शनिवार, 14 जनवरी 2017
👉 जीवन देवता की साधना-आराधना (भाग 8) 15 Jan
🌹 त्रिविध प्रयोगों का संगम-समागम
🔴 आत्मिक प्रगति का सार्वभौम उपाय एक ही है-क्रियाकृत्यों के माध्यम से आत्मशिक्षण। इसे प्रतीक पूजा भी कह सकते हैं। मनुष्य के मानस की बनावट ऐसी है कि वह किन्हीं जानकारियों से अवगत तो हो जाता है, पर उसे व्यवहार में उतारना क्रिया अभ्यास के बिना सम्भव नहीं होता। यह अभ्यास ही वे उपासना कृत्य है, जिन्हें योगाभ्यास, तपश्चर्या, जप, ध्यान, प्राणायाम, प्रतीक पूजा आदि के नाम से जाना जाता है। इनमें अङ्ग-संचालन मन का केन्द्रीकरण एवं उपचार सामग्री का प्रयोग ये तीनों ही आते हैं। अनेक धर्म सम्प्रदायों में पूजा विधान अलग-अलग प्रकार से हैं, तो भी उनका अभिप्राय और उद्देश्य एक ही है-आत्मशिक्षण भाव-संवेदनाओं का उन्नयन। यदि यह लक्ष्य जुड़ा हुआ न होता तो उसका स्वरूप मात्र चिह्न पूजा जैसा लकीर पीटने जैसा रह जाता है। निष्प्राण शरीर का मात्र आकार तो बना रहता है, पर वह कुछ कर सकने में समर्थ नहीं होता। इसी प्रकार ऐसे पूजा-कृत्य जिसमें साधक की भाव-संवेदना के उन्नयन का उद्देश्य पूरा न होता हो आत्मशिक्षण और आत्मिक प्रगति का प्रयोजन पूरा न कर सकेंगे।
🔵 इन दिनों यही चल रहा है। लोग मात्र पूजाकृत्यों के विधान भर किसी प्रकार पूरे करते हैं और साथ भाव-संवेदनाओं को जोड़ने का प्रयत्न नहीं करते, आवश्यकता तक नहीं समझते। फलत: उनमें संलग्न लोगों में से अधिकांश के जीवन में विकास के कोई लक्षण नहीं दीख पड़ते। कृत्यों से देवता को प्रसन्न करके उनसे मन चाहे वरदान माँगने की बात की कोई तुक नहीं। इसलिये उस बेतुकी प्रक्रिया का अभीष्ट परिणाम हो भी कैसे सकता है? एक ही देवता के दो भक्त परस्पर शत्रु भी हो सकते हैं। दोनों अपनी-अपनी मर्जी की याचना कर सकते हैं। ऐसी दशा में देवता असमंजस में फँस सकता है कि किसकी मनोकामना पूरी करें? किसकी न करें? फिर देवता पर भी रिश्वतखोर होने का चापलूसी पसन्द सामन्त जैसा स्तर होने का आरोप लगता है। कितने लोग हैं, जो पूजाकृत्य अपनाने के साथ इस गम्भीरता में उतरते हैं और यथार्थता को समझने का प्रयत्न करते हैं? अन्धी भेड़चाल अपनाने पर समय की बरबादी के अतिरिक्त और कुछ हस्तगत हो भी नहीं सकता।
🔴 हमें यथार्थता समझनी चाहिये और यह यथार्थवादी क्रम अपनाना चाहिये जिससे आत्मिक प्रगति के लक्ष्य तक पहुँचा और उसके साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई सर्वतोमुखी प्रगति का लाभ उठाया जा सके।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 आत्मिक प्रगति का सार्वभौम उपाय एक ही है-क्रियाकृत्यों के माध्यम से आत्मशिक्षण। इसे प्रतीक पूजा भी कह सकते हैं। मनुष्य के मानस की बनावट ऐसी है कि वह किन्हीं जानकारियों से अवगत तो हो जाता है, पर उसे व्यवहार में उतारना क्रिया अभ्यास के बिना सम्भव नहीं होता। यह अभ्यास ही वे उपासना कृत्य है, जिन्हें योगाभ्यास, तपश्चर्या, जप, ध्यान, प्राणायाम, प्रतीक पूजा आदि के नाम से जाना जाता है। इनमें अङ्ग-संचालन मन का केन्द्रीकरण एवं उपचार सामग्री का प्रयोग ये तीनों ही आते हैं। अनेक धर्म सम्प्रदायों में पूजा विधान अलग-अलग प्रकार से हैं, तो भी उनका अभिप्राय और उद्देश्य एक ही है-आत्मशिक्षण भाव-संवेदनाओं का उन्नयन। यदि यह लक्ष्य जुड़ा हुआ न होता तो उसका स्वरूप मात्र चिह्न पूजा जैसा लकीर पीटने जैसा रह जाता है। निष्प्राण शरीर का मात्र आकार तो बना रहता है, पर वह कुछ कर सकने में समर्थ नहीं होता। इसी प्रकार ऐसे पूजा-कृत्य जिसमें साधक की भाव-संवेदना के उन्नयन का उद्देश्य पूरा न होता हो आत्मशिक्षण और आत्मिक प्रगति का प्रयोजन पूरा न कर सकेंगे।
