सोमवार, 30 अक्तूबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 28 Oct 2023

🔶 उत्तरदायित्वों की जो बोझ मानकर उपेक्षा करता है। उस अच्छे परिणामों से वंचित रह जाना पड़ता है। प्रत्येक मानव की आजीविका कमाने में शर्म, संकोच का भाव नहीं रखना चाहिये। आत्म-निर्भरता तो जीवनोत्कर्ष के पथ पर अग्रसर करती है। परिस्थितियों से सामंजस्य बिठाने का अद्भुत गुण मनुष्य में है। इसलिये अपने प्रत्येक कार्य की पूरी शक्ति से करना चाहिये। प्रत्येक कार्य ईश्वर का है, अतः उसे आत्म समर्पित भाव से करना चाहिये। कार्य में सद्भावना का प्रभाव उज्ज्वल चरित्र निर्माण के विकास के लिये होता है। कार्य करने का सौंदर्य, रुचिकर ढंग सफलता की निशानी है। कार्य की श्रेष्ठता में जीवन की श्रेष्ठता निहित है।

🔷 आत्म-विश्वास और परिश्रम के बल पर जीवन को सार्थकता प्रदान की जा सकती है। भाग्य का निर्माणकर्ता मनुष्य स्वयं है। ईश्वर निर्णयकर्ता और नियामक है। मनुष्य परिश्रम से चाहे तो अपने भाग्य की रेखाओं को बना सकता है-परिवर्तित कर सकता है। हैनरी स्ल्यूस्टर कहता है कि-“जिसे हम भाग्य की कृपा समझते हैं, वह और कुछ नहीं। वास्तव में हमारी सूझ-बूझ और कठिन परिश्रम का फल है।” विश्वास रखें परिश्रम और आत्मविश्वास एक दूसरे के बिना अधूरे है। दोनों मिलकर के ही लक्ष्य तक पहुँचने में समर्थ हो पाते हैं। संकल्प करें-बाधाओं को हमेशा हँस-हँस स्वीकार करना है। डर कर मार्ग से हटाना नहीं है। लक्ष्य विहीन नहीं होना है। हमेशा गतिमान रहना हैं-गतिहीन नहीं होना है।       
                                                
🔶 परिश्रम और सफलता की आशा करते हुए हमें लक्ष्य प्राप्ति के बीच आने वाले दुष्परिणामों को भी सामान्य करने का साहस करना चाहिये। “सर्वश्रेष्ठ के लिये प्रयत्न कीजिये मगर निकृष्टतम के लिये तैयार रहिये।” अँग्रेजी की यह कहावत बड़ी सार्थक है। हैनरी फोर्ड से एक व्यक्ति ने उनकी सफलता का रहस्य पूछा, तो उन्होंने कहा, “सफलता का सबसे पहला रहस्य है, हर परिस्थिति के लिए तैयार रहना।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

 

👉 मन को सुधारा जाय

मनुष्य के अस्तित्व पर गंभीरता पूर्वक विचार किया जाय, तो उसकी एक मात्र विशेषता उसका मनोबल ही दृष्टिगोचर होता है। शरीर की दृष्टि से वह अन्य प्राणियों की तुलना बहुत गया-गुजरा है। मनोबल की विशेषता के कारण ही मनुष्य सृष्टि का मुकुटमणि है। मन वस्तुत: एक बड़ी शक्ति है। अनन्त चेतना के केन्द्र परमात्मा का प्रकाश इस जड़ प्रकृति में जो पड़ता, तो उसका प्रतिबिम्ब मन के रूप में ही सामने आता है। जड़ पदार्थ कितने ही उत्कृष्ट क्यों न हो, चेतना के बिना वे निरर्थक है।

इस पृथ्वी के गर्भ में रत्नों की खान, स्वर्ण-भण्डार और न जाने क्या-क्या बहुमूल्य सम्पदाएँ भरी पड़ी हैं। पर वे तब तक प्रकाश में नहीं आतीं, जब तक कोई चेतना सम्पन्न मनुष्य उनसे सम्पर्क स्थापित नहीं करता है। स्वर्ण और रत्न का मूल्य चेतन प्राणी की चेतना के कारण ही है अन्यथा वे मिट्टी कंकड़ के समान ही पड़े रहते हैं। इस देह को ही लीजिए। कितनी बहुमूल्य, प्रिय एवं उपयोगी लगती है पर यदि चेतना नष्ट हो जाय-मूर्छा उन्माद या मृत्यु की स्थिति आ जाय, तो यह देह किसी काम का नहीं रह जाती। मानव-जीवन में जो कुछ श्रेष्ठता एवं महत्ता है, वह केवल उसकी मानसिक स्थिति-मनोभूमि के कारण ही है।
  
