सोमवार, 17 फ़रवरी 2020
👉 साधु की संगति:-
एक चोर को कई दिनों तक चोरी करने का अवसर ही नहीं मिला. उसके खाने के लाले पड़ गए. मरता क्या न करता. मध्य रात्रि गांव के बाहर बनी एक साधु की कुटिया में ही घुस गया। वह जानता था कि साधु बड़े त्यागी हैं. अपने पास कुछ संचय करते तो नहीं रखते फिर भी खाने पीने को तो कुछ मिल ही जायेगा. आज का गुजारा हो जाएगा फिर आगे की सोची जाएगी।
चोर कुटिया में घुसा ही था कि संयोगवश साधु बाबा लघुशंका के निमित्त बाहर निकले. चोर से उनका सामना हो गया. साधु उसे देखकर पहचान गये क्योंकि पहले कई बार देखा था पर उन्हें यह नहीं पता था कि वह चोर है। उन्हें आश्चर्य हुआ कि यह आधी रात को यहाँ क्यों आया ! साधु ने बड़े प्रेम से पूछा- कहो बालक! आधी रात को कैसे कष्ट किया ? कुछ काम है क्या ? चोर बोला- महाराज! मैं दिन भर का भूखा हूं।
साधु बोले- ठीक है, आओ बैठो. मैंने शाम को धूनी में कुछ शकरकंद डाले थे. वे भुन गये होंगे, निकाल देता हूं. तुम्हारा पेट भर जायेगा. शाम को आये होते तो जो था हम दोनों मिलकर खा लेते। पेट का क्या है बेटा! अगर मन में संतोष हो तो जितना मिले उसमें ही मनुष्य खुश रह सकता है. यथा लाभ संतोष’ यही तो है. साधु ने दीपक जलाया, चोर को बैठने के लिए आसन दिया, पानी दिया और एक पत्ते पर भुने हुए शकरकंद रख दिए।
साधु बाबा ने चोर को अपने पास में बैठा कर उसे इस तरह प्रेम से खिलाया, जैसे कोई माँ भूख से बिलखते अपने बच्चे को खिलाती है. उनके व्यवहार से चोर निहाल हो गया।
सोचने लगा- एक मैं हूं और एक ये बाबा है. मैं चोरी करने आया और ये प्यार से खिला रहे हैं! मनुष्य ये भी हैं और मैं भी हूं. यह भी सच कहा है- आदमी-आदमी में अंतर, कोई हीरा कोई कंकर. मैं तो इनके सामने कंकर से भी बदतर हूं।
मनुष्य में बुरी के साथ भली वृत्तियाँ भी रहती हैं जो समय पाकर जाग उठती हैं. जैसे उचित खाद-पानी पाकर बीज पनप जाता है, वैसे ही संत का संग पाकर मनुष्य की सदवृत्तियाँ लहलहा उठती हैं. चोर के मन के सारे कुसंस्कार हवा हो गए। उसे संत के दर्शन, सान्निध्य और अमृत वर्षा सी दृष्टि का लाभ मिला. तुलसी दास जी ने कहा है-
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साध की, हरे कोटि अपराध।।
साधु की संगति पाकर आधे घंटे के संत समागम से चोर के कितने ही मलिन संस्कार नष्ट हो गये. साधु के सामने अपना अपराध कबूल करने को उसका मन उतावला हो उठा।
फिर उसे लगा कि ‘साधु बाबा को पता चलेगा कि मैं चोरी की नियत से आया था तो उनकी नजर में मेरी क्या इज्जत रह जायेगी! क्या सोचेंगे बाबा कि कैसा पतित प्राणी है, जो मुझ संत के यहाँ चोरी करने आया!
लेकिन फिर सोचा, ‘साधु मन में चाहे जो समझें, मैं तो इनके सामने अपना अपराध स्वीकार करके प्रायश्चित करूँगा. दयालु महापुरुष हैं, ये मेरा अपराध अवश्य क्षमा कर देंगे. संत के सामने प्रायश्चित करने से सारे पाप जलकर राख हो जाते हैं।
भोजन पूरा होने के बाद साधु ने कहा- बेटा ! अब इतनी रात में तुम कहाँ जाओगे. मेरे पास एक चटाई है. इसे ले लो और आराम से यहीं कहीं डालकर सो जाओ. सुबह चले जाना। नेकी की मार से चोर दबा जा रहा था. वह साधु के पैरों पर गिर पड़ा और फूट-फूट कर रोने लगा. साधु समझ न सके कि यह क्या हुआ! साधु ने उसे प्रेमपूर्वक उठाया, प्रेम से सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा- बेटा ! क्या हुआ?
