रविवार, 17 सितंबर 2017

👉 हमारा युग निर्माण सत्संकल्प (भाग 68)

🌹  मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनाएँगे, तो युग अवश्य बदलेगा

🔴 लेखों और भाषणों का युग अब बीत गया। गाल बजाकर, लंबी-चौड़ी डींग हाँककर या बड़े-बड़े कागज काले करके संसार के सुधार की आशा करना व्यर्थ है। इन साधनों से थोड़ी मदद मिल सकती है, पर उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। युग निर्माण जैसे महान् कार्य के लिए तो यह साधन सर्वथा अपर्याप्त और अपूर्ण हैं। इसका प्रधान साधन यही हो सकता है कि हम अपना मानसिक स्तर ऊँचा उठाएँ, चारित्रिक दृष्टि से अपेक्षाकृत उत्कृष्ट बनें। अपने आचरण से ही दूसरों को प्रभावशाली शिक्षा दी जा सकती है। गणित, भूगोल, इतिहास आदि की शिक्षा में कहने-सुनने की प्रक्रिया से काम चल सकता है, पर व्यक्ति निर्माण के लिए तो निखरे हुए व्यक्तित्वों की ही आवश्यकता पड़ेगी। उस आवश्यकता की पूर्ति के लिए सबसे पहले हमें स्वयं ही आगे आना पड़ेगा। हमारी उत्कृष्टता के साथ-साथ संसार की श्रेष्ठता अपने आप बढ़ने लगेगी। हम बदलेंगे, तो युग भी जरूर बदलेगा और हमारा युग निर्माण संकल्प भी अवश्य पूर्ण होगा।
  
🔵 आज वे ऋषि-मुनि नहीं रहे, जो अपने आदर्श चरित्र द्वारा लोक शिक्षण करके, जन साधारण के स्तर को ऊँचा उठाते थे। आज वे ब्राह्मण भी नहीं रहे, जो अपने अगाध ज्ञान, वंदनीय त्याग और प्रबल-पुरुषार्थ से जन-मानस की पतनोन्मुख पशु-प्रवृत्तियों को मोड़कर देवत्व की दिशा में पलट डालने का उत्तरदायित्व अपने कंधों पर उठाते थे। वृक्षों के अभाव में एरंड का पेड़ ही वृक्ष कहलाता है। इस विचारधारा से जुड़े विशाल देव परिवार के परिजन अपने छोटे-छोटे व्यक्तित्वों को ही आदर्शवाद की दिशा में अग्रसर करें, तो भी कुछ न कुछ प्रयोजन सिद्ध होगा, कम से कम एक अवरुद्ध द्वार तो खुलेगा ही। यदि हम मार्ग बनाने में अपनी छोटी-छोटी हस्तियों को लगा दें, तो कल आने वाले युग प्रवर्तकों की मंजिल आसान हो जाएगी। युग निर्माण सत्संकल्प का शंखनाद करते हुए छोटे-शक्तियों के जागरण की चेतना को यदि चारित्रिक संधान के लिए जम जाग्रत कर सकें, तो आज न सही तो कल, हमारा युग निर्माण संकल्प पूर्ण होकर रहेगा।
 
🔴 युग परिवर्तन की सुनिश्चितता पर विश्वास करना हवाई महल नहीं बल्कि तथ्यों पर आधारित एक सत्य है। परिस्थितियाँ कितनी ही विकट हों, जब सदाशयता सम्पन्न संकल्पशील व्यक्ति एक जुट होकर कार्य करते हैं तो स्थिति बदले बिना नहीं रहती। असुरता के आतंक से मुक्ति का पौराणिक आख्यान हो या जिनके शासन में सूर्य नहीं डूबता था, उनके चंगुल से मुक्त होने का स्वतंत्रता अभियान, नगण्य शक्ति से ही सही, पर संकल्पशील व्यक्तियों का समुदाय उसके लिए युग-शक्ति के अवतरण का माध्यम बन ही जाता है। युग निर्माण अभियान से परिचित व्यक्ति यह भली प्रकार समझने लगे हैं कि यह ईश्वर प्रेरित प्रक्रिया है। इस संकल्प को अपनाने वाला ईश्वरीय संकल्प का भागीदार कहला सकता है। अस्तु, उसकी सफलता पर पूरी आस्था रखकर उसको जीवन में चरितार्थ करने-कराने के लिए पूरी शक्ति झोंक देना, सबसे बड़ी समझदारी सिद्ध होगी।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v1.96

👉 Third boon of Nachiketa

🔴 Yamraj got please by the sincerity of Nachiketa and gave him three boons. He asked to pacify his father’s anger, instead of asking to overcome the fear of death. He asked about the process of getting to heaven as the second boon. The third thing he asked was the real form of soul and the knowledge how to attain that. Since he had promised to give three boons, so he tried to elude him from this third boon on considering him unworthy for such knowledge and told him to ask anything else. But he had to know only the science of soul and the knowledge of state of soul after death. Having the freedom of choice, in spite of having options to get other happiness, liberation, rebirth etc. he preferred self-

🔵 knowledge and knowledge of the supreme. He mastered the Panchagni Sadhna and guided mankind successfully. Very few people are so lucky.

