सोमवार, 30 मई 2022

👉 विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग ५)

चिन्तन क्रम व्यवस्थित हो

‘जो होगा सो देखा जायेगा’, किसान यह नीति अपनाकर फसलों की देखरेख करना छोड़ दे, निराई-गुड़ाई करने की व्यवस्था न बनाये, खाद-पानी देना बन्द कर दे तो फसल के चौपट होते देर न लगेगी। व्यवसाय में व्यापारी बाजार भाव के उतार-चढ़ाव के प्रति सतर्क न रहे तो उसकी पूंजी के डूबते देरी न लगेगी। सीमा प्रहरी रातों-दिन पूरी मुस्तैदी के साथ सीमा पर डटे चहल-कदमी करते रहते हैं। सुरक्षा की चिन्ता वे न करें तो दुश्मन-घुसपैठियों से देश को खतरा उत्पन्न हो सकता है। मनीषी, विचारक, समाज सुधारक, देशभक्त, महापुरुष का अधिकांश समय विधेयात्मक चिंतन में व्यतीत होता है। उन्हें देश, समाज, संस्कृति ही नहीं समस्त मानव जाति के उत्थान की चिन्ता होती है। सार्वजनीन तथा सर्वतोमुखी प्रगति के लिए वे योजना बनाते और चलाते हैं। यह विधेयात्मक चिन्ता ही है, जिसकी परिणति रचनात्मक उपलब्धियों के रूप में होती है।

मानव जीवन वस्तुतः अनगढ़ है। पशु-प्रवृत्तियों के कुसंस्कार उसे पतन की ओर ढकेलने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहते हैं। उनकी अभिप्रेरणा से प्रभावित होकर इन्द्रियों को मनमानी बरतने की खुली छूट दे दी जाय तो सचमुच ही मनुष्य पशुओं की श्रेणी में जा बैठेंगे, पर यह आत्म गरिमा को सुरक्षित रखने की चिन्ता ही है जो मनुष्य को पतन के प्रवाह में बहने से रोकती है। मानवी काया में नरपशु भी होते हैं जिनका कुछ भी आदर्श नहीं होता, परन्तु जिनमें भी महानता के बीज होते हैं, वे उस प्रवाह में बहने से इन्कार कर देते हैं। सुरक्षा प्रहरी की तरह वह स्वयं की प्रवृत्तियों के प्रति विशेष जागरूक होते हैं। हर विचार का, मन में आये संवेगों का वे बारीकी से परीक्षण करते हैं तथा सदैव उपयोगी चिन्तन में अपने को नियोजित करते हैं।

चिन्ता करना मनुष्य के लिए स्वाभाविक है। एक सीमा तक वह मानवी विकास में सहायक भी है। पशुओं का जीवन तो प्रवृत्ति तथा प्रकृति प्रेरणा से संचालित होता है। शिश्नोदर जीवन वे जीते तथा उसी में आनन्द अनुभव करते हैं किन्तु मनुष्य की स्थिति भिन्न है। मात्र इन्द्रियों की परितृप्ति से उसे सन्तोष नहीं हो सकता, होना भी नहीं चाहिए क्योंकि उसके ध्येय उच्च हैं। उनकी प्राप्ति के लिए उसे स्वेच्छापूर्वक संघर्ष का मार्ग वरण करना पड़ता है। यह मनुष्य के लिए गौरवमय बात भी है कि वह अपनी यथास्थिति पर सन्तुष्ट न रहे।

.... क्रमशः जारी
📖 विचारों की सृजनात्मक शक्ति पृष्ठ ७
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 भक्तिगाथा (भाग १३५)

अनन्य भक्ति ही श्रेष्ठतम है

महर्षि पुलह ने कथा के सूत्र को अपनी स्मृति के सूत्र से जोड़ते हुए फिर से बरसाने की गोपी मृणालिनी की भक्तिकथा कहनी शुरू की। उन्होंने बताया कि श्रीराधा जी ने मृणालिनी से कहा- ‘‘भक्ति सांसारिक लगाव से भिन्न है। इसमें सांसारिक विसंगतियों के लिए कोई भी स्थान नहीं है। न तो यहाँ वासना है और न आसक्ति। ईर्ष्या या फिर किसी अन्य छल-कपट अथवा अधिकार की कोई मांग नहीं है। भक्त वही है जो न केवल अपने आराध्य को ईश्वर माने, बल्कि स्वयं भी ईश्वरीय गुणों से युक्त हो। जो ईश्वर से सांसारिक सम्बन्ध रखता है अथवा फिर अपने मन में सांसारिक भाव या सांसारिक कामनाएँ संजोये हुए है वह किसी भी तरह से भक्त नहीं हो सकता है।

श्रीराधा जी की ये बातें मृणालिनी के मन-अन्तःकरण में सात्त्विक भाव का सम्प्रेषण कर रही थीं। उसके मन में सर्वत्र एक प्रेरक प्रकाश छाने लगा था। वह बड़े ध्यान से श्रीराधा जी की बातें सुन रही थी। श्रीराधा जी उससे कह रही थीं- भक्त के लिए भगवान नरदेह धारण करने के बावजूद सामान्य मानव नहीं होते। श्रीकृष्ण ने भले ही लीला से नरदेह धारण कर ली हो, पर वह सदा ही दिव्य, लोकोत्तर और षडऐश्वर्य से पूर्ण ईश्वर हैं। यहाँ तक कि उनकी देह मृण्मय होते हुए भी चिन्मय है। मैंने उन्हें इसी रूप में देखा-जाना और अनुभव किया है। श्रीराधा जी की अनुभूति मृणालिनी को बड़ी प्रेरक लगी। लेकिन अभी तक उसका मूल प्रश्न अनुत्तरित था।

दरअसल उसे तो यह जानना था कि श्रीकृष्ण को जब वे पूरी तरह से चाहती हैं, उनकी ही पूरी तरह से हो जाना चाहती है, ऐसे में भला वे श्री कृष्ण उसके कैसे पूर्णरूपेण हो सकते हैं? श्रीराधा जी मृणालिनी के मन की यह बात जान गयीं और मन्द स्मित के साथ बोलीं- यही तो मानवीय भाव एवं ईश्वरीय भाव के बीच का भेद है। मानव, ईश्वरीय संस्पर्श एवं संयोग के बिना कभी भी पूर्ण नहीं हो सकता परन्तु ईश्वर सदा ही पूर्ण है। उनमें कुछ घटाने पर अथवा कुछ बढ़ाने पर भी वे पहले ही की भाँति पूर्ण रहते हैं। उनका हर एक भक्त उन्हें पूर्ण रूप में ही पाता है। बस इसमें महत्त्वपूर्ण बात इतनी ही है कि उन्हें पूर्ण रूप से पाने के लिए स्वयं का पूर्ण रूप से विसर्जन करना पड़ता है। समर्पण व विसर्जन जितना बढ़ता जाता है, उन परमात्मा की प्राप्ति भी उतनी ही होती जाती है।

भक्त अपने भगवान के सिवा अन्य किसी ओर नहीं देखता। उसे इस बात की कोई चिन्ता, फिक्र या परवाह नहीं होती कि उसके भगवान कितने लोगों से किस तरह से और कैसे प्यार करते हैं। उनके प्रति किसका समर्पण कैसा है? भक्त तो बस अपने प्रेम, अनुराग, भक्ति, समर्पण, विसर्जन को बढ़ाना चाहता है। यहाँ तक वह स्वयं को उनमें पूरी तरह से विसर्जित एवं विलीन कर देना चाहता है। यह चाहत ही उसे भक्त बनाती है। यही उसे अपने भगवान् के पूरा पाने का अहसास दिलाती है। अरे मृणालिनी! श्रीकृष्ण तो परमात्मा हैं, उन्ही का एक अंश सृष्टि के समस्त जीवों में है। उनसे मिलने की चाहत तो सभी में नैसर्गिक रूप से है और होनी भी चाहिए।

श्रीराधा की इन बातों को मृणालिनी सुन रही थी। सुनते हुए वह उनकी ओर एकटक देख रही थी। श्रीराधा जी उसे मानव देह में ईश्वरीय गुणों से सम्पन्न साक्षात ईश्वर लग रही थीं। उनमें भला ईर्ष्या की छुद्रता कैसे हो सकती थी। वह बड़ी अनुरक्ति से उनकी ओर देखती रही। इस तरह से उनको देखते हुए वह अपने मन में सोच रही थी कि सचमुच ही श्रीराधा और श्रीकृष्ण में कोई भेद नहीं है। श्रीराधा कृष्ण हैं और श्रीकृष्ण ही राधा हैं। सम्भवतः यही एकान्त भक्ति का निहितार्थ है। यही भक्ति का चरम व परम है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २६३

👉 विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग ४)

चिन्तन क्रम व्यवस्थित हो

जीवन एक लम्बा पथ है जिसमें कितने ही प्रकार के झंझावात आते रहते हैं। कभी संसार की प्रतिकूल परिस्थितियां अवरोध खड़ा करती हैं तो कभी स्वयं की आकांक्षायें। ऐसे में सन्तुलित दृष्टि न हो तो भटकाव ही हाथ लगता है। असफलताओं के प्रस्तुत होते ही असन्तोष बढ़ता जाता है तथा मनुष्य अनावश्यक रूप से भी चिन्तित रहने लगता है। सन्तुलन के अभाव में चिन्ता- आदत में शुमार होकर अनेकों प्रकार की समस्याओं को जन्म देती है। अधिकांश कारण इनके निराधार ही होते हैं।

चिन्ता किस प्रकार उत्पन्न होती है? इस सम्बन्ध में प्रख्यात मनोवैज्ञानिक मैकडूगल लिखते है कि ‘मनुष्य की इच्छाओं की आपूर्ति में जब अड़चनें आती है तो उसका विश्वास, आशंका और निराशा में परिवर्तित हो जाता है, पर वह आयी अड़चनों तथा विफलताओं से पूर्णतः निराश नहीं हो जाता, इसलिए उसकी विभिन्न प्रवृत्तियां अपनी पूर्ति और अभिव्यक्ति का प्रयास करती रहती हैं। सामाजिक परिस्थितियां तथा मर्यादायें मनुष्य के लिए सबसे बड़ी अवरोध बनकर सामने आती हैं तथा इच्छाओं की पूर्ति में बाधक बनती हैं, जिससे उसके मन में आंतरिक संघर्षों के लिए मंच तैयार हो जाता है। इसी में से असन्तोष और चिन्ता का सूत्रपात होता है, अनावश्यक चिंता उत्पत्ति के अधिकांश कारण मनोवैज्ञानिक होते हैं।’

एक सीमा तक चिंता की प्रवृत्ति भी उपयोगी है, पर जब वह मर्यादा सीमा का उल्लंघन कर जाती है तो मानसिक संतुलन के लिए संकट पैदा करती है। व्यक्तिगत पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन से जुड़े कर्तव्यों के निर्वाह की चिन्ता हर व्यक्ति को होनी चाहिए। बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षण एवं विकास की, उन्हें आवश्यक सुविधायें जुटाने की चिन्ता अभिभावक न करें, अपनी मस्ती में डूबे रहें, भविष्य की उपेक्षा करके वर्तमान में तैयारी न करें तो भला उनके उज्ज्वल भविष्य की आशा कैसे की जा सकती है। विद्यार्थी खेलकूद में ही समय गंवाता रहे—आने वाली परीक्षा की तैयारी न करे तो उसके भविष्य का अन्धकारमय होना सुनिश्चित है।

.... क्रमशः जारी
📖 विचारों की सृजनात्मक शक्ति पृष्ठ ६
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 भक्तिगाथा (भाग १३४)

अनन्य भक्ति ही श्रेष्ठतम है

‘‘श्रीराधा की बात मृणालिनी को अच्छी तो बहुत लगी, पर किंचित आश्चर्य भी हुआ। उसे एक ही समय में दो अनुभवों ने घेर लिया। पहला अनुभव इस खुशी का था कि स्वयं श्रीराधा उसे श्रीकृष्ण के प्रेम का रहस्य समझा रही हैं। इससे अधिक सौभाग्य उसका और क्या हो सकता है? क्योंकि यह सच तो ब्रज धरा के नर-नारी, बालक-वृद्ध सभी जानते थे कि श्रीकृष्ण के हृदय का सम्पूर्ण रहस्य वृषभानु की लाडली के अलावा कोई नहीं जानता। यह बात ब्रज के मानवों को ही नहीं, वहाँ के पशु-पक्षियों, वृक्ष-वनस्पतियों को भी मालूम थी कि बरसाने की राधा नन्दगाँव के कृष्ण के रहस्य के सर्वस्व को जानती हैं। और वही राधा इस रहस्य को मृणालिनी को कहें, समझाएँ, बताएँ इससे अधिक सुखकर-सौभाग्यप्रद भला और क्या होगा?

