गुरुवार, 16 नवंबर 2017

👉 पाप का प्रलोभनः-

🔷 एक ब्राह्मण देवता दरिद्रता के कारण बहुत दुखी होकर राजा के यहाँ धन याचना करने के लिए चल दिये। कई दिन की यात्रा पार करके वे राजधानी पहुँचे और राजमहल में प्रवेश करने की चेष्टा करने लगे।

🔶 उस नगर का राजा बहुत चतुर था। वह दृढ़ निश्चयी और सच्चे ब्राह्मणों को ही दान दिया करता था। सुपात्र कुपात्र की परीक्षा के लिए राजमहल के चारों दरवाजों पर उसने समुचित व्यवस्था कर रखी थी।

🔷 ब्राह्मण देवता ने महल के पहले दरवाजे में प्रवेश किया ही था कि एक वेश्या निकल कर सामने आई। उसने राज महल में प्रवेश करने का कारण ब्राह्मण से पूछा। देवता जी ने उत्तर दिया, धन याचना के लिए राजा के पास जाना चाहते हैं। वेश्या ने कहा इस दरवाजे से आप तब अन्दर जा सकते हैं जब मुझसे रमण कर लें। अन्यथा दूसरे दरवाजे से जाइए। ब्राह्मण को वेश्या की शर्त स्वीकार न हुई, अधर्माचरण करने की अपेक्षा दूसरे द्वार से जाना उन्हें पसंद आया। यहाँ से वे लौट आये और दूसरे दरवाजे पर जाकर प्रवेश करने लगें।

🔶 दो ही कदम भीतर पड़े होंगे कि एक प्रहरी सामने आया। उसने कहा इस दरवाजे से घुसने वालो को पहले माँसाहार करना पड़ता हैं चलिए माँस भोजन तैयार है उसे खाकर आप प्रसन्नतापूर्वक भीतर जा सकते हैं। ब्राह्मण ने माँसाहार करना उचित न समझा, और वहाँ से लौट कर तीसरे दरवाजे में होकर जाने का निश्चय किया।

🔷 तीसरे दरवाजे में जैसे ही वह ब्राह्मण घुसने लगा वैसे ही मद्य की बोतल और प्याली लेकर पहरेदार सामने आया और कहा लीजिए मद्य पीजिए, और भीतर जाइए, इस दरवाजे से आने वालों को मद्यपान करना ही पड़ता है। ब्राह्मण ने मद्यपान नहीं किया और उलटे पाँव चौथे दरवाजे की ओर चल दिया।

🔶 चौथे दरवाजे पर पहुँच कर ब्राह्मण ने देखा कि वहाँ जुआ हो रहा है। जो लोग जुआ खेलते हैं वे ही भीतर घुस पाते हैं। जुआ खेलना भी धर्म विरुद्ध है। ब्राह्मण बड़े सोच विचार में पड़ा, अब किस तरह भीतर प्रवेश हो, चारों दरवाजों पर धर्म विरोधी शर्तें हैं। पैसे की मुझे बहुत जरूरत है। एक ओर धर्म दूसरी ओर धन दोनों का घमासान युद्ध उसके मस्तिष्क में होने लगा।

🔷 ब्राह्मण जरा सा फिसला, उसने सोचा जुआ छोटा पाप है, इसको थोड़ा सा कर लें तो तनिक सा पाप होगा। मेरे पास मार्ग व्यय से बचा हुआ एक रुपया है, क्यों न इस रुपये से जुआ खेल लूँ और भीतर प्रवेश पाने का अधिकारी हो जाऊँ।

🔶 विचारों को विश्वास रूप में बदलते देर न लगी। ब्राह्मण जुआ खेलने लगा। एक रुपये के दो हुए, दो के चार, चार के आठ, जीत पर जीत होने लगी। ब्राह्मण राजा के पास जाना भूल गया और दत्त चित्त होकर जुआ खेलने लगा। जीत पर जीत होने लगी। शाम तक हजारों रुपयों का ढेर जमा हो गया। जुआ बन्द हुआ। ब्राह्मण ने रुपयों की गठरी बाँध ली।

