सोमवार, 27 फ़रवरी 2017
👉 मैं अभागन उन्हें पहचान न पाई
🔵 सन् २००९ ई. की गुरु पूर्णिमा के दिन अपने पति और बेटे के साथ मैं हरिद्वार पहुँची। दो कुली को साथ लेकर हम तीनों प्लेटफार्म से बाहर आए। सड़कों पर सन्नाटा छाया हुआ था। जगह- जगह सेना के जवान तैनात थे। हमारे बाहर निकलते ही सेना के एक गश्ती दल ने रोककर कहा- शहर में धारा १४४ लागू है। एक साथ पाँच लोगों का घर से निकलना मना है। तुरन्त वापस जाओ। वरना गिरफ्तार कर लिए जाओगे, पर हमारा शान्तिकुञ्ज पहुँचना बहुत ही जरूरी था। हमें अगले दिन से आरम्भ होने वाली विशेष साधना के लिए उसी दिन संकल्प लेना था। पति और बेटे को वहीं छोड़कर मैं सड़क की ओर बढ़ी। पतिदेव ने टोका- कहाँ जा रही हो? मैंने कहा- आगे जाकर देखती हूँ, शायद कोई सवारी मिल जाए। मेरा जवाब सुनकर वे मुझ पर बरस पड़े- तुमने सुना नहीं कि धारा १४४ लागू है। यहाँ कोई तेरा बाप बैठा है, जो तुझे ले जाएगा। मैंने तमककर कहा- हाँ हैं न बाप! वही तो ले जाएँगे।
🔴 बाहर निकलकर काफी देर तक खड़ी रही, पर कोई सवारी नहीं मिली। मैंने घड़ी देखी- बीस मिनट बीत चुके थे। शाम होने से पहले पहुँचना जरूरी था। कुछ देर और रुकी रही तो संकल्प का समय निकल जाएगा। यह सोचकर मुझे रोना आ गया। हे गुरुदेव! अब क्या करूँ? तुमने बुलाया, तो मैं आ गई। अब तुम्हीं कुछ ऐसा करो कि संकल्प ले सकूँ।
🔵 मुझे रोते देख गश्ती दल वाले आकर पूछताछ करने लगे। मैं उन लोगों को समझाने का प्रयास कर रही थी कि मेरा आज ही शांतिकुंज पहुँचना बहुत जरूरी है। सभी यही कहते- पैदल चले जाओ, मगर मैं उतनी दूर तक पैदल चल नहीं सकती थी और हमारे साथ सामान भी बहुत सारे थे।
🔴 करीब ४५ मिनट बाद सामने से एक रिक्शा वाला आता हुआ दिखा। उसने पीला कुर्ता पहन रखा था। कन्धे पर पीला झोला भी लटकाये हुए था। पास आने पर मैंने उसे रोकते हुए कहा- बाबा मुझे शांतिकुंज जाना है, चलोगे क्या? रिक्शा वाला बोला- बैठ जाओ, पहुँचा देता हूँ। मैंने कहा- मैं अकेली नहीं हूँ, मेरे साथ मेरा बेटा और पति हैं। कुछ सामान भी है। उसने कहा- ले आओ।
🔵 वापस आकर मैंने बेटे से कहा- जल्दी से सामान उठाओ, एक रिक्शा वाला जाने को तैयार है। इतना सुनते ही मेरे पति बेटे से कहने लगे- तुम्हारी माँ तो पागल हो गई है। धारा १४४ में रिक्शे वाले को कौन जाने देगा। इतने में रिक्शा वाला भी हमारे पास आकर बोला- चलना है तो चलो, नहीं तो मैं जा रहा हूँ। मैंने इन दोनों से कहा- कोई जाए या न जाए, मैं तो जाती हूँ। मेरे रिक्शा पर बैठने के बाद वे दोनों भी सामान के साथ आ बैठे।
🔴 रिक्शा अभी थोड़ी ही दूर चला था कि गश्ती दल वालों से सामना हुआ। उन्होंने रिक्शा किनारे लगवाकर कहा- पैदल जाना हो तो जाओ, रिक्शा नहीं जायेगा। रिक्शावाला कुछ देर तो चुपचाप खड़ा रहा, फिर उसने नजर बचाकर निकलने की कोशिश की। लेकिन गश्ती दल वालों ने उसे निकलने नहीं दिया। जब तीन बार ऐसा ही हुआ, तो उसने सिपाहियों से कहा- अब तुम लोग हाँ कहो या ना कहो, मुझे तो इन्हें शांतिकुंज ले ही जाना है। सिपाहियों ने अपनी मजबूरी बताते हुए कहा- बाबा, हम तो नियम से बँधे हैं, यदि तुम्हें जाने दें, तो साहब हमें सस्पेंड कर देंगे।
🔵 रिक्शे वाले ने कहा- तुम्हें कोई सस्पेंड नहीं करेगा। कहाँ हैं तुम्हारे साहब? ले चलो मुझे उनके पास। एक सिपाही रिक्शे वाले को साथ लेकर अन्दर गया। देखते ही साहब कड़ककर बोले- क्या बात है? रिक्शावाले ने बताया- बाबूजी इनका शांतिकुंज पहुँचना बहुत जरूरी है। महिला हैं, इतनी दूर पैदल कैसे चलेंगी? साथ में सामान भी है। दोनों की बहस में दस मिनट बीत गए। अंत में बाबा ने कहा- रिक्शा नहीं जा सकती, तो आप ही पहुँचाइये। आपके पास तो सरकारी गाड़ी भी है।
🔴 इस बात पर पास ही बैठे बड़े साहब को हँसी आ गई। वे बोल पड़े- अरे जाने दो इसे, पागल है, मानेगा नहीं। रिक्शा आगे बढ़ चला। बाबा ने शांतिकुंज के गेट पर पहुँचकर रिक्शा रोका। मैंने बाबा से कहा- तुम भी चलो, सुबह हवन करके चले जाना। बाबा मुस्कराने लगे। अब मेरा ध्यान बाबा के चेहरे की तरफ गया। मैं यह देखकर चौंक पड़ी कि बाबा का चेहरा पूज्य गुरुदेव से मिलता- जुलता है। पूजा घर में मैं देर तक गुरुदेव का फोटो देखती रहती हूँ। मुझे लगा कहीं ये गुरुदेव ही तो नहीं। वहीं कद- काठी, वही ललाट, वैसे ही ऊपर की तरफ लहराते बाल। फर्क सिर्फ इतना था कि बाबा की तरह उनकी दाढ़ी नहीं थी।
🔵 तभी बाबा के बोलने से मेरा ध्यान टूटा। वे कह रहे थे- सामान अन्दर ले जाओ, देर हो रही है। मैंने कहा- पहले भाड़ा तो दे दूँ। वे बोले- एक बार में सारा सामान नहीं जा सकेगा। तुम लोग थोड़ा सामान अन्दर रखकर आ जाओ, तब तक मैं बाकी के सामान देखता हूँ।
🔴 वापस आकर मैंने देखा कि सामान तो गेट के पास ही रखा है, लेकिन न तो वहाँ कोई रिक्शा है और न ही रिक्शे वाले बाबा। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि बिना पैसे लिए ही बाबा चले कैसे गये। अचानक मन में यह सवाल उठा- कहीं ये पूज्य गुरुदेव ही तो नहीं थे। हरिद्वार स्टेशन के पास धारा १४४ होने के बावजूद एक रिक्शे वाले का आना, पुलिस वालों को मनाकर हमें शांतिकुंज पहुँचाना अनायास ही नहीं हुआ। यह गुरुदेव की ही लीला है।
🔵 बात समझ में आते ही मैंने दोनों हाथों से सिर पीट लिया- हाय अभागन! तुमने उन्हें पहले ही क्यों नहीं पहचाना? मैं बिलख उठी- हाय गुरुदेव! मुझे छलावा देकर चले गए। अपने बारे में बता दिया होता, तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाता। यह अभागन भी तुम्हारे चरणों की धूल अपने माथे से लगाकर अपना जीवन सफल बना लेती।
🌹 नीता बेन देवेन्द्र भाई जानी अहमदाबाद (गुजरात)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/Wonderfula