लेकिन मृणालिनी के अनुभव का एक दूसरा हिस्सा भी था। इसी हिस्से ने उन्हें अचरज में डाल रखा था। यह आश्चर्य की गुत्थी ऐसी थी, जिसे वह चाहकर भी नहीं सुलझा पा रही थी। यह आश्चर्य भी श्रीराधा से ही जुड़ा था। उसे लग रहा था कि जब श्रीराधा स्वयं कृष्ण से प्रेम करती हैं, तब वह अपने इस प्रेम का दान उसे क्यों करना चाहती हैं। ऐसे में तो उन्हें स्वयं वञ्चित रहना पड़ेगा। कृष्णप्रेम का अधिकार उसे सौंप कर स्वयं ही राधा रिक्त हस्त-खाली हाथ क्यों होना चाहती हैं। मृणालिनी के लिए यह ऐसी एक अबूझ पहेली थी जिसे वह किसी भी तरह से सुलझा नहीं पा रही थी। बस वह ऊहापोह से भरी और घिरी थी। संकोचवश यह पूछ भी नहीं पा रही थी और बिना पूछे उससे रहा भी नहीं जा रहा था।

हाँ! उसके सौम्य-सलोने मुख पर भावों का उतार-चढ़ाव जरूर था, जिसे श्रीराधा ने पढ़ लिया और वह हँस कर बोलीं- अब कह भी दे मृणालिनी, नहीं कहेगी तो तेरी हालत और भी खराब हो जाएगी। श्रीराधा की इस बात से उसका असमञ्जस तो बढ़ा पर संकोच थोड़ा घटा। वह जैसे-तैसे हिचकिचाते हुए लड़खड़ाते शब्दों में बोली- क्या कान्हा से आप रूठ गयी हैं? उसके इस भोले से सवाल पर श्रीराधा ने कहा- नहीं तो। मृणालिनी बोली- तब ऐसे में उन्हें मुझे क्यों देना चाहती हैं? उसकी यह भोली सी बात सुनकर श्रीराधा जी हँस पड़ीं।’’ श्रीराधा की इस हँसी का अहसास ऋषिश्रेष्ठ पुलह के मुख पर भी आ गया। वे ही इस समय भाव भरे मन से उस गोपकन्या मृणालिनी की कथा सुना रहे थे।

लेकिन यह कथा सुनाते-सुनाते उन्हें लगा कि समय कुछ ज्यादा ही हो चला है। अब जैसे भी हो देवर्षि नारद के अगले भक्तिसूत्र को प्रकट होना चाहिए। यही सोचकर उन्होंने मधुर स्वर में कहा- ‘‘मेरी इस कथा का तो अभी कुछ अंश बाकी है। ऐसे में मेरा अनुरोध है कि देवर्षि अपने सूत्र को बता दें। इसके बाद कथा का शेष अंश भी पूरा हो जाएगा।’’ उनकी यह बात सुनकर नारद अपनी वीणा की मधुर झंकृति के स्वरों में हँस दिए और बोले- ‘‘आप का आदेश सर्वदा शिरोधार्य है महर्षि! बस मेरा यह अनुरोध अवश्य स्वीकारें और अपनी पावनकथा का शेष अंश अवश्य पूरा करें।’’ देवर्षि नारद के इस कथन पर ऋषिश्रेष्ठ पुलह ने हँस कर हामी भरी। उनके इस तरह हामी भरते ही देवर्षि ने कहा-
‘भक्ता एकान्तिनोमुख्याः’॥ ६७॥

एकान्त (अनन्य) भक्त ही श्रेष्ठ है।
अपने इस सूत्र को पूरा करके देवर्षि ने कहा- ‘‘हे महर्षि! अब मेरा आपसे भावभरा अनुरोध यही है कि इस सूत्र का विवेचन, इसकी व्याख्या आप अपने द्वारा कही जा रही कथा के सन्दर्भ में करें।’’ नारद का यह कथन सुनकर ऋषिश्रेष्ठ पुलह के होठों पर मुस्कान आ गयी। उन्होंने वहाँ पर उपस्थित जनों की ओर देखा। सभी उनकी इस दृष्टि का अभिप्राय समझ गए और सबने विनीत हो निवेदन किया- ‘‘हे महर्षि! आप कथा के शेष भाग को पूरा करते हुए इस सूत्र का सत्य स्पष्ट करें।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २६२

👉 विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग ३)

विधेयात्मक चिन्तन की फलदायी परिणतियां

विचारों का सही विश्लेषण सतही स्तर पर कर सकता संभव नहीं है। घटना अथवा विषय विशेष की परिस्थिति की गहराई में जाये बिना विचारणा के निष्कर्ष भी अधूरे, एकांगी और कभी-कभी गलत होते हैं। उल्लेखनीय बात यह भी है कि विचार-विश्लेषण की सही प्रक्रिया अपने ही बलबूते सम्पन्न की जा सकती है, न कि दूसरे के सहयोग से। सामयिक रूप से कोई वैचारिक सहयोग, सुझाव एवं परामर्श दे भी सकता है, पर हर क्षण अपने विचारों का निरीक्षण मात्र मनुष्य स्वयं ही कर सकता है। सही ढंग से उचित-अनुचित का विश्लेषण एवं चयन भी वही कर सकता है। कहा जा चुका है कि विचारणा में पूर्व अनुभवों एवं आदतों की भी पृष्ठभूमि होती है। इस तथ्य से दूसरे व्यक्ति नहीं परिचित होते। अपनी वैचारिक पृष्ठभूमि हर व्यक्ति थोड़े प्रयत्नों से स्वयं पता लगाकर उसमें आवश्यक हेर-फेर कर सकता है। आत्म विश्लेषण के लिए मन एवं उसकी प्रवृत्तियों को विवेक के नेत्रों से देखना पड़ता है। कठिन होते हुए भी यह कार्य असम्भव नहीं है।

क्या उचित है और क्या अनुचित? कौन-सा कार्य औचित्यपूर्ण है, कौन-सा अनौचित्य से भरा इसका पता लगाना असम्भव नहीं है, हर कोई थोड़े प्रयास से इसमें अपने को दक्ष कर सकता है।

एक समय में एक से अधिक विषयों पर चिन्तन करने से भी उथले परिणाम हाथ लगते हैं। एकाग्रता न बन पाने से विषय की गहराई में जाना सम्भव नहीं हो पाता। एक से अधिक विषयों पर एक साथ विचार करने से विचारों में भटकाव आता है, किसी उपयोगी परिणाम की आशा नहीं रहती। कई बातों में विचारों को भटकने देने की खुली छुट देने की अपेक्षा उपयोगी यह है कि एक समय में एक विषय पर सोचा जाय और जितना सोचा जाय पूरे मनोयोगपूर्वक। मनीषी, विचारक, वैज्ञानिक, कलाकार, साहित्यकार कुछ महत्वपूर्ण समाज को इसीलिए दे पाते हैं कि वे अपने विचारों को भटकने-बिखरने नहीं देते, एक ही विषय के इर्द-गिर्द पूरी तन्मयता के साथ उन्हें घूमने देते हैं, सार्थक परिणति भी इसीलिए होती है।

कर्म—विचारों के गर्भ में ही पकते हैं। जैसे भी विचार होंगे उसी ढंग की गतिविधि मनुष्य अपनायेगा। जो प्रयास को सफल उपयोगी और कल्याणकारी बनाना चाहते हैं, उन्हें सर्वप्रथम अपनी विचारणा की प्रक्रिया से अवगत होना चाहिए। अनुपयोगी निषेधात्मक को सुधारने-बदलने तथा उपयोगी को बिना किसी असमंजस के स्वीकारने के लिए सतत् तैयार रहना चाहिए।

.... क्रमशः जारी
📖 विचारों की सृजनात्मक शक्ति पृष्ठ ५
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 भक्तिगाथा (भाग १३३)

जिन प्रेम कियो तिनहिं प्रभु पायो

देवर्षि के इस सूत्र ने ऋषिश्रेष्ठ पुलह को भावविभोर कर दिया। उनके मुख को देखकर लगा जैसे कि वह अतीत की किन्हीं स्मृतियों में खो गए। उनकी इस भावदशा को देखकर देवर्षि नारद ने पूछा- ‘‘हे महर्षि! आप क्या सोचने लगे? क्या किसी भक्त की भक्ति ने आपको विभोर कर दिया है।’’ इस पर ब्रह्मर्षि पुलह ने कहा- ‘‘आपका कथन सत्य है देवर्षि! भक्तिमती मृणालिनी की स्मृतियों ने मुझे भिगो दिया है। आपके सूत्र में जिस सत्य की चर्चा है, वह सभी गुण उस भक्तिमती कन्या में थे।’’ महर्षि पुलह की यह बात सभी को बहुत भायी। देवर्षि तो इससे विशेष रूप से प्रसन्न हुए। उन्होंने विनम्र स्वर में कहा- ‘‘भगवन्! आप उस पावन कन्या की भक्ति गाथा सुनाकर हम सबको कृतार्थ करें।’’
देवर्षि के इस कथन का सभी ने अनुमोदन किया। सब के सब महर्षि पुलह की ओर आशा भरी नजरों से देखने लगे। इससे ऋषि श्रेष्ठ पुलह के मन में भी उत्साह का संचार हुआ। उन्होंने भाव भीगे स्वर में कहा- ‘‘बात द्वापर युग की है। तब यमुना का नीर नीलमणि की भांति पारदर्शी था और उसकी प्रत्येक जलतरंग में देवी यमुना की चेतना घुली हुई थी। यमुना के इस तीर पर बसे वृन्दावन क्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण के अवतरण के साथ ही सम्पूर्ण गोलोक धाम अवतरित हुआ था। गोकुल, नन्दगांव, बरसाना और आस-पास के सभी क्षेत्रों में इस दिव्य गोलोक धाम की पवित्र एवं चमत्कारी चेतना का स्पर्श सहज सम्भव था।