आलसी और उत्साही, कायर और वीर, दीन और समृद्ध, पापी और पुण्यात्मा, अशिक्षित और विद्वान्ï, तुच्छ और महान, तिरस्कृत और प्रतिष्ठित का जो आकाश पाताल जैसा अन्तर मनुष्यों के बीच में दीख पड़ता है, उसका प्रधान कारण उस व्यक्ति की मानसिक स्थिति ही है। परिस्थितियाँ भी एक सीमा तक इन भिन्नताओं में सहायक होती है। पर उनका प्रभाव पाँच प्रतिशत ही होता है, पचानवे प्रतिशत कारण मानसिक। बुरी से बुरी परिस्थितियों पड़ा हुआ मनुष्य भी अपनी कुशलता और मानसिक विशेषताओं के द्वारा उन पर बाधाओं को पार करता हुआ, देर-सबेर में अच्छी स्थिति प्राप्त कर लेगा। अपने सद्गुणों, सद्विचारों एवं सत्प्रयत्नों द्वारा कोई भी मनुष्य बुरी से बुरी परिस्थिति को पार करके ऊँचा उठ सकता है। पर जिसकी मनोभूमि निम्न श्रेणी की है, जो दुर्बुद्धि से, दुर्गुणों से, दुष्प्रवृत्तियों से ग्रसित है, उसके पास यदि कुबेर जैसी सम्पदा और इन्द्र जैसी सुविधा हो, तो भी वह अधिक दिन ठहर न सकेगी, कुछ ही दिन में नष्ट हो जायगी।
  
कर्म जो आँखों से दिखाई देता है, वह अदृश्य विचारों का ही दृश्य रूप है। मनुष्य जैसा सोचता है वैसा करता है। चोरी, बेईमानी, दगाबाजी, शैतानी, बदमाशी कोई आदमी यकायक कभी नहीं कर सकता। उसके मन में उस प्रकार के विचार बहुत दिनों से झूमते रहते हैं। अवसर न मिलने से वे दबे हुए थे, समय पाते ही वे कार्यरूप में परिणित हो जाते हैं। बाहर के लोगों को किसी दुष्कर्म होने की बात सुनकर इसलिए आश्चर्य होता है कि वे उसकी भीतरी स्थिति को नहीं जानते थे। इसी प्रकार कोई अधिक उच्चकोटि का सत्कर्म करने का भी आकस्मिक समाचार भले ही सुनने को मिले पर वस्तुुत: उसकी तैयारी वह मनुष्य भीतर ही भीतर बहुत दिनों से कर रहा होता है। इसी तरह जो व्यक्ति आज उन्नतिशील एवं सफलता सम्पन्न दिखाई पड़ते हैं, वे अचानक ही वैसे नहीं बन गये, वरन् चिरकाल से उनका प्रयत्न उसके लिए चल रहा होता है। भीतरी पुरुषार्थ को उन्होंने बहुत पहले जगा लिया होता है। उन्होंने अपने मन:क्षेत्र में भीतर ही भीतर वह अच्छाइयाँ जमा कर ली होती हैं, जिनके द्वारा बाह्य जगत में दूसरों का सहयोग एवं उन्नति का आधार निर्भर रहता है। बाह्य जीवन हमारे भीतरी जीवन का प्रतिबिम्ब मात्र है। पर्दे के पीछे दीपक जल रहा है, तो कुछ प्रकाश बाहर भी परिलक्षित होता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

रविवार, 29 अक्तूबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 29 Oct 2023

तुम सब हमारी भुजा बन जाओ, हमारे अंग बन जाओ, यह हमारे मन की बात है। अब तुम पर निर्भर है कि तुम कितना हमारे बनते हो? समर्पण का अर्थ है दो का अस्तित्व मिट कर एक हो जाना। तुम भी अपना अस्तित्व मिटाकर हमारे साथ मिला दो व अपनी क्षुद्र महत्त्वाकांक्षा को हमारी अनन्त आध्यात्मिक महत्त्वाकांक्षाओं में विलीन कर दो। जिसका अहं जिन्दा है, वह वेश्या है। जिसका अहं मिट गया वह पवित्र है। देखना है कि हमारी भुजा, आंख, मस्तिष्क बनने के लिए तुम कितना अपने अहं को गला पाते हो?

आज दुनिया में पार्टियां तो बहुत हैं, पर किसी के पास कार्यकर्त्ता नहीं हैं। लेबर सबके पास है, पर समर्पित कार्यकर्त्ता जो सांचा बनता है व कई को बना देता है अपने जैसा, कहीं भी नहीं है। हमारी यह दिली ख्वाहिश है कि हम अपने पीछे कार्यकर्त्ता छोड़ कर जाएं। इन सभी को सही अर्थों में डाई एक सांचा बनना पड़ेगा तथा वही सबसे मुश्किल काम है। रॉ मैटेरियल तो ढेरों कहीं भी मिल सकता है, पर डाई कहीं-कहीं मिल पाती है। श्रेष्ठ कार्यकर्त्ता श्रेष्ठतम डाई बनाता है। तुम सबसे अपेक्षा है कि अपने गुरु की तरह एक श्रेष्ठ सांचा बनोगे।
                                              