🔴 बाहर निकलकर काफी देर तक खड़ी रही, पर कोई सवारी नहीं मिली। मैंने घड़ी देखी- बीस मिनट बीत चुके थे। शाम होने से पहले पहुँचना जरूरी था। कुछ देर और रुकी रही तो संकल्प का समय निकल जाएगा। यह सोचकर मुझे रोना आ गया। हे गुरुदेव! अब क्या करूँ? तुमने बुलाया, तो मैं आ गई। अब तुम्हीं कुछ ऐसा करो कि संकल्प ले सकूँ।
🔵 मुझे रोते देख गश्ती दल वाले आकर पूछताछ करने लगे। मैं उन लोगों को समझाने का प्रयास कर रही थी कि मेरा आज ही शांतिकुंज पहुँचना बहुत जरूरी है। सभी यही कहते- पैदल चले जाओ, मगर मैं उतनी दूर तक पैदल चल नहीं सकती थी और हमारे साथ सामान भी बहुत सारे थे।
🔴 करीब ४५ मिनट बाद सामने से एक रिक्शा वाला आता हुआ दिखा। उसने पीला कुर्ता पहन रखा था। कन्धे पर पीला झोला भी लटकाये हुए था। पास आने पर मैंने उसे रोकते हुए कहा- बाबा मुझे शांतिकुंज जाना है, चलोगे क्या? रिक्शा वाला बोला- बैठ जाओ, पहुँचा देता हूँ। मैंने कहा- मैं अकेली नहीं हूँ, मेरे साथ मेरा बेटा और पति हैं। कुछ सामान भी है। उसने कहा- ले आओ।
🔵 वापस आकर मैंने बेटे से कहा- जल्दी से सामान उठाओ, एक रिक्शा वाला जाने को तैयार है। इतना सुनते ही मेरे पति बेटे से कहने लगे- तुम्हारी माँ तो पागल हो गई है। धारा १४४ में रिक्शे वाले को कौन जाने देगा। इतने में रिक्शा वाला भी हमारे पास आकर बोला- चलना है तो चलो, नहीं तो मैं जा रहा हूँ। मैंने इन दोनों से कहा- कोई जाए या न जाए, मैं तो जाती हूँ। मेरे रिक्शा पर बैठने के बाद वे दोनों भी सामान के साथ आ बैठे।
🔴 रिक्शा अभी थोड़ी ही दूर चला था कि गश्ती दल वालों से सामना हुआ। उन्होंने रिक्शा किनारे लगवाकर कहा- पैदल जाना हो तो जाओ, रिक्शा नहीं जायेगा। रिक्शावाला कुछ देर तो चुपचाप खड़ा रहा, फिर उसने नजर बचाकर निकलने की कोशिश की। लेकिन गश्ती दल वालों ने उसे निकलने नहीं दिया। जब तीन बार ऐसा ही हुआ, तो उसने सिपाहियों से कहा- अब तुम लोग हाँ कहो या ना कहो, मुझे तो इन्हें शांतिकुंज ले ही जाना है। सिपाहियों ने अपनी मजबूरी बताते हुए कहा- बाबा, हम तो नियम से बँधे हैं, यदि तुम्हें जाने दें, तो साहब हमें सस्पेंड कर देंगे।
🔵 रिक्शे वाले ने कहा- तुम्हें कोई सस्पेंड नहीं करेगा। कहाँ हैं तुम्हारे साहब? ले चलो मुझे उनके पास। एक सिपाही रिक्शे वाले को साथ लेकर अन्दर गया। देखते ही साहब कड़ककर बोले- क्या बात है? रिक्शावाले ने बताया- बाबूजी इनका शांतिकुंज पहुँचना बहुत जरूरी है। महिला हैं, इतनी दूर पैदल कैसे चलेंगी? साथ में सामान भी है। दोनों की बहस में दस मिनट बीत गए। अंत में बाबा ने कहा- रिक्शा नहीं जा सकती, तो आप ही पहुँचाइये। आपके पास तो सरकारी गाड़ी भी है।
🔴 इस बात पर पास ही बैठे बड़े साहब को हँसी आ गई। वे बोल पड़े- अरे जाने दो इसे, पागल है, मानेगा नहीं। रिक्शा आगे बढ़ चला। बाबा ने शांतिकुंज के गेट पर पहुँचकर रिक्शा रोका। मैंने बाबा से कहा- तुम भी चलो, सुबह हवन करके चले जाना। बाबा मुस्कराने लगे। अब मेरा ध्यान बाबा के चेहरे की तरफ गया। मैं यह देखकर चौंक पड़ी कि बाबा का चेहरा पूज्य गुरुदेव से मिलता- जुलता है। पूजा घर में मैं देर तक गुरुदेव का फोटो देखती रहती हूँ। मुझे लगा कहीं ये गुरुदेव ही तो नहीं। वहीं कद- काठी, वही ललाट, वैसे ही ऊपर की तरफ लहराते बाल। फर्क सिर्फ इतना था कि बाबा की तरह उनकी दाढ़ी नहीं थी।
🔵 तभी बाबा के बोलने से मेरा ध्यान टूटा। वे कह रहे थे- सामान अन्दर ले जाओ, देर हो रही है। मैंने कहा- पहले भाड़ा तो दे दूँ। वे बोले- एक बार में सारा सामान नहीं जा सकेगा। तुम लोग थोड़ा सामान अन्दर रखकर आ जाओ, तब तक मैं बाकी के सामान देखता हूँ।
🔴 वापस आकर मैंने देखा कि सामान तो गेट के पास ही रखा है, लेकिन न तो वहाँ कोई रिक्शा है और न ही रिक्शे वाले बाबा। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि बिना पैसे लिए ही बाबा चले कैसे गये। अचानक मन में यह सवाल उठा- कहीं ये पूज्य गुरुदेव ही तो नहीं थे। हरिद्वार स्टेशन के पास धारा १४४ होने के बावजूद एक रिक्शे वाले का आना, पुलिस वालों को मनाकर हमें शांतिकुंज पहुँचाना अनायास ही नहीं हुआ। यह गुरुदेव की ही लीला है।
🔵 बात समझ में आते ही मैंने दोनों हाथों से सिर पीट लिया- हाय अभागन! तुमने उन्हें पहले ही क्यों नहीं पहचाना? मैं बिलख उठी- हाय गुरुदेव! मुझे छलावा देकर चले गए। अपने बारे में बता दिया होता, तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाता। यह अभागन भी तुम्हारे चरणों की धूल अपने माथे से लगाकर अपना जीवन सफल बना लेती।
🌹 नीता बेन देवेन्द्र भाई जानी अहमदाबाद (गुजरात)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/Wonderfula
👉 महाकाल का प्रतिभाओं को आमंत्रण (भाग 7)
🌹 प्रतिभा से बढ़कर और कोई समर्थता है नहीं
🔴 शक्ति की सर्वत्र अभ्यर्थना होती है, पर यदि उसका बहुमूल्य अंश खोजा जाए, तो उसे प्रतिभा के अतिरिक्त और कोई नाम नहीं दिया जा सकता। विज्ञान उसी का अनुयायी है। सम्पदा उसी की चेरी है। श्रेय और सम्मान वही जहाँ-तहाँ से अपने साथ रहने के लिए घसीट लाती है। गौरव-गाथा उन्हीं की गायी जाती है। अनुकरणीय और अभिनन्दनीय इसी विभूति के धनी लोगों में से कुछ होते हैं।
🔵 आदर्शवादी प्रयोजन, सुनियोजन, व्यवस्था और साहसभरी पुरुषार्थ-परायणता को यदि मिला दिया जाए, तो उस गुलदस्ते का नाम प्रतिभा दिए जाने में कोई अत्युक्ति न होगी।
🔴 कहते हैं कि सत्य में हजार हाथी के बराबर बल होता है। सच्चाई तो इस कथन में भी हो सकती है; पर यदि उसके साथ प्रतिभाभरी जागरूकता-साहसिकता को भी जोड़ दिया जाए, तो सोना और सुगन्ध के सम्मिश्रण जैसी बात बन सकती है। तब उसे हजार हाथियों की अपेक्षा लाख ऐरावतों जैसी शक्ति-सम्पन्नता भी कहा जा सकता है। उसे मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी शक्ति-सम्पन्नता एवं सौभाग्यशाली भी कही जा सकती है।