यहीं के बरसाने की कन्या थी मृणालिनी। तप्त काञ्चन जैसा रंग था उसका। उसकी देह के सारे अंग जैसे सांचे में ढले थे। उसकी देह का सौन्दर्य अवर्णनीय था। उसकी इस सुन्दर देह से भी कहीं अधिक सुन्दर था उसका मन, जिसमें सदा-सर्वदा कृष्णप्रेम की सरिता उफनती रहती थी। श्रीकृष्ण उसके सर्वस्व थे। सखी वह राधिका की थी। उसे जिन्होंने भी देखा उन्हें यही अनुभव हुआ जैसे कि श्रीराधा उसमें घुली हुई थी। और वह स्वयं श्रीराधा में घुल चुकी थी। श्रीकृष्णप्रेम का अंकुर तो उसमें जन्म से ही था, परन्तु पहले वह श्रीकृष्ण को अपना स्वामी और स्वयं को उनकी सेविका मानकर मन ही मन नित्य अपने प्रभु की सेवा करती थी। घर के सारे काम करते हुए उसका मन सदा-सर्वदा श्रीकृष्ण में ही अनुरक्त रहता था। ऐसा करते हुए उसकी मनोलीनता बहुत गहरी हो जाती थी। ऐसे में उसका देह बोध यदा-कदा जाता रहता। उसकी माता इसे उसकी अन्यमनस्कता मानकर झिड़क देती- लाली! तेरा मन जाने कहाँ अटकता-भटकता रहता है। जरा घर के कामों में मन लगाया कर। माता के ऐसा कहने पर वह मीठे स्वर में कहती- मैया जैसा तू कहती है, वैसा ही करूँगी।

उसने जब अपनी इस मनोदशा की चर्चा राधा से की, तो वह मुस्करायीं और बोली- यह अच्छी बात है परन्तु श्रीकृष्ण कोई जमींदार या अधिकारी नहीं हैं। उन्हें सही ढंग से पाने व पहचानने के लिए यह स्वामी, सेवक एवं सेवा के रूपों को भंग करना पड़ेगा। वे तो हमारी आत्मा के ईश्वर हैं। सच कहूँ- सभी जीवात्माओं के सच्चे पति वही हैं। हमें तो विधाता ने नारी रूप प्रदान कर धन्य कर दिया है। अपने इस रूप में हम उनकी प्रिया व कान्ता होने का सहज अनुभव कर सकती हैं।

ऐसा कहकर श्रीराधा ने उसे कान्ता भक्ति व दास्य भक्ति की महिमा बतायी। ९ वर्षीया मृणालिनी को अपनी प्रिय सखी का उपदेश बहुत अच्छा लगा। श्रीराधा ने उससे कहा- देख मृणालिनी कान्ता भक्ति के अनुभव के लिए आवश्यक है जीवचेतना का देहभाव से मुक्त होना क्योंकि इसमें दैहिक वासनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। तुम वासनाशून्य हो, इसलिए इस भाव को सहज आत्मसात कर सकती हो। जो आत्मा के तल पर जीते हैं, वे ही कान्ताभाव से श्रीकृष्ण को पा सकते हैं। इस भक्ति के अनुभव विशिष्ट हैं, जिसे मैं तुझे आगे बताऊँगी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २६१ 


रविवार, 29 मई 2022

👉 कर्त्तव्य पालन का अविरल आनन्द

समराँगण की लीला में तलवार आनन्द पाती है, तीर अपनी उड़ान और सनसनाहट में मजा लेता है। पृथ्वी इस आकाश में अपना अन्धाधुन्ध चक्कर लगाने के आनन्द में विभोर है, सूर्यनारायण अपने जगमगाते वैभव में तथा अपनी सनातन गति में सदा सम्राट्-सदृश आनन्द का भोग कर रहा है, तो फिर सचेतन यन्त्र, तू भी अपने नियत कर्म को करने का आनन्द उठा।

तलवार अपने बनाये जाने की माँग नहीं करती, न अपने उपयोगकर्ता के कार्य में बाधा ही डालती है, और टूट जाने पर विलाप भी नहीं करती। बनाए जाने में एक प्रकार का आनन्द है, प्रयुक्त किए जाने में भी एक आनन्द है। इसी के सम आनन्द की तू खोज कर।

 क्योंकि तूने यन्त्र को कार्यकर्ता और स्वामी समझने की भूल की है और क्योंकि तू अपनी अज्ञानमयी इच्छा के कारण, अपनी निजी उपयोगिता का विचार करना पसंद करता है, तुझे दुःख और यातनाएँ झेलनी पड़ती हैं, बार-बार लाल दहकती हुई भट्टी के नरक में घुसना पड़ता है, और यह जब तक कि तू अपना मनुष्योचित पाठ पूरा नहीं कर लेगा।

~ योगी अरविन्द
अखण्ड ज्योति 1967 मार्च पृष्ठ 1

शनिवार, 28 मई 2022

👉 मानव जीवन का अनुपम सौभाग्य

मानव-जीवन भगवान् की दी हुई सर्वोत्तम विभूति है। इससे बड़ा वरदान और कुछ हो ही नहीं सकता। सृष्टि के समस्त प्राणियों को जैसे शरीर मिले हैं, जैसे सुविधा साधन प्राप्त हैं। उनकी तुलना में मनुष्य की स्थिति असंख्यों गुनी श्रेष्ठ है। दूसरे जीवों का सारा समय और श्रम केवल शरीर रक्षा में ही लग जाता है। फिर भी वे ठीक तरह उस समस्या को हल नहीं कर पाते इसके विपरीत मनुष्य को ऐसा अद्भुत शरीर मिला है जिसकी प्रत्येक इन्द्रिय आनन्द और उल्लास से भरी पूरी है, उसे ऐसा मन मिला है जो पग-पग पर हर्षोल्लास का लाभ ले सकता है।

उसे ऐसी बुद्धि मिली है जो साधारण पदार्थों से अपनी सुख सुविधा के साधन विनिर्मित कर सकती है। मानव-प्राणी को जैसा परिवार, समाज साहित्य तथा सुख सुविधाओं से भरा पूरा वातावरण मिला है वैसा और किसी जीव का प्राप्त नहीं हो सकता।

इतना बड़ा सौभाग्य उसे अकारण ही नहीं मिला है। भगवान की इच्छा है कि मनुष्य उसकी इस सृष्टि को अधिक सुन्दर, अधिक सुखी, अधिक समृद्ध और अधिक समुचित बनाने में उसका हाथ बंटाये। अपनी बुद्धि, क्षमता और विशेषता से अन्य पिछड़े हुये जीवों की सुविधा को सृजन करे और परस्पर इस तरह का सद्व्यवहार बरते जिससे इस संसार में सर्वत्र स्वर्गीय वातावरण दृष्टिगोचर होने लगे।

~ संत तिरुवल्लुवर
🌹 अखण्ड ज्योति 1967 मई पृष्ठ 1

मंगलवार, 24 मई 2022

👉 विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग २)

विधेयात्मक चिन्तन की फलदायी परिणतियां

सोचने की प्रक्रिया में विषयों पर एकाग्रता ही नहीं स्वस्थ और सही दृष्टिकोण का होना भी आवश्यक है। किसी भी विषय पर दो प्रकार से सोचा जा सकता है—विधेयात्मक भी, निषेधात्मक भी। परस्पर विरोधी दोनों ही दिशाओं में एकाग्रता का अभ्यास किया जा सकता है। इस महत्वपूर्ण तथ्य को हर व्यक्ति जानता है कि निषेधात्मक चिन्तन से मनुष्य की वैचारिक क्षमताओं में ह्रास होता है। विधेयात्मक दृष्टिकोण से ही चिन्तन का सही लाभ लिया जा सकता है।

निषेधात्मक चिन्तन से बचने का तरीका यह भी हो सकता है कि अपनी गरिमा पर विचार करते रहा जाय तथा यह अनुभव किया जाय कि मानव जीवन एक महान् उपलब्धि है जिसका उपयोग श्रेष्ठ कार्यों में होना चाहिए। निकृष्ट चिन्तन मनुष्य को उसकी गरिमामय स्थिति से गिराता है, यह विश्वास जितना सुदृढ़ होता चला जायेगा—विधेय चिन्तन को उतना ही अधिक अवसर मिलेगा।

पूर्वाग्रहों से ग्रसित होने पर भी सही चिन्तन बन नहीं पड़ता। किसी विचारक का यह कथन शत-प्रतिशत सच है कि ‘जो जितना पूर्वाग्रही हो वह चिन्तन की दृष्टि से उतना ही पिछड़ा होगा।’ परिवर्तनशील इस संसार में मान्यताओं एवं तथ्यों के बदलते देरी नहीं लगती। अतएव मन मस्तिष्क को सदा खुला रखना चाहिए ताकि यथार्थता से वंचित न रहना पड़े। खुले मन से हर औचित्य को बिना किसी ननुनच के स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए। तथ्यों की ओर से आंखें बन्द रखने पर कितनी ही जीवनोपयोगी बातों से वंचित रह जाना पड़ता है।

किसी विषय पर एकांगी चिन्तन भी सही निष्कर्षों पर नहीं पहुंचने देता। उस चिन्तन में मनुष्य की पूर्व मान्यताओं का भी योगदान होता है। सही विचारणा के लिए यह भी आवश्यक है कि अपनी पूर्व मान्यताओं, आग्रहों तथा धारणाओं का भी गम्भीरता से पक्षपात रहित होकर विश्लेषण किया जाय। पक्ष और विपक्ष दोनों पर ही सोचा जाय। किसी विषय पर एक तरह से सोचने की अपेक्षा विभिन्न पक्षों को ध्यान में रखकर चिन्तन किया जाय। स्वस्थ और यथार्थ चिन्तन तभी बन पड़ता है। एकांगी मान्यताओं एवं पूर्वाग्रहों को तोड़ना सम्भव हो सके तो सर्वांगीण प्रगति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।

.... क्रमशः जारी
📖 विचारों की सृजनात्मक शक्ति पृष्ठ ४
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 भक्तिगाथा (भाग १३२)

जिन प्रेम कियो तिनहिं प्रभु पायो

सुशान्त शर्मा की अनुभवकथा ने सुनने वालों को रोमांचित कर दिया। सभी की भावनाएँ भक्ति से भीग गयीं। अभी भी उनके मन के आंगन में सुशान्त शर्मा के जीवन की अनुभूतियाँ हीरककणों की तरह चमक रही थीं। यह चमक इन सब के अन्तःकरण के कोने-कोने में प्रकाश बिखेर रही थी। अद्भुत था यह प्रकाश। इसमें सात्त्विकता, सजलता, विमलता का अतुलनीय आनन्द घुला था। इस आनन्द में सबके सब ऐसे निमग्न हुए कि बात करना ही भूल गए। देर तक चहुँ ओर मौन पसरा रहा। हिमालय के शुभ्र शैलशिखर मौन साक्षी बने सभी अन्तः-बाह्य परिस्थितियों को निहार रहे थे। नीरवता जैसे भक्ति की पावन भावनाओं को आत्मसात करने में लगी थी।