अपना मन सभी से मिलाओ। मिल-जुलकर रहो, अपना सुख बांटो-दुःख बंटाओ। यही सही अर्थों में ब्राह्मणत्व की साधना है। साधु तुम अभी बने नहीं हो। मन से ब्राह्मणत्व की साधना करोगे, तो पहले ब्राह्मण बनो तो साधु अपने आप बन जाओगे। सेवा बुद्धि का, दूसरों के प्रति पीड़ा का, भाव सम्वेदना का विकास करना ही साधुता को जगाना है। आशा है, तुम इसे अवश्य पूरा करोगे व हमारी भुजा, आंख व पैर बन जाने का संकल्प लोगे, यही आत्मा की वाणी है, जो तुमसे कुछ कराना चाहती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 अपने ऊपर विश्वास रखो

मित्रो ! स्मरण रखिए, रुकावटें और कठिनाइयाँ आपकी हितचिंतक हैं। वे आपकी शक्तियों का ठीक-ठीक उपयोग सिखाने के लिए हैं। वे मार्ग के कंटक हटाने के लिए हैं। वे आपके जीवन को आनंदमय बनाने के लिए हैं। जिनके रास्ते में रुकावटें नहीं पड़ीं, वे जीवन का आनंद ही नहीं जानते। उनको जिंदगी का स्वाद ही नहीं आया। जीवन का रस उन्होंने ही चखा है, जिनके रास्ते में बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ आई हैं। वे ही महान् आत्मा कहलाए हैं, उन्हीं का जीवन, जीवन कहला सकता है।

उठो ! उदासीनता त्यागो। प्रभु की ओर देखो। वे जीवन के पुंज हैं। उन्होंने आपको इस संसार में निरर्थक नहीं भेजा। उन्होंने जो श्रम आपके ऊपर किया है, उसको सार्थक करना आपका काम है। यह संसार तभी तक दु:खमय दीखता है, जब तक कि हम इसमें अपना जीवन होम नहीं करते। बलिदान हुए बीज पर ही वृक्ष का उद्ïभव होता है। फूल और फल उसके जीवन की सार्थकता सिद्घ करते हैं।

सदा प्रसन्न रहो। मुसीबतों का खिले चेहरे से सामना करो। आत्मा सबसे बलवान है, इस सच्चाई पर दृढ़ विश्वास रखो। यह विश्वास ईश्वरीय विश्वास है। इस विश्वास द्वारा आप सभी कठिनाइयों पर विजय पा सकते हैं। कोई कायरता आपके सामने ठहर नहीं सकती। इसी से आपके बल की वृद्धि होगी। यह आपकी आंतरिक शक्तियों का विकास करेगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

शनिवार, 28 अक्तूबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 28 Oct 2023

आपमें से हर आदमी को हम यह काम सौंपते हैं कि आप हमारे बच्चे के तरीके से हमारे मिशन को चलाइए। बन्द मत होने दीजिए। हम तो अपनी विदाई ले जाएंगे, लेकिन जिम्मेदारी आपके पास आएगी। आप कपूत निकलेंगे तो फिर लोग आपकी बहुत निन्दा करेंगे और हमारी निन्दा करेंगे। कबीर का बच्चा ऐसा हुआ था जो कबीर के रास्ते पर चलता नहीं था तो सारी दुनिया ने उससे यह कहा—‘बूढ़ा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल’ आपको कमाल कहा जाएगा और यह कहा जाएगा कि कबीर तो अच्छे आदमी थे, लेकिन उनकी संतानें दो कौड़ी की भी नहीं है।

परिजनो! आप हमारी वंश परम्परा को जानिए। अगर हमको यह मालूम पड़ा कि आपने हमारी परम्परा नहीं निबाही और अपना व्यक्तिगत ताना-बाना बुनना शुरू कर दिया और अपना व्यक्तिगत अहंकार, अपनी व्यक्तिगत यश-कामना और व्यक्तिगत धन-संग्रह करने का सिलसिला शुरू कर दिया, व्यक्तिगत रूप से बड़ा आदमी बनना शुरू कर दिया, तो हमारी आंखों से आंसू टपकेंगे और वह आंसू आपको चैन से नहीं बैठने देंगे। आपको हैरान कर देंगे।
                                              
हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में सीमाबद्ध है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप हमारे विचारों को फैलाने में सहायता कीजिए। अब हमको नई पीढ़ी चाहिए। हमारी विचारधारा उन तक पहुंचाइए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 अध्यात्म का सूक्ष्म-विश्लेषण

अध्यात्म क्या है? जीवन का शीर्षासन है। आप क्या इसे बाजीगरी समझते हैं कि यह कर लूँगा, वह कर लूँगा। इसमें ऐसा कुछ नहीं है, वरन इसमें जीवन की दिशा उलटी जाती है, जीवन को पलटा जाता है। दुनिया वाले लोगों के सोचने, करने का जो तरीका है, आकांक्षाओं, इच्छाओं का जो ढंग है, उससे आध्यात्मिक जीवन की प्रक्रियाएं भिन्न हैं, जिन्हें अलग ढंग से करना पड़ता है।