🔵 आतंक का प्रदर्शन, किसी भी भले-बुरे काम के लिए, दूसरों पर हावी होकर उनसे कुछ भी भला-बुरा करा लेने के, डाकुओं जैसे दुस्साहस का नाम प्रतिभा नहीं है। यदि ऐसा होता, तो सभी आतंकवादी, अपराधियों को प्रतिभावान कहा जाता; जबकि उनका सीधा नाम दैत्य या दानव है। दादागीरी, आक्रमण की व्यवसायिकता अपनी जगह काम करती तो देखी जाती है; पर उसके द्वारा उत्पीड़ित किए गए लोग शाप ही देते रहते हैं। हर मन में उनके लिए अश्रद्धा ही नहीं, घृणा और शत्रुता बनती है। भले ही प्रतिशोध के रूप में उसे कार्यान्वित करते न बन पड़े। सेर को सवासेर भी मिलता है। ईंट का जवाब पत्थर से मिलता है, भले ही उस क्रिया को किन्हीं मनुष्यों द्वारा सम्पन्न कर लिया जाए अथवा प्रकृति अपनी परम्परा के हिसाब से उठने वाले बबूले की हवा स्वयं निकाल दे।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 शक्ति की सर्वत्र अभ्यर्थना होती है, पर यदि उसका बहुमूल्य अंश खोजा जाए, तो उसे प्रतिभा के अतिरिक्त और कोई नाम नहीं दिया जा सकता। विज्ञान उसी का अनुयायी है। सम्पदा उसी की चेरी है। श्रेय और सम्मान वही जहाँ-तहाँ से अपने साथ रहने के लिए घसीट लाती है। गौरव-गाथा उन्हीं की गायी जाती है। अनुकरणीय और अभिनन्दनीय इसी विभूति के धनी लोगों में से कुछ होते हैं।
🔵 आदर्शवादी प्रयोजन, सुनियोजन, व्यवस्था और साहसभरी पुरुषार्थ-परायणता को यदि मिला दिया जाए, तो उस गुलदस्ते का नाम प्रतिभा दिए जाने में कोई अत्युक्ति न होगी।
🔴 कहते हैं कि सत्य में हजार हाथी के बराबर बल होता है। सच्चाई तो इस कथन में भी हो सकती है; पर यदि उसके साथ प्रतिभाभरी जागरूकता-साहसिकता को भी जोड़ दिया जाए, तो सोना और सुगन्ध के सम्मिश्रण जैसी बात बन सकती है। तब उसे हजार हाथियों की अपेक्षा लाख ऐरावतों जैसी शक्ति-सम्पन्नता भी कहा जा सकता है। उसे मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी शक्ति-सम्पन्नता एवं सौभाग्यशाली भी कही जा सकती है।
🔵 आतंक का प्रदर्शन, किसी भी भले-बुरे काम के लिए, दूसरों पर हावी होकर उनसे कुछ भी भला-बुरा करा लेने के, डाकुओं जैसे दुस्साहस का नाम प्रतिभा नहीं है। यदि ऐसा होता, तो सभी आतंकवादी, अपराधियों को प्रतिभावान कहा जाता; जबकि उनका सीधा नाम दैत्य या दानव है। दादागीरी, आक्रमण की व्यवसायिकता अपनी जगह काम करती तो देखी जाती है; पर उसके द्वारा उत्पीड़ित किए गए लोग शाप ही देते रहते हैं। हर मन में उनके लिए अश्रद्धा ही नहीं, घृणा और शत्रुता बनती है। भले ही प्रतिशोध के रूप में उसे कार्यान्वित करते न बन पड़े। सेर को सवासेर भी मिलता है। ईंट का जवाब पत्थर से मिलता है, भले ही उस क्रिया को किन्हीं मनुष्यों द्वारा सम्पन्न कर लिया जाए अथवा प्रकृति अपनी परम्परा के हिसाब से उठने वाले बबूले की हवा स्वयं निकाल दे।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 सच्ची लगन सफलता का मूल
🔵 दक्षिण भारत के एक छोटे-से गाँव की एक कुटिया में बैठा हुआ वह व्यक्ति निरंतर लेखन-कार्य में निमग्न था, उसे न खाने की सुध थी न पानी की। आस-पास, पास-पडो़स मे क्या हो रहा है ? उसे यह भी पता नहीं, कुटिया में कौन आता-जाता है ? भोजन कौन दे जाता ? जूठे पात्रों को कौन उठा ले जाता? बिस्तर कौन संभाल जाता है ? इसका कुछ भी ध्यान नहीं। लेखन के आवश्यक उपकरण कगज, दवात, स्याही आदि कहाँ से आते है? कब आते है ? कौन लाता है ? इसका कुछ भी भान नहीं है नित्यक्रिया शौच, लघुशंका आदि के उपरात स्नान, ध्यान, भोजन आदि स्वभाववश हो जाते थे। पुनः अपनी लेखनी उठाई और अपनी साधना में निमग्न। प० वाचस्पति जी मिश्र अपने सुप्रसिद्ध वेदांत ग्रंथ "भामती" के प्रणयन मे इस प्रकार निरत थे।
🔴 तन्मयता और सच्ची लगन वह गुण है जो व्यक्ति को उसके निर्दिष्ट लक्ष्य तक पहुँचाते हैं। सफलता के अन्य सूत्र भी हैं उनकी भी आवश्यकता पडती है, परंतु जैसे दीपक जलने के लिये तेल सबसे आवश्यक उपकरण है, वैसे ही सफलता के लिए सच्ची और प्रगाढ़ लगन। मनुष्य में यदि इसका अभाव रहा तो सारे उपकरण रहते हुए भी कुछ नहीं कर सकेंगे। देखने में लगेगा कुछ हो रहा है। ऐसी मनःस्थिति में किये गये लँगडे़ लूले काम भला कहीं सफल होते हैं ?
🔵 पं० वाचस्पति जी मिश्र में ऐसी ही तन्मयता और निष्ठा थी। एक रात को बैठे वे लिख रहे थे अपने ग्रन्थ को। दीपक का तेल समाप्त सा हो रहा था। लौ भी फीकी पड़ रही थी। इतने में दो हाथ उधर से उठे। आशय यह था कि दीपक तेज किया जाय। इसी प्रयत्न में दीपक बुझ गया। उन हाथों ने फिर बत्ती जलाई। संयोग था कि उस समय पंडित जी का ग्रन्थ पूरा हो चला था। अन्यथा अनेक वर्षों तक वे ऐसी बाधाओं को जान भी न सके थे। लिखना और लेखनी बंद करके सोचना बस चिंतन की यह तन्मयता ही उनका जीवन था। दीपक भी कुछ होता है, यह लिखते समय उनके ध्यान में कभी नहीं आया।
🔴 ग्रंथ पूरा हो गया था। सरस्वती के पुत्र का ध्यान भंग हुआ दीपक जलाकर जाती हुई पत्नी को उन्होंने देखा और पूछा-देवि तुम कौन हो ? यहाँ किसलिए आईं थीं ? आप
🔵 मैं आपकी चरण सेविका हूँ। पिछले चालीस-पचास वर्षों से आपकी ही सेवा कर रही हूँ, उस नारी ने विनम्रतापूवंऊ उत्तर दिया- ''आज दीपक बुझ जाने से कार्य में विघ्न पड़ा इसके लिए क्षमा करें। भविष्य में ऐसा कष्ट न आने दूँगी।
🔴 मेरी सेविका ? पंडित जी इसका रहस्य न समझ सके पवित्रता की प्रतिमूर्ति अपने पतिदेव के आश्चर्य का आशय समझ गई वह आगे स्पष्टीकरण करते हुए पुनः बोल उठी "पिता अपनी पुत्री का हाथ जिस पुरुष के हाथ में दे देता है, वह उसकी सेविका ही होती है। आप तो विवाह मंडप में भी हाथों मे कुछ पन्ने लिये हुए
उनके ही चिंतन में लीन थे। इस कुटिया में भी जब से आई आपको अपने लेखन से अवकाश कहाँ ?
