काम की तलाश में इधर-उधर धक्के खाने के बाद निराश होकर जब वह घर वापस लौटने लगा तो पीछे से आवाज आयी, ऐ भाई! यहाँ कोई मजदूर मिलेगा क्या?
उसने पीछे मुड़कर देखा तो पाया कि एक झुकी हुई कमर वाला बूढ़ा तीन गठरियाँ उठाए हुए खड़ा है। उसने कहा, हाँ बोलो क्या काम है? मैं ही मजदूरी कर लूँगा।
मुझे रामगढ़ जाना है.........। दो गठरियाँ में उठा लूँगा, पर....मेरी तीसरी गठरी भारी है, इस गठरी को तुम रामगढ़ पहुँचा दो, मैं तुम्हें दो रुपये दूँगा। बोलो काम मंजूर है।
ठीक है। चलो ....आप बुजुर्ग हैं। आपकी इतनी मदद करना तो यूँ भी मैं अपना फर्ज समझता हूँ। इतना कहते हुए गठरी उठाकर अपने सिर पर रख ली। किन्तु गठरी रखते ही उसे इसके भारीपन का अहसास हुआ। उसने बूढ़े से कहा- ये गठरी तो काफी भारी लगती है।
हाँ..... इसमें एक-एक रुपये के सिक्के हैं। बूढ़े ने लगभग फुसफुसाते हुए कहा।
उसने सुना तो सोचा, होंगे मुझे क्या? मुझे तो अपनी मजदूरी से मतलब है। ये सिक्के भला कितने दिन चलेंगे? तभी उसने देखा कि बूढ़ा उस पर नजर रखे हुए है। उसने सोचा कि ये बूढ़ा जरूर ये सोच रहा होगा, कहीं ये भाग तो नहीं जाएगा। पर मैं तो ऐसी बेईमानी और चोरी करने में विश्वास नहीं करता। मैं सिक्कों के लालच में फँसकर किसी के साथ बेईमानी नहीं करूँगा।
चलते-चलते आगे एक नदी आ गयी। वह तो नदी पार करने के लिए झट से पानी में उतर गया, पर बूढ़ा नदी के किनारे खड़ा रहा। उसने बूढ़े की ओर देखते हुए पूछा- क्या हुआ? आखिर रुक क्यों गए?
बूढ़ा आदमी हूँ। मेरी कमर ऊपर से झुकी हुई है। दो-दो गठरियों का बोझ नहीं उठा सकता.... कहीं मैं नदी में डूब ही न जाऊँ। तुम एक गठरी और उठा लो। मजदूरी की चिन्ता न करना, मैं तुम्हें एक रुपया और दे दूँगा।
ठीक है लाओ।
पर इसे लेकर कहीं तुम भाग तो नहीं जाओगे?
क्यों, भला मैं क्यों भागने लगा?
भाई आजकल किसी का क्या भरोसा? फिर इसमें चाँदी के सिक्के जो हैं।
मैं आपको ऐसा चोर-बेईमान दीखता हूँ क्या? बेफिक्र रहें मैं चाँदी के सिक्कों के लालच में किसी को धोखा देने वालों में नहीं हूँ। लाइए, ये गठरी मुझे दे दीजिए।
दूसरी गठरी उठाकर उसने नदी पार कर ली। चाँदी के सिक्कों का लालच भी उसे डिगा नहीं पाया। थोड़ी दूर आगे चलने के बाद सामने पहाड़ी आ गयी।
वह धीरे - धीरे पहाड़ी पर चढ़ने लगा। पर बूढ़ा अभी तक नीचे ही रुका हुआ था। उसने कहा-आइए ना, फिर से रुक क्यों गए? बूढ़ा आदमी हूँ। ठीक से चल तो पाता नहीं हूँ। ऊपर से कमर पर एक गठरी का बोझ और, उसके भी ऊपर पहाड़ की दुर्गम चढ़ाई।
तो लाइए ये गठरी भी मुझे दे दीजिए बेशक और मजदूरी भी मत देना।
पर कैसे दे दूँ? इसमें तो सोने के सिक्के हैं और अगर तुम इन्हें लेकर भाग गए तो मैं बूढ़ा तुम्हारे पीछे भाग भी नहीं पाऊँगा।
कहा न मैं ऐसा आदमी नहीं हूँ। ईमानदारी के चक्कर में ही तो मुझे मजदूरी करनी पड़ रही है, वरना पहले मैं एक सेठजी के यहाँ मुनीम की नौकरी करता था। सेठजी मुझसे हिसाब में गड़बड़ करके लोगों को ठगने के लिए दबाव डालते थे। तब मैंने ऐसा करने से मना कर दिया और नौकरी छोड़कर चला आया। उसने यूँ अपना बड़प्पन जताने के लिए गप्प हाँकी।