पूजा-उपासना के बारे में, सिद्धि-चमत्कारों के बारे में, देवताओं के दर्शन के बारे में, ऋद्धि-सिद्धि पाने के बारे में जो तरह-तरह के खेल-खिलवाड़ आप करते रहते हैं, उसमें न पड़ें तो अच्छा है, क्योंकि आपके लिए यह वह कठिन पड़ेगा। आप पहली मंजिल पर ही टक्कर खाकर चकनाचूर हो जाएँगे। जब आपसे ब्रह्मचर्य के लिए कहा जायेगा कि शारीरिक ब्रह्मचर्य उतना आवश्यक नहीं जितना कि मानसिक ब्रह्मचर्य आवश्यक है, तब आप दाँत निकाल देंगे और कहेंगे कि शारीरिक ब्रह्मचर्य तो हमसे साधता नहीं, फिर मानसिक ब्रह्मचर्य की बात ही अलग है! चौबीस घंटे हमारा दिमाग और आँखें दुराचार में लगी रहती हैं। जब आपकी सारी शक्ति इसी में खर्च हो जायेगी तब फिर आपका सहस्रार-चक्र (कुण्डलिनी-जागरण की अंतिम अवस्था) कहाँ से जगेगा? सहस्रार-चक्र में लगने वाली सारी शक्ति इसी में लय कर देंगे, तब फिर वह जागेगा कैसे? सहस्रार को जाग्रत करने वाला जो प्रकाश है, वह तो आपकी आँखों के रास्ते तरंगों के जरिये नष्ट हो जायेगा। इसके अन्दर जो गर्मी थी, ऊर्जा थी वह तो आपने ख़त्म कर दी।

इसी तरह आहार के आधार पर जो आपका रक्त बनता है और जिससे बनता है मन; तमोगुणी अन्न, अनीति-बेईमानी का कमाया हुआ अन्न, हराम का कमाया हुआ अन्न खाकर के आपने उसे तमोगुणी बना दिया है। उसे आप अध्यात्म में, भगवान में स्थिर कैसे कर पाएंगे?

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

शुक्रवार, 27 अक्तूबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 27 Oct 2023

जीवन की महत्ता और सफलता उसकी आत्मिक प्रगति पर निर्भर है, यह विश्वास मन में रखना चाहिए व नित्य सुदृढ़ बनाना चाहिए। भौतिक सफलताएं तो उतनी ही देर आनन्द देती हैं, जब तक कि उनकी प्राप्ति नहीं हो जाती। मिलते ही आनन्द समाप्त हो जाता है व और अधिक के लिए व्याकुलता, बेचैनी आरंभ हो जाती है। जो मानव जीवन का श्रेष्ठतम सदुपयोग कर उस आनन्द की प्राप्ति के इच्छुक हैं, जिसके लिए यह जन्म मिला है, उन्हें आत्मिक प्रगति के लिए तत्पर होना चाहिए और उसके दोनों आधारों उपासना और साधना का अवलम्बन लेना चाहिए।

मनुष्य में जो असीम एवं अपरिमित शक्तियाँ भरी पड़ी हैं उनके अस्तित्व में विश्वास करने और तद्नुरूप उन्हें हस्तगत कर लेने की योग्यता-क्षमता को प्रतिभा के नाम से जाना जाता है। यह न तो जन्मजात उपलब्धि है और न किसी का दिया हुआ वरदान-आशीर्वाद। भाग्यवश मिला हुआ आकस्मिक संयोग-सुयोग भी नहीं कहा जा सकता। वह स्व उपार्जित ऐसी विलक्षण सम्पदा है, जिसके सहारे जीवन की प्रतिकूल दीखने वाली परिस्थितियों को अनुकूल बनाया जा सकता है।
                                              
जिन व्यक्तियों ने अपनी प्रसुप्त प्रतिभा को उपयोगी दिशा में लगाया है, उसके सत्परिणाम उन्हें हाथों हाथ मिलते देखे गये हैं। परिस्थितियाँ कितनी विपन्न और विषम क्यों न बनी रही हों, पर धुन के धनी लोगों ने जीवन की महत्वपूर्ण सफलताएँ अर्जित कर दिखाई हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 बंधनों से मुक्ति

मित्रो ! तुम व्यर्थ में दूसरों के अनर्थकारी संदेशों को ग्रहण कर लेते हो। तुम वह सच मान बैठते हो, जो दूसरे कहते हैं। तुम स्वयं अपने आप को दु:खी करते हो और कहते हो कि दूसरे लोग हमें चैन नहीं लेने देते। तुम स्वयं ही दु:ख का कारण हो, स्वयं ही अपने शत्रु हो। जो किसी ने कुछ बक दिया, तुमने मान लिया यही कारण है कि तुम उद्विग्न रहते हो।

सच्चा मनुष्य एक बार उत्तम संकल्प करने के लिए यह नहीं देखता कि लोग क्या कह रहे हैं। वह अपनी धुन का पक्का होता है। सुकरात के सामने जहर का प्याला रखा गया, पर उसकी राय को कोई न बदल सका। बंदा बैरागी को भेड़ों की खाल पहना कर काले मुँह गली-गली फिराया गया, किंतु उसने दूसरों की राय न मानी।

