सोमवार, 6 सितंबर 2021

👉 सच्चे शौर्य और सत्साहस की कसौटी (भाग २)

भय सामने आते हैं और बच निकलने के लिये अनीति मूलक रास्ता अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं। ऊँचे ऑफिसर दबाते हैं कि हमारी इच्छानुसार गलत काम करो अन्यथा तुम्हें तंग किया जायेगा। आतंकवादी गुण्डा तत्व धमकाते हैं कि उनका सहयोग करो-विरोध में मुँह न खोलो अन्यथा खतरा उठाओगे। अमुक अवाँछनीय अवसर छोड़ देने पर लाभ से वञ्चित रहने पर स्वजन सम्बन्धी रुष्ट होंगे। कन्या के विवाह आदि में कठिनाई आयेगी आदि अनेक भय सामने रहते हैं और वे विवश करते हैं कि झंझट में पड़ने की अपेक्षा अनीति के साथ समझौता कर लेना ठीक है। इस आतंकवादी दबाव को मानने से जो इनकार कर देता है, आत्म गौरव को-आदर्श को-गँवाने गिराने की अपेक्षा संकट को शिरोधार्य करता है वह बहादुर है। योद्धा वे हैं जो नम्र रहते हैं, उदारता और सज्जनता से भरे होते हैं पर अनीति के आगे झुकते नहीं, भय के दबाव से नरम नहीं पड़ते भले ही उन्हें टूट कर टुकड़े-टुकड़े हो जाना पड़े।

जो अपने चरित्र रूपी दुर्ग को भय और प्रलोभन की आक्रमणकारी असुरता से बचाये रहता है, उस प्रहरी को सचमुच शूरवीर कहा जायेगा। जिसने आदर्शों की रक्षा की, जिसने कर्त्तव्य को प्रधानता दी-जिसने सच्चाई को ही स्वीकार किया उसी को योद्धा का सम्मान दिया जाना चाहिए। हथियारों की सहायता से एक आदमी दूसरे आदमी की जान ले ले यह कोई बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात यह है कि औचित्य की राज-सभा में मनुष्य अंगद की तरह पैर जमा दे और फिर कोई भी न उखाड़ सके भले ही वह रावण जैसा साधन सम्पन्न क्यों न हो।

अनीतिपूर्वक देश पर आक्रमण करने वाले शत्रुओं का प्राण हथेली पर रखकर सामना करने वाले सैनिक इसलिए सराहे जाते हैं कि वे आदर्श के लिए देश रक्षा के लिए लड़े। उनका युद्ध पराक्रम इसलिए सम्मानित हुआ कि उसमें आदर्श प्रधान था। उसी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित होकर कोई समूह कहीं अनीति पूर्वक चढ़ दौड़े और कितनों को ही मार गिराये तो बंगाल देश में बरती गई बर्बरता की तरह उस शस्त्र संचालन को भी निन्दनीय ही ठहराया जायेगा, डाकू भी तो शस्त्र ही चलाते हैं- साहस तो वे भी दिखाते हैं पर उस क्रिया के पीछे निष्कृष्ट स्वार्थपरता सन्निहित रहने के कारण सब और से धिक्कारा ही जाता है। उत्पीड़ित वर्ग, समाज, शासन, अन्तःकरण सभी ओर से उन पर लानत बरसती है। उसे योद्धा कौन कहेगा जिसके उद्देश्य को घृणित ठहराया जाय।

पानी के बहाव में हाथी बहते चले जाते हैं पर मछली उस तेज प्रवाह को चीरकर उलटी चल सकने में समर्थ होती है। लोक मान्यता और परम्परा में विवेक कम और रूढ़िवादिता के तत्व अधिक रहते हैं। इसमें से हंस की तरह नीर क्षीर का विवेक कौन करता रहता है। ‘सब धान बाईस पसेरी’ बिकते रहते हैं। भला-बुरा सब कुछ लोक प्रवाह में बहता रहता है। उसमें काट-छाँट करने का कष्ट कौन उठाता है। फिर जो अनुचित है उसका विरोध कौन करता है। लोक प्रवाह के विपरीत जाने में विरोध, उपहास, तिरस्कार का भय रहता है। ऐसी दशा में अवाँछनीय परम्पराओं का विरोध करने की हिम्मत कौन करता है। यह शूरवीरों का काम है जो सत्य की ध्वजा थामे अकेले ही खड़े रहे। शंकराचार्य, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, राजाराम मोहनराय, स्वामी दयानन्द, महात्मा गाँधी सरीखे साहसी कोई विरले ही निकलते हैं जो परम्पराओं और प्रचलित मान्यताओं को चुनौती देकर केवल न्याय और औचित्य अपनाने का आग्रह करते हैं। ऐसे लोगों को ईसा, सुकरात, देवी, जॉन अब्राहम लिंकन आदि की तरह अपनी जाने भी गँवानी पड़ती हैं पर शूरवीर इसकी परवा कहाँ करते हैं। सत्य की वेदी पर प्राणों की श्रद्धाञ्जली समर्पित करते हुए उन्हें डर नहीं लगता वरन् प्रसन्नता ही होती है।

✍🏻 पं श्री राम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1972 पृष्ठ ३०

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ५९)

हम विश्वात्मा के घटक

अमेरिका के पागलखानों में किए गए सर्वेक्षण में पाया गया कि पूर्णिमा के दिन मानसिक रोगी अधिक विक्षिप्त हो जाते हैं, जबकि अमावस के दिन यह दौर सर्वाधिक कम होता है। विक्षिप्त ही नहीं, सामान्य मनुष्यों की चित्त-दशा पर भी चन्द्रकलाओं के उतार-चढ़ाव का प्रभाव पड़ना सामूहिक मनश्चेतना का ही द्योतक है।

वनस्पति विज्ञानी वृक्षों के तनों में बनने वाले वर्तुलों द्वारा वृक्षों के जीवन का अध्ययन करते हैं। देखा गया है कि वृक्ष में प्रतिवर्ष एक वृन्त बनता है, जोकि उसके द्वारा छोड़ी गई छाल से विनिर्मित होता है। हर ग्यारहवें वर्ष यह वृन्त सामान्य वृन्तों की अपेक्षा बड़ा बनता है। अमेरिका के रिसर्च सेन्टर आफ ट्री रिंग ने पता लगाया कि ग्यारहवें वर्ष जब सूर्य पर आणविक विस्फोट होते हैं तो वृक्ष का तना मोटा हो जाता है और उसी कारण वृन्त बड़ा बनता है। स्पष्ट है कि सूर्य और चन्द्र के परिवर्तनों से मनुष्यों एवं पशु-पक्षी तथा पेड़ पौधे भी प्रभावित होते हैं। तब क्या मात्र मनुष्यों में ही सामूहिक मनश्चेतना न होकर सम्पूर्ण सृष्टि में ही कोई एक समष्टि चेतना विद्यमान है, यह प्रश्न आज वैज्ञानिकों के सामने खड़ा उन्हें आकर्षित कर रहा है।

डा. हेराल्ड श्वाइत्जर के नेतृत्व में आस्ट्रिया के वैज्ञानिकों ने सूर्यग्रहण के प्रभावों का निरीक्षण-परीक्षण कर यह निष्कर्ष निकाला कि पूर्ण सूर्यग्रहण के समय सामान्य कीट-पतंग भी विचित्र आचरण करने लगते हैं।

अनेक पक्षी सूर्यग्रहण के चौबीस घण्टे पूर्व ही चहचहाना बन्द कर देते हैं। चींटियां सूर्यग्रहण के आधा घण्टे पूर्व से भोजन की खोजबीन बन्द कर देती हैं और व्यर्थ ही भटकती रहती है। सदा चंचल बंदर वृक्षों को छोड़कर जमीन पर आ बैठता है। वुड लाइस, बीटल्स, मिली पीड्स आदि ऐसे कीट-पतंग जो सामान्यतः रात्रि में ही बाहर निकलते हैं, वे भी सूर्यग्रहण के दिन बाहर निकले देखे जाते हैं। दिशा-विज्ञान में दक्ष चिड़ियां चहकना भी भूल-सी जाती हैं।

जापान के प्रख्यात जैविकीविद् तोनातो के अनुसार हर ग्यारहवें वर्ष सूर्य पर होने वाले आणविक विस्फोटों के समय पृथ्वी पर पुरुषों के रक्त में अम्ल तत्व बढ़ जाते हैं और उनका रक्त पतला पड़ जाता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ९५
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ५९)

कर्म, ज्ञान और योग से भी श्रेष्ठ है भक्ति

देवर्षि के इन स्वरों में वीणा की झंकृति थी। यह झंकृति कुछ ऐसी थी कि उपस्थित सभी लोगों की हृदय वीणा अपने आप ही झंकृत हो उठी। सभी के भाव अपने आप ही समस्वरित हो गए। जो वहाँ थे सबके सब विभूति सम्पन्न थे। महान् कर्मयोगी, महाज्ञानी, योगसिद्ध महामानव उस समागम में उपस्थित थे। ब्रह्मा जी के मानसपुत्र नारद की बातों ने सबको चौंकाया, चकित किया, पर सब चुप रहे। हाँ, देवर्षि अवश्य अपनी रौ में कहे जा रहे थे- ‘‘भक्ति की श्रेष्ठता यही है कि यह भगवान् के द्वारा भक्त की खोज है। सुरसरि सागर की तरफ जाय तो कर्म, योग और ज्ञान, पर जब सागर सुरसरि की ओर दौड़ा चला आए तो भक्ति। भक्ति कुछ ऐसी है कि छोटा बच्चा पुकारता, रोता है, तो माँ दौड़ी चली आती है। भक्ति तो बस भक्त का रुदन है। भक्त के हृदय से उठी आह है।
    
भक्ति जीवन की सारी साधना, सारे प्रयास-प्रयत्नों की व्यर्थता को स्वीकार है। भक्ति तो बस भक्त के आँसू है, जो अपने भगवान् को पुकारते हुए बहाता है। कर्मयोग कहता है- तुम गलत कर रहे हो, ठीक करने लगो तो पहुँच जाओगे। ज्ञान योग कहता है कि तुम गलत जानते हो, सही जान लो तो पहुँच जाओगे। योगशास्त्र कहता है तुम्हें विधियों का ज्ञान नहीं है, राहें मालूम नहीं है, विधियाँ सीख लो, उनका अभ्यास करो तो पहुँच जाओगे। भक्ति कहती है- तुम ही गलत हो- न ज्ञान से पहुँचोगे, न कर्म से और न योग से। बस तुम अपने अहं से छूटकर अपने भगवान के हो जाओ। अब न रहे तुम्हारा परिचय, बस केवल तुम्हारे प्रभु ही तुम्हारा परिचय बन जायें तो पहुँच जाओगे। भला छोटा सा बच्चा कैसे ढूँढे अपनी माँ को, वह तो रोएगा, माँ अपने आप ही उसे ढूँढ लेगी। भक्त बस रो-रो कर पुकारेगा अपने भगवान को, वे स्वयं ही उसे ढूँढ लेंगे। यही तो भक्ति है।’’
    
देवर्षि नारद की बातों में भावों का अपूर्व आवेग था। इस आवेग ने सबको अपने में समेट लिया। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ की भी आँखें भीग गयीं। थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह बोले- ‘‘शबरी ऐसी ही भक्त थी। मैंने एक बार उस भोली बालिका को तब देखा था, जब वह महर्षि मतंग के आश्रम में आयी थी। बाद में बहुत समय के बाद युगावतार मर्यादा पुरुषोत्तम राम अपने प्रिय भ्राता लक्ष्मण के साथ उससे मिलने गए थे। इस मिलन की कथा वत्स लक्ष्मण ने मुझे अयोध्या वापस आने पर सुनायी थी।’’ ब्रह्मर्षि की ये बातें सुनकर समूची सभा ने समवेत स्वर में कहा- ‘‘उन महान भक्त की कथा सुनाकर हमें भी अनुग्रहीत करें देवर्षि!’’ इस निवेदन के उत्तर में वशिष्ठ ने नारद की ओर देखा। उन्हें अपनी ओर देखकर नारद ने गद्गद् कण्ठ से कहा- ‘‘आपके मुख से शबरी की कथा सुनकर हम सभी धन्य होंगे।’’
    
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १०६

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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