🔵 "तो फिर तुम मुझसे क्या चाहती हो ?"
🔴 कभी चाहती थी कि संसार में नाम रखने का कुछ आधार होता किंतु अब तो शरीर भी जर्जर हो चुका, अतः आपकी सेवा सुश्रूभा में ही मुझे परम सुख है।
🔵 तुम्हारा नाम ? पंडित जी ने पूछा- भामती, नन्हा-सा उत्तर था। पंडितजी ने अपनी लेखनी उठाई और उस ग्रंथ के ऊपर लिख दिया- "भामती" बोले, लो संसार में जब तक भारतीय संस्कृति और उसकी गरिमा जीवित रहेगी तुम्हारा नाम अमर रहेगा। सचमुच पंडित वाचस्पति की सच्ची निष्ठा "भामती" आज भी कायम है।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 54, 55
🔴 तन्मयता और सच्ची लगन वह गुण है जो व्यक्ति को उसके निर्दिष्ट लक्ष्य तक पहुँचाते हैं। सफलता के अन्य सूत्र भी हैं उनकी भी आवश्यकता पडती है, परंतु जैसे दीपक जलने के लिये तेल सबसे आवश्यक उपकरण है, वैसे ही सफलता के लिए सच्ची और प्रगाढ़ लगन। मनुष्य में यदि इसका अभाव रहा तो सारे उपकरण रहते हुए भी कुछ नहीं कर सकेंगे। देखने में लगेगा कुछ हो रहा है। ऐसी मनःस्थिति में किये गये लँगडे़ लूले काम भला कहीं सफल होते हैं ?
🔵 पं० वाचस्पति जी मिश्र में ऐसी ही तन्मयता और निष्ठा थी। एक रात को बैठे वे लिख रहे थे अपने ग्रन्थ को। दीपक का तेल समाप्त सा हो रहा था। लौ भी फीकी पड़ रही थी। इतने में दो हाथ उधर से उठे। आशय यह था कि दीपक तेज किया जाय। इसी प्रयत्न में दीपक बुझ गया। उन हाथों ने फिर बत्ती जलाई। संयोग था कि उस समय पंडित जी का ग्रन्थ पूरा हो चला था। अन्यथा अनेक वर्षों तक वे ऐसी बाधाओं को जान भी न सके थे। लिखना और लेखनी बंद करके सोचना बस चिंतन की यह तन्मयता ही उनका जीवन था। दीपक भी कुछ होता है, यह लिखते समय उनके ध्यान में कभी नहीं आया।
🔴 ग्रंथ पूरा हो गया था। सरस्वती के पुत्र का ध्यान भंग हुआ दीपक जलाकर जाती हुई पत्नी को उन्होंने देखा और पूछा-देवि तुम कौन हो ? यहाँ किसलिए आईं थीं ? आप
🔵 मैं आपकी चरण सेविका हूँ। पिछले चालीस-पचास वर्षों से आपकी ही सेवा कर रही हूँ, उस नारी ने विनम्रतापूवंऊ उत्तर दिया- ''आज दीपक बुझ जाने से कार्य में विघ्न पड़ा इसके लिए क्षमा करें। भविष्य में ऐसा कष्ट न आने दूँगी।
🔴 मेरी सेविका ? पंडित जी इसका रहस्य न समझ सके पवित्रता की प्रतिमूर्ति अपने पतिदेव के आश्चर्य का आशय समझ गई वह आगे स्पष्टीकरण करते हुए पुनः बोल उठी "पिता अपनी पुत्री का हाथ जिस पुरुष के हाथ में दे देता है, वह उसकी सेविका ही होती है। आप तो विवाह मंडप में भी हाथों मे कुछ पन्ने लिये हुए
उनके ही चिंतन में लीन थे। इस कुटिया में भी जब से आई आपको अपने लेखन से अवकाश कहाँ ?
🔵 "तो फिर तुम मुझसे क्या चाहती हो ?"
🔴 कभी चाहती थी कि संसार में नाम रखने का कुछ आधार होता किंतु अब तो शरीर भी जर्जर हो चुका, अतः आपकी सेवा सुश्रूभा में ही मुझे परम सुख है।
🔵 तुम्हारा नाम ? पंडित जी ने पूछा- भामती, नन्हा-सा उत्तर था। पंडितजी ने अपनी लेखनी उठाई और उस ग्रंथ के ऊपर लिख दिया- "भामती" बोले, लो संसार में जब तक भारतीय संस्कृति और उसकी गरिमा जीवित रहेगी तुम्हारा नाम अमर रहेगा। सचमुच पंडित वाचस्पति की सच्ची निष्ठा "भामती" आज भी कायम है।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 54, 55
👉 इन्द्रासन प्राप्त हुआ
🔵 नहुष को पुण्य फल के बदले में इन्द्रासन प्राप्त हुआ। वे स्वर्ग में राज्य करने लगे। ऐश्वर्य और सत्ता का मद जिन्हें न आवें, ऐसे कोई विरले ही होते हैं। नहुष भी सत्ता मद से प्रभावित हुये बिना अछूते न रह सके। उनकी दृष्टि रूपवती इन्द्राणी पर पड़ी। वे उसे अपने अन्तःपुर में लाने की विचारणा करने लगे। प्रस्ताव उनने इन्द्राणी के पास भेज ही दिया।
🔴 इन्द्राणी बहुत दुखी हुई। राजाज्ञा के विरुद्ध खड़े होने का साहस उसने अपने में न पाया तो एक दूसरी चतुरता बरती। नहुष के पास उसने सन्देश भिजवाया कि वह ऋषियों को पालकी में जोते और उस पर चढ़कर मेरे पास आवे तो प्रस्ताव स्वीकार कर लूँगी।
🔵 आतुर नहुष ने अविलम्ब वैसी व्यवस्था की। ऋषि पकड़ बुलाये, उन्हें पालकी में जोता गया, उस पर चढ़ा हुआ राजा जल्दी-जल्दी चलने की प्रेरणा करने लगा।
🔴 दुर्बलकाय ऋषि दूर तक इतना भार लेकर तेज चलने में समर्थ न हो सके। अपमान और उत्पीड़न से वे क्षुब्ध हो उठे। एक ने कुपित होकर शाप दे ही डाला- “दुष्ट! तू स्वर्ग से पतित होकर पुनः धरती पर जा गिर।” शाप सार्थक हुआ, नहुष स्वर्ग से पतित होकर मृत्यु लोक में दीन-हीन की नाईं विचरण करने लगे।
🔵 इन्द्र पुनः स्वर्ग के इन्द्रासन पर बैठे। उन्होंने नहुष के पतन की सारी कथा ध्यानपूर्वक सुनी और इन्द्राणी से पूछा-भद्रे! तुमने ऋषियों को पालकी में जोतने का प्रस्ताव किस आशय से किया था?