दूसरे के इशारों पर नाचना, दूसरों के सहारे पर निर्भर रहना, दूसरों की झूठी टीका-टिप्पणी से उद्विग्न होना, मानसिक दुर्बलता है। जब तक मनुष्य स्वयं अपना स्वामी नहीं बन जाता, तब तक उसका संपूर्ण विकास नहीं हो सकता। दूसरों का अनुकरण करने से मनुष्य अपनी मौलिकता से हाथ धो बैठता है।

स्वयं विचार करना सीखो। दूसरों के बहकावे में न आओ। कर्त्तव्य-पथ पर बढ़ते हुए, दूसरे क्या करते हैं, इसकी चिंता न करो। यदि ऐसा करने का साहस तुम में नहीं है, तो जीवन भर दासत्व के बंधनों में जकड़े रहोगे।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

गुरुवार, 26 अक्तूबर 2023

👉 श्रद्धा और निष्ठा

बहुत-से व्यक्ति थे जो पहले सिद्धान्तवाद की राह पर चले और भटक कर कहाँ से कहाँ पहुँचे? भस्मासुर का पुराना नाम बताऊँ आपको! मारीचि का पुराना नाम बताऊँ आपको। ये सभी योग्य तपस्वी थे। पहले जब उन्होंने उपासना-साधना शुरू की थी, तब अपने घर से तप करने के लिए हिमालय पर गए थे। तप और पूजा-उपासना के साथ-साथ में कड़े नियम और व्रतों का पालन किया था। तब वे बहुत मेधावी थे, लेकिन समय और परिस्थितियों के भटकाव में वे कहीं के मारे कहीं चले गए। भस्मासुर का क्या हो गया? जिसको प्रलोभन सताते हैं वे भटक जाते हैं और कहीं के मारे कहीं चले जाते हैं।
 
साधु-बाबाजी जिस दिन घर से निकलते हैं, उस दिन यह श्रद्धा लेकर निकलते हैं कि हमको संत बनना है, महात्मा बनना है, ऋषि बनना है, तपस्वी बनना है। लेकिन थोड़े दिनों बाद वह जो उमंग होती है, वह ढीली पड़ जाती है और ढीली पड़ने के बाद में संसार के प्रलोभन उनको खींचते हैं। किसी की बहिन-बेटी की ओर देखते हैं, किसी से पैसा लेते हैं। किसी को चेला-चेली बनाते हैं। किसी की हजामत बनाते हैं। फिर जाने क्या से क्या हो जाता है? पतन का मार्ग यहीं से आरम्भ होता है। ग्रेविटी-गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी की हर चीज को ऊपर से नीचे की ओर खींचती है।
 
संसार भी एक ग्रेविटी है। आप लोगों से सबसे मेरा यह कहना है कि आप ग्रैविटी से खिंचना मत। रोज सबेरे उठकर भगवान के नाम के साथ में यह विचार किया कीजिए कि हमने किन सिद्धान्तों के लिए समर्पण किया था? और पहला कदम जब उठाया था तो किन सिद्धान्तों के आधार पर उठाया था? उन सिद्धान्तों को रोज याद कर लिया कीजिए। रोज याद किया कीजिए कि हमारी उस श्रद्धा में और उस निष्ठा में, उस संकल्प और उस त्यागवृत्ति में कहीं फर्क तो नहीं आ गया। संसार में हमको खींच तो नहीं लिया। कहीं हम कमीने लोगों की नकल तो नहीं करने लगे। आप यह मत करना।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 26 Oct 2023

जो कार्य और उत्तरदायित्व आपके जिम्मे सौंपा गया है वह यह है कि दीपक से दीपक को आप जलाएं। बुझे हुए दीपक से दीपक नहीं जलाया जा सकता। एक दीपक से दूसरा दीपक जलाना हो तो पहले हमको जलना पड़ेगा। इसके बाद में दूसरा दीपक जलाया जा सकेगा। आप स्वयं ज्वलंत दीपक के तरीके से अगर बनने में समर्थ हो सके तो हमारी वह सारी की सारी आकांक्षा पूरी हो जायेगी जिसको लेकर के हम चले हैं और यह मिशन चलाया है। आपका सारा ध्यान यहीं इकट्ठा होना चाहिए कि क्या हम अपने आपको एक मजबूत ठप्पे के रूप में बनाने में समर्थ हो गए?

प्यार-मोहब्बत का व्यवहार आपको बोलना सीखना चाहिए। जहां कहीं भी शाखा में जाना है, कार्यकर्त्ताओं के बीच में जाना है और जनता के बीच में जाना है, उन लोगों के साथ में आपके बातचीत का ढंग ऐसा होना चाहिए कि उसमें प्यार ही प्यार भरा हुआ हो। दूसरों का दिल जीतने के लिए आप दूसरों पर अपनी छाप छोड़ने के लिए इस तरह का आचरण लेकर जाएं, ताकि लोगों को यह कहने का मौका न मिले कि गुरुजी के पसंदीदे नाकाबिल हैं। अब आपकी इज्जत, आपकी इज्जत नहीं, हमारी इज्जत है। जैसे हमारी इज्जत हमारी इज्जत नहीं, हमारे मिशन की इज्जत है। हमारी और मिशन की इज्जत की रक्षा करना अब आपका काम है।