🔵 इन दिनों यही चल रहा है। लोग मात्र पूजाकृत्यों के विधान भर किसी प्रकार पूरे करते हैं और साथ भाव-संवेदनाओं को जोड़ने का प्रयत्न नहीं करते, आवश्यकता तक नहीं समझते। फलत: उनमें संलग्न लोगों में से अधिकांश के जीवन में विकास के कोई लक्षण नहीं दीख पड़ते। कृत्यों से देवता को प्रसन्न करके उनसे मन चाहे वरदान माँगने की बात की कोई तुक नहीं। इसलिये उस बेतुकी प्रक्रिया का अभीष्ट परिणाम हो भी कैसे सकता है? एक ही देवता के दो भक्त परस्पर शत्रु भी हो सकते हैं। दोनों अपनी-अपनी मर्जी की याचना कर सकते हैं। ऐसी दशा में देवता असमंजस में फँस सकता है कि किसकी मनोकामना पूरी करें? किसकी न करें? फिर देवता पर भी रिश्वतखोर होने का चापलूसी पसन्द सामन्त जैसा स्तर होने का आरोप लगता है। कितने लोग हैं, जो पूजाकृत्य अपनाने के साथ इस गम्भीरता में उतरते हैं और यथार्थता को समझने का प्रयत्न करते हैं? अन्धी भेड़चाल अपनाने पर समय की बरबादी के अतिरिक्त और कुछ हस्तगत हो भी नहीं सकता।
🔴 हमें यथार्थता समझनी चाहिये और यह यथार्थवादी क्रम अपनाना चाहिये जिससे आत्मिक प्रगति के लक्ष्य तक पहुँचा और उसके साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई सर्वतोमुखी प्रगति का लाभ उठाया जा सके।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 गायत्री विषयक शंका समाधान (भाग 24) 15 Jan
🌹 अशौच में प्रतिबंध
🔴 तिल को ताड़ बनाने की आवश्यकता नहीं है। कारण और निवारण का बुद्धिसंगत ताल-मेल विवेकपूर्वक बिठाने में ही औचित्य है। शरीर के कतिपय अंग द्रवमल विसर्जन करते रहते हैं। पसीना, मूत्र, नाक, आंख आदि के छिद्रों से निकलने वाले द्रव भी प्रायः उसी स्तर के हैं जैसा कि ऋतुस्राव। चोट लगने पर भी रक्त निकलता रहता है। फोड़े फूटने आदि से भी प्रायः वैसी ही स्थिति होती है। इन अवसरों पर स्वच्छता के आवश्यक नियमों का ध्यान रखा जाना चाहिए। बात का बतंगड़ बना देना अनावश्यक है।
🔵 प्रथा-प्रचलनों में कई आवश्यक हैं कई अनावश्यक। कइयों को कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए और कइयों की उपेक्षा की जानी चाहिए। सूतक और अशुद्धि के प्रश्न को उसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए जिससे कि प्रचलन कर्ताओं ने उसे आरम्भ किया था। उनका उद्देश्य उपासना जैसे आध्यात्मिक नित्यकर्म से किसी को विरत, वंचित करना नहीं वरन् यह था कि अशुद्धता सीमित रहे, उसे फैलने का अवसर न मिले। आज भी जहां अशौच का वातावरण है वहीं सूतक माना जाय और शरीर से किये जाने वाले कृत्यों पर ही कोई रोकथाम की जाय। मन से उपासना करने पर तो कोई स्थिति बाधक नहीं हो सकती। इसलिए नित्य की उपासना मानसिक रूप से जारी रखी जा सकती है। पूजा-उपकरणों का स्पर्श न करना हो तो न भी करे।
🔴 यदि सूतक या अशौच के दिनों में अनुष्ठान चल रहा हो तो उसे उतने दिन के लिए बीच में बन्द करके, निवृत्ति के बाद, जिस गणना से छोड़ा था, वहीं से फिर आरम्भ किया जा सकता है। बिना माला का मानसिक जप-ध्यान किसी भी स्थिति में करते रहा जा सकता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 तिल को ताड़ बनाने की आवश्यकता नहीं है। कारण और निवारण का बुद्धिसंगत ताल-मेल विवेकपूर्वक बिठाने में ही औचित्य है। शरीर के कतिपय अंग द्रवमल विसर्जन करते रहते हैं। पसीना, मूत्र, नाक, आंख आदि के छिद्रों से निकलने वाले द्रव भी प्रायः उसी स्तर के हैं जैसा कि ऋतुस्राव। चोट लगने पर भी रक्त निकलता रहता है। फोड़े फूटने आदि से भी प्रायः वैसी ही स्थिति होती है। इन अवसरों पर स्वच्छता के आवश्यक नियमों का ध्यान रखा जाना चाहिए। बात का बतंगड़ बना देना अनावश्यक है।
