गुरुवार, 25 अगस्त 2022

👉 पराजय में विजय का बीज छिपा होता है।

यदि सदा प्रयत्न करने पर भी तुम सफल न हो सको तो कोई हानि नहीं। पराजय बुरी वस्तु नहीं है। यदि वह विजय के मार्ग में अग्रसर होते हुए मिली हो। प्रत्येक पराजय विजय की दशा में कुछ आगे बढ़ जाना है। अवसर ध्येय की ओर पहली सीढ़ी है। हमारी प्रत्येक पराजय यह स्पष्ट करती है कि अमुक दिशा में हमारी कमजोरी है, अमुक तत्व में हम पिछड़े हुए हैं या किसी विशिष्ट उपकरण पर हम समुचित ध्यान नहीं दे रहे हैं। पराजय हमारा ध्यान उस ओर आकर्षित करती है, जहाँ हमारी निर्बलता है, जहाँ मनोवृत्ति अनेक ओर बिखरी हुई है, जहाँ विचार ओर क्रिया परस्पर विरुद्ध दिशा में बढ़ रहे हैं, जहाँ। दुःख, क्लेश, शोक, मोह इत्यादि परस्पर विरोधी इच्छाएं हमें चंचल कर एकाग्र नहीं होने देतीं।

किसी न किसी दिशा में प्रत्येक पराजय हमें कुछ सिखा जाती है। मिथ्या कल्पनाओं को दूर कर हमें कुछ न कुछ सबल बना जाती हैं, हमारी विश्रृंखल वृत्तियों को एकाग्रता का रहस्य सिखाती हैं। अनेक महापुरुष केवल इसी कारण सफल हुए क्योंकि उन्हें पराजय की कड़वाहट को चखना पड़ा था। यदि उन्हें यह पराजय न मिलती, तो वे महत्वपूर्ण विजय कदापि प्राप्त न कर सकते। अपनी पराजय से उन्हें ज्ञात हुआ कि उनकी संकल्प और इच्छा शक्तियाँ निर्बल हैं, चित्त स्थिर नहीं है, अन्तःकरण में आत्म शक्ति पर्याप्त से जाग्रत नहीं है इन भूलों को उन्होंने सम्भाला और उन्हें दूर करके विजय के पथ पर अग्रसर हुए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1948 दिसम्बर पृष्ठ 1

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👉 अपनी भूलों को स्वीकार कीजिए

जब मनुष्य कोई गलती कर बैठता है, तब उसे अपनी भूल का भय लगता है। वह सोचता है कि दोष को स्वीकार कर लेने पर मैं अपराधी समझा जाऊँगा, लोग मुझे बुरा भला कहेंगे और गलती का दंड भुगतना पड़ेगा। वह सोचता है कि इन सब झंझटों से बचने के लिए यह अच्छा है कि गलती को स्वीकार ही न करूँ, उसे छिपा लूँ या किसी दूसरे के सिर मढ़ दूँ।

इस विचारधारा से प्रेरित होकर काम करने वाले व्यक्ति भारी घाटे में रहते हैं। एक दोष छिपा लेने से बार- बार वैसा करने का साहस होता है और अनेक गलतियों को करने एवं छिपाने की आदत पड़ जाती है। दोषों के भार से अंतःकरण दिन- दिन मैला, भद्दा और दूषित होता जाता है और अंततः: वह दोषों की, भूलों की खान बन जाता है। गलती करना उसके स्वभाव में शामिल हो जाता है।

भूल को स्वीकार करने से मनुष्य की महत्ता कम नहीं होती वरन् उसके महान आध्यात्मिक साहस का पता चलता है। गलती को मानना बहुत बड़ी बहादुरी है। जो लोग अपनी भूल को स्वीकार करते हैं और भविष्य में वैसा न करने की प्रतिज्ञा करते हैं वे क्रमश: सुधरते और आगे बढ़ते जाते हैं। गलती को मानना और उसे सुधारना, यही आत्मोन्नति का सन्मार्ग है। तुम चाहो, तो अपनी गलती स्वीकार कर निर्भय, परम नि:शंक बन सकते हो।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- अप्रैल 1946 पृष्ठ 1 


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👉 भलाई करना ही सबसे बड़ी बुद्धिमानी

दुष्ट लोग उस मूर्खता से नहीं डरते, जिसे पाप कहते हैं। विवेकवान सदा उस बेवकूफी से दूर रहते हैं। बुराई से बुराई ही पैदा होती है, इसलिए बुराई को अग्नि से भी भयंकर समझ कर उससे डरना और दूर रहना चाहिए। जिस तरह छाया मनुष्य को कभी नहीं छोड़ती वरन् जहाँ-जहाँ वह जाता है, उसके पीछे लगी रहती है, उसी तरह पाप-कर्म भी पापी का पीछा करते हैं और अंत में उसका सर्वनाश कर डालते हैं। इसलिए सावधान रहिए और बुराई से सदा डरते रहिए।