🔷 दिन भर से खाया कुछ न था। भूख जोर से लग रही थी। पास में कोई भोजन की दुकान न थी। ब्राह्मण ने सोचा रात का समय है कौन देखता है चलकर दूसरे दरवाजे पर माँस भोजन मिलता है वही क्यों न खा लिया जाए। स्वादिष्ट भोजन मिलता है और पैसा भी खर्च नहीं होता, दुहरा लाभ है। जरा सा पाप करने में कुछ हर्ज नहीं। ब्राह्मण के पैर तेजी से उधर बढ़ने लगे। भोजन तैयार था, माँस मिश्रित स्वादिष्ट भोजन को खाकर देवता जी संतुष्ट हो गये।

🔶 अस्वाभाविक भोजन को पचाने के लिये अस्वाभाविक पाचक पदार्थों की जरूरत पड़ती है। गरिष्ठ, तामसी, विकृत भोजन करने वाले अकसर पान, बीड़ी, चूरन, चटनी की शरण लिया करते हैं। देवता जी के पेट में जाकर माँस अपना करतब दिखाने लगा। अब उन्हें मद्यपान की आवश्यकता प्रतीत हुई। आगे के दरवाजे की ओर चले और मद्य की कई प्यालियाँ चढ़ाई।

🔷 धन का, माँस का, मद्य का, तिहरा नशा उन पर चढ़ रहा था। काँचन के बाद कुच का, सुरा के बाद सुन्दरी का, ध्यान आना स्वाभाविक है। देवता जी पहले दरवाजे पर पहुँचे और वेश्या के यहाँ जा विराजे। वेश्या ने उन्हें संतुष्ट किया और पुरस्कार स्वरूप जुए में जीता हुआ सारा धन ले लिया।

🔶 एक पूरा दिन चारों द्वारों पर व्यतीत करके दूसरे दिन प्रातःकाल ब्राह्मण महोदय उठे। वेश्या ने उन्हें घृणा के साथ देखा और शीघ्र घर से निकाल देने के लिए अपने नौकरों को आदेश दिया। उन्हें घसीटकर घर से बाहर कर दिया गया। राजा को सारी सूचना पहुँच चुकी थी। आज वे फिर चारों दरवाजों पर गये और शर्तें पूरी करने के लिए कहने लगे पर किसी ने उन्हें भीतर न घुसने दिया। सब जगह से उन्हें दुत्कार दिया गया। ब्राह्मण दोनों ओर से भ्रष्ट होकर सिर धुन धुन कर पछताने लगे।

🔷 हम लोग उपरोक्त ब्राह्मण के पतन की निन्दा करेंगे क्योंकि वह “जरा सा” पाप करने में विशेष हानि न समझने की भूल कर बैठा था। हमें विचार करना चाहिए कि कही ऐसी ही गलतियाँ हम भी तो नहीं कर रहे है। किसी पाप को छोटा समझकर उसमें एक बार फँस जाने से फिर छुटकारा पाना कठिन होता है। एक कदम नीचे की ओर गिरने से फिर पतन का प्रवाह तीव्र होता जाता है और अन्त में बड़े से बड़े पापों के करने में भी हिचक नहीं होती। इसलिए आरम्भ से ही सावधानी रखनी चाहिए। छोटे पापों से भी वैसे ही बचना चाहिए जैसे अग्नि की छोटी चिंगारी से सावधान रहते है।