🔴 शची मुस्कराने लगीं। वे बोलीं-नाथ, आप जानते नहीं, सत्पुरुषों का तिरस्कार करने, उन्हें सताने से बढ़कर सर्वनाश का कोई दूसरा कार्य नहीं। नहुष को अपनी दुष्टता समेत शीघ्र ही नष्ट करने वाला सबसे बड़ा उपाय मुझे यही सूझा। वह सफल भी तो हुआ।
🔵 देव सभा में सभी ने शची से सहमति प्रकट कर दी। सज्जनों को सताकर कोई भी नष्ट हो सकता है। बेचारा नहुष भी उसका अपवाद कैसे रहता।
🌹 अखण्ड ज्योति फरवरी 1965
🔴 इन्द्राणी बहुत दुखी हुई। राजाज्ञा के विरुद्ध खड़े होने का साहस उसने अपने में न पाया तो एक दूसरी चतुरता बरती। नहुष के पास उसने सन्देश भिजवाया कि वह ऋषियों को पालकी में जोते और उस पर चढ़कर मेरे पास आवे तो प्रस्ताव स्वीकार कर लूँगी।
🔵 आतुर नहुष ने अविलम्ब वैसी व्यवस्था की। ऋषि पकड़ बुलाये, उन्हें पालकी में जोता गया, उस पर चढ़ा हुआ राजा जल्दी-जल्दी चलने की प्रेरणा करने लगा।
🔴 दुर्बलकाय ऋषि दूर तक इतना भार लेकर तेज चलने में समर्थ न हो सके। अपमान और उत्पीड़न से वे क्षुब्ध हो उठे। एक ने कुपित होकर शाप दे ही डाला- “दुष्ट! तू स्वर्ग से पतित होकर पुनः धरती पर जा गिर।” शाप सार्थक हुआ, नहुष स्वर्ग से पतित होकर मृत्यु लोक में दीन-हीन की नाईं विचरण करने लगे।
🔵 इन्द्र पुनः स्वर्ग के इन्द्रासन पर बैठे। उन्होंने नहुष के पतन की सारी कथा ध्यानपूर्वक सुनी और इन्द्राणी से पूछा-भद्रे! तुमने ऋषियों को पालकी में जोतने का प्रस्ताव किस आशय से किया था?
🔴 शची मुस्कराने लगीं। वे बोलीं-नाथ, आप जानते नहीं, सत्पुरुषों का तिरस्कार करने, उन्हें सताने से बढ़कर सर्वनाश का कोई दूसरा कार्य नहीं। नहुष को अपनी दुष्टता समेत शीघ्र ही नष्ट करने वाला सबसे बड़ा उपाय मुझे यही सूझा। वह सफल भी तो हुआ।
🔵 देव सभा में सभी ने शची से सहमति प्रकट कर दी। सज्जनों को सताकर कोई भी नष्ट हो सकता है। बेचारा नहुष भी उसका अपवाद कैसे रहता।
🌹 अखण्ड ज्योति फरवरी 1965
👉 विपत्ति में अधीर मत हूजिए। (अन्तिम भाग)
🔵 विपत्तियों का शिकार किसे नहीं बनना पड़ा? त्रिलोकेश इन्द्र ब्रह्म हत्या के भय से वर्षों घोर अन्धकार में पड़े रहे। चक्रवर्ती महाराज हरिश्चन्द्र डोम के घर जाकर नौकरी करते रहे। उनकी स्त्री अपने मृत बच्चे को जलाने के लिये कफ न तक नहीं प्राप्त कर सकी। जगत के आदि कारण, मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी को चौदह वर्षों तक घोर जंगलों में रहना पड़ा। वे अपने पिता चक्रवर्ती महाराज दशरथ को पावभर आटे के पिंड भी न दे सके। जंगल के इंगुदी फलों के पिंडों से ही उन्होंने चक्रवर्ती राजा की तृप्ति की।
🔴 शरीरधारी कोई भी ऐसा नहीं है जिसने विपत्तियों के कड़वे फलों का स्वाद न चखा हो। सभी उन अवश्य प्राप्त होने वाले कर्मों के स्वाद से परिचित हैं। फिर हम अधीर क्यों हों हमारे अधीर होने से हमारे आश्रित भी दुःखी होंगे, इसलिये हम धैर्य धारण करके क्यों नहीं उन्हें समझावें? जो होना होगा। बस, विवेकी और अविवेकी में यही अन्तर है। जरा, मृत्यु और व्याधियाँ दोनों को ही होती हैं किन्तु विवेकी उन्हें अवश्यंभावी समझ कर धैर्य के साथ सहन करता है और अज्ञानी व्याकुल होकर विपत्ति से विफल होकर विपत्तियों को और बढ़ा लेता है- महात्मा कबीर ने इस विषय पर क्या ही रोचक पद्य रचना की है यथा-
ज्ञानी काटे ज्ञान से, अज्ञानी काटे रोय।
मौत, बुढ़ापा, आपदा, सब काहु को होय॥
🔵 जो धैर्य का आश्रय नहीं लेते, वे दीन हो जाते हैं, परमुखापेक्षी बन जाते हैं। इससे वे और भी दुःखी होते हैं। संसार में परमुखापेक्षी बनना दूसरे के सामने जाकर गिड़गिड़ाना, दूसरे से किसी प्रकार की आशा करना, इससे बढ़कर दूसरा कष्ट और कोई नहीं है। इसलिए विपत्ति आने पर धैर्य धारण किये रहिए और विपत्ति के कारणों को दूर करने एवं सुविधा प्राप्त करने के प्रयत्न में लग जाइए। जितनी शक्ति अधीर होकर दुखी होने में खर्च होती है उससे आधी शक्ति भी प्रयत्न में लगा दी जाय तो हमारी अधिकांश कठिनाइयों का निवारण हो सकता है।
🌹 समाप्त
🌹 अखंड ज्योति मई 1950 पृष्ठ 9
🔴 शरीरधारी कोई भी ऐसा नहीं है जिसने विपत्तियों के कड़वे फलों का स्वाद न चखा हो। सभी उन अवश्य प्राप्त होने वाले कर्मों के स्वाद से परिचित हैं। फिर हम अधीर क्यों हों हमारे अधीर होने से हमारे आश्रित भी दुःखी होंगे, इसलिये हम धैर्य धारण करके क्यों नहीं उन्हें समझावें? जो होना होगा। बस, विवेकी और अविवेकी में यही अन्तर है। जरा, मृत्यु और व्याधियाँ दोनों को ही होती हैं किन्तु विवेकी उन्हें अवश्यंभावी समझ कर धैर्य के साथ सहन करता है और अज्ञानी व्याकुल होकर विपत्ति से विफल होकर विपत्तियों को और बढ़ा लेता है- महात्मा कबीर ने इस विषय पर क्या ही रोचक पद्य रचना की है यथा-
ज्ञानी काटे ज्ञान से, अज्ञानी काटे रोय।
मौत, बुढ़ापा, आपदा, सब काहु को होय॥
🔵 जो धैर्य का आश्रय नहीं लेते, वे दीन हो जाते हैं, परमुखापेक्षी बन जाते हैं। इससे वे और भी दुःखी होते हैं। संसार में परमुखापेक्षी बनना दूसरे के सामने जाकर गिड़गिड़ाना, दूसरे से किसी प्रकार की आशा करना, इससे बढ़कर दूसरा कष्ट और कोई नहीं है। इसलिए विपत्ति आने पर धैर्य धारण किये रहिए और विपत्ति के कारणों को दूर करने एवं सुविधा प्राप्त करने के प्रयत्न में लग जाइए। जितनी शक्ति अधीर होकर दुखी होने में खर्च होती है उससे आधी शक्ति भी प्रयत्न में लगा दी जाय तो हमारी अधिकांश कठिनाइयों का निवारण हो सकता है।
🌹 समाप्त
🌹 अखंड ज्योति मई 1950 पृष्ठ 9
👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 23)
🌹 विचारशील लोग दीर्घायु होते हैं
🔴 प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक डा. आत्माराम और अन्य कई वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार किया है कि योग से अपने हृदय और नाड़ी आदि में गति पर नियन्त्रण रखकर उन्हें स्वस्थ रखा जा सकता है। यह क्रिया मस्तिष्क से विचारों की तरंगें उत्पन्न करके की जाती है। अध्ययनशील व्यक्तियों में यह क्रिया स्वाभाविक रूप से चलती रहती है इसलिए यदि शरीर देखने में दुबला है तो उसमें अरोग्य और दीर्घ जीवन की सम्भावनाएं अधिक पाई जायेंगी।