🌹 From Pragya Puran

👉 आत्मचिंतन के क्षण 17 Sep 2017

🔵 भूतकाल की अपूर्णताओं पर कुढ़ते रहने की अपेक्षा वर्तमान को पूर्ण कर भविष्य का निर्माण किया जा सकता है। भूतकाल की घटना तो मुर्दा हो गयी, उसकी कब्र खोदकर हड्डियाँ निकालने से क्या लाभ ? चेतन तत्व का आविष्कार करो जिससे तुम्हारा और संसार का निर्माण हो।

🔴 लौकिक जीवन में अपनी प्रतिभा का परिचय दिये बिना ही लोग पारलौकिक जीवन की कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण होना चाहते है। यह तो स्कूल का बहिष्कार करके सीधे एम. ए. की उत्तीर्ण का आग्रह करने जैसी बात हुई। इस प्रकार व्यतिक्रम से ही आज लाखों साधु संन्यासी समाज के लिए भार बने हुए है। वे लक्ष्य की प्राप्ति क्या करेंगे, शान्ति और संतोष तक से वंचित रहते है। इधर की असफलता उन्हें उधर भी असफल ही रखती है के आधार पर बड़े बनने की कोशिश कर रहे हैं। काश, उन्हें कोई यह समझा देता कि यह बाल-क्रीड़ाऐं व्यर्थ हैं।

🔵 जो भी काम करो उसे आदर्श, स्वच्छ, उत्कृष्ट, पूरा, खरा, तथा शानदार करो। अपनी ईमानदारी और दिलचस्पी को पूरी तरह उसमें जोड़ दो, इस प्रकार किये हुए उत्कृष्ट कार्य ही तुम्हारे गौरव का सच्चा प्रतिष्ठान कर सकने में समर्थ होंगे। अधूरे, अस्त-व्यस्त फूहड़, निकम्मे, गन्दे, नकली, मिलावटी, झूठे और कच्चे काम, किसी भी मनुष्य का सबसे बड़ा तिरस्कार हो सकते है, यह बात वही जानेगा जिसे जीवन विद्या के तथ्यों का पता होगा।

🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आज का सद्चिंतन 17 Sep 2017


👉 वैराग्य भावना से मनोविकारों का शमन (भाग 4)

🔴 क्रोध के प्रतिरोध में उत्पन्न वैराग्य भावनाओं से ईर्ष्या, दुश्चिन्ता और संघर्षपूर्ण विचार समाप्त होते हैं और प्रेम, दया तथा मैत्री भाव जागृत होते हैं। इन भावनाओं से क्रोध की उत्तेजना समाप्त हो जाती है।

🔵 धन की तृष्णा भी मनुष्य के जीवन में वैसी ही जड़ता उत्पन्न करती है, जैसी काम और क्रोध। पराया माल छीनने, हड़पने और चोरी कर लेने तथा दूसरों की कमाई का उचित पारिश्रमिक न देने की बात किसी भी प्रकार मानवीय नहीं कही जा सकती। इससे मनुष्य का घोर आन्तरिक पतन होता है। आप विचार कीजिये कि आप जब श्रम-पूर्वक धन कमाते हैं और उसका कुछ हिस्सा कहीं गिर जाता है या कोई उसे उठा ले जाता है, तो आपको कितना दुःख होता है। फिर इस धन से मनुष्य का जीवन लक्ष्य भी तो पूरा नहीं होता। क्या यह पाप की कमाई अपने बाल-बच्चों के लिये छोड़कर उन्हें भी आलसी और अकर्मण्य बनाना चाहते हैं?

🔴 जो धन आपकी लाश के साथ आपके साथ जाने वाला नहीं है, उसको आप अनाधिकार पूर्वक क्यों प्राप्त करना चाहते हैं? आप उससे बँधे क्यों जा रहे हैं? इस धन के लोभ में पड़कर आप अपनी आत्मा, अपने जीवन लक्ष्य की बात ही भूल जायेंगे, फिर ऐसे धन से लोभ कैसा? प्रीति कैसी? छोड़िये इसे। जो कुछ परिश्रम से कमाया है उतने में ही बड़ा आनन्द है। धन का बखेड़ा बढ़ाने की अपेक्षा निर्धन होना, आत्म-धन प्राप्त करना कहीं अधिक श्रेष्ठ व श्रेयस्कर है। हम कभी इस परम आदर्श से विचलित नहीं होंगे। इस प्रकार आप अधर्म की कमाई और अनावश्यक लोभ वृत्ति से निकल सकेंगे।

🔵 मनुष्य की सबसे अधिक दीन-हीन अवस्था उस समय दिखाई देती है, जब यह छोटी-छोटी बातों के लिये अनुचित आसक्ति या मोह भाव प्रदर्शित करता हैं। छोटी-सी चीज के टूट-फूट जाने से आप कितने परेशान हो उठते हैं। टूटे-फूटे बर्तन कपड़ों और अनेकों अनावश्यक वस्तुओं से आपका इतना अधिक लगाव आखिर क्यों हैं? संसार की सभी सम्पत्तियों में शरीर का महत्व ही सर्वाधिक है। इसी से उपभोग करते हैं। और स्वामित्व प्रकट करते हैं? इसका भी तो एक दिन विनाश हो जाता है। जिसके उपभोग और स्वामित्व के लिये आप यह मोह कर रहे हैं, जब उसी को नहीं रहना, तो क्या करेंगे आप इन नाचीज वस्तुओं का संग्रह करके। इनके टूट-फूट जाने, सड़ने गलने से आप इतना दुःखी क्यों हो जाते हैं? दुःख करना ही है तो सोचिये आपने अभी तक मानव सुलभ साधनों का आत्मविकास में कितना उपयोग किया?

🌹 क्रमशः जारी

🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति- फरवरी 1965 पृष्ठ 3
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1965/February/v1.3

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 17 Sep 2017


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