रोते-रोते चोर का गला रूँध गया. उसने बड़ी कठिनाई से अपने को संभालकर कहा-महाराज ! मैं बड़ा अपराधी हूं. साधु बोले- भगवान सबके अपराध क्षमा करने वाले हैं. शरण में आने से बड़े-से-बड़ा अपराध क्षमा कर देते हैं. उन्हीं की शरण में जा।
चोर बोला-मैंने बड़ी चोरियां की हैं. आज भी मैं भूख से व्याकुल आपके यहां चोरी करने आया था पर आपके प्रेम ने मेरा जीवन ही पलट दिया. आज मैं कसम खाता हूँ कि आगे कभी चोरी नहीं करूँगा. मुझे अपना शिष्य बना लीजिए।
साधु के प्रेम के जादू ने चोर को साधु बना दिया. उसने अपना पूरा जीवन उन साधु के चरणों में सदा के समर्पित करके जीवन को परमात्मा को पाने के रास्ते लगा दिया। महापुरुषों की सीख है, सबसे आत्मवत व्यवहार करें क्योंकि सुखी जीवन के लिए निःस्वार्थ प्रेम ही असली खुराक है. संसार इसी की भूख से मर रहा है. अपने हृदय के आत्मिक प्रेम को हृदय में ही मत छिपा रखो।
प्रेम और स्नेह को उदारता से खर्च करो. जगत का बहुत-सा दुःख दूर हो जाएगा. भटके हुए व्यक्ति को अपनाकर ही मार्ग पर लाया जा सकता है, दुत्कार कर नहीं।
चोर कुटिया में घुसा ही था कि संयोगवश साधु बाबा लघुशंका के निमित्त बाहर निकले. चोर से उनका सामना हो गया. साधु उसे देखकर पहचान गये क्योंकि पहले कई बार देखा था पर उन्हें यह नहीं पता था कि वह चोर है। उन्हें आश्चर्य हुआ कि यह आधी रात को यहाँ क्यों आया ! साधु ने बड़े प्रेम से पूछा- कहो बालक! आधी रात को कैसे कष्ट किया ? कुछ काम है क्या ? चोर बोला- महाराज! मैं दिन भर का भूखा हूं।
साधु बोले- ठीक है, आओ बैठो. मैंने शाम को धूनी में कुछ शकरकंद डाले थे. वे भुन गये होंगे, निकाल देता हूं. तुम्हारा पेट भर जायेगा. शाम को आये होते तो जो था हम दोनों मिलकर खा लेते। पेट का क्या है बेटा! अगर मन में संतोष हो तो जितना मिले उसमें ही मनुष्य खुश रह सकता है. यथा लाभ संतोष’ यही तो है. साधु ने दीपक जलाया, चोर को बैठने के लिए आसन दिया, पानी दिया और एक पत्ते पर भुने हुए शकरकंद रख दिए।
साधु बाबा ने चोर को अपने पास में बैठा कर उसे इस तरह प्रेम से खिलाया, जैसे कोई माँ भूख से बिलखते अपने बच्चे को खिलाती है. उनके व्यवहार से चोर निहाल हो गया।
सोचने लगा- एक मैं हूं और एक ये बाबा है. मैं चोरी करने आया और ये प्यार से खिला रहे हैं! मनुष्य ये भी हैं और मैं भी हूं. यह भी सच कहा है- आदमी-आदमी में अंतर, कोई हीरा कोई कंकर. मैं तो इनके सामने कंकर से भी बदतर हूं।
मनुष्य में बुरी के साथ भली वृत्तियाँ भी रहती हैं जो समय पाकर जाग उठती हैं. जैसे उचित खाद-पानी पाकर बीज पनप जाता है, वैसे ही संत का संग पाकर मनुष्य की सदवृत्तियाँ लहलहा उठती हैं. चोर के मन के सारे कुसंस्कार हवा हो गए। उसे संत के दर्शन, सान्निध्य और अमृत वर्षा सी दृष्टि का लाभ मिला. तुलसी दास जी ने कहा है-
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साध की, हरे कोटि अपराध।।
साधु की संगति पाकर आधे घंटे के संत समागम से चोर के कितने ही मलिन संस्कार नष्ट हो गये. साधु के सामने अपना अपराध कबूल करने को उसका मन उतावला हो उठा।
फिर उसे लगा कि ‘साधु बाबा को पता चलेगा कि मैं चोरी की नियत से आया था तो उनकी नजर में मेरी क्या इज्जत रह जायेगी! क्या सोचेंगे बाबा कि कैसा पतित प्राणी है, जो मुझ संत के यहाँ चोरी करने आया!