🔵 ‘‘मस्तिष्क के क्षतिग्रस्त होने से शरीर बचा नहीं रह सकता। इससे साफ हो जाता है कि मस्तिष्क ही शरीर में जीवन का मुख्य आधार है उसे जितना स्वस्थ और परिपुष्ट रखा जा सके मनुष्य उतना ही दीर्घजीवी हो सकता है।’’ उक्त वैज्ञानिकों की यदि यह सम्मति सही है तो ऋषियों के दीर्घजीवन का मूल कारण उनकी ज्ञान वृद्धि ही मानी जायेगी और आज के व्यस्त और दूषित वातावरण वाले युग में सबसे महत्वपूर्ण साधन भी यही होगा कि हम अपने दैनिक कार्यक्रमों में स्वाध्याय को निश्चित रूप से जोड़कर रखें और अपने जीवन की अवधि लम्बी करते चलें।
🔴 जीवन में बालक से लेकर बूढ़े तक सभी प्रसन्नता चाहते हैं और उसे पाने का प्रयत्न करते रहते हैं। क्योंकि एक स्थायी प्रसन्नता जीवन का चरम लक्ष्य भी है। यदि मनुष्य-जीवन में प्रसन्नता का नितान्त अभाव हो जाये तो उसका कुछ समय चल सकना भी असम्भव हो जाये।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक डा. आत्माराम और अन्य कई वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार किया है कि योग से अपने हृदय और नाड़ी आदि में गति पर नियन्त्रण रखकर उन्हें स्वस्थ रखा जा सकता है। यह क्रिया मस्तिष्क से विचारों की तरंगें उत्पन्न करके की जाती है। अध्ययनशील व्यक्तियों में यह क्रिया स्वाभाविक रूप से चलती रहती है इसलिए यदि शरीर देखने में दुबला है तो उसमें अरोग्य और दीर्घ जीवन की सम्भावनाएं अधिक पाई जायेंगी।
🔵 ‘‘मस्तिष्क के क्षतिग्रस्त होने से शरीर बचा नहीं रह सकता। इससे साफ हो जाता है कि मस्तिष्क ही शरीर में जीवन का मुख्य आधार है उसे जितना स्वस्थ और परिपुष्ट रखा जा सके मनुष्य उतना ही दीर्घजीवी हो सकता है।’’ उक्त वैज्ञानिकों की यदि यह सम्मति सही है तो ऋषियों के दीर्घजीवन का मूल कारण उनकी ज्ञान वृद्धि ही मानी जायेगी और आज के व्यस्त और दूषित वातावरण वाले युग में सबसे महत्वपूर्ण साधन भी यही होगा कि हम अपने दैनिक कार्यक्रमों में स्वाध्याय को निश्चित रूप से जोड़कर रखें और अपने जीवन की अवधि लम्बी करते चलें।
🔴 जीवन में बालक से लेकर बूढ़े तक सभी प्रसन्नता चाहते हैं और उसे पाने का प्रयत्न करते रहते हैं। क्योंकि एक स्थायी प्रसन्नता जीवन का चरम लक्ष्य भी है। यदि मनुष्य-जीवन में प्रसन्नता का नितान्त अभाव हो जाये तो उसका कुछ समय चल सकना भी असम्भव हो जाये।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 1)
🌹 सार संक्षेप
🔵 मानवीय अंतराल में प्रसुप्त पड़ा विभूतियों का सम्मिश्रण जिस किसी में सघन-विस्तृत रूप में दिखाई पड़ता है, उसे प्रतिभा कहते हैं। जब इसे सदुद्देश्यों के लिये प्रयुक्त किया जाता है तो यह देवस्तर की बन जाती है और अपना परिचय महामानवों जैसा देती है। इसके विपरीत यदि मनुष्य इस संपदा का दुरुपयोग अनुचित कार्यों में करने लगे तो वह दैत्यों जैसा व्यवहार करने लगती है। जो व्यक्ति अपनी प्रतिभा को जगाकर लोकमंगल में लगा देता है, वह दूरदर्शी और विवेकवान् कहलाता है।
🔴 आज कुसमय ही है कि चारों तरफ दुर्बुद्धि का साम्राज्य छाया दिखाई देता है। इसी ने मनुष्य को वर्जनाओं को तोड़ने के लिये उद्धत स्वभाव वाला वनमानुष बनाकर रख दिया है। दुर्बुद्धि ने अनास्था को जन्म दिया है एवं ईश्वरीय सत्ता के संबंध में भी नाना प्रकार की भ्रांतियाँ समाज में फैल गई हैं। हम जिस युग में आज रह रहे हैं, वह भारी परिवर्तनों की एक शृंखला से भरा है। इसमें परिष्कृत प्रतिभाओं के उभर आने व आत्मबल उपार्जित कर लोकमानस की भ्रांतियों को मिटाने की प्रक्रिया द्रुतगति से चलेगी।
🔵 यह सुनिश्चित है कि युग परिवर्तन प्रतिभा ही करेगी। मनस्वी-आत्मबल संपन्न ही अपनी भी औरों की भी नैया खेते देखेे जाते हैं। इस तरह सद्बुद्धि का उभार जब होगा तो जन-जन के मन-मस्तिष्क पर छाई दुर्भावनाओं का निराकरण होता चला जाएगा। स्रष्टा की दिव्यचेतना का अवतरण हर परिष्कृत अंत:करण में होगा एवं देखते-देखते युग बदलता जाएगा। यही है प्रखर प्रज्ञारूपी परम प्रसाद जो स्रष्टा-नियंता अगले दिनों सुपात्रों पर लुटाने जा रहे हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌿🌞 🌿🌞 🌿🌞
🔵 मानवीय अंतराल में प्रसुप्त पड़ा विभूतियों का सम्मिश्रण जिस किसी में सघन-विस्तृत रूप में दिखाई पड़ता है, उसे प्रतिभा कहते हैं। जब इसे सदुद्देश्यों के लिये प्रयुक्त किया जाता है तो यह देवस्तर की बन जाती है और अपना परिचय महामानवों जैसा देती है। इसके विपरीत यदि मनुष्य इस संपदा का दुरुपयोग अनुचित कार्यों में करने लगे तो वह दैत्यों जैसा व्यवहार करने लगती है। जो व्यक्ति अपनी प्रतिभा को जगाकर लोकमंगल में लगा देता है, वह दूरदर्शी और विवेकवान् कहलाता है।
🔴 आज कुसमय ही है कि चारों तरफ दुर्बुद्धि का साम्राज्य छाया दिखाई देता है। इसी ने मनुष्य को वर्जनाओं को तोड़ने के लिये उद्धत स्वभाव वाला वनमानुष बनाकर रख दिया है। दुर्बुद्धि ने अनास्था को जन्म दिया है एवं ईश्वरीय सत्ता के संबंध में भी नाना प्रकार की भ्रांतियाँ समाज में फैल गई हैं। हम जिस युग में आज रह रहे हैं, वह भारी परिवर्तनों की एक शृंखला से भरा है। इसमें परिष्कृत प्रतिभाओं के उभर आने व आत्मबल उपार्जित कर लोकमानस की भ्रांतियों को मिटाने की प्रक्रिया द्रुतगति से चलेगी।
🔵 यह सुनिश्चित है कि युग परिवर्तन प्रतिभा ही करेगी। मनस्वी-आत्मबल संपन्न ही अपनी भी औरों की भी नैया खेते देखेे जाते हैं। इस तरह सद्बुद्धि का उभार जब होगा तो जन-जन के मन-मस्तिष्क पर छाई दुर्भावनाओं का निराकरण होता चला जाएगा। स्रष्टा की दिव्यचेतना का अवतरण हर परिष्कृत अंत:करण में होगा एवं देखते-देखते युग बदलता जाएगा। यही है प्रखर प्रज्ञारूपी परम प्रसाद जो स्रष्टा-नियंता अगले दिनों सुपात्रों पर लुटाने जा रहे हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌿🌞 🌿🌞 🌿🌞
👉 दीक्षा और उसका स्वरूप (भाग 5)
🌹 नर-पशु से नर-नारायण
🔴 मनुष्यों को बहुत सुविधाएँ दी गयी हैं। मनुष्यों को बोलना आता है, मनुष्यों को पढ़ना आता है, लिखना आता है, सोचना आता है। उसको इतनी बुद्धि मिली हुई है, जिससे उसने प्रकृति के अनेक रहस्यों को ढूँढ़ करके प्रकृति को अपने अनुकूल बना लिया है और जो सूक्ष्म शक्तियाँ हैं, उससे अपना काम लेना शुरू कर दिया है। जबकि दूसरे जीव और जन्तुओं को प्रकृति की शक्तियों के ऊपर नियंत्रण कर पाना तो दूर, उनका मुकाबला करने की भी सामर्थ्य नहीं है। ठंड पड़ती है, हजारों कीड़े- मकोड़े व मच्छर मर जाते हैं। गर्मी पड़ती है, हजारों कीड़े- मकोड़े मर जाते हैं। प्रकृति का मुकाबला करने तक की शक्ति नहीं है और प्रकृति को अपने वश में करने की शक्ति कहाँ?