देवगण, ऋषिगण, यक्ष, किन्नर, गन्धर्व एवं सिद्धों का यह समुदाय इन क्षणों में यही सोच रहा था कि भक्ति में ऐसी असाधारण क्षमता है जो अनगढ़ को सुगढ़, अपावन को पावन- बड़ी सहजता से बना देती है। भक्ति रूपान्तरण का रसायन है। अन्य आध्यात्मिक विधियाँ क्षमतावान होते हुए भी इस क्षमता से रहित हैं। तप में ऊर्जा है, योग में बल है, इनसे असम्भव को सम्भव बनाने वाले चमत्कार तो किए जा सकते हैं, परन्तु व्यक्तित्व का रूपान्तरण कर पाना सम्भव नहीं है। कोयले का हीरा बन जाना तो केवल भक्ति से ही सम्भव है।

जो चमत्कार करना व चमत्कारी बनना चाहते हैं, उनके लिए अनेको मार्ग हैं, परन्तु जिन्हें केवल पवित्रता का प्रकाश चाहिए, जिन्हें बस परमात्मा का सान्निध्य, सुपास चाहिए उनके लिए तो भक्ति ही साधना, सिद्धि एवं साध्य है। चिन्तन की ये और ऐसी अनेक कड़ियाँ एक-दूसरे से जुड़ती रहीं। विचारों की इन वीथियों में अनेकों मन भ्रमण करते रहे। लेकिन ऋषिश्रेष्ठ पुलह की आकांक्षा इससे कुछ अधिक थी। वे तो देवर्षि नारद से भक्ति का अगला सूत्र सुनना चाहते थे। एकबारगी उन्होंने सभी की ओर देखा- अभी तक सब मौन थे। तभी अचानक उनके नेत्र ब्रह्मर्षि वशिष्ठ की ओर जा टिके। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने उनकी भावनाओं को समझा। वे हल्के से मुस्करा दिए। फिर उन्होंने अपने अन्तर्मन की डोर देवर्षि की भावनाओं से जोड़े।

ऐसा होते ही देवर्षि की दृष्टि ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के मुख की ओर गयी। वशिष्ठ के चेहरे के भावों को उन्होंने देखते ही पढ़ लिया, फिर हल्के से हँस दिए। अपनी इस हँसी को मुस्कराहट में बदलते हुए उन्होंने उपस्थित जनों से कहा- ‘‘यदि आप सभी की अनुमति व सहमति हो तो मैं भक्तिगाथा का अगला सूत्र प्रस्तुत करूँ।’’ देवर्षि के ऐसा कहते ही, ब्रह्मर्षि पुलह के गाल पुलकित हो गए। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ एवं विश्वामित्र के मुख पर भी आह्लाद की चन्द्रिका चमक उठी। अन्य जन भी अपने सांकेतिक या प्रकट हाव-भाव से सहमति जताने लगे। इन सबकी सहमति पाकर देवर्षि ने मधुर स्वर में अपने अगले सूत्र को प्रकट करते हुए कहा-

‘त्रिरूपभङ्गपूर्वकं नित्यदास-नित्यकान्ताभजनात्मकं
वा प्रेमैव कार्यम्, प्रेमैव कार्यम्’॥ ६६॥

तीन (स्वामी, सेवक और सेवा) रूपों को भङ्ग कर नित्य दासभक्ति या नित्य कान्ताभक्ति से प्रेम ही करना चाहिए, प्रेम ही करना चाहिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २५९

रविवार, 22 मई 2022

👉 क्या हमारे लिए यही उचित है?

केवल अपने लिये ही जीना मानव-जीवन का निकृष्टतम दुरुपयोग है। जो केवल अपने लिये ही पैदा हुआ, अपने लिए ही बढ़ा और आप ही आप खा खेल कर चला गया, ऐसा व्यक्ति अपनी दृष्टि में सफल भले ही बनता रहे वस्तुतः वह असफल ही माना जायेगा।

इस सृष्टि में सफल जीवन उसका है जो दूसरों के काम आ सके। बादल समुद्र से जल ढोकर लाते हैं और प्यासी धरती को परितृप्त करने में लगे रहते हैं। समुद्र की महानता को सुरक्षित रखने के लिये नदियाँ उसमें अपनी आत्म-समर्पण करते रहने की परम्परा को तोड़ती नहीं। फूल खिलते हैं दूसरों को हँसाने के लिये, पौधे उगते हैं दूसरों के प्रयोजन पूर्ण करने के लिये। वायु चँवर ढुलाते रहने की अपनी पुण्य प्रक्रिया से समस्त जड़-चेतन को प्रमुदित करती रहती है। इसमें इनका अपना क्या स्वार्थ? सूर्य चन्द्रमा और नक्षत्र इस जगती को अहिर्निश प्रकाश प्रदान करते हुए भ्रमण करते हैं, यही जीवन की उपयोगिता एवं सार्थकता है।

सृष्टि का प्रत्येक जड़ परमाणु और कीट-पतंग जैसा प्रत्येक जीवधारी अपनी स्थिति से दूसरों का हित साधन करता है। पशु दूध देते और परिश्रम से हमारी सुविधायें बढ़ाते हैं। जब छोटे-छोटे अनियमित जीव-जन्तु तक परोपकार का व्रत लेकर जीवन-यापन करते हैं, तब क्या मनुष्य जैसे बुद्धिमान् और विकसित प्राणी के लिये यही उचित है कि वह अपने लिये ही जिये, अपने लिये ही बढ़े? और अपने लिये ही मर जाए?

हेनरी थोरा
अखण्ड ज्योति 1967 जून पृष्ठ 1*

शनिवार, 21 मई 2022

👉 दु:ख काल्पनिक होते हैं

वैराग्य का अर्थ है- रागों को त्याग देना। राग मनोविकारों को, दुर्भावों और कुसंस्कारों को कहते हैं। अनावश्यक मोह, ममता, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, शोक, चिंता, तृष्णा, भय, कुढ़न आदि के कारण मनुष्य जीवन में बड़ी अशांति एवं उद्विग्नता रहती है।

तत्त्वदर्शी सुकरात का कथन है कि संसार में जितने दु:ख हैं, उनमें तीन चौथाई काल्पनिक हैं। मनुष्य अपनी कल्पना शक्ति के सहारे उन्हें अपने लिए गढ़कर तैयार करता है और उन्हीं से डर-डर कर खुद-दु:खी होता रहता है। यदि वह चाहे, तो अपनी कल्पनाशक्ति को परिमार्जित करके, अपने दृष्टिकोण को शुद्ध करके, इन काल्पनिक दु:खों में जंजाल से आसानी से छुटकारा पा सकता है। अध्यात्मशास्त्र में इसी बात को सूत्ररूप में इस प्रकार कह दिया है- वैराग्य से दु:खों की निवृत्ति होती है।

हम मनचाहे भोग नहीं भोग सकते। धन की, संतान की, अधिक जीवन की, भोग की एवं मनमानी परिस्थिति प्राप्त होने की तृष्णा किसी भी प्रकार पूरी नहीं हो सकती। एक इच्छा पूरी होने पर दूसरी नई उस इच्छाएँ उठ खड़ी होती हैं। उनका कोई अंत नहीं, कोई सीमा नहीं। इस अतृप्ति से बचने का सीधा-सादा उपाय अपनी इच्छाओं एवं भावनाओं को नियंत्रित करना है। इस नियंत्रण द्वारा, वैराग्य द्वारा ही दु:खों से छुटकारा मिलता है। दु:खों से छुटकारे का, वैराग्य ही एक मात्र उपाय है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1946 पृष्ठ 15

शुक्रवार, 20 मई 2022

👉 विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग १ )

विधेयात्मक चिन्तन की फलदायी परिणतियां

जीवन की अन्यान्य बातों की अपेक्षा सोचने की प्रक्रिया पर सामान्यतः कम ध्यान दिया गया है, जबकि मानवी सफलताओं-असफलताओं में उसका महत्वपूर्ण योगदान है। विचारणा की शुरुआत मान्यताओं अथवा धारणा से होती है, जिन्हें या तो मनुष्य स्वयं बनाता है अथवा किन्हीं दूसरे से ग्रहण करता है या वे पढ़ने सुनने और अन्यान्य अनुभवों के आधार पर बनती है। अपनी अभिरुचि के अनुरूप विचारों को मानव मस्तिष्क में प्रविष्ट होने देता है जबकि जिन्हें पसन्द नहीं करता उन्हें निरस्त भी कर सकता है। जिन विचारों का वह चयन करता है उन्हीं के अनुरूप चिन्तन की प्रक्रिया भी चलती है। चयन किये गये विचारों के अनुरूप ही दृष्टिकोण का विकास होता है जो विश्वास को जन्म देता है—वह परिपक्व होकर पूर्व धारणा बन जाता है। व्यक्तियों की प्रकृति एवं अभिरुचि की भिन्नता के कारण मनुष्य मनुष्य के विश्वासों, मान्यताओं एवं धारणाओं में भारी अन्तर पाया जाता है।
चिन्तन पद्धति में अर्जित की गयी भली-बुरी आदतों की भी भूमिका होती है। स्वभाव-चिन्तन को अपने ढर्रे में घुमा भर देने में समर्थ हो जाता है। स्वस्थ और उपयोगी चिन्तन के लिए उस स्वभावगत ढर्रे को भी तोड़ना आवश्यक है जो मानवी गरिमा के प्रतिकूल है अथवा आत्म-विकास में बाधक है।

प्रायः अधिकांश व्यक्तियों का ऐसा विश्वास है कि विशिष्ट परिस्थिति में मन द्वारा विशेष प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त करना मानवी प्रकृति का स्वभाव है, पर वास्तविकता ऐसी है नहीं। अभ्यास द्वारा उस ढर्रे को तोड़ना हर किसी के लिए सम्भव है। परिस्थिति विशेष में लोग प्रायः जिस ढंग से सोचते एवं दृष्टिकोण अपनाते हैं, उससे भिन्न स्तर का चिन्तन करने के लिए भी अपने मन को अभ्यस्त किया जा सकता है। मानसिक विकास के लिए अभीष्ट दिशा में सोचने के लिए अपनी प्रकृति को मोड़ा भी जा सकता है।

मन विभिन्न प्रकार के विचारों को ग्रहण करता है, पर जिनमें उसकी अभिरुचि रहती है, चयन उन्हीं का करता है। यह रुचि पूर्वानुभवों के आधार पर बनी हो सकती है, प्रयत्नपूर्वक नयी अभिरुचियां भी पैदा की जा सकती हैं।

प्रायः मन एक विशेष प्रकार की ढर्रे वाली प्रतिक्रियायें मात्र दर्शाता है, पर इच्छित दिशा में उसे कार्य करने के लिए नियन्त्रित और विवश भी किया जा सकता है। ‘बन्दरों की तरह उछलकूद मचाना उसका स्वभाव है। एक दिशा अथवा विचार विशेष पर वह एकाग्र नहीं होना चाहता। नवीन विचारों की ओर आकर्षित तो होता है, पर उपयोगी होते हुए भी उन पर टिका नहीं रह पाता। कुछ ही समय बाद उसकी एकाग्रता भंग हो जाती तथा वह परिवर्तन चाहने लगता है, पर अभ्यास एवं नियन्त्रण द्वारा उसके बन्दर स्वभाव को बदला भी जा सकता है। यह प्रक्रिया समय साध्य होते हुए भी असम्भव नहीं है। एक बार एकाग्रता का अभ्यास बन जाने से जीवनपर्यन्त के लिए लाभकारी सिद्ध होता है।