पता नहीं तुम सच कह रहे हो या.....। खैर उठा लो ये सोने के सिक्कों वाली तीसरी गठरी भी। मैं धीरे-धीरे आता हूँ। तुम मुझसे पहले पहाड़ी पार कर लो, तो दूसरी तरफ नीचे रुककर मेरा इंतजार करना।
वह सोने के सिक्कों वाली गठरी उठाकर चल पड़ा। बूढ़ा बहुत पीछे रह गया था। उसके दिमाग में आया, अगर मैं भाग जाऊँ, तो ये बूढ़ा तो मुझे पकड़ नहीं सकता और मैं एक ही झटके में मालामाल हो जाऊँगा। मेरी पत्नी जो मुझे रोज कोसती रहती है, कितना खुश हो जाएगी? इतनी आसानी से मिलने वाली दौलत ठुकराना भी बेवकूफी है.........। एक ही झटके में धनवान हो जाऊँगा। पैसा होगा, तो इज्जत-ऐश-आराम सब कुछ मिलेगा मुझे........।
उसके दिल में लालच आ गया और बिना पीछे देखे भाग खड़ा हुआ। तीन-तीन भारी गठरियों का बोझ उठाए भागते-भागते उसकी साँस फूल गयी।
घर पहुँचकर उसने गठरियाँ खोल कर देखीं, तो अपना सिर पीटकर रह गया। गठरियों में सिक्कों जैसे बने हुए मिट्टी के ढेले ही थे। वह सोच में पड़ गया कि बूढ़े को इस तरह का नाटक करने की जरूरत ही क्या थी? तभी उसकी पत्नी को मिट्टी के सिक्कों के ढेर में से एक कागज मिला, जिस पर लिखा था, “यह नाटक इस राज्य के खजाने की सुरक्षा के लिए ईमानदार सुरक्षामंत्री खोजने के लिए किया गया। परीक्षा लेने वाला बूढ़ा और कोई नहीं स्वयं महाराजा ही थे। अगर तुम भाग न निकलते तो तुम्हें मंत्रीपद और मान-सम्मान सभी कुछ मिलता। पर............... “
हम सभी को सचेत रहना चाहिए, न जाने जीवन देवता कब हममें से किसकी परीक्षा ले ले। प्रलोभनों में न डिगकर सिद्धान्तों को पकड़े रखने में ही दूरदर्शिता है।
~अखण्ड ज्योति- सितम्बर 1998
उसने पीछे मुड़कर देखा तो पाया कि एक झुकी हुई कमर वाला बूढ़ा तीन गठरियाँ उठाए हुए खड़ा है। उसने कहा, हाँ बोलो क्या काम है? मैं ही मजदूरी कर लूँगा।
मुझे रामगढ़ जाना है.........। दो गठरियाँ में उठा लूँगा, पर....मेरी तीसरी गठरी भारी है, इस गठरी को तुम रामगढ़ पहुँचा दो, मैं तुम्हें दो रुपये दूँगा। बोलो काम मंजूर है।
ठीक है। चलो ....आप बुजुर्ग हैं। आपकी इतनी मदद करना तो यूँ भी मैं अपना फर्ज समझता हूँ। इतना कहते हुए गठरी उठाकर अपने सिर पर रख ली। किन्तु गठरी रखते ही उसे इसके भारीपन का अहसास हुआ। उसने बूढ़े से कहा- ये गठरी तो काफी भारी लगती है।
हाँ..... इसमें एक-एक रुपये के सिक्के हैं। बूढ़े ने लगभग फुसफुसाते हुए कहा।
उसने सुना तो सोचा, होंगे मुझे क्या? मुझे तो अपनी मजदूरी से मतलब है। ये सिक्के भला कितने दिन चलेंगे? तभी उसने देखा कि बूढ़ा उस पर नजर रखे हुए है। उसने सोचा कि ये बूढ़ा जरूर ये सोच रहा होगा, कहीं ये भाग तो नहीं जाएगा। पर मैं तो ऐसी बेईमानी और चोरी करने में विश्वास नहीं करता। मैं सिक्कों के लालच में फँसकर किसी के साथ बेईमानी नहीं करूँगा।
चलते-चलते आगे एक नदी आ गयी। वह तो नदी पार करने के लिए झट से पानी में उतर गया, पर बूढ़ा नदी के किनारे खड़ा रहा। उसने बूढ़े की ओर देखते हुए पूछा- क्या हुआ? आखिर रुक क्यों गए?
