🔷 कौशल, पराक्रम, श्रम समय और वैभव यह सभी विभूतियाँ ईश्वर प्रदत्त हैं। इसी को समाज प्रदत्त भी कहा जा सकता है। अन्यथा एकाकी स्थिति में तो वन-मनुष्य जैसी आदिम स्थिति में भी रहा जा सकता है। जिसने दिया है उसे कृतज्ञता पूर्वक लौटा देने में ही भलमनसाहत है। इसे अपनाने में जो दुराचरण के प्रवाह प्रचलन को चीरकर अपनी शालीनता का परिचय दे पाता है वह सराहा जाता है। यह औचित्य का निर्वाह भर है। तो भी चोरों की नगरी में एक ईमानदार को भी देवता माना जाता है। आलसियों के गाँव में एक पुरुषार्थी भी मुक्त कंठ से सराहा जाता है। औसत नागरिक जैसा निर्वाह ऐसा ही औचित्य है, जिसे अपनाने के लिए नीतिमत्ता, विवेकशीलता और सद्भावना का प्रत्येक प्रतिपादन विवश करता है।
🔶 यहाँ चर्चा धन वैभव की ही नहीं हो रही है। उसमें कौशल और पराक्रम को भी सम्मिलित रखा जाता है। विद्या, बुद्धि, कला, कौशल, प्रतिभा, बलिष्ठता आदि की दृष्टि से कितनों को ही विशिष्टता प्राप्त है। समय प्रत्यक्ष धन है। पसीने के बदले ही सम्पदा कमाई जाती है या कमाई जानी चाहिए। लॉटरी से लेकर जुए, सट्टे का, जमीन में गड़ा, उत्तराधिकार से मिला या उजड्डपन से बटोरा वैभव औचित्य की मर्यादाओं से हटकर होने के कारण अग्राह्य एवं अवांछनीय है। वस्तुतः धन मनुष्य के श्रम, समय और कौशल का ही प्रतिफल होना चाहिए। इसलिए विभिन्न स्तर की विशेषताएँ विभूतियाँ भी वैभव में ही सम्मिलित होती हैं और वह अनुशासन उन पर भी लागू होता है। उसके अनुसार न्यूनतम अपने लिए और अधिकतम सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के निमित्त लगना चाहिए। मानवी गरिमा इससे कम में सधती ही नहीं। मनुष्य की मान मर्यादा इससे कम में बनती ही नहीं। इससे कम निर्धारण में वह सुयोग बनता ही नहीं।
🔷 जिस प्रकार सम्पन्नता उपार्जन के लिए अपना सब कुछ न सही बहुत कुछ नियोजित करना पड़ता है, ठीक उसी प्रकार महानता अर्जित करने के लिए भी श्रम, समय एवं मनोयोग का बहुत बड़ा भाग नियोजित करना पड़ता है। यदि उन विभूतियों पर पहले से ही लोभ लिप्सा ने आधिपत्य जमा रखा हो तो फिर महानता अर्जित करने के लिए, खरीदने के लिए जिन साधनों की आवश्यकता पड़ती है वे पास में होंगे ही नहीं। तब फिर मनोरथ कैसे पूरे हो सकेंगे। मात्र कामना कल्पना करने से, पूजा पाठ करने भर से कोई भी श्रेष्ठता का वरण नहीं कर सका है। ईश्वर भक्त भी महामानवों की पंक्ति में बैठ सकने में समर्थ नहीं हुए हैं। उत्कृष्टता तो मूल्य देकर खरीदी जा सकती है। इस खरीद के दिए जो चाहिए उसे सम्पन्नता की ललक पर अंकुश लगाकर ही बढ़ाया जा सकता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)
🔶 यहाँ चर्चा धन वैभव की ही नहीं हो रही है। उसमें कौशल और पराक्रम को भी सम्मिलित रखा जाता है। विद्या, बुद्धि, कला, कौशल, प्रतिभा, बलिष्ठता आदि की दृष्टि से कितनों को ही विशिष्टता प्राप्त है। समय प्रत्यक्ष धन है। पसीने के बदले ही सम्पदा कमाई जाती है या कमाई जानी चाहिए। लॉटरी से लेकर जुए, सट्टे का, जमीन में गड़ा, उत्तराधिकार से मिला या उजड्डपन से बटोरा वैभव औचित्य की मर्यादाओं से हटकर होने के कारण अग्राह्य एवं अवांछनीय है। वस्तुतः धन मनुष्य के श्रम, समय और कौशल का ही प्रतिफल होना चाहिए। इसलिए विभिन्न स्तर की विशेषताएँ विभूतियाँ भी वैभव में ही सम्मिलित होती हैं और वह अनुशासन उन पर भी लागू होता है। उसके अनुसार न्यूनतम अपने लिए और अधिकतम सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के निमित्त लगना चाहिए। मानवी गरिमा इससे कम में सधती ही नहीं। मनुष्य की मान मर्यादा इससे कम में बनती ही नहीं। इससे कम निर्धारण में वह सुयोग बनता ही नहीं।
🔷 जिस प्रकार सम्पन्नता उपार्जन के लिए अपना सब कुछ न सही बहुत कुछ नियोजित करना पड़ता है, ठीक उसी प्रकार महानता अर्जित करने के लिए भी श्रम, समय एवं मनोयोग का बहुत बड़ा भाग नियोजित करना पड़ता है। यदि उन विभूतियों पर पहले से ही लोभ लिप्सा ने आधिपत्य जमा रखा हो तो फिर महानता अर्जित करने के लिए, खरीदने के लिए जिन साधनों की आवश्यकता पड़ती है वे पास में होंगे ही नहीं। तब फिर मनोरथ कैसे पूरे हो सकेंगे। मात्र कामना कल्पना करने से, पूजा पाठ करने भर से कोई भी श्रेष्ठता का वरण नहीं कर सका है। ईश्वर भक्त भी महामानवों की पंक्ति में बैठ सकने में समर्थ नहीं हुए हैं। उत्कृष्टता तो मूल्य देकर खरीदी जा सकती है। इस खरीद के दिए जो चाहिए उसे सम्पन्नता की ललक पर अंकुश लगाकर ही बढ़ाया जा सकता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)