🔵 ऐसा चिंतन और ऐसा मन, ऐसी विशेषताएँ और ऐसी विभूतियाँ और ऐसी सिद्धियाँ जो मनुष्यों को मिली हैं, उसे मनुष्यों को भगवान् ने अनायास ही नहीं दी हैं। पक्षपाती नहीं है भगवान्। किसी भी जीव के साथ में पक्षपात करे और किसी से न करे, ये कैसे हो सकता है? सारी की सारी योनियाँ और सभी जीव भगवान् को समान रूप से प्यारे थे। क्या कीड़े- मकोड़े क्या मनुष्य ? सभी तो उसके बालक हैं। कोई पिता अपने बालकों के साथ क्यों पक्षपात करेगा ? किसी को ज्यादा क्यों देगा? किसी को कम क्यों देगा? कोई न्यायशील पिता- सामान्य मनुष्य तक ऐसा नहीं कर सकता, तो भगवान् किस तरीके से ऐसा कर सकता है?
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Diksha/12
🔴 मनुष्यों को बहुत सुविधाएँ दी गयी हैं। मनुष्यों को बोलना आता है, मनुष्यों को पढ़ना आता है, लिखना आता है, सोचना आता है। उसको इतनी बुद्धि मिली हुई है, जिससे उसने प्रकृति के अनेक रहस्यों को ढूँढ़ करके प्रकृति को अपने अनुकूल बना लिया है और जो सूक्ष्म शक्तियाँ हैं, उससे अपना काम लेना शुरू कर दिया है। जबकि दूसरे जीव और जन्तुओं को प्रकृति की शक्तियों के ऊपर नियंत्रण कर पाना तो दूर, उनका मुकाबला करने की भी सामर्थ्य नहीं है। ठंड पड़ती है, हजारों कीड़े- मकोड़े व मच्छर मर जाते हैं। गर्मी पड़ती है, हजारों कीड़े- मकोड़े मर जाते हैं। प्रकृति का मुकाबला करने तक की शक्ति नहीं है और प्रकृति को अपने वश में करने की शक्ति कहाँ?
🔵 ऐसा चिंतन और ऐसा मन, ऐसी विशेषताएँ और ऐसी विभूतियाँ और ऐसी सिद्धियाँ जो मनुष्यों को मिली हैं, उसे मनुष्यों को भगवान् ने अनायास ही नहीं दी हैं। पक्षपाती नहीं है भगवान्। किसी भी जीव के साथ में पक्षपात करे और किसी से न करे, ये कैसे हो सकता है? सारी की सारी योनियाँ और सभी जीव भगवान् को समान रूप से प्यारे थे। क्या कीड़े- मकोड़े क्या मनुष्य ? सभी तो उसके बालक हैं। कोई पिता अपने बालकों के साथ क्यों पक्षपात करेगा ? किसी को ज्यादा क्यों देगा? किसी को कम क्यों देगा? कोई न्यायशील पिता- सामान्य मनुष्य तक ऐसा नहीं कर सकता, तो भगवान् किस तरीके से ऐसा कर सकता है?
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Diksha/12
👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 63)
🌹 प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्य क्षेत्र का निर्धारण
🔴 सतयुग के प्रायः सभी ऋषि शरीरों से उसी दुर्गम हिमालय क्षेत्र में निवास करते आए हैं। जहाँ हमारा प्रथम साक्षात्कार हुआ था। स्थान नियत करने की दृष्टि से सभी ने अपने-अपने लिए एक-एक गुफा निर्धारित कर ली है। वैसे शरीर चर्या के लिए उन्हें स्थान नियत करने या साधन सामग्री जुटाने की कोई आवश्यकता नहीं हैं, तो भी अपने-अपने निर्धारित क्रिया-कलाप पूरे करने तथा आवश्यकतानुसार परस्पर मिलते-जुलते रहने के लिए सभी ने एक-एक स्थान नियत कर लिए हैं।
🔵 पहली यात्रा में हम उन्हें प्रणाम भर कर पाए थे। अब दूसरी यात्रा में गुरुदेव हमें एक-एक करके उनसे अलग-अलग भेंट कराने ले गए। परोक्ष रूप में आशीर्वाद मिला था, अब उनका संदेश सुनने की बारी थी। दीखने को हल्के से प्रकाश पुंज की तरह दीखते थे, पर जब अपना सूक्ष्म शरीर सही हो गया, तो उन ऋषियों का सतयुग वाला शरीर भी यथावत दीखने लगा। ऋषियों के शरीर की जैसी संसारी लोग कल्पना किया करते हैं, वे लगभग वैसे ही थे। शिष्टाचार पाला गया। उनके चरणों पर अपना मस्तक रख दिया। उन्होंने हाथ का स्पर्श जैसा सिर पर रखा और उतने भर से रोमांच हो उठा। आनन्द और उल्लास की उमंगें फूटने लगीं।
🔴 बात काम की चली। हर एक ने परावाणी में कहा कि हम स्थूल शरीर से जो गतिविधियाँ चलाते थे, वे अब पूरी तरह समाप्त हो गई हैं। फूटे हुए खण्डहरों के अवशेष हैं। जब हम लोग दिव्य दृष्टि से उन क्षेत्रों की वर्तमान स्थिति को देखते हैं, तो बड़ा कष्ट होता है। गंगोत्री से लेकर हरिद्वार तक का पूरा ऋषि क्षेत्र था। उस एकांत में मात्र तपश्चर्या की विधा पूरी होती थी।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 सतयुग के प्रायः सभी ऋषि शरीरों से उसी दुर्गम हिमालय क्षेत्र में निवास करते आए हैं। जहाँ हमारा प्रथम साक्षात्कार हुआ था। स्थान नियत करने की दृष्टि से सभी ने अपने-अपने लिए एक-एक गुफा निर्धारित कर ली है। वैसे शरीर चर्या के लिए उन्हें स्थान नियत करने या साधन सामग्री जुटाने की कोई आवश्यकता नहीं हैं, तो भी अपने-अपने निर्धारित क्रिया-कलाप पूरे करने तथा आवश्यकतानुसार परस्पर मिलते-जुलते रहने के लिए सभी ने एक-एक स्थान नियत कर लिए हैं।
🔵 पहली यात्रा में हम उन्हें प्रणाम भर कर पाए थे। अब दूसरी यात्रा में गुरुदेव हमें एक-एक करके उनसे अलग-अलग भेंट कराने ले गए। परोक्ष रूप में आशीर्वाद मिला था, अब उनका संदेश सुनने की बारी थी। दीखने को हल्के से प्रकाश पुंज की तरह दीखते थे, पर जब अपना सूक्ष्म शरीर सही हो गया, तो उन ऋषियों का सतयुग वाला शरीर भी यथावत दीखने लगा। ऋषियों के शरीर की जैसी संसारी लोग कल्पना किया करते हैं, वे लगभग वैसे ही थे। शिष्टाचार पाला गया। उनके चरणों पर अपना मस्तक रख दिया। उन्होंने हाथ का स्पर्श जैसा सिर पर रखा और उतने भर से रोमांच हो उठा। आनन्द और उल्लास की उमंगें फूटने लगीं।