बूढ़ा आदमी हूँ। मेरी कमर ऊपर से झुकी हुई है। दो-दो गठरियों का बोझ नहीं उठा सकता.... कहीं मैं नदी में डूब ही न जाऊँ। तुम एक गठरी और उठा लो। मजदूरी की चिन्ता न करना, मैं तुम्हें एक रुपया और दे दूँगा।
ठीक है लाओ।
पर इसे लेकर कहीं तुम भाग तो नहीं जाओगे?
क्यों, भला मैं क्यों भागने लगा?
भाई आजकल किसी का क्या भरोसा? फिर इसमें चाँदी के सिक्के जो हैं।
मैं आपको ऐसा चोर-बेईमान दीखता हूँ क्या? बेफिक्र रहें मैं चाँदी के सिक्कों के लालच में किसी को धोखा देने वालों में नहीं हूँ। लाइए, ये गठरी मुझे दे दीजिए।
दूसरी गठरी उठाकर उसने नदी पार कर ली। चाँदी के सिक्कों का लालच भी उसे डिगा नहीं पाया। थोड़ी दूर आगे चलने के बाद सामने पहाड़ी आ गयी।
वह धीरे - धीरे पहाड़ी पर चढ़ने लगा। पर बूढ़ा अभी तक नीचे ही रुका हुआ था। उसने कहा-आइए ना, फिर से रुक क्यों गए? बूढ़ा आदमी हूँ। ठीक से चल तो पाता नहीं हूँ। ऊपर से कमर पर एक गठरी का बोझ और, उसके भी ऊपर पहाड़ की दुर्गम चढ़ाई।
तो लाइए ये गठरी भी मुझे दे दीजिए बेशक और मजदूरी भी मत देना।
पर कैसे दे दूँ? इसमें तो सोने के सिक्के हैं और अगर तुम इन्हें लेकर भाग गए तो मैं बूढ़ा तुम्हारे पीछे भाग भी नहीं पाऊँगा।
कहा न मैं ऐसा आदमी नहीं हूँ। ईमानदारी के चक्कर में ही तो मुझे मजदूरी करनी पड़ रही है, वरना पहले मैं एक सेठजी के यहाँ मुनीम की नौकरी करता था। सेठजी मुझसे हिसाब में गड़बड़ करके लोगों को ठगने के लिए दबाव डालते थे। तब मैंने ऐसा करने से मना कर दिया और नौकरी छोड़कर चला आया। उसने यूँ अपना बड़प्पन जताने के लिए गप्प हाँकी।
पता नहीं तुम सच कह रहे हो या.....। खैर उठा लो ये सोने के सिक्कों वाली तीसरी गठरी भी। मैं धीरे-धीरे आता हूँ। तुम मुझसे पहले पहाड़ी पार कर लो, तो दूसरी तरफ नीचे रुककर मेरा इंतजार करना।
वह सोने के सिक्कों वाली गठरी उठाकर चल पड़ा। बूढ़ा बहुत पीछे रह गया था। उसके दिमाग में आया, अगर मैं भाग जाऊँ, तो ये बूढ़ा तो मुझे पकड़ नहीं सकता और मैं एक ही झटके में मालामाल हो जाऊँगा। मेरी पत्नी जो मुझे रोज कोसती रहती है, कितना खुश हो जाएगी? इतनी आसानी से मिलने वाली दौलत ठुकराना भी बेवकूफी है.........। एक ही झटके में धनवान हो जाऊँगा। पैसा होगा, तो इज्जत-ऐश-आराम सब कुछ मिलेगा मुझे........।
उसके दिल में लालच आ गया और बिना पीछे देखे भाग खड़ा हुआ। तीन-तीन भारी गठरियों का बोझ उठाए भागते-भागते उसकी साँस फूल गयी।
घर पहुँचकर उसने गठरियाँ खोल कर देखीं, तो अपना सिर पीटकर रह गया। गठरियों में सिक्कों जैसे बने हुए मिट्टी के ढेले ही थे। वह सोच में पड़ गया कि बूढ़े को इस तरह का नाटक करने की जरूरत ही क्या थी? तभी उसकी पत्नी को मिट्टी के सिक्कों के ढेर में से एक कागज मिला, जिस पर लिखा था, “यह नाटक इस राज्य के खजाने की सुरक्षा के लिए ईमानदार सुरक्षामंत्री खोजने के लिए किया गया। परीक्षा लेने वाला बूढ़ा और कोई नहीं स्वयं महाराजा ही थे। अगर तुम भाग न निकलते तो तुम्हें मंत्रीपद और मान-सम्मान सभी कुछ मिलता। पर............... “
हम सभी को सचेत रहना चाहिए, न जाने जीवन देवता कब हममें से किसकी परीक्षा ले ले। प्रलोभनों में न डिगकर सिद्धान्तों को पकड़े रखने में ही दूरदर्शिता है।
~अखण्ड ज्योति- सितम्बर 1998