.... क्रमशः जारी
📖 विचारों की सृजनात्मक शक्ति पृष्ठ 3
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 भक्तिगाथा (भाग १३१)

दोषों को भी प्रभु को अर्पित करता है भक्त

इस पर देवर्षि ने कहा- ‘‘महर्षि आप धन्य हैं। आप वही कह रहे हैं, जो मुझे अपने सूत्र में कहना है।’’ उनकी यह बात सुनकर ऋषिश्रेष्ठ क्रतु ने कहा- ‘‘फिर भी हे देवर्षि! आपका सूत्र अमूल्य है। पहले आप उसे कहें। इसके बाद ही मैं सुशान्त की कथा पूरी करूँगा।’’ इस पर देवर्षि ने मुस्कराते हुए कहा- ‘‘मुझे आपकी आज्ञा शिरोधार्य है भगवन्!’’ इतना कहकर उन्होंने बड़े ही भावपूर्ण व मधुर स्वरों में उच्चारित किया-

तदर्पिताखिलाचारः सन् कामक्रोधाभिमानादिकं
तस्मिन्नेव करणीयम्॥ ६५॥

सब आचार भगवान के अर्पण कर चुकने पर यदि काम, क्रोध, अभिमानादि हों, तो उन्हें भी उस (भगवान) के प्रति ही करना चाहिए।

देवर्षि ने अपना यह सूत्र कहने के बाद महर्षि क्रतु से कहा- ‘‘भगवन्! आप सुशान्त शर्मा के घटनाप्रसंग को अवश्य कहें। मेरा विश्वास है कि आपके स्नेह ने सुशान्त को अवश्य ही भगवान का कृपापात्र बनाया होगा।’’ इस पर ऋषिश्रेष्ठ क्रतु ने कहा- ‘‘यह तो मैं नहीं कहता कि उसे भगवान का कृपापात्र किसने बनाया, मेरे स्नेह ने या फिर उसी के किसी शुभ संस्कार ने। पर इतना सच अवश्य है कि संसार से हर तरह से ठुकराए गए सुशान्त ने मेरे पास आकर सचमुच ही स्वयं के अस्तित्त्व को परमात्मा में विसर्जित करने की बड़ी निष्कपट कोशिश की।

मेरे पास आने के कुछ ही दिनों बाद वह मानसिक रूप से स्वस्थ व शारीरिक रूप से सबल होने लगा। थोड़े ही दिनों बाद उसकी स्थिति सामान्य हो गयी। मेरे सान्निध्य में उसे याद आने लगा अपने पिता का सान्निध्य। साथ ही उसे याद हो आए अपने पुराने बचपन के दिन। जब वह त्रैकालिक सन्ध्या नियमित किया करता था। जब वह सूर्यमध्यस्थ गायत्री से स्वयं के प्राणों के एकाकार होने की भावना करता था। इन बचपन की स्मृतियों ने उसे विह्वल कर दिया। इसी विह्वलता में एक दिन उसने कहा- हे देव! क्या मैं पुनः गायत्री उपासना प्रारम्भ कर सकता हूँ। इस पर मैंने कहा- अवश्य पुत्र! तब उसने कहा- भगवन्! क्या इतने वर्षों तक नीच कर्म करने के बाद भी मैं इस लायक हूँ।

उसकी इस बात पर मैंने कहा- पुत्र! शास्त्रों में प्रत्येक अशुभ कर्म के लिए प्रायश्चित विधान है। पहले तुम प्रायश्चित करो। फिर मैं तुम्हारा यज्ञोपवीत संस्कार पुनः करूँगा। तब तुम सम्पूर्ण विधि से सन्ध्यावन्दन के साथ गायत्री उपासना करना। मेरी यह बात सुनकर सुशान्त प्रसन्न हो गया। उसने निर्धारित विधान के अनुसार कृच्छ चान्द्रायण करते हुए लगातार एक वर्ष तक भगवान् के पावन नाम का जप किया। इस कठोर व्रत के साथ वह निरन्तर १८ घण्टे तक जप करता रहता। वर्ष पूरा होने पर मैंने उसका यज्ञोपवीत संस्कार किया।
जिस दिन उसका यह संस्कार हुआ, उस दिन वह आह्लादित था। उसके बाद उसने अपनी गायत्री साधना प्रारम्भ की। तीनों समय सन्ध्योपासना के साथ गायत्री आराधना। इसी आराधना में घुलते गए उसके हृदय के भाव। वह अपने सभी भावों को भगवती के चरणों में अर्पित करता गया। अभिमान अर्पित होकर समर्पण हो गया। क्रोध ने संकल्प का रूप धारण किया। काम जगन्माता में समर्पित होकर भक्ति बन गया। उसकी साधना अविराम बनी रही, साथ ही उसके दुर्गण, सद्गुण में रूपान्तरित होते गए। दिन बीते, मास-वर्ष बीते। साथ ही उसके कलंक धुलते गए। वह निष्कलंक, निष्कपट एवं निर्मल होता गया। अब तो उसे अपमानित करने वाले लोग उसे आश्चर्य से देखने लगे क्योंकि अब उन्हें भी उसकी साधना की सुगन्ध प्रभावित करने लगी। वे सब भी कहने लगे कि साधना के संस्कार सुप्त भले ही हो जाएँ पर लुप्त कभी नहीं होते।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २५७

गुरुवार, 19 मई 2022

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 19 May 2022

आखिर हम स्वयं क्या हैं और अपनी आँखें अपने को किस नजर से देखती हैं? आत्मा की अदालत में इन्साफ की तराजू पर तोले जायँ तो हमारा पलड़ा बुराई की ओर झुकता है या भलाई की ओर। यदि हम अपनी कसौटी पर खरे उतरते हैं तो गुमराह लोग जो भी चाहे कहते रहें हमें इसकी जरा भी परवाह नहीं करनी चाहिए, किन्तु यदि अपनी आत्मा के सामने हम खोटे सिद्ध होते हैं तो सारी दुनिया के प्रशंसा करते रहने पर भी संतोष नहीं करना चाहिए।

प्रशंसा का सबसे बड़ा कदम यह है कि आदमी अपनी समीक्षा करना सीखे, अपनी गलतियों को समझे-स्वीकार करे और अगला कदम यह उठाये कि अपने को सुधारने के लिए अपनी बुरी आदतों से लड़े और उन्हें हटाकर रहे। जिसने इतनी हिम्मत इकट्ठी कर ली, वह एक दिन इतना नेक बन जाएगा कि अपने आप अपनी भरपूर प्रशंसा की जा सके। यह प्रशंसा ही सच्ची प्रशंसा कही जा सकेगी।

बुराई मनुष्य के बुरे कर्मों की नहीं, वरन् बुरे विचारों की देन होती है। इसलिए वह एक बार में ही समाप्त नहीं हो जाती, वरन् स्वभाव और संस्कार का अंग बन जाती है। ऐसी स्थिति में बुराई भी भलाई जान पड़ने लगती है। इसलिए बुरे कामों से बचने के लिए सर्वप्रथम बुरे विचारों से बचना चाहिए। दुष्कर्म का फल तुरन्त भोगकर उसे शान्त किया जा सकता है, पर संस्कार बहुत काल तक नष्ट नहीं होते। वह जन्म-जन्मांतरों तक साथ-साथ चलते और कष्ट देते हैं।

घरेलू और सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि क्रोध के विनाशक परिणामों पर ध्यान दें और उनके उन्मूलन का संपूर्ण शक्ति से प्रयत्न करें। इससे सदैव हानि ही होती है। प्रायः देखा गया है कि क्रोध का कारण जल्दबाजी है। किसी वस्तु को प्राप्त करने या इच्छापूर्ति में कुछ विलम्ब लगता है तो लोगों को क्रोध आ जाता है, इसलिए अपने स्वभाव में धैर्य और संतोष का विकास करना चाहिए।

असत्य से किसी स्थायी लाभ की प्राप्ति नहीं होती। यह तो धोखे का सौदा है, लेकिन खेद का विषय है कि लोग फिर भी असत्य का अवलम्बन लेते हैं। एक दो बार भले ही असत्य से कुछ भौतिक लाभ प्राप्त कर लिया जाय, किन्तु फिर सदा के लिए ऐसे व्यक्ति से दूसरे लोग सतर्क  हो जाते हैं, उससे दूर रहने का प्रयत्न करते हैं। असत्यभाषी को लोकनिन्दा का पात्र बनकर समाज से परित्यक्त जीवन बिताना पड़ता है। धोखेबाज, झूठे, चालाक व्यक्ति का साथ उसके स्त्री-बच्चे भी नहीं देते।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

बुधवार, 18 मई 2022

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 18 May 2022

जो प्राप्त है, उसमें प्रसन्नता अनुभव करते हुए अधिक के लिए प्रयत्नशील रहना बुद्धिमानी की बात है, पर यह पहले सिरे की मूर्खता है कि अपनी कल्पना के अनुरूप सब कुछ न मिल पाने पर मनुष्य खिन्न  और असंतुष्ट ही बना रहे। सबकी सब इच्छाएँ कभी पूरी नहीं हो सकतीं। अधूरे में भी जो संतोष कर सकता है, उसी को इस संसार में थोड़ी सी प्रसन्नता उपलब्ध हो सकती है, अन्यथा असंतोष और तृष्णा की आग में जल मरने के अतिरिक्त और कोई चारा नहींं है।

जिस तरह साधनों की पवित्रता आवश्यक है, उसी तरह साध्य की उत्कृष्टता भी आवश्यक है। साध्य निकृष्ट हो और उसमें अच्छे साधनों को भी लगा दिया जाये तो कोई हितकर परिणाम प्राप्त नहीं होगा। उलटे उससे व्यक्ति और समाज की हानि ही होगी। उत्कृष्ट साधन भी निकृष्ट लक्ष्य की पूर्ति के आधार बनकर समाज में बुराइयाँ पैदा करने लगते हैं। बुराइयाँ तो अपने आप भी फैल जाती हैं, लेकिन किन्हीं समर्थ साधनों का प्रयोग किया जाय तो वे व्यापक स्तर पर फैलने लगती हैं। अतः जिनके पास साधन हैं, माध्यम हैं, उन्हें आवश्यकता है उत्कृष्ट लक्ष्य के निर्धारण की।

अभी तक किसी महापुरुष के जीवन से ऐसा कोई उदाहारण नहीं  मिला, जहाँ घृणा, द्वेष, परदोष दर्शन तथा प्रतिशोध के द्वारा किसी मंगल कार्य की सिद्धि हुई हो। प्रतिशोध से मनुष्य की बुद्धि नष्ट होती है। विवेक चला जाता है। जीवन की सारी शान्ति और आनंद नष्ट हो जाता है। इस तरह के दोषपूर्ण विचार मानवीय प्रगति को रोक देते हैं। मनुष्य न तो सांसारिक उन्नति कर पाता है और न ही आध्यात्मिक उद्देश्य पूरा कर पाता है। इससे मानसिक जड़ता आती है और सारी क्रिया शक्ति बर्बाद हो जाती है।