लेकिन फिर सोचा, ‘साधु मन में चाहे जो समझें, मैं तो इनके सामने अपना अपराध स्वीकार करके प्रायश्चित करूँगा. दयालु महापुरुष हैं, ये मेरा अपराध अवश्य क्षमा कर देंगे. संत के सामने प्रायश्चित करने से सारे पाप जलकर राख हो जाते हैं।
भोजन पूरा होने के बाद साधु ने कहा- बेटा ! अब इतनी रात में तुम कहाँ जाओगे. मेरे पास एक चटाई है. इसे ले लो और आराम से यहीं कहीं डालकर सो जाओ. सुबह चले जाना। नेकी की मार से चोर दबा जा रहा था. वह साधु के पैरों पर गिर पड़ा और फूट-फूट कर रोने लगा. साधु समझ न सके कि यह क्या हुआ! साधु ने उसे प्रेमपूर्वक उठाया, प्रेम से सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा- बेटा ! क्या हुआ?
रोते-रोते चोर का गला रूँध गया. उसने बड़ी कठिनाई से अपने को संभालकर कहा-महाराज ! मैं बड़ा अपराधी हूं. साधु बोले- भगवान सबके अपराध क्षमा करने वाले हैं. शरण में आने से बड़े-से-बड़ा अपराध क्षमा कर देते हैं. उन्हीं की शरण में जा।
चोर बोला-मैंने बड़ी चोरियां की हैं. आज भी मैं भूख से व्याकुल आपके यहां चोरी करने आया था पर आपके प्रेम ने मेरा जीवन ही पलट दिया. आज मैं कसम खाता हूँ कि आगे कभी चोरी नहीं करूँगा. मुझे अपना शिष्य बना लीजिए।
साधु के प्रेम के जादू ने चोर को साधु बना दिया. उसने अपना पूरा जीवन उन साधु के चरणों में सदा के समर्पित करके जीवन को परमात्मा को पाने के रास्ते लगा दिया। महापुरुषों की सीख है, सबसे आत्मवत व्यवहार करें क्योंकि सुखी जीवन के लिए निःस्वार्थ प्रेम ही असली खुराक है. संसार इसी की भूख से मर रहा है. अपने हृदय के आत्मिक प्रेम को हृदय में ही मत छिपा रखो।
प्रेम और स्नेह को उदारता से खर्च करो. जगत का बहुत-सा दुःख दूर हो जाएगा. भटके हुए व्यक्ति को अपनाकर ही मार्ग पर लाया जा सकता है, दुत्कार कर नहीं।
👉 सुख-दुख में समभाव रखिए! (भाग १)
सुख और दुख जीवन के दो विशिष्ट पहलू हैं, जिस पर भारतीय मुनियों ने बहुत गंभीर चिन्तन किया है। विश्व का कोई भी प्राणी दुख नहीं चाहता, पर वह मिलता अवश्य है। इसी तरह सभी प्राणी सूख चाहते हैं और निरन्तर उसे पाने के लिए प्रयत्नशील नजर आते हैं, फिर भी सच्चे सुख की अनुभूति विरले महापुरुषों के अतिरिक्त किसी को हो नहीं पाती, यह विश्व का सबसे महान आश्चर्य है। हमारे विचारक महापुरुषों ने इसी पर तल स्पर्शी गवेषणा की कि सुख एवं दुख हैं क्या बला? और उसकी प्राप्ति का, अनुभूति का, कारण क्या है? उन्होंने इसी एक प्रश्न पर जीवन को समर्पित कर दिया कि समस्त दुखों के विनाश एवं आनन्द की अनुभूति का मार्ग क्या है?