🔵 प्रथा-प्रचलनों में कई आवश्यक हैं कई अनावश्यक। कइयों को कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए और कइयों की उपेक्षा की जानी चाहिए। सूतक और अशुद्धि के प्रश्न को उसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए जिससे कि प्रचलन कर्ताओं ने उसे आरम्भ किया था। उनका उद्देश्य उपासना जैसे आध्यात्मिक नित्यकर्म से किसी को विरत, वंचित करना नहीं वरन् यह था कि अशुद्धता सीमित रहे, उसे फैलने का अवसर न मिले। आज भी जहां अशौच का वातावरण है वहीं सूतक माना जाय और शरीर से किये जाने वाले कृत्यों पर ही कोई रोकथाम की जाय। मन से उपासना करने पर तो कोई स्थिति बाधक नहीं हो सकती। इसलिए नित्य की उपासना मानसिक रूप से जारी रखी जा सकती है। पूजा-उपकरणों का स्पर्श न करना हो तो न भी करे।
🔴 यदि सूतक या अशौच के दिनों में अनुष्ठान चल रहा हो तो उसे उतने दिन के लिए बीच में बन्द करके, निवृत्ति के बाद, जिस गणना से छोड़ा था, वहीं से फिर आरम्भ किया जा सकता है। बिना माला का मानसिक जप-ध्यान किसी भी स्थिति में करते रहा जा सकता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 पराक्रम और पुरुषार्थ (भाग 18) 15 Jan
🌹 कठिनाइयों से डरिये मत, जूझिये
🔵 विशालकाय रेल इंजन से लेकर छोटी सुई तक बड़ी से बड़ी तथा छोटी से छोटी वस्तुओं के निर्माता जमशेद जी टाटा का बचपन घोर अभावों में बीता। वे नवसारी में जन्मे। पिता पुरोहित थे। आरम्भिक शिक्षा प्राप्ति के लिए जमशेद जी को एक सम्बन्धी का सहारा लेना पड़ा। विद्यार्थी काल में वे एक ऐसे कमरे में रहे जिसकी छत बारिश में हमेशा टपकती रहती। इतना पैसा नहीं था कि अधिक पैसे वाला कमरा किराये पर ले सकें। शिक्षा प्राप्ति के बाद एक कपड़े के कारखाने का उद्योग आरम्भ किया और उनकी परिश्रम शीलता व्यवहार कुशलता के बलबूते निरन्तर आगे बढ़ते गये।
🔴 सम्पन्नता ही नहीं प्रतिभा के क्षेत्र में भी सामान्य से असामान्य स्थिति में जा पहुंचने वालों की एक दास्तान है कि उन्होंने परिस्थितियों को कभी भी अधिक महत्व नहीं दिया। हमेशा अपनी आन्तरिक क्षमताओं पर भरोसा किया। उनका भली भांति नियोजन करके आगे बढ़ते गये। बहुमुखी प्रतिभा के धनी पत्रकार, राजनीतिज्ञ, वैज्ञानिक, दार्शनिक एवं समाज सेवी बैंजामिन फ्रेंकलिन प्रेस में टाइप धोने, मशीन सफाई करने, झाड़ू लगाने आदि का काम करते रहे पर उस काम को भी उन्होंने कभी छोटा नहीं माना और पूरे मनोयोग का परिचय देकर प्रेस का काम भी सीखते रहे।
🔵 पन्द्रह व्यक्तियों का बड़ा परिवार था। दस वर्ष की आयु से ही उन्होंने घर की अर्थ व्यवस्था में हाथ बटाने के लिए आगे आना पड़ा। प्रेस के कार्य में उन्होंने प्रवीणता प्राप्त कर ली पर विज्ञान में अधिक अभिरुचि होने के कारण सम्बन्धित पुस्तकों का खाली समय में अध्ययन करते रहे। जिज्ञासा और मनोयोग की परिणति ही सफलता है। उनकी वैज्ञानिक प्रतिभा भी उभरती चली गयी। एक साथ कई क्षेत्रों में विशेषता हासिल करके उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि प्रतिकूलताएं मानवी विकास में बाधक नहीं पुरुषार्थ एवं जीवन को निवारने का एक माध्यम भर है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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🔵 विशालकाय रेल इंजन से लेकर छोटी सुई तक बड़ी से बड़ी तथा छोटी से छोटी वस्तुओं के निर्माता जमशेद जी टाटा का बचपन घोर अभावों में बीता। वे नवसारी में जन्मे। पिता पुरोहित थे। आरम्भिक शिक्षा प्राप्ति के लिए जमशेद जी को एक सम्बन्धी का सहारा लेना पड़ा। विद्यार्थी काल में वे एक ऐसे कमरे में रहे जिसकी छत बारिश में हमेशा टपकती रहती। इतना पैसा नहीं था कि अधिक पैसे वाला कमरा किराये पर ले सकें। शिक्षा प्राप्ति के बाद एक कपड़े के कारखाने का उद्योग आरम्भ किया और उनकी परिश्रम शीलता व्यवहार कुशलता के बलबूते निरन्तर आगे बढ़ते गये।
🔴 सम्पन्नता ही नहीं प्रतिभा के क्षेत्र में भी सामान्य से असामान्य स्थिति में जा पहुंचने वालों की एक दास्तान है कि उन्होंने परिस्थितियों को कभी भी अधिक महत्व नहीं दिया। हमेशा अपनी आन्तरिक क्षमताओं पर भरोसा किया। उनका भली भांति नियोजन करके आगे बढ़ते गये। बहुमुखी प्रतिभा के धनी पत्रकार, राजनीतिज्ञ, वैज्ञानिक, दार्शनिक एवं समाज सेवी बैंजामिन फ्रेंकलिन प्रेस में टाइप धोने, मशीन सफाई करने, झाड़ू लगाने आदि का काम करते रहे पर उस काम को भी उन्होंने कभी छोटा नहीं माना और पूरे मनोयोग का परिचय देकर प्रेस का काम भी सीखते रहे।