🔶 "सम्राटों के सम्राट परमात्मा के दरबार में पहुँचकर अनन्त रूपी धन की याचना करने के लिए जीव रूपी ब्राह्मण जाता है। प्रवेश द्वार काम, क्रोध लोभ, मोह के चार पहरेदार बैठे हुए हैं। वे जीव को तरह-तरह से बहकाते हैं और अपनी ओर आकर्षित करते हैं। यदि जीव उनमें फँस गया तो पूर्व पुण्यों रूपी गाँठ की कमाई भी उसी तरह दे बैठता है जैसे कि ब्राह्मण अपने घर का एक रुपया भी दे बैठा था। जीवन इन्हीं पाप जंजालों में व्यतीत हो जाता है और अन्त में वेश्या रूपी ममता के द्वार से दुत्कारा जाकर रोता पीटता इस संसार से विदा होता है।*

🔷 देखना कही आप भी उस ब्राह्मण की नकल तो नहीं कर रहे हैं।

🌹 अखण्ड ज्योति Feb 1944

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 17 Nov 2017

👉 आज का सद्चिंतन 17 Nov 2017


👉 आत्मोन्नति के चार आधार (अन्तिम भाग)

🔶 चौथा कार्य सेवा का है। मनुष्य समाज का ऋणी है, क्योंकि वह सामाजिक प्राणी है। भगवान् ने उसको इसीलिए जन्म दिया है कि वह उसके इस विश्व-उद्यान की सेवा करे। उसकी जीवात्मा का विकास और जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए सेवा से बड़ा तप और सेवा से बड़ा पुण्य कुछ भी नहीं हो सकता। हमको सेवा करने के लिए समय निकालते रहना चाहिए। सारे का सारा समय अपने लिए ही न खर्च की दें, वरन् देश, धर्म, समाज और संस्कृति की सेवा करने के लिए भी कुछ लगाएँ। हमारा धर्म होना चाहिए कि हम अपनी शक्तियों का एक अंश दुखियारों के लिए और पीड़ितों के लिए, पतितों के लिए लगाएँ। हमारे लिए सबसे बड़ी सेवा का कार्य क्या हो सकता है? ज्ञानयज्ञ से बड़ा काई और दूसरा पुण्य नहीं हो सकता। इसको ब्रह्मदान भी कहा गया है।
           
🔷 यह सर्वोत्तम धर्म है, क्योंकि ज्ञानयज्ञ से हम मनुष्यों को दिशा दे सकते हैं, जिससे वे बुराइयों से बच सकें और उन्नति के मार्ग पर ऊँचे उठ सकें। ज्ञान, विचारणा, भावना—यही तो है शक्ति का अंश ।। इसलिए ब्राह्मण और साधु हमेशा से ज्ञानयज्ञ को ही सर्वोत्तम सेवा मान करके उसमें संलग्न रहे हैं और यह प्रयत्न करते रहे हैं कि हम स्वयं अच्छे बनें और अपनी अच्छाई दूसरों पर बिखेरें। इसके लिए हमको अंशदान करना चाहिए। सेवा के लिए हमको एक घण्टा समय और दस पैसे नित्य का जो न्यूनतम कार्यक्रम दिया गया था ज्ञानयज्ञ-विचारक्रान्ति के लिए, उस पर हमको मुस्तैदी से अमल करता चाहिए। कोई भी आदमी हममें से ऐसा न हो जो कि सेवा के लिए एक घण्टा समय और दस पैसे जैसी न्यूनतम शर्त को पूरा न करता हो। इससे ज्यादा ही हम करें, ज्यादा ही उत्साह दिखाएँ।
 