परिजनों! सन्त हमेशा गरीबों जैसा होता है। अमीरों जैसा सन्त नहीं होता। संत कभी भी अमीर होकर नहीं चला है। जो आदमी हाथी पर सवार होकर जाता है, वह कैसे सन्त हो सकता है? संत को पैदल चलना पड़ता है। सन्त को मामूली कपड़े पहनकर चलना पड़ता है। सन्त चांदी की गाड़ी पर कैसे सवारी कर सकता है? आपको अपने पुराने बड़प्पन छोड़ देने चाहिए-पुराने बड़प्पन की बात भूल जानी चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

बुधवार, 25 अक्तूबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 25 Oct 2023

जिन्हें किसी प्रकार का नेतृत्व निबाहना हो, उन्हें सर्वसाधारण की अपेक्षा अधिक वरिष्ठ और अति विशिष्ठ होना चाहिए। आत्म-परिष्कार की कसौटी पर कसकर स्वयं को इतना खरा बना लेना चाहिए कि किसी को अंगुली उठाने का अवसर ही न मिले। परीक्षा की इस घड़ी में यहां जांच खोज हो रही है कि यदि कहीं मानवता जीवित होगी, तो वह इस नवनिर्माण के पुण्य-पर्व पर अपनी जागरूकता और सक्रियता का परिचय दिये बिना न रहेगी।

आप यह कभी न सोचिए कि एक मैं ही पूर्ण हूं, मुझमें ही सब योग्यताएं हैं, मैं ही सब कुछ हूं, सबसे श्रेष्ठ हूं; वरन् यह सोचिए कि मुझमें भी कुछ है, में भी मनुष्य हूं, मेरे अन्दर जो कुछ है उसे मैं बढ़ा सकता हूं, उन्नत और विकसित कर सकता हूं।

हमारी परम्परा पूजा-उपासना की अवश्य है, पर व्यक्तिवाद की नहीं। अध्यात्म को हमने सदा उदारता, सेवा और परमार्थ की कसौटी से कसा है और स्वार्थी को खोटा और परमार्थी को खरा कहा है। जो हमारे हाथ में लगी हुई मशाल को जलाये रखने में अपना हाथ लगा सकें, हमारे कंधों पर लदे हुए बोझ को हलका करने में अपना कंधा लगा सकें, ऐसे ही लोग हमारे प्रतिनिधि या उत्तराधिकारी होंगे।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 जप में ध्यान द्वारा प्राणप्रतिष्ठा (अन्तिम भाग)

उपरोक्त ध्यान गायत्री उपासना की प्रथम भूमिका में आवश्यक है। भजन के साथ भाव की मात्रा भी पर्याप्त होनी चाहिए। इस ध्यान को कल्पना न समझा जाए, वरन् साधक अपने को वस्तुतः उसी स्थिति में अनुभव करे और माता के प्रति अनन्य प्रेमभाव के साथ तन्मयता अनुभव करे। इस अनुभूति की प्रकटता में अलौकिक आनंद का रसास्वादन होता है और मन निरंतर इसी में लगे रहने की इच्छा करता है। इस प्रकार मन को वश में करने और एक ही लक्ष्य में लगें रहने की एक बड़ी आवश्यकता सहज ही पूरी हो जाती है।

साधना की दूसरी भूमिका तब प्रारंभ होती है, जब मन की भाग-दौड़ बंद हो जाती है और चित्त जप के साथ ध्यान में संलग्न रहने लगता है। इस स्थिति को प्राप्त कर लेते पर चित्त को एक सीमित केंद्र पर एकाग्र करने की और कदम बढ़ाना पड़ता है। उपर्युक्त ध्यान के स्थान पर दूसरी भूमिका में साधक सूर्यमंडल के प्रकाश में गायत्री माता के सुँदर मुख की झाँकी करता है। उसे समस्त विश्व में केवल मात्र एक पीतवर्ण सूर्य ही दीखता है और उसके मध्य में गायत्री माता का मुख हँसता-मुखमंडल को ध्यानावस्था में देखता है। उसे माता के अधरों से, नेत्रों से, कपोलों की रेखाओं से एक अत्यंत मधुर स्नेह, वात्सल्य, आश्वासन, साँत्वना एवं आत्मीयता की झाँकी होती रहती है। वह उस झाँकी होती रहती है। वह उस झाँकी को आनंदविभोर होकर देखता रहता है और सुधि-बुधि भुलाकर भुलाकर चंद्र-चकोर की भाँति उसी में तन्मय होता है।

इस दूसरी भूमिका की सीमा सीमित हो गई। पहली भूमिका में माता-पुत्र दोनों का क्रीड़ा विनोद काफी विस्तृत था। मन को भागने-दौड़ने के लिए उस ध्यान में बहुत बड़ा क्षेत्र पड़ा था। दूसरी भूमिका में वह संकुचित हो गया। सूर्यमंडल के मध्य माता की भावपूर्ण मुखाकृति पहले ध्यान की अपेक्षा काफी सीमित है। मन को एकाग्र करने की परिधि को आत्मिक विकास के साथ-साथ क्रमशः सीमित ही करते जाना होता है।