जो काम बुरे हैं, उन्हें मत करो, क्योंकि बुरे काम करने वालों को अंतरात्मा के शाप की अग्नि में हर घड़ी झुलसना पड़ता है। वस्तुओं को प्रचुर परिणाम में एकत्रित करने की कामना से, इंद्रिय भोगों की लिप्सा से और अहंकार को तृप्त करने की इच्छा से लोग कुमार्ग में प्रवेश करते हैं, पर ये तीनों ही बातें तुच्छ हैं। इनसे क्षणिक तुष्टि होती है, पर बदले में अपार दु:ख भोगना पड़ता है। चीनी मिले हुए विष को लोभवश खाने वाला बुद्धिमान नहीं कहा जाता।

इस दुनिया में सबसे बड़ा बुद्धिमान, विद्वान, चतुर और समझदार वह है, जो अपने को कुविचारों और कुकर्मों से बचाकर सत्य को अपनाता है, सत्मार्ग पर चलता है और सद्विचारों को ग्रहण करता है। यही बुद्धिमानी अंत में लाभदायक ठहरती है और दुष्टता करने वाले अपनी बेवकूफी से होने वाली हानि के कारण सिर घुन-धुन कर पछताते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति-नवं. 1946 पृष्ठ 1

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👉 आत्मचिंतन के क्षण 26 Aug 2022

🔸 जिसे तुम अच्छा मानते हो, यदि तुम उसे अपने आचरण में नहीं लाते तो यह तुम्हारी कायरता है। हो सकता है कि भय तुम्हें ऐसा नहीं करने देता हो, लेकिन इससे तुम्हारा न तो चरित्र ऊँचा उठेगा और न तुम्हें गौरव मिलेगा। मन में उठने वाले अच्छे विचारों को दबाकर तुम बार-बार जो आत्म हत्या कर रहे हो आखिर उससे तुमने किस लाभ का अंदाजा लगाया है?

◼️ अपनी बात को ही प्रधान मानने और ठीक मानने का अर्थ और सबकी बातें झूठी मानना है। इस प्रकार का अहंकार अज्ञान का द्योतक है। इस असहिष्णुता से घृणा और विरोध बढ़ता है, सत्य की प्राप्ति नहीं होती। सत्य की प्राप्ति होनी तभी संभव है जब हम अपनी भूलों, त्रुटियों और कमियों को निष्पक्ष भाव से देखें। अपने विश्वास बीजों का हमें निरीक्षण और परीक्षण करना चाहिए।

🔹 संसार में लगभग ऐसे मनुष्य हैं जो स्वयं तो उन्नति कर नहीं सकते और दूसरों के भी उन्नति पथ में रोड़े अटकाते हैं। ऐसे पुरुषों की परवाह न करके  हमें तो केवल बढ़ना ही चाहिए, क्योंकि उन्नति को कष्ट साध्य समझने वाले मानव उन्नति पथ पर आपकी खिल्ली उड़ायेंगे और आपको निरुत्साहित करने की कोशिश करेंगे, परन्तु यदि आप उनकी ओर ध्यान देंगे तो आपको अपनी ही उन्नति से भय लगेगा जैसे पर्वत की चोटी पर चढ़े हुए पुरुष को उसके नीचे देखने से।

🔸 उत्साह जीवन का धर्म है। अनुत्साह मृत्यु का प्रतीक है। उत्साहवान् मनुष्य ही सजीव कहलाने योग्य है। उत्साहवान् मनुष्य आशावादी होता है। उसे सारा विश्व आगे बढ़ता हुआ दिखाई देता है। विजय, सफलता और कल्याण सदैव आँख में नाचा करते हैं, जबकि उत्साहहीन हृदय को अशान्ति ही अशान्ति दिखाई देती है।

🔹 मनुष्यता के गुणों से हीन प्राणी चाहे रावण से धनवान्, शुक्राचार्य से विद्वान्, हिरण्यकश्यपु से पराक्रमी, कंस से योद्धा, मारीच से मायावी, कालनेमि से कूटनीतिज्ञ, भस्मासुर से शक्तिशाली क्यों न हो जावें, पर वे न अपने लिए, न दूसरों के लिए-किसी के लिए भी शान्ति का कारण न बन सकेंगे। यह समृद्धि अयोग्य लोगों के, कुपात्रों के हाथ में जितनी बढ़ेगी उतना ही क्लेश बढ़ेगा, अशान्ति की कालिमा घनी होगी।

◼️ ईश्वर को प्रसन्न करने का उपाय केवल यही है कि अपने से निःस्वार्थ भाव से जो भी सेवा, त्याग, परोपकार हो सके, वह किया जाय। संसार क्या करता है? संसार क्या कहेगा? यह सब व्यर्थ की बातें हैं। आत्मा क्या कहेगी? ईश्वर क्या कहेगा? यही मुख्य बात है। यही ईश्वर की प्रसन्नता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 क्षुद्र हम, क्षुद्रतम हमारी इच्छाएँ (भाग 5)