🔴 बात काम की चली। हर एक ने परावाणी में कहा कि हम स्थूल शरीर से जो गतिविधियाँ चलाते थे, वे अब पूरी तरह समाप्त हो गई हैं। फूटे हुए खण्डहरों के अवशेष हैं। जब हम लोग दिव्य दृष्टि से उन क्षेत्रों की वर्तमान स्थिति को देखते हैं, तो बड़ा कष्ट होता है। गंगोत्री से लेकर हरिद्वार तक का पूरा ऋषि क्षेत्र था। उस एकांत में मात्र तपश्चर्या की विधा पूरी होती थी।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 64)
🌹 हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू
🔵 उपासना में ऊबने और अरूचि कि अड़चन उन्हें आती है जिनकी आन्तरिक आकांक्षा भौतिक सुख- सुविधाओं को सर्वस्व मानने की है, जो पूजा- पत्री से मनोकामनाएँ पूर्ण करने की बात सोचते रहते हैं उन्हें ही प्रारब्ध और पुरुषार्थ की न्यूनता के कारण अभिष्ठ वरदान न मिलने पर खीझ होती है। आरम्भ में ही आकांक्षा के प्रतिकूल काम में उदासी रहती है। यह स्थिति दूसरों की होती है, सो वे मन न लगने की शिकायत करते रहते हैं। अपना स्तर दूसरा था। शरीर बहाना- भर माना, वस्तुओं को निर्वाह की भट्ठी जलाने के लिए ईंधन भर समझा। महत्त्वाकाँक्षाएँ बड़ा आदमी बनने और झूठी वाह वाही लूटने की कभी नहीं उठी। जो यही सोचता रहा हम आत्मा हैं, तो क्यों न आत्मोत्कर्ष के लिए, आत्मशान्ति के लिए, आत्मकल्याण के लिए और आत्मविस्तार के लिए जिएँ।
🔴 शरीर और अपने को जब दो भागों में बाँट दिया। शरीर के स्वार्थ और अपने स्वार्थ अलग बाँट दिए तो तो अज्ञात की एक भारी दीवार अपने आप गिर पड़ी और अंधेरे से उजाला हो गया। उपासना में ऊबने और अरुचि की अड़चन उन्हें आती है जिनकी आन्तरिक आकांक्षा भौतिक सुख- सुविधाओं को सर्वस्व मानने की है, जो पूजा- पत्री को मनोकामनाएँ पूर्ण करने की बात सोचते रहते हैं उन्हें ही प्रारब्ध और पुरुषार्थ की न्यूनता के कारण अभिष्ट वरदान न मिलने पर खीझ होती है। आरम्भ में ही आकांक्षा के प्रतिकूल काम में उदासी रहती है।
🔵 यह स्थिति दूसरों की होती है, सो वे मन न लगने की शिकायत करते रहते हैं। अपना स्तर दूसरा था। शरीर बहाना- भर माना, वस्तुओं को निर्वाह की भट्टी जलाने का ईंधन भर समझा। महत्त्वाकांक्षाएँ बड़ा आदमी बनने और झूठी वाह वाही लूटने की कभी नहीं उठी। जो यही सोचता रहा हम आत्मा हैं, तो क्यों न आत्मोत्कर्ष के ली, आत्मशान्ति के लिए, आत्मकल्याण के लिए और आत्मविस्तार के लिए जिएँ। शरीर और अपने को जब दो भागों में बाँट दिया। शरीर के स्वार्थ और अपने स्वार्थ अलग बाँट दिए तो वह अज्ञात की एक भारी दीवार अपने आप गिर पड़ी और अंधेरे से उजाला हो गया।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books/sunsaan_ke_shachar/hamari_jivan_saadhna.2
🔵 उपासना में ऊबने और अरूचि कि अड़चन उन्हें आती है जिनकी आन्तरिक आकांक्षा भौतिक सुख- सुविधाओं को सर्वस्व मानने की है, जो पूजा- पत्री से मनोकामनाएँ पूर्ण करने की बात सोचते रहते हैं उन्हें ही प्रारब्ध और पुरुषार्थ की न्यूनता के कारण अभिष्ठ वरदान न मिलने पर खीझ होती है। आरम्भ में ही आकांक्षा के प्रतिकूल काम में उदासी रहती है। यह स्थिति दूसरों की होती है, सो वे मन न लगने की शिकायत करते रहते हैं। अपना स्तर दूसरा था। शरीर बहाना- भर माना, वस्तुओं को निर्वाह की भट्ठी जलाने के लिए ईंधन भर समझा। महत्त्वाकाँक्षाएँ बड़ा आदमी बनने और झूठी वाह वाही लूटने की कभी नहीं उठी। जो यही सोचता रहा हम आत्मा हैं, तो क्यों न आत्मोत्कर्ष के लिए, आत्मशान्ति के लिए, आत्मकल्याण के लिए और आत्मविस्तार के लिए जिएँ।
🔴 शरीर और अपने को जब दो भागों में बाँट दिया। शरीर के स्वार्थ और अपने स्वार्थ अलग बाँट दिए तो तो अज्ञात की एक भारी दीवार अपने आप गिर पड़ी और अंधेरे से उजाला हो गया। उपासना में ऊबने और अरुचि की अड़चन उन्हें आती है जिनकी आन्तरिक आकांक्षा भौतिक सुख- सुविधाओं को सर्वस्व मानने की है, जो पूजा- पत्री को मनोकामनाएँ पूर्ण करने की बात सोचते रहते हैं उन्हें ही प्रारब्ध और पुरुषार्थ की न्यूनता के कारण अभिष्ट वरदान न मिलने पर खीझ होती है। आरम्भ में ही आकांक्षा के प्रतिकूल काम में उदासी रहती है।
🔵 यह स्थिति दूसरों की होती है, सो वे मन न लगने की शिकायत करते रहते हैं। अपना स्तर दूसरा था। शरीर बहाना- भर माना, वस्तुओं को निर्वाह की भट्टी जलाने का ईंधन भर समझा। महत्त्वाकांक्षाएँ बड़ा आदमी बनने और झूठी वाह वाही लूटने की कभी नहीं उठी। जो यही सोचता रहा हम आत्मा हैं, तो क्यों न आत्मोत्कर्ष के ली, आत्मशान्ति के लिए, आत्मकल्याण के लिए और आत्मविस्तार के लिए जिएँ। शरीर और अपने को जब दो भागों में बाँट दिया। शरीर के स्वार्थ और अपने स्वार्थ अलग बाँट दिए तो वह अज्ञात की एक भारी दीवार अपने आप गिर पड़ी और अंधेरे से उजाला हो गया।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books/sunsaan_ke_shachar/hamari_jivan_saadhna.2
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