दिव्या विदा होकर चली गई, सुषमा को अभी भी विश्वास नही हो रहा था। दिन भर मानो घर मे रौनक ही दिव्या से ही थी।
कभी लड़ना, कभी बाहें गले मे डाल कर लटक जाना, कभी बाजार साथ, उनकी बेस्ट फ्रेंड थी दिव्या----
पूरा घर सांय सांय कर रहा था। यूं तो घर मे बेटा मोहित, बहू शिल्पा, नन्हा पोता सब थे, पर दिव्या-----
फिर से उनकी आंखें भरने लगी थीं। करवट बदल कर लेटी ही थीं, की एक तेज आवाज सुनाई दी, ओफ्फो मम्मी! कितनी देर सोती रहेंगी? मुझे कॉलेज निकलने में देर हो रही है।
इतनी तेज आवाज!!! शिल्पा तो नही हो सकती। दिव्या!!! वो हड़बड़ा कर उठीं---
संभल कर!, अरे ये क्या उनके सामने शिल्पा थी।
अचानक उनके मुँह से निकला, "कैसे बोल रही हो शिल्पा? क्या बिल्कुल ही भूल गई कि किससे बात कर रही हो? थोड़ा तमीज----"
पर शिल्पा ने बीच मे ही बात काट कर कहा,
"किससे कर रही हूँ पता है---, मम्मी से---"
क्या एक कप चाय भी मुझे निकलने से पहले खुद ही बनानी होगी?
शिल्पा की आवाज में पहले वाली तेजी बरकरार थी।
अब तक सुषमा बिस्तर छोड़ चुकीं थीं, गुस्से में कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था, कि शिल्पा के चेहरे पर नज़र पड़ी,
होंठों पर मंद स्मित और आंखों में नमी---
सुषमा को अब सब समझ आ चुका था। आगे बढ़कर उन्होंने शिल्पा को गले लगा लिया---
मेरी बेटी---
अब दोनो मां बेटी की आंखें भीग चुकी थीं।
लाती हूँ चाय, पर शाम को सब्जी तू ही बनाएगी कहे देती हूँ।
कह कर सुषमा हल्के मन से किचन की तरफ बढ़ गई।