🔵 पन्द्रह व्यक्तियों का बड़ा परिवार था। दस वर्ष की आयु से ही उन्होंने घर की अर्थ व्यवस्था में हाथ बटाने के लिए आगे आना पड़ा। प्रेस के कार्य में उन्होंने प्रवीणता प्राप्त कर ली पर विज्ञान में अधिक अभिरुचि होने के कारण सम्बन्धित पुस्तकों का खाली समय में अध्ययन करते रहे। जिज्ञासा और मनोयोग की परिणति ही सफलता है। उनकी वैज्ञानिक प्रतिभा भी उभरती चली गयी। एक साथ कई क्षेत्रों में विशेषता हासिल करके उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि प्रतिकूलताएं मानवी विकास में बाधक नहीं पुरुषार्थ एवं जीवन को निवारने का एक माध्यम भर है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 अध्यात्म एक प्रकार का समर (अमृतवाणी) भाग 7
अपने श्रम की कमाई खाएँ
🔴 मित्रो! ईमानदारी का कमाया हुआ धान्य, परिश्रम से कमाया हुआ धान्य हराम का धान्य नहीं हैं। ध्यान रखें, हराम की कमाई को भी मैंने चोरी का माना है। जुए की कमाई, लॉटरी की कमाई, सट्टे की कमाई और बाप दादाओं की दी हुई कमाई को भी मैंने चोरी का माना है। हमारे यहाँ प्राचीनकाल से ही श्राद्ध की परंपरा है। श्राद्ध का मतलब यह था कि जो कमाऊ बेटे होते थे, बाप -दादों की कमाई को श्राद्ध में दे देते थे, अच्छे काम में लगा देते थे, ताकि बाप की जीवात्मा, जिसने जिदंगी भर परिश्रम किया है, उसकी जीवात्मा को शांति मिले! हम तो अपने हाथ पाँव से कमाकर खाएँगे। ईमानदार बेटे यही करते थे ।। ईमानदार बाप यही करते थे कि अपने बच्चों को स्वावलंबी बनाने के लिए उसे इस लायक बनाकर छोड़ा करते थे कि अपने हाथ- पाँव की मशक्कत से वे कमाएँ खाएँ।
🔵 अपने हाथ की कमाई, पसीने की कमाई खा करके कोई आदमी बेईमान नहीं हो सकता, चोर नहीं हो सकता, दुराचारी नहीं हो सकता, व्यभिचारी नहीं हो सकता, कुमार्गगामी नहीं हो सकता। जो अपने हाथ से कमाएगा, उसे मालूम होगा कि खरच करना किसे कहते हैं। जो पसीना बहाकर कमाता है, वह पसीने से खरच करना भी जानता है। खरच करते समय उसको कसक आती है, दर्द आता है, लेकिन जिसे हराम का पैसा मिला है, बाप- दादों का पैसा मिला है, वह जुआ खेलेगा, शराब पीएगा और बुरे से बुरा कर्म करेगा। कौन करेगा पाप? किसको पड़ेगा पाप? बाप को? क्यों पड़ेगा? मैं इसे कमीना कहूँगा, जिसने कमा- कमाकर किसी को दिया नहीं। बेटे को दूँगा, सब जमा करके रख गया है दुष्ट कही का। वह सब बच्चों का सत्यानाश करेगा। मित्रो! हराम की कमाई एक और बेईमानी की कमाई दो, दोनों में कोई खास फर्क नहीं है, थोड़ा सा ही फर्क है। ईमानदार और परिश्रमी व्यक्ति हराम की और बेईमानी की कमाई नहीं खाते।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Pravachaan/pravaachanpart4/aadhiyatamekprakarkasamar.3
🔴 मित्रो! ईमानदारी का कमाया हुआ धान्य, परिश्रम से कमाया हुआ धान्य हराम का धान्य नहीं हैं। ध्यान रखें, हराम की कमाई को भी मैंने चोरी का माना है। जुए की कमाई, लॉटरी की कमाई, सट्टे की कमाई और बाप दादाओं की दी हुई कमाई को भी मैंने चोरी का माना है। हमारे यहाँ प्राचीनकाल से ही श्राद्ध की परंपरा है। श्राद्ध का मतलब यह था कि जो कमाऊ बेटे होते थे, बाप -दादों की कमाई को श्राद्ध में दे देते थे, अच्छे काम में लगा देते थे, ताकि बाप की जीवात्मा, जिसने जिदंगी भर परिश्रम किया है, उसकी जीवात्मा को शांति मिले! हम तो अपने हाथ पाँव से कमाकर खाएँगे। ईमानदार बेटे यही करते थे ।। ईमानदार बाप यही करते थे कि अपने बच्चों को स्वावलंबी बनाने के लिए उसे इस लायक बनाकर छोड़ा करते थे कि अपने हाथ- पाँव की मशक्कत से वे कमाएँ खाएँ।