दूसरों की आँखों में धूल डालकर स्वयं बुरे होते हुए भी अच्छाई की छाप डाल देना चतुरता का चिह्न माना जाता है और आजकल लोग करते भी ऐसा ही हैं। झूठी और नकली बातें अफवाहों के रूप में इस तरह फैला देते हैं कि लोग धोखा खा जाते हैं और बुरे को भी अच्छा कहने लगते हैं। ऐसे बहके हुए लोगों की बहकी बातों को सुनकर थोड़ी देर का बाहरी मनोरंजन भले ही कर लिया जाय पर उससे शान्ति कभी भी नहीं हो सकती।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 दुःख और सुख

पाप से मन को बचाये रहना और उसे पुण्य में प्रवृत्त रखना यही मानव जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ है।

एक बहुत अमीर सेठ थे। एक दिन वे बैठे थे कि भागती-भागती नौकरानी उनके पास आई और कहने लगीः

"सेठ जी! वह नौ लाख रूपयेवाला हार गुम हो गया।"

सेठ जी बोलेः "अच्छा हुआ..... भला हुआ।" उस समय सेठ जी के पास उनका रिश्तेदार बैठा था। उसने सोचाः बड़ा बेपरवाह है! आधा घंटा बीता होगा कि नौकरानी फिर आईः "सेठ जी! सेठ जी! वह हार मिल गया।" सेठ जी कहते हैं- "अच्छा हुआ.... भला हुआ।"

वह रिश्तेदार प्रश्न करता हैः "सेठजी! जब नौ लाख का हार चला गया तब भी आपने कहा कि 'अच्छा हुआ.... भला हुआ' और जब मिल गया तब भी आप कह रहे हैं 'अच्छा हुआ.... भला हुआ।' ऐसा क्यों?"

सेठ जीः "एक तो हार चला गया और ऊपर से क्या अपनी शांति भी चली जानी चाहिए? नहीं। जो हुआ अच्छा हुआ, भला हुआ। एक दिन सब कुछ तो छोड़ना पड़ेगा इसलिए अभी से थोड़ा-थोड़ा छूट रहा है तो आखिर में आसानी रहेगी।"

अंत समय में एकदम में छोड़ना पड़ेगा तो बड़ी मुसीबत होगी इसलिए दान-पुण्य करो ताकि छोड़ने की आदत पड़े तो मरने के बाद इन चीजों का आकर्षण न रहे और भगवान की प्रीति मिल जाय।

दान से अनेकों लाभ होते हैं। धन तो शुद्ध होता ही है। पुण्यवृद्धि भी होती है और छोड़ने की भी आदत बन जाती है। छोड़ते-छोड़ते ऐसी आदत हो जाती है कि एक दिन जब सब कुछ छोड़ना है तो उसमें अधिक परेशानी न हो ऐसा ज्ञान मिल जाता है जो दुःखों से रक्षा करता है।

रिश्तेदार फिर पूछता हैः "लेकिन जब हार मिल गया तब आपने 'अच्छा हुआ.... भला हुआ' क्यों कहा?"

सेठ जीः "नौकरानी खुश थी, सेठानी खुश थी, उसकी सहेलियाँ खुश थीं, इतने सारे लोग खुश हो रहे थे तो अच्छा है,..... भला है..... मैं क्यों दुःखी होऊँ? वस्तुएँ आ जाएँ या चली जाएँ लेकिन मैं अपने दिल को क्यों दुःखी करूँ ? मैं तो यह जानता हूँ कि जो भी होता है अच्छे के लिए, भले के लिए होता है।

जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा अच्छा ही है। होगा जो अच्छा ही होगा, यह नियम सच्चा ही है। मेरे पास मेरे सदगुरू का ऐसा ज्ञान है, इसलिए मैं बाहर का सेठ नहीं, हृदय का भी सेठ हूँ।"

हृदय का सेठ वह आदमी माना जाता है, जो दुःख न दुःखी न हो तथा सुख में अहंकारी और लम्पट न हो। मौत आ जाए तब भी उसको अनुभव होता है कि मेरी मृत्यु नहीं। जो मरता है वह मैं नहीं और जो मैं हूँ उसकी कभी मौत नहीं होती।

मान-अपमान आ जाए तो भी वह समझता है कि ये आने जाने वाली चीजें हैं, माया की हैं, दिखावटी हैं, अस्थाई हैं। स्थाई तो केवल परमात्मा है, जो एकमात्र सत्य है, और वही मेरा आत्मा है। जिसकी समझ ऐसी है वह बड़ा सेठ है, महात्मा है, योगी है। वही बड़ा बुद्धिमान है क्योंकि उसमें ज्ञान का दीपक जगमगा रहा है।

संसार में जितने भी दुःख और जितनी परेशानियाँ हैं उन सबके मूल में बेवकूफी भरी हुई है। सत्संग से वह बेवकूफी कटती एवं हटती जाती है। एक दिन वह आदमी पूरा ज्ञानी हो जाता है। अर्जुन को जब पूर्ण ज्ञान मिला तब ही वह पूर्ण संतुष्ट हुआ। अपने जीवन में भी वही लक्ष्य होना चाहिए।

सोमवार, 16 मई 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग २८

प्रशंसा का मिठास चखिए और दूसरों को चखाइए

अपने दोषों की ओर से ओंखें बंद करके उन्हें बढने दें या आत्मनिरीक्षण करना छोड दें, ऐसा हमारा कथन नहीं हैं। हमारा निवेदन इतना ही है किं बुराइयों को भुला कर अच्छाइयों को प्रोत्साहित करिए। अपने में जो दोष हैं, जो दुर्भाव हैं उन्हें ध्यानपूर्वक देखिए और उनको कठोर परीक्षक की तरह तीव्र दृष्टि से जाँचते- . रहिए। जो त्रुटियाँ दिखाई पड़े उनके विरोधी सद्गुणों को प्रोत्साहन देना आरभ करिए यही उन दोषों के निवारण का सही तरीका है। मान लीजिए कि आपको क्रोध अधिक आता है तो उसकी चिंता छोड कर प्रसन्नता का, मधुर भाषण का अभ्यास कीजिए क्रोध अपने आप दूर हो जाएगा। यदि क्रोध का ही विचार करते रहेंगे तो विनयशीलता का अभ्यास न हो सकेगा। यदि कोई आपको आदेश करे कि भजन करते समय बंदर का ध्यान मत आने देना, तो बंदर का ध्यान आए बिना न रहेगा। वैसे भजन करने में कभी बंदर का ध्यान नहीं आता पर निषेध किया जाए तो बढोत्तरी होगी। बुराई कोई स्वतंत्र वस्तु नहीं है, भलाई के अभाव को बुराई कहते हैं, पाप कोई स्वतंत्र वस्तु नहीं है,पुण्य के अभाव को पाप कहते हैं। यदि भलाई की ओर, पुण्य' की ओर आपकी प्रवृत्ति हो तो बुराई अपने आप घटने लगेगी और एक दिन उसका पूर्णत: लोप हो जाएगा।
 
पीठ थपथपाने में घोडा खुश होता है, गरदन खुजाने से गाय प्रसन्न होती है, हाथ फिराने से कुत्ता हर्ष प्रकट करता है, प्रशंसा से हृदय हुलस आता है। आप दूसरों की प्रशंसा करने में कंजूसी मत किया कीजिए जिनमें जो अच्छे गुण देखें, उनकी मुक्त कंठ से सराहना किया करें, सफलता पर बधाई देने के अवसरों को हाथ से न जाने दिया करें। इसकी आदत डालना घर से आरंभ करें अपने भाई-बहिनों बालक-बालिकाओं की अच्छाइयों को उनके सामने कहा कीजिए। अपनी पत्नी के रूप, सेवाभाव, परिश्रम, आत्मत्याग की भूरि- भूरि प्रशंसा किया कीजिए। बड़ों के प्रति प्रशंसा प्रकट करने का रूप कृतज्ञता है। उनके द्वारा जो सहायता प्राप्त होती है उसके लिए कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए। किसी ने आपके ऊपर अहसान किया हो तो शुक्रिया, धन्यवाद, मैं आपका ऋणी ' आदि शब्दों के द्वारा थोड़ा-बहुत प्रत्युपकार उसी समय चुका दिया कीजिए। बाद में आप देखेगे कि चारों ओर कितना मिठास बरसता है। शत्रु-मित्र बन जाते हैं। आपकी वाणी के प्रशंसा युक्त मिठास से आकर्षित होकर मित्र और प्रिय पात्रों का दल आपके पीछे-पीछे लगा फिरेगा। आज यह बातें छोटी भलें ही प्रतीत होती हैं परंतु अनुभव के पश्चात आप पावेंगे कि प्रशंसा परायणता में जितना आध्यात्मिक लाभ है, उससे भी अधिक भौतिक लाभ है। धनी बनने, प्रेम पात्र बनने, नेता बनने, शत्रु रहित बनने की यह कुंजी है। दूसरों का हदय जीतने की यह अचूक दवा है।

आप अपने में अच्छाइयाँ देखिए 'दूसरों  में अच्छाईयाँ देखिए इस संसार में श्रेष्ठताएँ उत्कृष्टताएँ संपदाए कम नहीं हैं। आप उन्हें देखिए रूचिपूर्वक पहिचानिए और आग्रह पूर्वक ग्रहण करिए,ऐसा करने से आपके अंदर-बाहर, चारों ओर अच्छाइयों से भरा हुआ प्रसन्नतापूर्ण वातावरण एकत्रित हो जाएगा। इस वातावरण मे आपको आनन्द का, उल्लास का दर्शन होगा।

आनंददायक उल्लास प्रदान करने वाली परिस्थितियाँ वस्तुएँ बाहर नहीं हैं। जड भूतों में, चैतन्य आत्मा को उल्लसित करने वाली कोई शक्ति नहीं है। आप बाहर की ओर देखना छोड़ कर अपने अंतःकरण को तलाश कीजिए। क्योंकि अखंड आनंद का अक्षय स्रोत वहीं छिपा हुआ है। अपने सत् तत्वों को जागृत कीजिए उन्हें विकसित और समुन्नत कीजिए आपका जीवन उल्लास से परिपूर्ण हो जावेगा।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ ४०

👉 भक्तिगाथा (भाग १३०)

दोषों को भी प्रभु को अर्पित करता है भक्त

‘‘क्लेशों से क्लान्त, कलंकित, अनेकों मनोग्रन्थियों के मार से दबा सुशान्त न तो कुछ सोच पा रहा था, न कुछ समझ पा रहा था। जिन्दगी की सारी राहें उसके लिए खो चुकी थीं। सब ओर घना अंधियारा छाया हुआ था। ऐसे घने मानसिक अंधकार से घिरा सुशान्त इधर-उधर मारा-मारा घूमता था। लावण्या ने उसे अपने यहाँ से निकाल दिया था। जिन मित्रों पर उसे गर्व था, वे सभी मित्र कब के उससे दूर जा चुके थे। पिता के द्वारा अर्जित विपुल चल एवं अचल सम्पत्ति धीरे-धीरे लावण्या के चरणों में समर्पित हो चुकी थी। अब तो बस दुत्कार-फटकार, अपमान-असम्मान ही बचा था। पंडित शशांक शर्मा के जो मित्र पहले उसे स्नेह भाव से देखा करते थे, वे अब उससे मुँह फेर चुके थे।