उनकी विचारधारा में साँसारिक लोग जिन्हें दुख या सुख समझते हैं, यह मिथ्या कल्पना जन्य प्रतीत हुआ और उससे आगे बढ़कर उन्होंने ऐसे ऐसे मार्ग खोज निकाले जिनके द्वारा इन दोनों से अतीत अवस्था का अनुभव किया जा सके।
साधारणतया मनुष्य दुख-सुख का कारण बाहरी वस्तुओं का संयोग एवं वियोग मानता है और इसी गलत धारण के कारण अनुकूल वस्तुओं व परिस्थितियों को उत्पन्न करने व जुटाने में एवं प्रतिकूल वस्तुओं को दूर करने में ही वह लगा रहता है। पर विचारकों ने यह देखा कि एक ही वस्तु की प्राप्ति से एक को सुख होता है और दूसरे को दुख। इतना ही नहीं परिस्थिति की भिन्नता हो तो एक ही वस्तु या बात एक समय में सुखकर प्रतीत होती हैं और अन्य समय में वही दुःखकर अनुभूत होती है इससे वस्तुओं का संयोग वियोग ही सुख-दुःख का प्रधान कारण नहीं कहा जा सकता और इसी के अनुसंधान में बाहरी दुखों एवं सुखों का समभाव रखने को महत्व दिया गया है।
भौतिक विचारधारा से आध्यात्मिक विचारधारा की भिन्नता यहाँ अत्यंत स्पष्ट हो जाती है। भौतिक दृष्टिवाला बाहरी निमित्तों पर जोर देगा। तब आध्यात्मिक दृष्टिवाला अपनी आत्मनिष्ठा की ओर बढ़ता चला जायगा। उसकी दृष्टि इतनी सतेज हो जायेगी कि बाहरी पर्दे के भीतर क्या है? उसे भली भाँति देख सके और ऐसा होने पर वह मूल वस्तु को पकड़ने का प्रयत्न करेगा। दृष्टाँत के लिए दो व्यक्ति एक स्थान पर पास-पास ही बैठे हुए हैं। अचानक कहीं से उनके मस्तक पर पत्थर आ गिरे। इससे भ्रान्ति में पड़कर एक तो पत्थर को दोषी मानकर उसे हाथ में लेकर उसे पछाड़ा कि उसके खंड-खंड हो गए। दूसरे ने पत्थर पर रोष न कर वह कहाँ से आया, किसने फेंका, क्यों फेंका इत्यादि पर गंभीरता से विचार करके और मुख्यतः दोष जिसका हो, ज्ञात कर उसके शोधन में प्रगति की, दोनों व्यक्तियों के यद्यपि पत्थर लगने की क्रिया एक सी हुई, पर दृष्टि की गहराई के भेद-भावों में व फल में रात-दिन का अन्तर हो गया।
.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1950 पृष्ठ 16
उनकी विचारधारा में साँसारिक लोग जिन्हें दुख या सुख समझते हैं, यह मिथ्या कल्पना जन्य प्रतीत हुआ और उससे आगे बढ़कर उन्होंने ऐसे ऐसे मार्ग खोज निकाले जिनके द्वारा इन दोनों से अतीत अवस्था का अनुभव किया जा सके।
साधारणतया मनुष्य दुख-सुख का कारण बाहरी वस्तुओं का संयोग एवं वियोग मानता है और इसी गलत धारण के कारण अनुकूल वस्तुओं व परिस्थितियों को उत्पन्न करने व जुटाने में एवं प्रतिकूल वस्तुओं को दूर करने में ही वह लगा रहता है। पर विचारकों ने यह देखा कि एक ही वस्तु की प्राप्ति से एक को सुख होता है और दूसरे को दुख। इतना ही नहीं परिस्थिति की भिन्नता हो तो एक ही वस्तु या बात एक समय में सुखकर प्रतीत होती हैं और अन्य समय में वही दुःखकर अनुभूत होती है इससे वस्तुओं का संयोग वियोग ही सुख-दुःख का प्रधान कारण नहीं कहा जा सकता और इसी के अनुसंधान में बाहरी दुखों एवं सुखों का समभाव रखने को महत्व दिया गया है।
भौतिक विचारधारा से आध्यात्मिक विचारधारा की भिन्नता यहाँ अत्यंत स्पष्ट हो जाती है। भौतिक दृष्टिवाला बाहरी निमित्तों पर जोर देगा। तब आध्यात्मिक दृष्टिवाला अपनी आत्मनिष्ठा की ओर बढ़ता चला जायगा। उसकी दृष्टि इतनी सतेज हो जायेगी कि बाहरी पर्दे के भीतर क्या है? उसे भली भाँति देख सके और ऐसा होने पर वह मूल वस्तु को पकड़ने का प्रयत्न करेगा। दृष्टाँत के लिए दो व्यक्ति एक स्थान पर पास-पास ही बैठे हुए हैं। अचानक कहीं से उनके मस्तक पर पत्थर आ गिरे। इससे भ्रान्ति में पड़कर एक तो पत्थर को दोषी मानकर उसे हाथ में लेकर उसे पछाड़ा कि उसके खंड-खंड हो गए। दूसरे ने पत्थर पर रोष न कर वह कहाँ से आया, किसने फेंका, क्यों फेंका इत्यादि पर गंभीरता से विचार करके और मुख्यतः दोष जिसका हो, ज्ञात कर उसके शोधन में प्रगति की, दोनों व्यक्तियों के यद्यपि पत्थर लगने की क्रिया एक सी हुई, पर दृष्टि की गहराई के भेद-भावों में व फल में रात-दिन का अन्तर हो गया।