🔵 अपने हाथ की कमाई, पसीने की कमाई खा करके कोई आदमी बेईमान नहीं हो सकता, चोर नहीं हो सकता, दुराचारी नहीं हो सकता, व्यभिचारी नहीं हो सकता, कुमार्गगामी नहीं हो सकता। जो अपने हाथ से कमाएगा, उसे मालूम होगा कि खरच करना किसे कहते हैं। जो पसीना बहाकर कमाता है, वह पसीने से खरच करना भी जानता है। खरच करते समय उसको कसक आती है, दर्द आता है, लेकिन जिसे हराम का पैसा मिला है, बाप- दादों का पैसा मिला है, वह जुआ खेलेगा, शराब पीएगा और बुरे से बुरा कर्म करेगा। कौन करेगा पाप? किसको पड़ेगा पाप? बाप को? क्यों पड़ेगा? मैं इसे कमीना कहूँगा, जिसने कमा- कमाकर किसी को दिया नहीं। बेटे को दूँगा, सब जमा करके रख गया है दुष्ट कही का। वह सब बच्चों का सत्यानाश करेगा। मित्रो! हराम की कमाई एक और बेईमानी की कमाई दो, दोनों में कोई खास फर्क नहीं है, थोड़ा सा ही फर्क है। ईमानदार और परिश्रमी व्यक्ति हराम की और बेईमानी की कमाई नहीं खाते।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Pravachaan/pravaachanpart4/aadhiyatamekprakarkasamar.3
👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 72)
🌹 गीता के माध्यम से जन-जागरण
🔴 युग निर्माण योजना के प्रचार-कार्य का माध्यम गीता को ही रखा गया है। साधारण मनुष्यों द्वारा दी हुई शिक्षा में वह भावना एवं प्रेरणा कम ही होती है, जो भगवान की अमृत वाणी में विद्यमान है। अखण्ड-ज्योति में यह कार्यक्रम विस्तारपूर्वक छप चुका है। परिवार के सक्रिय कार्यकर्त्ताओं को ऐसे प्रचारक— ऐसे कथा-वाचक के रूप में सुशिक्षित किया जा रहा है जो पेट पालने के लिए अन्ट-सन्ट किस्से दुहरा देने मात्र की लकीर न पीटते रहें, वरन् गीता के एक-एक श्लोक को सुनने वालों के अन्तःकरण में प्रविष्ट करके उन्हें मानवता का और कर्तव्य परायणता का महत्व समझने वाला बना सकें, उनके मन को देश, धर्म, समाज और संस्कृति के अधःपतन पर आंसू बहाने के लिए विवश कर सकें और साथ ही उनकी भुजाओं को कुछ कर गुजरने के लिए फड़का सकें। ऐसी ही कथा कहना और सुनना सार्थक हो सकता है। शुकदेवजी ने सात दिन परीक्षित को कथा सुनाई थी, वह कथा जीवन की धारा को ही पलट डालने वाली थी। तभी तो आज मरणासन्न समाज को ऐसी ही अमर-कथा सुनने और सुनाने की आवश्यकता है।
🔵 कार्यक्रम और रूपरेखा—ऐसी गीता कथा का एक विशेष ढांचा खड़ा किया गया है। भागवत सप्ताहों की तरह ठीक उसी श्रद्धा और सुसज्जा के साथ गीता की कथा जगह-जगह एक सप्ताह तक हो और अन्तिम दिन सामूहिक गायत्री यज्ञ रखा जाय। कन्या भोजन, यज्ञोपवीत आदि षोडश संस्कार, शोभा यात्रा (जुलूस), भजन, कीर्तन, प्रवचन आदि के कार्यक्रम रहें। यह उसकी मोटी रूपरेखा है।
🔴 गीता का छन्द-बद्ध पद्यानुवाद कर दिया गया है। जहां कथा होगी, वहां सुनने वाले दो भागों में विभक्त होकर बैठा करेंगे। प्रातः सायं डेढ़-डेढ़ घण्टा गीता पारायण हुआ करेगा। यह पारायण इस ढंग से होगा कि एक श्लोक का पद्यानुवाद मधुर स्वर में सम्मिलित रूप से, हो सके तो बाजे के साथ भी, पहले भाग के लोग कहेंगे। दूसरा श्लोक इसी प्रकार दूसरे भाग वाले कहेंगे। तीसरा श्लोक पहली पार्टी, चौथा दूसरी पार्टी। इस प्रकार पारायण क्रम एक घण्टा चलता रहेगा। भजन कीर्तन का आनन्द भी रहेगा और हर श्लोक का भावार्थ प्रत्येक सुनने वाला भली प्रकार समझ भी लेगा। इस आयोजन में भाग लेने वाले श्रोता मात्र ही न रहेंगे, वरन् गीता पारायण का श्रेय भी उन्हें मिलेगा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 युग निर्माण योजना के प्रचार-कार्य का माध्यम गीता को ही रखा गया है। साधारण मनुष्यों द्वारा दी हुई शिक्षा में वह भावना एवं प्रेरणा कम ही होती है, जो भगवान की अमृत वाणी में विद्यमान है। अखण्ड-ज्योति में यह कार्यक्रम विस्तारपूर्वक छप चुका है। परिवार के सक्रिय कार्यकर्त्ताओं को ऐसे प्रचारक— ऐसे कथा-वाचक के रूप में सुशिक्षित किया जा रहा है जो पेट पालने के लिए अन्ट-सन्ट