🔶 हम केवल भौतिक जीवन ही न जिएँ। आध्यात्मिक जीवन भी जिएँ। हमारी क्षमताओं का उपयोग, हमारे समय का उपयोग पेट पालने तक ही सीमित न रहे, बल्कि लोकमंगल और लोकहित के लिए भी खर्च हो। इस तरीके से हम चार आधार जीवन में अपनाए रहकर के आत्मिक उन्नति के मार्ग पर चल सकते हैं। अपना परिष्कार और परिवर्तन कर सकते हैं। यदि हमने अपना परिष्कार और परिवर्तन किया तो समाज का परिवर्तन और समाज का परिष्कार स्वाभाविक और सरल हो जायेगा। युग का परिवर्तन व्यक्ति परिवर्तन और समाज के परिवर्तन के साथ जुड़ा हुआ है। अपनी छोटी-सी प्रयोगशाला में हम इसी का प्रयोग करते हैं और अपनी प्रयोगशाला में सम्मिलित रहने वाले, अपने परिवार में शामिल रहने वाले हर व्यक्ति से प्रार्थना करते हैं कि आपको आत्मिक उन्नति के लिए अभी बताए गए इन चार आधारों को मजबूती के साथ ग्रहण करता चाहिए और अपने दैनिक जीवन में समन्वित रखना चाहिए। साधना, स्वाध्याय, संयम, और सेवा दैनिक जीवन में न्यूनतम मात्रा में भले ही हों, पर सम्मिलित अवश्य और अनिवार्य रूप से रहने चाहिए।

🌹 आज की बात समाप्त।
🌹 ॐ शान्ति।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृतवाणी)

👉 आत्मचिंतन के क्षण 17 Nov 2017

🔶 सद्विचार तब तक मधुर कल्पना भर बने रहते हैं, जब तक उन्हें कार्य रूप में परिणित नहीं किया जाता। विचारों और कार्यों का समन्वय ही संस्कार बनता है। सामर्थ्य संस्कारों में ही होती है। उन्हीं के सहारे व्यक्तित्व बनता है और वे ही भविष्य निर्धारण की प्रमुख भूमिका निभाते हैं। संस्कार अर्थात् चिन्तन और चरित्र का अभ्यस्त ढर्रा। जहाँ तक सुसंस्कारिता की उपलब्धि का सम्बन्ध है, वह सत्प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में निःस्वार्थ भाव से निरत हुए बिना और किसी प्रकार सम्भव ही नहीं हो सकती।

🔷 प्रगति का अर्थ है- ऊर्ध्वगमन, उत्कर्ष, अभ्युदय। यह विभूतियाँ अन्तः क्षेत्र की हैं। दृष्टिकोण और लक्ष्य ऊँचा रहने पर इच्छा और आकांक्षा का स्तर ऊँचा उठता है। आत्म गौरव का ध्यान रहता है। अपना मूल्य गिरने न पाये यह सतर्कता जिसमें जितनी पाई जाती है, वह उतना ही प्रगतिशील है।

🔶 आप जीवन के प्रति अपनी धारणा बदल डालिए। विश्वास तथा ज्ञान में ही अपना जीवन भवन निर्माण कीजिए। यदि वर्तमान आपत्तिग्रस्त है, तो उसका यह अर्थ नहीं है कि भविष्य भी अन्धकारमय है। आपका भविष्य उज्ज्वल है। विचारपूर्वक देखिए कि जो कुछ आपके पास है, उसका सबसे अच्छा उपयोग कर रहे हैं अथवा नहीं? क्योंकि यदि प्रस्तुत साधनों का दुरुपयोग करते हैं, तो चाहे वह कितनी ही तुच्छ और सारहीन क्यों न हो, आप उसके भी अधिकारी न रहेंगे। वह भी आपसे दूर भाग जायेंगे या छीन लिए जावेंगे।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 Serve Man as God

🔶 The only way of getting our divine nature manifested is by helping others to do the same. If there is inequality in nature, still there must be equal chance for all – or if greater for some and for some less  - the weaker should be given more chance than the strong. In other words, a Brahmana is not so much in need of education as a Chandala. If the son of a Brahmana needs one teacher, that of a Chandala needs ten. For greater help must be given to him whom nature has not endowed with an acute intellect from birth. It is a madman who carries coals to Newcastle. The poor, the downtrodden, the ignorant - let these be your god.

🔷 This is the gist of all worship - to be pure and to do good to others. He who sees Siva in the poor, in the weak, and in the diseased, really worships Siva; and if he sees Siva only in the image, his worship is but preliminary.