.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1950 पृष्ठ 16
👉 MISCELLANEOUS Quotation & Answer (Part 3)
Q.3. What are the rules to be followed after taking Diksha?
Ans. After initiation, the devotee is expected to maintain regularity in daily routine of worship (Upasana), a persistent endeavour for developing purity in thoughts words and deeds by studying scriptures and interacting with saintly persons (Sadhana) and by donating a part of one’s time and resources for welfare activities (Aradhana). Strict adherence to the routine of Upasana - Sadhana - Aradhana is essential. Nevertheless, if there are some momentary disruptions because of contingencies, one should not have any misgivings about divine displeasure, because God, like mother, is full of love, patience and forgiveness.
Though certain restrictions on diet (such as vegetarianism and abstention from hard drinks) are recommended for accelerating progress in Sadhana, these are not mandatory for the beginner. The devotee has free choice of time and period of Upasana to suit his / her routine.
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 81
Ans. After initiation, the devotee is expected to maintain regularity in daily routine of worship (Upasana), a persistent endeavour for developing purity in thoughts words and deeds by studying scriptures and interacting with saintly persons (Sadhana) and by donating a part of one’s time and resources for welfare activities (Aradhana). Strict adherence to the routine of Upasana - Sadhana - Aradhana is essential. Nevertheless, if there are some momentary disruptions because of contingencies, one should not have any misgivings about divine displeasure, because God, like mother, is full of love, patience and forgiveness.
Though certain restrictions on diet (such as vegetarianism and abstention from hard drinks) are recommended for accelerating progress in Sadhana, these are not mandatory for the beginner. The devotee has free choice of time and period of Upasana to suit his / her routine.
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 81
👉 वामन
वामन का मतलब होता है बौना, यानि कि छोटा। वामन वही नहीं होते जिनकी लम्बाई कम होती है। वामन वे भी होते हैं, जिनके व्यक्तित्व की ऊँचाई कम होती है। जिनके मन-अन्तःकरण छल-कपट से भरे होते हैं। जिनकी भावनाएँ दूषित-कलुषित होती हैं। ऐसे लोग भले कितने बुद्धिमान, तर्ककुशल व साधन सम्पन्न हों, भले ही उनके पास कितनी ही अलौकिक शक्तियाँ- सिद्धियाँ एवं ऋद्धियाँ-निधियाँ क्यों न हों? परन्तु अपने छल-कपट के कारण, भावों की अशुद्धि के कारण उन्हें सदा ही वामन कहा और समझा जाता है। इसके विपरीत शुद्ध अन्तःकरण, छल-प्रपंच से दूर, निष्कलुष हृदय वाले व्यक्ति अपने व्यक्तित्व से सदा विराट् होते हैं। तीनों लोकों में उनकी ख्याति होती है। स्वयं परमेश्वर भी उनकी सराहना करते हैं।