किस्से दुहरा देने मात्र की लकीर न पीटते रहें, वरन् गीता के एक-एक श्लोक को सुनने वालों के अन्तःकरण में प्रविष्ट करके उन्हें मानवता का और कर्तव्य परायणता का महत्व समझने वाला बना सकें, उनके मन को देश, धर्म, समाज और संस्कृति के अधःपतन पर आंसू बहाने के लिए विवश कर सकें और साथ ही उनकी भुजाओं को कुछ कर गुजरने के लिए फड़का सकें। ऐसी ही कथा कहना और सुनना सार्थक हो सकता है। शुकदेवजी ने सात दिन परीक्षित को कथा सुनाई थी, वह कथा जीवन की धारा को ही पलट डालने वाली थी। तभी तो आज मरणासन्न समाज को ऐसी ही अमर-कथा सुनने और सुनाने की आवश्यकता है।
🔵 कार्यक्रम और रूपरेखा—ऐसी गीता कथा का एक विशेष ढांचा खड़ा किया गया है। भागवत सप्ताहों की तरह ठीक उसी श्रद्धा और सुसज्जा के साथ गीता की कथा जगह-जगह एक सप्ताह तक हो और अन्तिम दिन सामूहिक गायत्री यज्ञ रखा जाय। कन्या भोजन, यज्ञोपवीत आदि षोडश संस्कार, शोभा यात्रा (जुलूस), भजन, कीर्तन, प्रवचन आदि के कार्यक्रम रहें। यह उसकी मोटी रूपरेखा है।
🔴 गीता का छन्द-बद्ध पद्यानुवाद कर दिया गया है। जहां कथा होगी, वहां सुनने वाले दो भागों में विभक्त होकर बैठा करेंगे। प्रातः सायं डेढ़-डेढ़ घण्टा गीता पारायण हुआ करेगा। यह पारायण इस ढंग से होगा कि एक श्लोक का पद्यानुवाद मधुर स्वर में सम्मिलित रूप से, हो सके तो बाजे के साथ भी, पहले भाग के लोग कहेंगे। दूसरा श्लोक इसी प्रकार दूसरे भाग वाले कहेंगे। तीसरा श्लोक पहली पार्टी, चौथा दूसरी पार्टी। इस प्रकार पारायण क्रम एक घण्टा चलता रहेगा। भजन कीर्तन का आनन्द भी रहेगा और हर श्लोक का भावार्थ प्रत्येक सुनने वाला भली प्रकार समझ भी लेगा। इस आयोजन में भाग लेने वाले श्रोता मात्र ही न रहेंगे, वरन् गीता पारायण का श्रेय भी उन्हें मिलेगा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 23)
🌞 मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवन क्रम सम्बन्धी निर्देश
🔴 हमारा अनुभव यह रहा है कि जितनी उत्सुकता साधकों को सिद्ध पुरुष खोजने की होती है, उससे असंख्य गुनी उत्कंठा सिद्ध पुरुषों की सुपात्र साधकों के तलाश करने के निमित्त होती है। साधक सत्पात्र चाहिए। जिसने अपना चिंतन, चरित्र और व्यवहार परिष्कृत कर लिया हो, वही सच्चा साधक है। उसे मार्गदर्शक खोजने नहीं पड़ते, वरन् वे दौड़कर स्वयं उनके पास आते और उँगली पकड़कर आगे चलने का रास्ता बताते हैं। जहाँ वे लड़खड़ाते हैं वहाँ गोदी में उठाकर कंधे पर बिठाकर पार लगाते हैं। हमारे सम्बन्ध में यही हुआ है। घर बैठे पधारकर अधिक सामर्थ्यवान बनाने के लिए २४ वर्ष का गायत्री पुरश्चरण उन्होंने कराया एवं उसकी पूर्णाहुति में सहस्र कुण्डी गायत्री यज्ञ सम्पन्न कराया है। धर्मतंत्र से लोक शिक्षण के लिए एक लाख अपरिचित व्यक्तियों को परिचित ही नहीं, घनिष्ठ बनाकर कंधे से कंधा, कदम से कदम मिलाकर चलने योग्य बना दिया।
🔵 अपने प्रथम दर्शन में ही चौबीस महापुरश्चरण पूरे होने एवं चार बार एक-एक वर्ष के लिए हिमालय बुलाने की बात गुरुदेव ने कही।
🔴 हमें हिमालय पर बार-बार बुलाए जाने के कारण थे। एक यह जानना कि सुनसान प्रकृति के सान्निध्य में, प्राणियों के अभाव में आत्मा को एकाकीपन कहीं अखरता तो नहीं? दूसरे यह कि इस क्षेत्र में रहने वाले हिंसक पशुओं के साथ मित्रता बना सकने लायक आत्मीयता विकसित हुई या नहीं, तीसरे वह समूचा क्षेत्र देवात्मा है। उसमें ऋषियों ने मानवी काया में रहते हुए देवत्व उभारा और देव मानव के रूप में ऐसी भूमिकाएँ निभाई, जो साधन और सहयोग के अभाव में साधारण जनों के लिए कर सकना सम्भव नहीं थीं। उनसे हमारा प्रत्यक्षीकरण कराया जाना था।
