शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

👉 जीव ईश्वर का ही अंश है

🔶 जीव ईश्वर का अंश है तो ईश्वर के समान शक्ति उसमें क्यों नहीं हैं? यह प्रश्न एक शिष्य ने गुरु से पूछा। गुरु ने विस्तार पूर्वक उत्तर दिया पर शिष्य की समझ में न आया शंका बनी ही रही।

🔷 एक दिन गुरु और शिष्य गंगा स्नान के लिये गये। शिष्य से कहा-एक लोटा गंगा जल भर लो। उसने भर लिया। घर आकर गुरु ने कहा-बेटा इस गंगा जल में नाव चलाओ। शिष्य ने कहा-नाव तो गंगाजी के बहुत जल में चलती हैं, इतने थोड़े जल में कैसे चल सकती हैं? गुरु ने कहा-यही बात जीव और ईश्वर के संबंध में है। जीव अल्प है। इसलिये उसमें शक्ति भी थोड़ी है। ईश्वर विभु है उसमें अनन्त शक्ति है। इसलिये दोनों की शक्ति और कार्य क्षमता न्यूनाधिक है। वैसे लोटे का जल भी गंगाजल ही था, इसी प्रकार जीव अल्प होते हुये भी ईश्वर का अंश ही है।

🔶 जीव अपने को जब ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त कर उसी में निमग्न हो जाता है तो उसमें भी ईश्वर जैसी शक्ति आ जाती है।

📖 अखण्ड ज्योति जुलाई 1961

👉 सफलता के लिए संलग्नता जरुरी है

🔶 एक आश्रम में एक शिष्य शिक्षा ले रहा था। जब उसकी शिक्षा पूरी हो गयी तो विदा लेने के समय उसके गुरु ने उससे कहा – वत्स, यहां रहकर तुमने शास्त्रो का समुचित ज्ञान प्राप्त कर लिया है, किंतु कुछ उपयोगी शिक्षा अभी शेष रह गई है। इसके लिए तुम मेरे साथ चलो।

🔷 शिष्य गुरु के साथ चल पड़ा। गुरु उसे आश्रम से दूर एक खेत के पास ले गए। वहां एक किसान अपने खेतों को पानी दे रहा था। गुरु और शिष्य उसे गौर से देखते रहे। पर किसान ने एक बार भी उनकी ओर आँख उठाकर नहीं देखा। जैसे उसे इस बात का अहसास ही ना हुआ हो कि उसके पास में कोई खड़ा भी है। कुछ देर बाद गुरु और शिष्य वहां से चल दिए।

🔶 वहाँ से आगे बढ़ते हुए उन्होंने देखा कि एक लुहार भट्ठी में कोयला डाले उसमें लोहे को गर्म कर रहा था। लोहा लाल होता जा रहा था। लुहार अपने काम में इस कदर मगन था कि उसने गुरु शिष्य की ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया। कुछ देर बाद गुरु और शिष्य वहां से भी चल दिए।

🔷 फिर दोनों आगे बढ़े। आगे थोड़ी दूर पर एक व्यक्ति जूता बना रहा था। चमड़े को काटने, छीलने और सिलने में उसके हाथ काफी सफाई के साथ चल रहे थे। कुछ देर बाद गुरु ने शिष्य को वापस चलने को कहा।

🔶 शिष्य को कुछ समझ में नहीं आया | उसके मन में प्रश्न उठने लगे कि आखिर गुरु चाहते क्या हैं ? शिष्य के मन कि बात को भाँपते हुए गुरु ने उससे कहा – वत्स, मेरे पास रहकर तुमने शास्त्रों का अध्ययन किया लेकिन व्यवहारिक ज्ञान की शिक्षा बाकी थी। तुमने इन तीनों को देखा। ये अपने काम में संलग्न थे। अपने काम में ऐसी ही तल्लीनता आवश्यक है, तभी व्यक्ति को सफलता मिलेगी।

🔷 मित्रों इस कहानी से हमें ये शिक्षा मिलती है कि हमें अपने काम को इतनी ही तल्लीनता, संलग्नता, और एकाग्रता के साथ करना चाहिए।जब हम किसी काम को करे तो हमारे दिमाग में उस काम के अलावा कुछ नहीं होना चाहिए। तभी हमें सफलता मिल सकती है।

👉 आज का सद्चिंतन 31 August 2018

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 31 August 2018


👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (अन्तिम भाग)

👉 उत्कृष्टता के साथ जुड़ें, प्रतिभा के अनुदान पाएँ

🔶 लक्ष्य और उपक्रम निर्धारित कर लेने के उपरांत यह निर्णय करना अति सरल पड़ता है कि कौन अपनी मन:स्थिति और परिस्थिति के अनुसार, संपर्क परिकर की आवश्यकताओं को देखते हुए, किन क्रियाकलापों में हाथ डाले और प्रगति का एक-एक चरण उठाते हुए, अंतत: बड़े-से-बड़े स्तर का क्या कुछ कर गुजरे? यहाँ यह ध्यान रखने योग्य है कि व्यक्ति अपने प्रभामंडल संपन्न क्षेत्र के साथ जुड़कर ही पूर्ण बनता है। अकेला चना तो कभी भी भाड़ फोड़ सकने में समर्थ नहीं होता। अपने जैसे विचारों के अनेक घनिष्टों को साथ लेकर और सहयोगपूर्वक बड़े कदम उठाना ही वह रीति-नीति है, जिसके सहारे अपनी और साथियों की प्रतिभा को साथ-साथ चार चाँद लगते हैं।
  