🔶 The life of Buddha shows that even a man who has no metaphysics, belongs to no sect, and does not go to any church, or temple, and is a confessed materialist, even he can attain to the highest. …. He was the only man who was ever ready to give up his life for animals, to stop a sacrifice. He once said to a king: ‘If the sacrifice of a lamb helps you to go to heaven, sacrificing a man will help you better; so sacrifice me.’ The king was astonished.

🔷 ‘The good live for others alone. The wise man should sacrifice himself for others.’ I can secure my own good only by doing your good. There is no other way, none whatsoever.

🔶 Go from village to village; do good to humanity and to the world at large. Go to hell yourself to buy salvation for others… ‘When death is so certain, it is better to die for a good cause.’

🔷 Throughout the history of the world, you find great men make great sacrifices and the mass of mankind enjoy the benefit. If you want to give up everything for your own salvation, it is nothing. Do you want to forgo even your own salvation for the good of the world? You are God, think of that.

✍🏻 Swami Vivekananda

👉 आत्मोन्नति के चार आधार (भाग 7)

🔶 तीसरी बात जो आत्मिक उन्नति के लिए आवश्यक है, उसका नाम है संयम। संयम का अर्थ है— रोकथाम। अगर हम रोकथाम करें तो जो हमारी शक्तियों का घोर अपव्यय होता रहता है, उसको बचा सकते हैं। हम अपनी अधिकांश शारीरिक और मानसिक शक्तियों को अपव्यय में नष्ट कर देते हैं, कुमार्ग पर नष्ट कर देते हैं। यदि उनको रोका जा सका होता और उपयोगी मार्ग पर लगाया गया होता तो निश्चित रूप से उन शक्तियों के चमत्कार हमको देखने को मिल सकते थे, जो हमारे पास थीं। पर हम बर्बादी से कुछ बचा नहीं सके। चार तरह के संयम-निग्रह रूप में बताये गये हैं— इन्द्रिय-निग्रह, मनोनिग्रह, संयम-निग्रह, अर्थ-निग्रह। इन्द्रिय-निग्रह में जिव्हा और कामेन्द्रिय का संयम प्रमुख है। ये इन्द्रियाँ हमारी कितनी सारी शक्तियों को नष्ट करती हैं और स्वास्थ्य को किस बुरी तरीके से खोखला करती हैं, यह सभी जानते हैं।
           
🔷 इन्द्रिय-निग्रह का महत्त्व बताने की जरूरत नहीं है। शारीरिक दृष्टि से जिनको समर्थ बनना हो, नीरोग और दीर्घजीवी बनना हो, उनको इन्द्रिय-निग्रह का महत्त्व समझना और अपने आपको संयम का अभ्यासी बनाना चाहिए। दूसरा संयम मनोनिग्रह है। मन में कितने सारे विचार उठते हैं, लेकिन वे असंगत, असंयमित, बुराइयों एवं मनोविकारों से भरे होते हैं। इनसे हमारा मस्तिष्क विकृत होता है और बुरी तरह की आदतें पड़ती हैं। मनःशक्तियाँ निग्रहीत करके किसी कार्य में लगाई गई होतीं तो हम वैज्ञानिक बन गए होते, साहित्यकार बन गए होते। जिस भी कार्य में हमने मन लगाया होता, सफलता की उच्च श्रेणी तक जा पहुँचे होते, पर अस्त-व्यस्त मन होने के कारण से कोई सफलता सम्भव न हो सकी। मनोनिग्रह करके एकाग्रता की शक्ति और एक दिशा में चलने की सामर्थ्य प्राप्त कर सकें, तो उससे हमारी सफलताओं का द्वार खुल सकता है।
 