🔵 उनका मूक निर्देश था कि अगले दिनों उपलब्ध आत्मबल का उपयोग हमें ऐसे ही प्रयोजन के लिए एक साथ करना है, जो ऋषियों ने समय-समय पर तात्कालिक समस्याओं के समाधान के निमित्त अपने प्रबल पुरुषार्थ से सम्पन्न किया है। यह समय ऐसा है जिसमें अगणित अभावों की एक साथ पूर्ति करनी है। साथ ही एक साथ चढ़ दौड़ी अनेकानेक विपत्तियों से जूझना है, यह दोनों ही कार्य इसी उत्तराखण्ड कुरुक्षेत्र में पिछले दिनों सम्पन्न हुए हैं। पुरातन देवताओं-ऋषियों में से कुछ आँशिक रूप से सफल हुए हैं, कुछ असफल भी रहे हैं। इस बार एकाकी वे सब प्रयत्न करने और समय की माँग को पूरा करना है।
🔴 इसके लिए जो मोर्चे बंदी करनी है, उसकी झलक-झाँकी समय रहते कर ली जाए, ताकि कंधों पर आने वाले उत्तरदायित्वों की पूर्व जानकारी रहे और पूर्वज किस प्रकार दाँव-पेंच अपना कर विजयश्री को वरण करते हैं, इस अनुभव से कुछ न कुछ सफलता मिले। यह तीनों ही प्रयोजन समझने, अपनाने और परीक्षा में उत्तीर्ण होने के निमित्त ही हमारी भावी हिमालय यात्राएँ होनी हैं, ऐसा उनका निर्देश था। आगे उन्होंने बताया-‘‘हम लोगों की तरह तुम्हें भी सूक्ष्म शरीर के माध्यम से अति महत्त्वपूर्ण कार्य करने होंगे। इसका पूर्वाभ्यास करने के लिए यह सीखना होगा कि स्थूल शरीर से हिमालय के किस भाग में, कितने समय तक, किस प्रकार ठहरा जा सकता है और निर्धारित उद्देश्य की पूर्ति में संलग्न रहा जा सकता है।’’
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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🔴 हमारा अनुभव यह रहा है कि जितनी उत्सुकता साधकों को सिद्ध पुरुष खोजने की होती है, उससे असंख्य गुनी उत्कंठा सिद्ध पुरुषों की सुपात्र साधकों के तलाश करने के निमित्त होती है। साधक सत्पात्र चाहिए। जिसने अपना चिंतन, चरित्र और व्यवहार परिष्कृत कर लिया हो, वही सच्चा साधक है। उसे मार्गदर्शक खोजने नहीं पड़ते, वरन् वे दौड़कर स्वयं उनके पास आते और उँगली पकड़कर आगे चलने का रास्ता बताते हैं। जहाँ वे लड़खड़ाते हैं वहाँ गोदी में उठाकर कंधे पर बिठाकर पार लगाते हैं। हमारे सम्बन्ध में यही हुआ है। घर बैठे पधारकर अधिक सामर्थ्यवान बनाने के लिए २४ वर्ष का गायत्री पुरश्चरण उन्होंने कराया एवं उसकी पूर्णाहुति में सहस्र कुण्डी गायत्री यज्ञ सम्पन्न कराया है। धर्मतंत्र से लोक शिक्षण के लिए एक लाख अपरिचित व्यक्तियों को परिचित ही नहीं, घनिष्ठ बनाकर कंधे से कंधा, कदम से कदम मिलाकर चलने योग्य बना दिया।
🔵 अपने प्रथम दर्शन में ही चौबीस महापुरश्चरण पूरे होने एवं चार बार एक-एक वर्ष के लिए हिमालय बुलाने की बात गुरुदेव ने कही।
🔴 हमें हिमालय पर बार-बार बुलाए जाने के कारण थे। एक यह जानना कि सुनसान प्रकृति के सान्निध्य में, प्राणियों के अभाव में आत्मा को एकाकीपन कहीं अखरता तो नहीं? दूसरे यह कि इस क्षेत्र में रहने वाले हिंसक पशुओं के साथ मित्रता बना सकने लायक आत्मीयता विकसित हुई या नहीं, तीसरे वह समूचा क्षेत्र देवात्मा है। उसमें ऋषियों ने मानवी काया में रहते हुए देवत्व उभारा और देव मानव के रूप में ऐसी भूमिकाएँ निभाई, जो साधन और सहयोग के अभाव में साधारण जनों के लिए कर सकना सम्भव नहीं थीं। उनसे हमारा प्रत्यक्षीकरण कराया जाना था।
🔵 उनका मूक निर्देश था कि अगले दिनों उपलब्ध आत्मबल का उपयोग हमें ऐसे ही प्रयोजन के लिए एक साथ करना है, जो ऋषियों ने समय-समय पर तात्कालिक समस्याओं के समाधान के निमित्त अपने प्रबल पुरुषार्थ से सम्पन्न किया है। यह समय ऐसा है जिसमें अगणित अभावों की एक साथ पूर्ति करनी है। साथ ही एक साथ चढ़ दौड़ी अनेकानेक विपत्तियों से जूझना है, यह दोनों ही कार्य इसी उत्तराखण्ड कुरुक्षेत्र में पिछले दिनों सम्पन्न हुए हैं। पुरातन देवताओं-ऋषियों में से कुछ आँशिक रूप से सफल हुए हैं, कुछ असफल भी रहे हैं। इस बार एकाकी वे सब प्रयत्न करने और समय की माँग को पूरा करना है।