🔴 वह तो तेरे पास रे

मित्रो! मैं आपको जगह बता दूँ, तो आप पहुँचेंगे? नहीं पहुँचेंगे। पहुँचना भी मत, अगर वहाँ पहुँच जायेंगे, तो भगवान् जी बहुत नाराज होंगे। जहाँ भगवान् जी रहते हैं, वह जगह मैं बताये देता हूँ। आप जब चाहें, उन्हें पा सकते हैं। आप जब चाहें, उनसे मिल सकते हैं और जब चाहें तो बात भी हो सकती है। भगवान् जी का द्वार खुला हुआ है, पर है ऐसा कि भगवान् दिखाई नहीं पड़ता वह जगह ऐसी है, जो आदमी की पकड़ में नहीं आती है और पता भी नहीं चलता है। आपको बताऊँ, कहाँ है वह जगह? अच्छा! आपको बताये देता हूँ, आप किसी से मत कहना, नहीं तो और लोग पहुँच जायेंगे। वह जगह है इन्सान का दिल- हृदय। इन्सान के हृदय में- दिल में भगवान् बैठा हुआ है। वह कहीं बाहर नहीं है। जब कभी भी किसी को भी भगवान् मिला है, अपने हृदय के भीतर मिला है। वह बाहर दुनिया में नहीं है वह। बाहर दुनिया में केवल प्रकृति है, पंचभूत हैं, जड़ पदार्थ हैं। बस, और कुछ नहीं। बाहर की दुनिया में शान्ति नहीं है। वस्तुओं में शान्ति नहीं है? वस्तुओं में कोई शान्ति नहीं है। पदार्थों में कोई शान्ति नहीं है।

🔵 शान्ति वहाँ नहीं है

मित्रो! सुख- सुविधाओं में शान्ति है? नहीं, सुख- सुविधाओं में कोई शान्ति नहीं है। सुख- सुविधाओं में शान्ति रही होती, तो रावण ने शान्ति प्राप्त कर ली होती। क्यों? क्योंकि उसके पास बहुत सुविधाएँ थीं। उसके पास सोने के अम्बार लगे हुए थे और उसका मकान सोने का बना हुआ था। संतान? संतान के द्वारा अगर दुनिया में शान्ति मिली होती, तो रावण के एक लाख पूत और सवा लाख नाती अर्थात्, सवा दो लाख थे। सवा दो लाख संतान पाने के बाद में रावण जरूर सुखी हो गया होता। मित्रो! जिन चीजों के बारे में लोगों का यह सवाल है कि यह चीजें हमको मिल जायें, तो हम सुखी बन सकते हैं। वह वास्तव में ईमानदारी की बात है कि कोई सुख दे नहीं सकते। विद्या हमको मिल जाये, हम एम.ए. पास हो जायें, फर्स्ट डिवीजन में पास हो जायें, पी- एच.डी. हो जायें, नौकरी मिल जाये और हम बड़े विद्वान हो जायें, तो हम दुनिया में शान्ति पा सकते हैं? यह नामुमकिन है।

🔴 विद्वान पर खोखला व्यक्ति

साथियो! रावण बहुत विद्वान था। ज्यादा पढ़ा हुआ था। उसके पास कोई कमी नहीं थी। कोई आदमी बलवान हो जाये, ताकतवर हो जाये, तो उसे शान्ति मिल जायेगी? सुविधा मिल जाये, तो चैन मिल जायेगा? नहीं, न शान्ति मिल सकती और न चैन मिल सकता है। रावण बहुत ताकतवर था, बहुत बलवान था और उसकी कलाइयों में बहुत बल था। वह बड़ा संपन्न था। उसके पास न विद्या की कमी थी, न पैसे की कमी थी, न ताकत की कमी थी, न पुरुषार्थ की कमी थी। किसी चीज की कमी नहीं थी। पर बेचारा शान्ति नहीं पा सका। और जब मरने का समय आया, तब उसके शरीर में हजारों छेद बने हुए विद्यमान थे। जब लक्ष्मण जी ने रामचंद्र जी से यह पूछा कि महाराज! आपने जब रावण को मारा था, तब आपने एक ही तीर चलाया था न? हाँ, हमने तो एक ही तीर चलाया था। तो रावण के शरीर में एक ही निशान होना चाहिए, एक ही घाव होना चाहिए, लेकिन उसकी जो लाश पड़ी हुई है, उसमें तो जहाँ तहाँ हजारों छेद हैं। यह कैसे हुआ? रावण को इतने तीर किसने मारे? इतने छेद किसने कर दिए? इतने सुराख इसमें कैसे हो गए? किस तरीके से इन सूराखों से खून बह रहा है। आपने तो एक ही तीर मारा था? हाँ, हमने एक ही तीर मारा था। तो ये हजारों तीर किस तरीके से लगे? रामचंद्र जी ने बताया कि ये जो हजारों छेद हैं, रावण के पाप हैं, रावण के गुनाह हैं। रावण की कमजोरियाँ, रावण का घटियापन एवं रावण का कमीनापन है, जिसने कि उसके सारे शरीर में छेद कर डाले और उसका सारे का सारा व्यक्तित्व खराब कर दिया।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य


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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...