🔶 तीसरा है— समय का निग्रह। हम समय को आलस्य और प्रमाद में पड़े-पड़े बर्बाद करते रहते हैं। कोई योजनाबद्ध कार्य नहीं करते, जब जो आया मनमर्जी से काम कर लिया, मन नहीं हुआ तो नहीं किया। इस तरीके से अस्त-व्यस्तता में हमारा जीवन नष्ट हो जाता है, जबकि समय का थोड़ा-थोड़ा भी उपयोग करते तो न जाने कितना लाभ उठा सकते थे। चौथा निग्रह-अर्थ-निग्रह भी ऐसा ही महत्त्वपूर्ण है। पैसे को विलासिता से लेकर न जाने किस-किस काम में, व्यसनों में, अनाचारों में हम खर्च करते हैं। अगर उसको फिजूलखर्ची से हम बचा सके होते और उस धन को हमने किसी उपयोगी काम में लगाया होता तो भौतिक और आत्मिक उन्नति की दिशा में हम कहीं आगे बढ़ गए होते। अर्थ-निग्रह, इन्द्रिय-निग्रह, मनोनिग्रह, समय-निग्रह— इन चारों निग्रहों को हम करें तो संयमशील हो सकते हैं। हमको संयम बरतना चाहिए, अस्वाद व्रत का, ब्रह्मचर्य का अभ्यास करना चाहिए। ऐसे-ऐसे असंख्य संयम हैं, जिनको अपनाने से हम तपस्वी बनते हैं और अपनी शक्ति का बहुत बड़ा भाग बचा करके अच्छे काम में लगाते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृतवाणी)

👉 आचरण की टोकरी:-

(सत्संग सॆ मन की मैल की धुलाई)
  
🔶 एक युवक प्रतिदिन संत का सत्संग सुनता था। एक दिन जब सत्संग समाप्त हो गए, तो वह संत के पास गया और बोला:-

🔷 ‘महाराज! मैं काफी दिनों से आपके सत्संग सुन रहा हूं, किंतु यहां से जाने के बाद मैं अपने गृहस्थ जीवन में वैसा सदाचरण नहीं कर पाता, जैसा यहां से सुनकर जाता हूं। इससे सत्संग के महत्व पर शंका भी होने लगती है। बताइए, मैं क्या करूं?’

🔶 संत ने युवक को बांस की एक टोकरी देते हुए उसमें पानी भरकर लाने के लिए कहा। युवक टोकरी में जल भरने में असफल रहा।

🔷 संत ने यह कार्य निरंतर जारी रखने के लिए कहा। युवक प्रतििदन टोकरी में जल भरने का प्रयास करता, किंतु सफल नहीं हो पाता। कुछ दिनों बाद संत ने उससेे पूछा, ‘इतने दिनों से टोकरी में लगातार जल डालने से क्या टोकरी में कोई फर्क नजर आया ?’

🔶 युवक बोला. ‘एक फर्क जरूर नजर आया है। पहले टोकरी के साथ मिट्टी जमा होती थी, अब वह साफ दिखाई देती है। कोई गंदगी नहीं दिखाई देती और इसके छेद पहले जितने बड़े नहीं रह गए, वे बहुत छोटे हो गए हैं।’

🔶 तब संत ने उसे समझाया, ‘यदि इसी तरह उसे पानी में निरंतर डालते रहोगे, तो कुछ ही दिनों में ये छेद फूलकर बंद हो जाएंगे और टोकरी में पानी भर पाओगे।

🔷 इसी प्रकार जो लगातर सत्संग जाते हैं, उनका मन एक दिन अवश्य निर्मल हो जाता है, अवगुणों के छिद्र भरने लगते हैं और गुणों का जल भरने लगता है।’ युवक ने संत से अपनी समस्या का समाधान पा लिया।

🔶 निरंतर सत्संग से दुर्जन भी सज्जन हो जाते हैं। क्योंकि महापुरुषों की पवित्र वाणी उनके मानसिक विकारों को दूर कर उनमें सदविचारों का आलोक प्रसारित कर देती है।

👉 आज का सद्चिंतन 16 Nov 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 16 Nov 2017


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