भीतर से इतना उत्साह उठेगा कि प्रसुप्त क्षमताओं के सजग-सक्रिय होने में देर न लगेगी।
आवश्यक नहीं कि हर व्यक्ति को गरीबी या मुसीबत के थपेड़े ही सक्रिय बनावें। प्रश्न दिलचस्पी का है। यदि कार्य की दक्षता को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया जाय और उस आधार पर अपनी प्रतिभा, गरिमा को विकसित करने का लक्ष्य रखा जाय तो यह विश्वास जमेगा कि हाथ में लिया हुआ हर काम अपने वर्चस्व का प्रमाण बनकर बाहर आये। अधूरे और बेतुके काम को यदि अपनी निन्दा, निकृष्टता का उद्घोष समझा जा सके तो फिर मन यही कहेगा कि जो कुछ किया जा रहा है, वह शानदार होना चाहिए। ऐसी ही मनःस्थिति में मनुष्य की दक्षता का विकास होता है।
हर असफलता के बाद हम दूनी क्रियाशीलता के साथ आगे बढ़ें, यह पुरुषार्थ की चुनौती है। जो एक ही ठोकर में निराश हो बैठा, जिसका आशा दीप एक ही फूँक में बुझ गया। उस दुर्बल मन व्यक्ति ने न जीवन का स्वरूप समझा और न संसार का। यहाँ पग-पग पर संघर्ष करना होता है। कदम-कदम पर साहस, धैर्य और पुरुषार्थ की परीक्षा देनी होती है। जो उस मूल्य को चुकाने के लिए तैयार न हों, उन्हें सफलता जैसे वरदान की आशा भी नहीं करनी चाहिए।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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