इस दूसरी भूमिका की सीमा सीमित हो गई। पहली भूमिका में माता-पुत्र दोनों का क्रीड़ा विनोद काफी विस्तृत था। मन को भागने-दौड़ने के लिए उस ध्यान में बहुत बड़ा क्षेत्र पड़ा था। दूसरी भूमिका में वह संकुचित हो गया। सूर्यमंडल के मध्य माता की भावपूर्ण मुखाकृति पहले ध्यान की अपेक्षा काफी सीमित है। मन को एकाग्र करने की परिधि को आत्मिक विकास के साथ-साथ क्रमशः सीमित ही करते जाना होता है।

📖 अखण्ड ज्योति – मई 2005 पृष्ठ 20

सोमवार, 23 अक्तूबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 23 Oct 2023

ईश्वरीय सत्ता में विश्वास कर लेना तथा “ईश्वर” है, इस बात को मान लेना मात्र बौद्धिक आस्था भर है। इसी के आधार पर व्यक्ति को आस्तिक नहीं कहा जा सकता क्योंकि आस्तिकता विश्वास नहीं वरन् एक अनुभूति है। जिस किसी में भी आस्तिकता के भाव आते हैं, जो सच्चा आस्तिक बन जाता है, उसको अपने हृदय पटल पर ईश्वर के दिव्य प्रकाश की अनुभूति होने लगती है। वह विराट् सत्ता को सम्पूर्ण सचराचर जगत में देखता है तथा उस अनुभूति से रोमाँचित हो उठता है। ऐसा व्यक्ति ईश्वर के सतत् सामीप्य की सहज ही अनुभूति करता है तथा प्राणिमात्र में उसे अपनी ही आत्मा के दर्शन होते हैं। उसकी विवेक दृष्टि इतनी अधिक परिष्कृत परिपक्व हो जाती हैं कि जड़ चेतनमय सारे संसार में परमात्म सत्ता ही समाविष्ट दीखती है।

ईश्वर की सत्ता और महत्ता पर विश्वास करने का अर्थ है- उत्कृष्टता के साथ जुड़ने और सत्परिणामों पर - सद्गति पा -सर्वतोमुखी प्रगति पर विश्वास करना। आदर्शवादिता अपनाने पर इस प्रकार की परिणति सुनिश्चित रहती हैं। किन्तु कभी कभी उसकी उपलब्धि में देर सबेर होती देखी जाती है। ऐसे अवसरों पर ईश्वर विश्वासी विचलित नहीं होते। अपने सन्तुलन और सन्तोष को नष्ट नहीं होने देते। धैर्य पूर्वक प्रतीक्षा करते हैं। और हर स्थिति में अपने आन्तरिक आनन्द एवं विश्वास को बनाये रखते हैं। दिव्य सत्ता के साथ मनुष्य जितनी सघनता के साथ जुड़ेगा उसके अनुशासन अनुबंधों का जितनी ईमानदारी, गहराई के साथ पालन करेगा उतना ही उसका कल्याण होगा।

आस्तिक न तो याचना करता है और न अपनी पात्रता से अधिक पाने की अपेक्षा करता हैं। उसकी कामना भावना के रूप में विकसित होती है। भाव संवेदना फलित होती है तो आदर्शों के प्रति आस्थावान बनाती है। तनिक-सा दबाव या प्रलोभन आने पर फिसल जाने से रोकती है। पवित्र अन्तःकरण ईश्वर के अवतरण के मार्ग में आये अवरोध समाप्त कर देता है। दुष्प्रवृत्तियों को हटा देने पर उनका स्थान सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय ले लेता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 जप में ध्यान द्वारा प्राणप्रतिष्ठा (भाग 3)

अपने आपको एक साल के छोटे बच्चे की स्थिति में अनुभव करना चाहिए। छोटे बालक का हृदय सर्वथा शुद्ध, निर्मल और निश्चिंत होता है, जैसा ही अपने बारे में भी सोचना चाहिए। कामना-वासना, भय, लोभ, चिंता, शोक, द्वेष, आदि से अपने को सर्वथा मुक्त और संतोष, उल्लास एवं आनंद से ओत-प्रोत स्थिति में अनुभव करना चाहिए। साधक का अंतःकरण साधना काल में बालक के समान शुद्ध एवं निश्छल रहने लगे तो प्रगति तीव्र गति से होती है। भजन में तन मन लगता है और वह निर्मल स्थिति व्यावहारिक जीवन में भी बढ़ती जाती है।