स्मृतियों के धुंधलेपन में उसे अब यह भी याद नही रह गया था कि वह पंडित शशांक शर्मा का सुपुत्र है। वह विप्रकुल में जन्मा है और उसने अपना बचपन संध्यावन्दन करते हुए वेदमाता गायत्री की आराधना में बिताया है। अब जो स्मृतियाँ कभी उभरती-उफनती थीं, वे सभी बड़े ही विदू्रप जीवन की थीं। उनमें लावण्या थी, जिसके सम्पर्क में उसका सदाचरण विषाक्त हुआ था। वे मित्र थे, जिनके कुसंग में वह कुपथ पर चला था। लेकिन अब ये सब भी उससे किनारा कर गये थे। बचा रह गया था तो केवल उसका दुर्भाग्य, जो उसे बार-बार मरण के लिए प्रेरित करता था। कलंक व अपमान की असंख्य चोटों से आहत उसके मन में मर जाने के अलावा अन्य कोई भी विचार नहीं आता था।

अपने विचार प्रवाह में डूबता-उतराता एक दिन वह पास के अरण्य में चला गया। वहाँ पर एक पहाड़ी थी, न जाने किस प्रेरणा से वह उस पर चढ़ता गया। इस पहाड़ी के नीचे एक नदी बहती थी- मकराक्षी। इस नदी में अनेकों मगरमच्छ रहते थे। उसने सोचा इसी नदी में कूद कर जीवन की समाप्ति कर ले। नदी में गिरने के बाद यह अधम शरीर किसी न किसी मगर के मुख का ग्रास बन जाएगा। यह सोचते हुए जैसे ही उसने छलांग लगाने की चेष्टा की, वैसे ही दैवयोग से मैं आ गया। मैंने उसका हाथ पकड़कर कहा- पुत्र! जब संसार अपने सभी द्वार बंद कर लेता है, उस समय पमरेश्वर उसके लिए अपने हृदय का द्वार खोल देते हैं। सुशान्त को मेरा यह स्नेहपूर्ण व्यवहार अटपटा व विचित्र लगा। पर जब उसने मेरी आँखों में देखा तो वहाँ उसे आत्मीय स्नेह नजर आया। काफी देर तक तो वह यूं ही गुमसुम खड़ा रहा। फिर वह मेरे से जोर से चिपट कर बिलखते हुए रोने लगा। रोते-रोते जब उसकी हिचकियाँ थमीं तब उसने कहा- महर्षि क्या अभी भी मेरे जीवन में कुछ सार्थक होना सम्भव है?

क्यों नहीं पुत्र! तुम जो हो जैसे हो, वैसे ही तुम परमेश्वर में समर्पित हो जाओ। क्या अपने दोषों को भी मैं भगवान को अर्पित कर दूँ। उत्तर में मैंने कहा- हाँ पुत्र! दोषों को भी। क्योंकि जब दोष भगवान के पावन चरणों में अर्पित होते हैं तब वे रूपान्तरित होकर सद्गुण में बदल जाते हैं।’’ जब महर्षि सुशान्त का विवरण सुना रहे थे, तब देवर्षि नारद उन्हें भावपूर्ण नेत्रों से निहारे जा रहे थे। जब उन्होंने दोषों को प्रभु अर्पित करने की बात कही तो देवर्षि के मुख से अचानक निकल गया- ‘‘अहा! यह कितना सत्य कथन है।’’ देवर्षि के कहने से महर्षि क्रतु का ध्यान उनकी ओर गया और वह बोले- ‘‘अरे मैं तो सुशान्त की कथा सुनाने के फेर में यह भूल ही गया कि हम सबको आपके सूत्र की प्रतीक्षा है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २५५

शनिवार, 14 मई 2022

👉 दहेज का असुर तो ऐसे मरेगा

भारतवर्ष में दहेज एक ऐसा असुर है, जिसकी क्रूरता से अगणित कन्याऐं अपना प्राण त्याग चुकीं, अनेकों वैधव्य का दुख भोग रही हैं, अनेकों परित्यक्ता बनकर त्रास पा रही हैं। कन्याओं के माता-पिता का तो यह असुर रक्त पान करके किसी योग्य ही नहीं रहने देता। कसाई और उसकी छुरी से बकरी जिस प्रकार डरती रहती है, उसी प्रकार दहेज कर भय कन्याओं के जीवन तथा उनके माता-पिताओं के साथ प्राणों पर बीतने वाली दिल्लगी किया करता है।

जिस साधारण आर्थिक स्थिति के व्यक्ति को कन्या का पिता बनने का दुर्भाग्य प्राप्त हो चुका है वह भुक्त-भोगी भली प्रकार जानता है कि किसी खाते-पीते घर का पढ़ा-लिखा लड़का पटाने में उसे कितनी दीनता, कितनी जलालत, कितनी गले न उतरने वाली कठोर शर्तें स्वीकार करने को विवश होना पड़ता है। इस कठिनाई ने कन्या और पुत्र के समान दर्जे की स्थिति ही बदल दी है, अब तो पुत्र का जन्म सौभाग्य का और कन्या का जन्म दुर्भाग्य का चिन्ह माना जाता है। पुत्र जन्म पर बाजे बजते हैं तो कन्या के जन्मते ही घर-घर में उदासी छा जाती है।

बालक-बालक के बीच माता-पिता की दृष्टि में भी ऐसे अन्तर उत्पन्न करने का हेतु प्रधानतया यह ‘दहेज’ का असुर ही है, जिसकी कल्पना जन्म के दिन ही कर ली जाती है और एक के साथ कुछ पाने की और दूसरे के साथ कुछ गवाने की दृष्टि उत्पन्न होने से स्नेह भाव में अन्तर आ जाता है। बच्चों के प्रति माँ-बाप की दृष्टि में ऐसी भेद बुद्धि उत्पन्न करा देना भी इस दहेज के असुर की ही माया है।

हर गृहस्थ में पुत्रों की भाँति कन्याऐं भी होती हैं, इसलिए कन्या की बारी आने पर उसे भी दहेज के बोझ से पिसना पड़ता है, इस प्रकार यह कटु अनुभव प्रायः सभी गृहस्थों को होता है, सभी दुखी और परेशान हैं और हर किसी को कन्या के अभिभावकों के रूप में दहेज की निन्दा करते देखा और सुना जा सकता है, किन्तु वही व्यक्ति जब पुत्र का पिता या वर पक्ष की स्थिति में आता है तो तुरन्त गिरगिट की तरह रंग बदल जाता है और दहेज को अपना अधिकार एवं प्रतिष्ठा का माध्यम और धन कमाने का एक स्वर्ण सुयोग मानकर उस अवसर से भरपूर लाभ उठाना चाहता है। मनुष्य का यह दोगला रूप देखकर आश्चर्य होता है कि थोड़ी सी देर में ही वह अपने अनुभव को भूल जाता है। यदि वर पक्ष के रूप में वह दहेज का समर्थक था तो अब कन्या पक्ष का बनने की स्थिति में अपना घर कुर्क कराने में क्यों झिझकता है। यदि कन्या पक्ष के रूप में दहेज को बुरा मानता है तो लड़के की शादी के अवसर पर बेचारे कन्या पक्ष वालों को अपनी जैसी कठिनाई में ग्रस्त मानकर उनके साथ सहानुभूति का बर्ताव क्यों नहीं करता। यह दुरंगी चाल दहेज के असुर को जीवित रहने में सहायक होती है और वचन तथा कार्य में भिन्नता बरतने वाले समाज-सुधारकों के लैक्चर तथा लेखों को एक कौतूहल मात्र समझे जाने की स्थिति से आगे नहीं बढ़ने देती।

हमें अपने विचार और कार्यों में एकता लानी होगी, यदि दहेज बुरा है तो लड़के के पिता के रूप में उसे समझाने को तैयार रहना होगा। यदि दहेज अच्छा है तो कन्या के पिता के रूप में भी उसे बिना शिकायत और रंज माने देना होगा। दुटप्पी चालें चलना हमारे नैतिक अधःपतन का चिन्ह है। पतित व्यक्ति चाहे वे धनी, विद्वान्, चौधरी, पंच कोई भी हों, कोई प्रभावशाली प्रेरणा देकर समाज का पथ-प्रदर्शन करने की क्षमता नहीं रखते। दहेज का विरोध जहाँ-तहाँ सुनाई पड़ता है पर उसके पीछे कोई बल नहीं होता क्योंकि वे विरोध करने वाले व्यक्ति ही कहनी और कथनी में अन्तर रखकर अपनी स्थिति उपहासास्पद बना लेते हैं। उनकी आवाज के पीछे कोई बल न होने के कारण यह सुधार आन्दोलन नपुँसक ही रहता है।

अब चौधरी, पंच और जातीय कर्णधारों द्वारा आयोजित सभा सम्मेलनों के प्रस्तावों पर निर्भर रहने से काम न चलेगा। इस विडम्बना की बहुत देर से परीक्षा होती चली आ रही है। अब कुछ ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। अन्यथा इस गिरती हुई आर्थिक स्थिति के जमाने में एक ऐसा सामाजिक संकट उत्पन्न हो जायगा जिसमें “जीवित रहते हुए आत्म-हत्या” करने जैसे कष्ट से कम त्रासदायक अनुभव न किया जायगा।

इस दिशा में लड़के और लड़कियाँ पहल कर सकते हैं। चालीस-पचास वर्ष से ऊपर की आयु के माता-पिता प्रायः अपना साहस खो बैठते हैं। लड़के का पिता लोभ नहीं छोड़ना चाहता और लड़की का पिता यह नहीं सोच सकता कि किसी निर्धन घर में कन्या को दे दूँ तथा जब तक सुयोग्य लड़का न मिले तब तक सयानी कन्या को अनिश्चित काल के लिए अविवाहित रहने दूँ। इन वयोवृद्धों को लाठी की तरह सहारा देकर लड़के और लड़कियाँ उन्हें रास्ता बता सकते हैं। भावनाशील लड़कों को प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि अपनी अपेक्षा निर्धन घर की कन्या से बिना प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दहेज के शादी करूंगा। अभिभावकों से उन आदर्शवादी युवकों को स्पष्ट शब्दों में कहना पड़ेगा कि प्रत्यक्ष ही नहीं, अप्रत्यक्ष दहेज की बात चलाई जायगी तो वह उस विवाह को करने के लिए कदापि तैयार न होंगे।

इसी प्रकार मनस्वी कन्याएँ अपना साहस बटोर कर अपने घर वालों को बता दें कि वे दहेज माँगने वाले सामाजिक कोढ़ी अमीरों के यहाँ जाने की अपेक्षा निर्धन और घटिया स्थिति के घरों में जाने के लिए तैयार हैं पर दहेज के साथ सम्पन्न घरों में तथा कथित ‘सुशिक्षित’ लड़कों के साथ विवाह करना पसंद न करेंगी। अनुकूल स्थिति न आने पर कन्याओं को आजीवन कुमारी रहने का व्रत लेना चाहिए और अपने त्याग से एक दूषित वातावरण को तोड़ने का आदर्श उपस्थित करना चाहिए। माता-पिता को आर्थिक संकट में डालने से बचाने के लिए कई कन्याऐं आत्म हत्याएँ कर चुकीं हैं, पर उससे अच्छा मार्ग यह आत्म-त्याग का है। कन्याओं के ऐसे आत्म-त्याग भी दहेज के लोभी रक्त पिपासुओं की आँखें खोलने में कुछ कारगर हो सकते हैं।