पुराणों में कथा है- जब स्वयं भगवान् अपने छल के कारण विराट् होने पर भी वामन कहे गये। इस रोचक कथा प्रसंग में वर्णन है कि स्वयं भगवान् विष्णु को परम धर्मात्मा बलि के पास याचक बनकर वामन के रूप में जाना पड़ा। धर्म परायण दैत्य राजा बलि ने भोग-विलास में डूबे रहने वाले स्वर्गाधिपति इन्द्र को पराजित कर देव व्यवस्था संभाल ली। स्वर्गाधिपति हो जाने के बाद भी बलि सदा तप एवं यज्ञ में निरत रहते थे। उनकी रुचि सुशासन, विष्णु भक्ति एवं तप-यज्ञ में थी न कि भोगों में। देवगणों ने इन्द्र के साथ मिलकर भगवान् विष्णु से प्रार्थना कि- कृपा कर उन्हें देवलोक वापस दिलाएँ। इस प्रार्थना पर भगवान् को भारी असमंजस हुआ, क्योंकि धर्मपरायण-परमभक्त बलि से युद्ध करना सम्भव नहीं था।
आखिर उन्हें वामन का रूप धरना पड़ा। पाँच वर्ष के तेजस्वी ब्राह्मण के रूप में उन्होंने महाराज बलि की यज्ञशाला में प्रवेश किया। महाराज बलि एक पल में ही अपने आराध्य को पहचान गए। उन्होंने भक्ति भरे मन से कहा आज्ञा करें भगवन्! उत्तर में वामन बने विष्णु ने तीन पग भूमि माँगी। बलि के हाँ कहते ही भगवान् वामन से विराट् हो गए। और उन्होंने दो पगों में स्वर्ग व धरती एवं तीसरे में स्वयं बलि को नाप लिया। देने वाले महाराज बलि अपना सर्वस्व देकर प्रसन्न थे। परन्तु भगवान् को अपने द्वारा किए छल पर क्षोभ था। उन्होंने बलि से कहा- वत्स इस अमिट दान के कारण तुम्हारी कीर्ति सदा अमर रहेगी। जबकि मेरे छल के कारण मुझ विराट को भी सदा याचक एवं वामन ही कहा जाएगा।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १९१
पुराणों में कथा है- जब स्वयं भगवान् अपने छल के कारण विराट् होने पर भी वामन कहे गये। इस रोचक कथा प्रसंग में वर्णन है कि स्वयं भगवान् विष्णु को परम धर्मात्मा बलि के पास याचक बनकर वामन के रूप में जाना पड़ा। धर्म परायण दैत्य राजा बलि ने भोग-विलास में डूबे रहने वाले स्वर्गाधिपति इन्द्र को पराजित कर देव व्यवस्था संभाल ली। स्वर्गाधिपति हो जाने के बाद भी बलि सदा तप एवं यज्ञ में निरत रहते थे। उनकी रुचि सुशासन, विष्णु भक्ति एवं तप-यज्ञ में थी न कि भोगों में। देवगणों ने इन्द्र के साथ मिलकर भगवान् विष्णु से प्रार्थना कि- कृपा कर उन्हें देवलोक वापस दिलाएँ। इस प्रार्थना पर भगवान् को भारी असमंजस हुआ, क्योंकि धर्मपरायण-परमभक्त बलि से युद्ध करना सम्भव नहीं था।
आखिर उन्हें वामन का रूप धरना पड़ा। पाँच वर्ष के तेजस्वी ब्राह्मण के रूप में उन्होंने महाराज बलि की यज्ञशाला में प्रवेश किया। महाराज बलि एक पल में ही अपने आराध्य को पहचान गए। उन्होंने भक्ति भरे मन से कहा आज्ञा करें भगवन्! उत्तर में वामन बने विष्णु ने तीन पग भूमि माँगी। बलि के हाँ कहते ही भगवान् वामन से विराट् हो गए। और उन्होंने दो पगों में स्वर्ग व धरती एवं तीसरे में स्वयं बलि को नाप लिया। देने वाले महाराज बलि अपना सर्वस्व देकर प्रसन्न थे। परन्तु भगवान् को अपने द्वारा किए छल पर क्षोभ था। उन्होंने बलि से कहा- वत्स इस अमिट दान के कारण तुम्हारी कीर्ति सदा अमर रहेगी। जबकि मेरे छल के कारण मुझ विराट को भी सदा याचक एवं वामन ही कहा जाएगा।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १९१
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