माता और बालक परस्पर जैसे अत्यंत आत्मीयता और अभिन्न ममता के साथ सुसंबद्ध रहते हैं। हिल-मिलकर प्रेम का आदान-प्रदान करते हैं वैसा ही साधक का भी ध्यान होना चाहिए। “हम एक वर्ष के अबोध बालक के रूप में माता की गोदी में पड़े हैं और उसका अमृत सदृश दूध पी रहे हैं। माता बड़े प्यार से अपनी छाती खोलकर उल्लासपूर्वक अपना दूध हमें पिला रही है। वह दूध, रक्त बनकर हमारी नस-नाड़ियों से घूम रहा है और अपने सात्विक तत्वों से हमारे अंग-प्रत्यंगों को परिपूर्ण कर रहा है।” यह ध्यान बहुत ही सुखद है। छोटा बच्चा अपने नन्हें-नन्हें हाथ पसारकर कभी माता के बाल पकड़ता है, कभी अन्य प्रकार अटपटी क्रियाएँ माता के साथ करता है, वैसे ही कुछ अपने द्वारा किया जा रहा है, ऐसी भावना करनी चाहिए।

माता भी जब वात्सल्य प्रेम से ओत-प्रोत होती है तब बच्चे को छाती से लगाती है। उसके सिर पर हाथ फिराती है, पीठ खुजलाती है, थपकी देती है, पुचकारती है, उछालती तथा गुदगुदाती है, हँसती और हँसाती है। वैसी ही क्रियाएँ गायत्री माता के द्वारा अपने साथ हो रही है, यह ध्यान करना चाहिए। “इस समस्त विश्व में माता और पुत्र केवल मात्र दो ही हैं। और कहीं कुछ नहीं है। कोई समस्या, चिंता, भय, लोभ आदि उत्पन्न करने वाला कोई कारण और पदार्थ इस संसार में नहीं है, केवल माता और पुत्र दो ही इस शून्य नीले आकाश में अवस्थित होकर अनंत प्रेम का आदान-प्रदान करते हुए कृतकृत्य हो रहे हैं।”

जप के समय आरंभिक साधक के लिए यही ध्यान सर्वोत्तम है। इससे मन को एक सुन्दर भावना में लगे रहने का अवसर मिलता है और उसकी भाग दौड़ बंद हो जाती है। प्रेमभावना की अभिवृद्धि में भी यह ध्यान बहुत सहायक होता है। मीरा, शबरी, चैतन्य महाप्रभु, सूरदास, रामकृष्ण परमहंस आदि सभी भक्तों  ने अपनी प्रेमभावना के बल पर भगवान को प्राप्त किया था। प्रेम ही वह अमृत है, जिसके द्वारा सींचे जाने पर आत्मा की सच्चे अर्थों में परिपुष्टि होती है और वह भगवान को अपने में और अपने को भगवान में प्रतिष्ठित कर सकने में समर्थ बनती है। यह ध्यान इस आवश्यकता की पूर्ति करता है।

📖 अखण्ड ज्योति – मई 2005 पृष्ठ 20

शनिवार, 21 अक्तूबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 21 Oct 2023

बुद्धिमान उन्हें कहते हैं जो उचित और अनुचित का सही निर्णय कर सकें। ऐसी प्रखर बुद्धि को मेधा, प्रज्ञा एवं विवेक कहते हैं। जिन्हें यह प्राप्त है, वे सच्चे अर्थों में कहे जाने वाले बुद्धिमान भगवान तक सरलता पूर्वक पहुँच जाते हैं। अन्यथा वासना युक्त मन की तरह अन्धानुकरण करने वाली, बहुमत को ही सब कुछ मानने वाली बुद्धि ही एक खाई खन्दक है। ऐसे लोग बुद्धिमान कहलाते हुए भी वस्तुतः होते मूर्ख ही हैं।

कुमार्ग पर चलकर तुरन्त लाभ उठाने वालों की ही संसार में भरमार है। बस, वे ही सब कुछ दीखते हैं। वे ही गवाह हैं, जिनके आधार पर बुद्धि फैसला करती है। अपनी भ्रमग्रस्त बुद्धि झूठे गवाहों की उपस्थिति में वैसा ही निर्णय भी लेती है अन्धी भेड़ें एक के पीछे एक चलती हैं और खड्डे में गिरती जाती हैं। यही स्थिति अपनी बुद्धि की भी है। स्वतन्त्र बुद्धि से विवेक पूर्ण निर्णय लेने वाले और जो उचित है, उसी को अपनाने वाले इस दुनिया में कम ही हैं, जिन्हें आत्मा और परमात्मा दो की गवाहियाँ ही पर्याप्त होती हैं।

कामनाग्रस्त मन और भ्रमग्रस्त बुद्धि जिन्हें मिली है, वे इन्हीं दो जाल-जंजालों में उलझे-फँसे रहकर चिड़िया, मछली, हिरन की तरह अपनी दुर्गति कराते रहते हैं। वैसी ही दुर्गति मलीन मन और दुर्बुद्धिग्रस्तों की होती है। इन दोनों को भगवान के बारे में सही सोचने का अवसर तक नहीं मिलता, फिर उसकी उपलब्धि कैसे हो? वे पूजा-पत्री, उपहार, मनुहार के खेल-खिलवाड़ करके भगवान को बहकाने-फुसलाने का प्रयत्न करते रहते हैं और उस विडम्बना को करते रहने पर भी खाली हाथ रहते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...