👉 देवर्षि नारद का आह्वान
इस दिव्य घाटी की एक विशिष्ट शिला पर अचानक सात ज्योतिपुञ्जों का अवतरण हुआ। इन्हें देखते ही सभी ने श्रद्धापूर्वक सिर झुकाया। वे ज्योतिपुञ्ज कुछ पलों में ही मानवाकृतियों में बदल गये। वे मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु एवं वशिष्ठ थे। यह वैवस्वत मनवन्तर का सप्तर्षि मण्डल था, जो दृश्य जगत् की अदृश्य व्यवस्था का सूक्ष्म संचालन करता है। इन्हीं के तप, शक्ति एवं ज्ञान के प्रभाव से संसार पोषित होता है। उनके इस कार्य में सभी तपोधन महर्षि एवं देवगण सहयोग करते हैं परन्तु आज यह सप्तर्षि मण्डल चिंतित था। इन महर्षियों के मुख चिंता एवं पीड़ा की रेखाएँ साफ-साफ झलक रही थीं। उनकी इस पीड़ा ने वहाँ की सघन शान्ति को स्पन्दित कर दिया। एक अपूर्व सात्विक उद्वेलन उस दिव्य परिसर में संव्याप्त हो गया। सभी कारण जानना चाहते थे।
सबकी चिंता मिश्रित जिज्ञासा को महर्षि वशिष्ठ ने सम्बोधित किया-‘‘धरती की दशा आप सभी को ज्ञात है। इस दशा के साथ आपको धरती के परम गूढ़ रहस्यों का भी ज्ञान है। एक छोर पर हैं-प्रकृति के असंतुलन से उपजी भीषण एवं भयावह आपदाएँ, दूसरी ओर हैं-मानव की दूषित प्रवृत्तियाँ। आज का मनुष्य जीवन का मर्म ही भूल चुका है। लिप्साओं और लालसाओं के आघातों से उसकी मानवीय गरिमा चोटिल एवं घायल होकर मृतप्रायः है। ऋषियों एवं देवों ने मिलकर धरा पर उज्ज्वल भविष्य लाने का निश्चय किया था, परन्तु .....’’ महर्षि वशिष्ठ बोलते-बोलते बीच में रुक गये। उनकी पीड़ा के स्पन्दन उपस्थित सभी जनों की चेतना में स्पन्दित होने लगे। कुछ पलों के लिए एक महामौन वहाँ छा गया। इस महामौन का अहसास करके चान्दनी से अठखेलियाँ कर रहे पास के सरोवर एवं सुदूर झरनों के जल ने भी चुप्पी साध ली। इस चुप्पी को ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने अपनी वाणी की प्रखरता से भंग किया- ‘‘उज्जवल भविष्य के साकार होने में अवरोध क्या महर्षि? जो संकल्प महाकाल का है, उसे भला साकार होने में कौन रोक सकता है?’’
‘‘रोकेगा तो कोई नहीं ब्रह्मर्षि विश्वामित्र, परन्तु महामहेश्वर की कृपा के इस अवतरण को धरती पर धारण कौन करेगा? प्रदूषित प्रकृति व्यथित एवं क्षुब्ध होकर खण्डप्रलय के जो नित नये दृश्य उपस्थित कर रही है अथवा फिर कलुषित मानवीय प्रवृत्ति जो आतंक और संहार के सरंजाम जुटाती रहती है। भगवती गंगा के अवतरण की गाथा को कौन नहीं जानता। यदि भगवान सदाशिव उनके वेग का शमन न करते तो क्या अवतरण सम्भव था? ठीक इसी तरह धरती एवं मानवता के उज्जवल भविष्य को अवतरण का कोई आधार चाहिए।’’
‘‘और वह आधार क्या है?’’ यह स्वर महातपस्वी भृगु का था, जो इस दिव्य सभा में साक्षात् अग्नि की भाँति प्रदीप्त हो रहे थे। ‘‘ऋषि श्रेष्ठ! वह सबल आधार है-मनुष्य की परिष्कृत भावनाएँ, उसकी संवेदनाओं के संवेदन, उसके हृदय को विराट् की पवित्रता के पुलकन से भरती भक्ति।’’- महर्षि अत्रि ने अपने कथन से सभा का समाधान किया। इस समाधान से सभी सहमत थे। सचमुच ही यदि भावनाएँ परिष्कृत हो पाएँ तो ‘मारो और मरो’ की रट लगाने वाला मनुष्य ‘जियो और जीने दो’ की सोच सकता है और तभी लग पायेगा उसकी कुत्सित एवं कलुषित लालसाओं पर अंकुश, जो प्रकृति को कुपित एवं क्षुब्ध किये हैं।
‘‘भावनाओं का परिष्कार भक्ति के बिना सम्भव नहीं है।’’ महर्षि वेदव्यास ने बड़े धीर स्वर में यह बात कही। वेदान्त सूत्र एवं श्रीमद्भागवत के रचयिता महर्षि इन क्षणों में प्रज्ञा एवं करुणा का पुञ्जीभूतस्वरूप लग रहे थे। उनका कथन सभी को महामंत्र की भाँति लगा। वह कह रहे थे - ‘‘भक्ति के बिना शक्ति के सदुपयोग की कोई सम्भावना नहीं। भक्ति न हो तो बुद्धि विवेकरहित होती है और बल निरंकुश व दिशाहीन। भक्ति के बिना सृजनात्मक सरंजाम भी संहारक हो जाते हैं।’’
महर्षि वेदव्यास की वाणी सभी को प्रीतिकर लगी। उस दिव्य सभा की अध्यक्षता कर रहे सप्तऋषियों ने कहा- ‘‘महर्षि धरती पर भक्ति की भागीरथी के अवतरण के लिए आप ही कोई युक्ति सुझाएँ।’’ इस ऋषि वाणी के प्रत्युत्तर में महर्षि वेदव्यास ने कहा- ‘‘इसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त देवर्षि नारद हैं। वे भक्ति सूत्रों के रचनाकार एवं भक्ति के मर्मज्ञ आचार्य हैं। देवों एवं ऋषियों की इस सम्पूर्ण सभा को उनका आह्वान करना चाहिए।’’ वेदव्यास के ये स्वर सभी की चेतना में संप्याप्त होकर देवर्षि के आह्वान में बदल गये। और उस घाटी में एक दिव्य अनुगूँज उठी-
तेजसा यशसा बुद्धया नयेन विनयेन च।
भक्तिना तपसा वृद्धं नारदं आह्वायामि वयम्॥
जो तेज, यश, बुद्धि, नय, विनय, भक्ति एवं तप सभी दृष्टि से बड़े हैं, उन नारद का हम सभी आह्वान करते हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १०