👉 ब्रह्म साक्षात्कार क्यों नहीं होता?
आत्मकल्याण के पथ पर अग्रसर होने के इच्छुक साधक के लिये अपने आपको नियम पर दृढ़ रखने तथा नियमित जप, तप, उपासना साधना करते रहना ब्रह्म प्राप्ति के लिए आवश्यक ही नहीं प्रथम शर्त भी है। बिना साधना कि सिद्धि नहीं मिलती है। एक परीक्षा में सफल होने के लिए विद्यार्थी को कितना श्रम करना पड़ता है। एक मोती को समुद्र तल से निकालने के लिए किस प्रकार जान को हथेली पर रखकर समुद्र की गहराई में उतरना पड़ता है, किसी मंजिल तक पहुँचने में राही को कितना श्रम करना पड़ता है। साध्य तक पहुँचने के लिए साधना आवश्यक है। उसी प्रकार ब्रह्म साक्षात्कार के लिए पूज, उपासना, दैनिक कृत्य भी अनिवार्य है। इस प्राथमिक सोपान पर चलकर ही आगे बढ़ना सम्भव है।
किन्तु बहुधा साधना उपासना करते हुए भी लक्ष्य की प्राप्ति क्यों नहीं होती? समस्त जीवन चला जाता है, इतना ही नहीं अनेकों जन्म इसमें लग जाते है फिर भी उस परब्रह्म की अनुभूति प्राप्त नहीं होती? अशान्तियों और उद्वेगों से छुटकारा भी नहीं मिलता। इस असफलता का कारण क्या है यह प्रश्न विचारणीय है।
साधना के दो अंग हैं- चेष्टा और दूसरा त्याग। किसी की प्राप्ति के लिए चेष्टा करनी पड़ती है साथ ही उसके लिए त्याग भी? नदी अपनी सम्पूर्ण चेष्टा से विराट सागर की ओर धावमान होती है उसमें एकरस एक्य की प्राप्ति के लिए। किन्तु उसकी चेष्टा में वह सम्पूर्ण भाव भी परिलक्षित होता है जिसमें वह अपने आप को पद-पद पर विराट के लिए निवेदन करती हुई आगे बढ़ती है। अपनी वर्तमान स्थिति को उसी के लिए क्षण-क्षण में उत्सर्ग करती हैं।
आध्यात्मिक साधना का पथ भी ठीक इसी प्रकार है। जिस प्रकार पूजा, उपासना, साधना, स्वाध्याय आदि से अपने ज्ञान को विशुद्ध एवं शक्ति को सचेष्ट रखना पड़ता है दूसरी ओर सम्पूर्ण भाव से अपने आपको ईश्वर की इच्छा पर उसी के लिए से निवेदित करना पड़ता है। जब साँसारिक तुच्छ लाभों के लिए कुछ न कुछ उत्सर्ग करना पड़ता है तो उस समग्र-अखण्ड, विश्वात्मा, ब्रह्म के साक्षात्कार के लिए अपने आपको सम्पूर्ण रूपेण निवेदन करना ही पड़ेगा पतंगा अपने आपको सम्पूर्ण भाव से दीपक को अर्पण कर देता है और तभी वह लौ में मिल जाता है? अपने प्रियतम के मिलन के लिए उसे समग्र भाव से अपने आपको अर्पण करना पड़ता है।
पूजा, उपासना, नियम, साधना के पथ पर दृढ़ता रखकर बढ़ने वाले अनेकों साधक मिला जायेंगे जो कठोरतम चेष्टाएँ जारी रखते है किन्तु अपने आपका समर्पण करने वाले साधक बहुत ही कम दिखाई देते है। यह ही ब्रह्म साक्षात्कार के पथ का रहस्य है। अक्सर मनुष्य उस प्रियतम, परमात्मा के मिलन पथ में भी कृपणता करता है और अपने आपको स्वयं के हाथों में ही रखना चाहता है। दूसरों के-उस विराट के हाथों में नहीं देना चाहता? कठोर साधनाओं और व्रत पालन में वह प्राण पण चेष्टा जारी रखता है अपनी साधना का हिसाब लगाकर एक विशेष अभिमान पूर्ण आनन्द के साथ ब्रह्म साक्षात्कार का मूल्यांकन करता है।
तुच्छ मनुष्य केवल अपनी शक्ति, सामर्थ्य साधना के बल पर उस विश्वात्मा के साथ व्यापार नहीं कर सकता। उस अनन्त अखण्ड, सर्वव्यापक को नहीं जान सकता और न उसकी अनुभूति हो प्राप्त कर सकता हैं इनके साथ-साथ उसे अपने आपको सम्पूर्ण भाव से उसके लिए निवेदित, उत्सर्ग करना ही पड़ेगा। बिना इसके सिद्धि प्राप्त नहीं होगी और तभी प्रभु मिलन का पथ सहज सुगम और लघु बन जायेगा। उसकी दिव्य अनुभूति, हमारे हृदय में उसी तरह आलोकित हो उठेगी जैसे प्रातः होते ही सूर्य की प्रकाश किरणों से विश्व भुवन प्रकाशित हो उठता है। उसके लिए तब कोई कठिन साधना नहीं करनी पड़ती है।
ब्रह्म प्राप्ति के लिए हमें अपने आपको देना होगा। उन्होंने तो अपने आपको दे डाला। सर्वव्यापी प्रभु सर्वदा सर्वत्र ही हमारे भीतर बाहर व्याप्त है। हमारे अन्दर अभाव है, हम संकीर्णता का बना पहने हुए है, मैं और ममत्व की रंगीन ऐनक लगाये हुए हैं इसी लिए उनके पुण्य मिलन से हम दूर है। हमने नाना प्रकार के स्वार्थ अहंकार, क्षुद्रता के कठिनतम घेरों में अपने आपको आबद्ध कर लिया है जहाँ अपनी स्वतन्त्र सत्त को देखते है, किन्तु प्रभु मिलन के मार्ग को यही तो कठिन बनाये हुए है और हमें उस की अनुभूति से वंचित रखते है। इसी कमी के कारण हम कठिन साधनाएँ करते हुए भी देर तक विश्वात्मा, ब्रह्म की झलक नहीं पाते।
उपासना, साधना पूजा, आदि का वास्तविक उद्देश्य ईश्वर को प्राप्त करना ही नहीं है वरन अपने आपको उनके लिए समर्पित करने के लिए भी है। दिन प्रतिदिन भक्ति द्वारा, पूजा उपासना सेवादि द्वारा अपने आपको उस ब्रह्म में बाधा हीन रूप से व्याप्त कर देना ही उपासना आदि का सच्चा रूप है और ऐसी ही पूजा से प्रभु को प्राप्त करने की चिर इच्छापूर्ण होती हैं।
उपनिषद् में कहा है कि ‘ब्रह्म तल्लक्षमुच्यते” ब्रह्म ही उसका लक्ष है। तो फिर लक्ष को अपनी ओर नहीं खींचा जा सकता, अपने आपको ही लक्ष्य तक पहुँचाना होता है। जिस प्रकार निशाना लगाकर तीर चलाने पर वह सम्पूर्ण रूपेण अपने लक्ष्य के प्रति अपने आपको अर्पण करता है उसी प्रकार ब्रह्म प्राप्ति के लिए उसी में सर्वस्व अर्पण करके तन्मय हो जाना पड़ेगा। सकल अवस्थाओं में सकल कार्यों उपलब्धि एवं स्थितियों में वही एक मात्र भाव बनाये रखना पड़ेगा।
प्रभु से हमारी दूरी, दुःख, वेदना, क्लान्ति आदि इसलिए है कि हम अपने अहं को मिटा नहीं पात। यह अहं ही हमारे और उनके बीच में दीवार बन बैठा हे जो अपनी स्वतंत्र सत्ता शक्ति सामर्थ्य से उस अखण्ड, सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान को पाने की मिथ्या कल्पना करता है और हमें उनसे दूर रखता हैं इसलिए अहंकार को उसके उच्च शिखर से उतार कर निम्न स्थिति में ले जाना होगा। सकल विश्व के साथ समानता एवं एकता रखकर अपने आपको सब के पीछे ले जाकर खड़ा करना होगा सबसे नीचे बैठना होगा। हम अकिंचनता और दीनता में प्रभु की कृपा दृष्टि पाकर सदा के लिए उनके बन जायेगा। जब हम सब प्राणिमात्र के साथ बैठे है एकता स्थापित करते हैं अपने अहंकार को कम करके परमात्मा के हाथों में अपना समर्पण करते हैं तभी हम उस ब्रह्म की गोद में बैठने के अधिकारी बनते है।
ब्रह्म साक्षात्कार के लिए अपने ज्ञान की विशुद्धि शक्ति के सचेष्टता के साथ-साथ अपना आत्म संपर्क उस परम सत्ता में करना होगा। अहंकार को मारना होगा। अपने को उस प्रभु के हृदय देश में स्थापित कर उसी की इच्छा से सर्व क्रिया कलाप जारी रखना होगा। अपने आपको सम्पूर्ण भाव से उसमें निवेदित करना होगा। अहंकार, स्वार्थ, तुच्छता संकीर्णता को त्याग नम्रताशील, सामंजस्य, उदारता की साधना करनी होगी। अकिंचन भाव से परमात्मा सत्ता को सर्वत्र स्वीकार करते हुए भेद, विविधता ऊंच-नीच की दृष्टि का त्याग करना होगा।
श्री स्वामी चिन्मयानंद जी महाराज
अखण्ड ज्योति अप्रैल 1961 पृष्ठ 12
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