🔷 सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय परब्रह्म-परमात्मा प्रतिभाओं का पुंज है। उसके साथ संबंध जोड़ने पर संकीर्ण स्वार्थपरता में तो कटौती करनी पड़ती है पर साथ ही यह भी सत्य है कि अग्नि के साथ संबंध जोड़ने वाला ईंधन का ढेर, ज्योतिर्मय ज्वाल माल की तरह दमकने लगता है। उत्कृष्टता के साथ जुड़ने वालों में से किसी को भी यह नहीं कहना पड़ता कि उसे प्रतिभा परिकर के भाण्डागार में से किसी प्रकार की कुछ कम उपलब्धि हस्तगत हुई।
  
🔶 दिशा निर्धारित कर लेने पर मार्गदर्शक तो पग-पग पर मिल जाते हैं। कोई न भी मिले तो अपनी ही अंतरात्मा उस आवश्यकता की पूर्ति कर देती हो। प्रतिभा का धनी न कभी हारता है और न अभावग्रस्त रहने की शिकायत करता है। उसे किसी पर दोषारोपण करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती कि उन्हें अमुक ने सहयोग नहीं दिया या प्रगति पथ को रोके रहने वाला अवरोध अटकाया। प्रतिभा ही तो शालीनता और प्रगतिशीलता की आधारशिला है।
          
.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 55

👉 Scientific Basis of Gayatri Mantra Japa (Last Part)

🔶 Any one who sincerely and rightly performs the japa-sadhana of the Gayatri Mantra begins to gradually progress through the aforesaid four stages of psychological and spiritual refinement and attains the ultimate goal. His mind and intellect are transformed and illuminated with divine love, light and wisdom and he awakens to the supreme reality of truth, consciousness, bliss (sat-chita-anand) beyond the limits of time and space.

🔷 Material well-being and elimination of worldly problems accrue to the sadhak, but these are mere byproducts of the spiritual illumination. Nothing remains to be gained or aspired for thereafter. Everyone, without any constraint of caste, creed, gender or social status, is entitled to undertake this scientific experiment of japa-sadhana of Gayatri Mantra and be the recipient of divine grace. Notes:

1. Japa: Repeated rhythmic enunciation or chanting (of a mantra).
2. Sadhana: Devout spiritual endeavor aimed at self-realization.
3. Japa-sadhana: Japa accompanied by meditation and specific religious practices.

📖 Akhand Jyoti, Mar Apr 2003

👉 ईश्वर-भक्ति और जीवन-विकास (भाग 3)

🔶 ईश्वर-मुखी आत्माओं में जहाँ सूक्ष्म बुद्धि का विकास होता है और वे साँसारिक परिस्थितियों को साफ-साफ देखने लगते हैं वहाँ उनमें सर्वात्म-भाव भी जागृत होता है। इन्द्रियों से प्रतिक्षण उठने वाले विषयों के आकर्षणों में आनन्द की क्षणिक अनुभूति निरर्थक साबित हो जाती है जिससे शारीरिक शक्तियों का अपव्यय रुक जाता है। रुकी हुई शक्ति को आत्म कल्याण के किसी भी प्रयोजन में लगाकर उससे मनोवाँछित सफलतायें पाई जा सकती हैं। जिन लोगों ने संसार में बड़ी सफलतायें पाई हैं विश्वास के रूप में परमात्मा ने ही उन्हें वह मार्ग दिखाया और सुझाया है।

🔷 निष्काम कर्म में प्रत्येक कर्म परमात्मा को समर्पित करना बताया जाता है उसमें भी यही तथ्य काम करता है कि मनुष्य प्रतिक्षण प्रत्येक कार्य में परमात्मा का अनुग्रह और अनुकम्पा प्राप्त करे। ईश्वर निष्ठ व्यक्ति के अन्तःकरण में उसकी सफलता का विश्वास अपने आप पर बनता है और इस तरह वैभव-विकास की परिस्थितियाँ भी अपने आप बनती चली जाती हैं। भूल दर असल यह हुई कि कुछ लोगों ने साँसारिक कर्तव्य पालन को तिलाँजलि देकर आत्म-कल्याण के लिये पलायनवाद का एक नया रास्ता खड़ा कर दिया। इससे लोगों में मतिभ्रम हुआ अन्यथा परमात्मा स्वयं अनन्य ऐश्वर्य से सम्पन्न है वह भला अपने उपासक को क्यों उस से विमुख करने लगा?

🔶 ईश्वर उपासना से बौद्धिक सूक्ष्मदर्शिता की तरह अनवरत क्रिया-शीलता का भी उदय होता है। परिश्रम की आदत पड़ती है। पुरुषार्थ जगता है। इन वीरोचित गुणों के रहते हुये अभाव का नाम भी नहीं रह सकता । परमात्मा अपने भक्त को क्रियाशील बनाकर उसे संसार के अनेक सुख ऐश्वर्य और भोग प्रदान करता है। मनुष्य स्वयं बेवकूफी न करे तो वह चिरकाल तक उनका सुखोपभोग करता हुआ भी आत्म-कल्याण का लक्ष्य पूरा कर सकता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1967 अगस्त पृष्ठ 3
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1967/August/v1.3

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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