भय सामने आते हैं और बच निकलने के लिये अनीति मूलक रास्ता अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं। ऊँचे ऑफिसर दबाते हैं कि हमारी इच्छानुसार गलत काम करो अन्यथा तुम्हें तंग किया जायेगा। आतंकवादी गुण्डा तत्व धमकाते हैं कि उनका सहयोग करो-विरोध में मुँह न खोलो अन्यथा खतरा उठाओगे। अमुक अवाँछनीय अवसर छोड़ देने पर लाभ से वञ्चित रहने पर स्वजन सम्बन्धी रुष्ट होंगे। कन्या के विवाह आदि में कठिनाई आयेगी आदि अनेक भय सामने रहते हैं और वे विवश करते हैं कि झंझट में पड़ने की अपेक्षा अनीति के साथ समझौता कर लेना ठीक है। इस आतंकवादी दबाव को मानने से जो इनकार कर देता है, आत्म गौरव को-आदर्श को-गँवाने गिराने की अपेक्षा संकट को शिरोधार्य करता है वह बहादुर है। योद्धा वे हैं जो नम्र रहते हैं, उदारता और सज्जनता से भरे होते हैं पर अनीति के आगे झुकते नहीं, भय के दबाव से नरम नहीं पड़ते भले ही उन्हें टूट कर टुकड़े-टुकड़े हो जाना पड़े।
जो अपने चरित्र रूपी दुर्ग को भय और प्रलोभन की आक्रमणकारी असुरता से बचाये रहता है, उस प्रहरी को सचमुच शूरवीर कहा जायेगा। जिसने आदर्शों की रक्षा की, जिसने कर्त्तव्य को प्रधानता दी-जिसने सच्चाई को ही स्वीकार किया उसी को योद्धा का सम्मान दिया जाना चाहिए। हथियारों की सहायता से एक आदमी दूसरे आदमी की जान ले ले यह कोई बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात यह है कि औचित्य की राज-सभा में मनुष्य अंगद की तरह पैर जमा दे और फिर कोई भी न उखाड़ सके भले ही वह रावण जैसा साधन सम्पन्न क्यों न हो।
अनीतिपूर्वक देश पर आक्रमण करने वाले शत्रुओं का प्राण हथेली पर रखकर सामना करने वाले सैनिक इसलिए सराहे जाते हैं कि वे आदर्श के लिए देश रक्षा के लिए लड़े। उनका युद्ध पराक्रम इसलिए सम्मानित हुआ कि उसमें आदर्श प्रधान था। उसी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित होकर कोई समूह कहीं अनीति पूर्वक चढ़ दौड़े और कितनों को ही मार गिराये तो बंगाल देश में बरती गई बर्बरता की तरह उस शस्त्र संचालन को भी निन्दनीय ही ठहराया जायेगा, डाकू भी तो शस्त्र ही चलाते हैं- साहस तो वे भी दिखाते हैं पर उस क्रिया के पीछे निष्कृष्ट स्वार्थपरता सन्निहित रहने के कारण सब और से धिक्कारा ही जाता है। उत्पीड़ित वर्ग, समाज, शासन, अन्तःकरण सभी ओर से उन पर लानत बरसती है। उसे योद्धा कौन कहेगा जिसके उद्देश्य को घृणित ठहराया जाय।
पानी के बहाव में हाथी बहते चले जाते हैं पर मछली उस तेज प्रवाह को चीरकर उलटी चल सकने में समर्थ होती है। लोक मान्यता और परम्परा में विवेक कम और रूढ़िवादिता के तत्व अधिक रहते हैं। इसमें से हंस की तरह नीर क्षीर का विवेक कौन करता रहता है। ‘सब धान बाईस पसेरी’ बिकते रहते हैं। भला-बुरा सब कुछ लोक प्रवाह में बहता रहता है। उसमें काट-छाँट करने का कष्ट कौन उठाता है। फिर जो अनुचित है उसका विरोध कौन करता है। लोक प्रवाह के विपरीत जाने में विरोध, उपहास, तिरस्कार का भय रहता है। ऐसी दशा में अवाँछनीय परम्पराओं का विरोध करने की हिम्मत कौन करता है। यह शूरवीरों का काम है जो सत्य की ध्वजा थामे अकेले ही खड़े रहे। शंकराचार्य, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, राजाराम मोहनराय, स्वामी दयानन्द, महात्मा गाँधी सरीखे साहसी कोई विरले ही निकलते हैं जो परम्पराओं और प्रचलित मान्यताओं को चुनौती देकर केवल न्याय और औचित्य अपनाने का आग्रह करते हैं। ऐसे लोगों को ईसा, सुकरात, देवी, जॉन अब्राहम लिंकन आदि की तरह अपनी जाने भी गँवानी पड़ती हैं पर शूरवीर इसकी परवा कहाँ करते हैं। सत्य की वेदी पर प्राणों की श्रद्धाञ्जली समर्पित करते हुए उन्हें डर नहीं लगता वरन् प्रसन्नता ही होती है।
✍🏻 पं श्री राम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1972 पृष्ठ ३०