🔴 इसके लिए जो मोर्चे बंदी करनी है, उसकी झलक-झाँकी समय रहते कर ली जाए, ताकि कंधों पर आने वाले उत्तरदायित्वों की पूर्व जानकारी रहे और पूर्वज किस प्रकार दाँव-पेंच अपना कर विजयश्री को वरण करते हैं, इस अनुभव से कुछ न कुछ सफलता मिले। यह तीनों ही प्रयोजन समझने, अपनाने और परीक्षा में उत्तीर्ण होने के निमित्त ही हमारी भावी हिमालय यात्राएँ होनी हैं, ऐसा उनका निर्देश था। आगे उन्होंने बताया-‘‘हम लोगों की तरह तुम्हें भी सूक्ष्म शरीर के माध्यम से अति महत्त्वपूर्ण कार्य करने होंगे। इसका पूर्वाभ्यास करने के लिए यह सीखना होगा कि स्थूल शरीर से हिमालय के किस भाग में, कितने समय तक, किस प्रकार ठहरा जा सकता है और निर्धारित उद्देश्य की पूर्ति में संलग्न रहा जा सकता है।’’
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 23)
लदी हुई बकरी
🔵 छोटा- सा जानवर बकरी इस पर्वतीय प्रदेश की तरणतारिणी कामधेनु कही जा सकती है। वह दूध देती है, ऊन देती है, बच्चे देती है, साथ ही वजन भी ढोती है। आज बड़े- बड़े बालों वाली बकरियों का एक झुण्ड रास्ते में मिला, लगभग सौ- सवा सौ होगी, सभी लदी हुई थीं। गुड़- चावल आटा लादकर वे गंगोत्री की ओर ले जा रही थीं। हर एक पर उसके कद और बल के अनुसार दस- पन्द्रह सेर वजन लदा हुआ था। माल असबाव की ढुलाई के लिए खच्चरो के अतिरिक्त इधर बकरियाँ ही साधन हैं। पहाडों की छोटी- छोटी पगडंडियों पर दूसरे जानवर या वाहन काम तो नहीं कर सकते।
🔴 सोचता हूँ कि जीवन की समस्याएँ हल करने के लिए बड़े- बड़े विशाल साधनों पर जोर देने की कोई इतनी बड़ी आवश्यकता नहीं है, जितनी समझी जाती है, जब कि व्यक्ति साधारण उपकरणों से अपने निर्वाह के साधन जुटाकर शान्तिपूर्वक रह सकता हैं। सीमित औद्योगीकरण की बात दूसरी है, पर यदि वे बढ़ते ही रहे तो बकरियों तथा उनके पालने वाले जैसे लाखों की रोजी- रोटी छीनकर चन्द उद्योगपतियों की कोठियों में जमा हो सकती है। संसार में जो युद्ध की घटाएँ आज उमड़ रही हैं उसके मूल में भी इस उद्योग व्यवस्था के लिए मारकेट जुटाने, उपनिवेश बनाने की लालसा ही काम कर रही है। बकरियों की पंक्ति देखकर मेरे मन में यह भाव उत्पन्न हो रहा है कि व्यक्ति यदि छोटी सीमा में रहकर जीवन विकास की व्यवस्था जुटाए तो इसी प्रकार शान्तिपूर्वक रह सकता है, जिस प्रकार यह बकरियों वाले भले और भोले पहाड़ी रहते हैं।
🔵 प्राचीनकाल में धन और सत्ता का विकेन्द्रीकरण करना ही भारतीय समाज का आदर्श था। ऋषि- मुनि एक बहुत छोटी इकाई के रूप में आश्रमों और कुटियों में जीवन- यापन करते थे। ग्राम उससे कुछ बड़ी इकाई थे, सभी अपनी आवश्यकताएँ अपने क्षेत्र में, अपने समाज से पूरी करते थे और हिल- मिलकर सुखी जीवन बिताते थे, न इसमें भ्रष्टाचार की गुंजायश थी न बदमाशी की। आज उद्योगीकरण की घुड़दौड़ में छोटे गाँव उजड़ रहे है? बड़े शहर बस रहे हैं? गरीब पिस रहे हैं, अमीर पनप रहे हैं। विकराल राक्षस की तरह धड़धडाती हुई मशीन मनुष्य के स्वास्थ्य को, स्नेह सम्बन्धों को, सदाचार को भी पीसे डाल रही हैं। इस यन्त्रवाद, उद्योगवाद, पूँजीवाद की नींव पर जो कुछ खड़ा किया जा रहा है, उसका नाम विकास रखा गया है, पर यह अन्तत: विनाशकारी ही सिद्ध होगा।
🔴 विचार असम्बद्ध होते जा रहे हैं, छोटी बात मस्तिष्क में बड़ा रूप धारण कर रही है, इसलिए इन पंक्तियों को यही समाप्त करना उचित है, फिर भी बकरियाँ भुलाये नहीं भूलतीं। वे हमारे प्राचीन भारतीय समाज रचना की एक स्मृति को ताजा करती हैं इस सभ्यता के युग में उन बेचारियों की उपयोगिता कौन मानेगा? पिछडे युग की निशानी कहकर उनका उपहास ही होगा, पर सत्य- सत्य ही रहेगा मानव जाति जब कभी शान्ति और संतोष के लक्ष्य पर पहुँचेगी, तब धन और सत्ता का विकेन्द्रीकरण अवश्य हो रहा होगा और लोग इसी तरह श्रम ओर सन्तोष से परिपूर्ण जीवन बिता रहे होंगे। जैसे बकरी वाले अपनी मैं- मैं करती हुई बकरियों के साथ जीवन बिताते है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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