अर्थ-लोलुप वर पक्ष वालों को दहेज की बुराई की जड़ माना जाता है। बहुत अंशों में यह ठीक भी है, पर कन्या पक्ष वालों को भी उस सम्बन्ध में सर्वथा निर्दोष नहीं माना जाता। वे आर्थिक सम्पन्नता की दृष्टि से लड़के ढूँढ़ते हैं। जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी है, उन्हीं पर सैकड़ों लड़की वाले टूटते हैं, फलस्वरूप उन लड़के वालों का दिमाग खराब हो जाता है और लड़के को नीलाम की बोली पर चढ़ा देते हैं। यदि लड़की वाले अपेक्षाकृत निर्धन घर के और कम “सुशिक्षित” लड़के ढूँढ़कर सामान्य स्थिति के सम्बन्ध से काम चलाते तो अधिक अमीर और खूबसूरत लड़कों पर जो भीड़ टूटती है वह न टूटे और दहेज का प्रश्न बहुत अंशों तक हल हो जाय। दहेज न देने के साथ-साथ लड़की वालों को इसके लिए भी तैयार रहना चाहिए कि ऊँची कीमत जेवर कपड़े की न तो माँग की जाय और न उनका प्रदर्शन कराया जाय। अच्छा तो यह जो कि ‘भार्गव’ समाज में प्रचलित रिवाज की भाँति कन्या का पिता ही जो कुछ जेवर कपड़ा स्वेच्छापूर्वक दे सकता हो, वह देकर कन्या को विदा कर दे। विवाहोत्सव की भारी खर्चीली रिवाजें बन्द करके कम से कम व्यक्तियों की उपस्थिति में यह एक साधारण पारिवारिक आयोजन मात्र बना लिया जाय। दहेज का जितना धन इन प्रदर्शनों और तूमाल बाँधने की विडम्बना में खर्च हो जाता है, इसे बन्द करना भी दहेज बन्द करने के समान आवश्यक है।

अब स्थिति ऐसी आ गई है कि हमारे बच्चों को प्राण संकट में डालने वाले इस दहेज रूपी असुर का विनाश करने को किन्हीं ठोस आधारों पर कदम उठाया जाना चाहिए। यद्यपि व्यापक अर्थ लोलुपता से उत्पन्न अनेक अनैतिकताओं की भाँति यह भी एक सामाजिक अनैतिकता है, जिसके लिए केवल वर के पिता को ही दोषी मान लेना और केवल उसी के सुधरने से सब कुछ ठीक हो जाने की आशा नहीं की जा सकती। कन्या वाले भी अमीर घर इसलिए ढूँढ़ते हैं कि इनकी कन्या को उत्तराधिकार के विपुल धन की स्वामिनी तथा बहुमूल्य आभूषणों से सुशोभित बनने का अवसर मिले। उन्हें भी अपना यह दृष्टिकोण बदलना पड़ेगा। विवाह योग्य लड़के और लड़की यदि साहस से कार्य लें तो भी इस सत्यानाशी प्रथा को बदलने तथा गलत तरीके से सोचने वाले माँ-बापों को सही तरीके से सोचने के लिए विवश करने में महत्वपूर्ण कार्य कर सकते हैं।

समय की माँग है अब दहेज बन्द होना चाहिए। प्रसन्नता की बात है कि हमारी ही भाँति अनेक बुद्धिमान व्यक्ति सोच रहे हैं और दहेज के विरुद्ध तगड़ा मोर्चा लगाने की तैयारी में संलग्न हैं। आगरा-नौबस्ता निवासी पं. मुकुटबिहारीलाल शुक्ल बी. ए. एल-एल. बी. अपनी कन्या का विवाह बिना दहेज दिये बड़े आदर्श के साथ करने में सफल हो चुके हैं। बरेली के सुप्रसिद्ध कथा वाचक तथा ‘राधेश्याम रामायण’ के निर्माता पं. राधेश्यामजी सुप्रसिद्ध धनीमानियों में हैं, उनने भी अपनी सुशिक्षित विवाह योग्य नाती-नातनियों का विवाह बिना दहेज के ही करने का निश्चय किया है। जिन्हें आवश्यकता है- “पं. राधेश्याम शर्मा कथावाचक बरेली” इस पते पर उनसे अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। हम चाहते हैं कि अखंड-ज्योति तथा गायत्री परिवार के मनस्वी लड़के-लड़कियाँ तथा वर-कन्याओं के अभिभावक उपरोक्त भावनाओं के अनुसार दहेज के असुर का दमन करने के लिए कुछ वास्तविक एवं ठोस आदर्श उपस्थित करने के लिए कदम उठावें।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जुलाई 1956 पृष्ठ 36

शुक्रवार, 13 मई 2022

👉 तीन गुरु

बहुत समय पहले की बात है, किसी नगर में एक बेहद प्रभावशाली महंत रहते थे । उन के पास शिक्षा लेने हेतु कई शिष्य आते थे। एक दिन एक शिष्य ने महंत से सवाल किया, स्वामीजी आपके गुरु कौन है? आपने किस गुरु से शिक्षा प्राप्त की है?” महंत शिष्य का सवाल सुन मुस्कुराए और बोले, मेरे हजारो गुरु हैं! यदि मै उनके नाम गिनाने बैठ जाऊ तो शायद महीनो लग जाए। लेकिन फिर भी मै अपने तीन गुरुओ के बारे मे तुम्हे जरुर बताऊंगा।

एक था चोर।
एक बार में रास्ता भटक गया था और जब दूर किसी गाव में पंहुचा तो बहुत देर हो गयी थी। सब दुकाने और घर बंद हो चुके थे। लेकिन आख़िरकार मुझे एक आदमी मिला जो एक दीवार में सेंध लगाने की कोशिश कर रहा था। मैने उससे पूछा कि मै कहा ठहर सकता हूं, तो वह बोला की आधी रात गए इस समय आपको कहीं आसरा मिलना बहुत मुश्किल होंगा, लेकिन आप चाहे तो मेरे साथ ठहर सकते हो। मै एक चोर हु और अगर एक चोर के साथ रहने में आपको कोई परेशानी नहीं होंगी तो आप मेरे साथ रह सकते है।

वह इतना प्यारा आदमी था कि मै उसके साथ एक महीने तक रह गया! वह हर रात मुझे कहता कि मै अपने काम पर जाता हूं, आप आराम करो, प्रार्थना करो। जब वह काम से आता तो मै उससे पूछता की कुछ मिला तुम्हे? तो वह कहता की आज तो कुछ नहीं मिला पर अगर भगवान ने चाहा तो जल्द ही जरुर कुछ मिलेगा। वह कभी निराश और उदास नहीं होता था, हमेशा मस्त रहता था।

जब मुझे ध्यान करते हुए सालों-साल बीत गए थे और कुछ भी हो नहीं रहा था तो कई बार ऐसे क्षण आते थे कि मैं बिलकुल हताश और निराश होकर साधना-वाधना छोड़ लेने की ठान लेता था। और तब अचानक मुझे उस चोर की याद आती जो रोज कहता था कि भगवान ने चाहा तो जल्द ही कुछ जरुर मिलेगा।

और मेरा दूसरा गुरु एक कुत्ता था।
एक बहुत गर्मी वाले दिन मै बहुत प्यासा था और पानी के तलाश में घूम रहा था कि एक कुत्ता दौड़ता हुआ आया। वह भी प्यासा था। पास ही एक नदी थी। उस कुत्ते ने आगे जाकर नदी में झांका तो उसे एक और कुत्ता पानी में नजर आया जो की उसकी अपनी परछाई थी। कुत्ता उसे देख बहुत डर गया। वह परछाई को देखकर भौकता और पीछे हट जाता, लेकिन बहुत प्यास लगने के कारण वह वापस पानी के पास लौट आता। अंततः, अपने डर के बावजूद वह नदी में कूद पड़ा और उसके कूदते ही वह परछाई भी गायब हो गई। उस कुत्ते के इस साहस को देख मुझे एक बहुत बड़ी सिख मिल गई। अपने डर के बावजूद व्यक्ति को छलांग लगा लेनी होती है। सफलता उसे ही मिलती है जो व्यक्ति डर का साहस से मुकाबला करता है।

और मेरा तीसरा गुरु एक छोटा बच्चा है।
मै एक गांव से गुजर रहा था कि मैंने देखा एक छोटा बच्चा एक जलती हुई मोमबत्ती ले जा रहा था। वह पास के किसी गिरजाघर में मोमबत्ती रखने जा रहा था। मजाक में ही मैंने उससे पूछा की क्या यह मोमबत्ती तुमने जलाई है? वह बोला, जी मैंने ही जलाई है। तो मैंने उससे कहा की एक क्षण था जब यह मोमबत्ती बुझी हुई थी और फिर एक क्षण आया जब यह मोमबत्ती जल गई। क्या तुम मुझे वह स्त्रोत दिखा सकते हो जहा से वह ज्योति आई?

वह बच्चा हँसा और मोमबत्ती को फूंख मारकर बुझाते हुए बोला, अब आपने ज्योति को जाते हुए देखा है। कहा गई वह? आप ही मुझे बताइए।

मेरा अहंकार चकनाचूर हो गया, मेरा ज्ञान जाता रहा। और उस क्षण मुझे अपनी ही मूढ़ता का एहसास हुआ। तब से मैंने कोरे ज्ञान से हाथ धो लिए।

मित्रो, शिष्य होने का अर्थ क्या है? शिष्य होने का अर्थ है पुरे अस्तित्व के प्रति खुले होना। हर समय हर ओर से सीखने को तैयार रहना। जीवन का हर क्षण, हमें कुछ न कुछ सीखने का मौका देता है। हमें जीवन में हमेशा एक शिष्य बनकर अच्छी बातो को सीखते रहना चाहिए। यह जीवन हमें आये दिन किसी न किसी रूप में किसी गुरु से मिलाता रहता है, यह हम पर निर्भर करता है कि क्या हम उस महंत की तरह एक शिष्य बनकर उस गुरु से मिलने वाली शिक्षा को ग्रहण कर पा रहे हैं की नहीं!

👉 स्वभाव को कैसे सुधारा जाय

सामाजिक संस्कारों के अनुशीलन के सिलसिले में अनेकों खोजियों ने आश्चर्य के साथ देखा होगा कि सुखी और सम्पन्न घराने के लोगों ने किसी संवेग से प्रेरित हो किसी के साधारण मूल्य की वस्तुयें चुरा लीं। यद्यपि उतने पैसे या उन वस्तुओं का अभाव उन्हें जरा भी नहीं होता, फिर भी चुराने में उसे मजा आता है। और ये आदतें मार-पीट, दबाव और शासन से नहीं छूटती। मनुष्य इन आदतों को छोड़ने की इच्छा करके भी नहीं छोड़ पाते। इन जटिल आदतों को कैसे छुड़ाया जाय, इनके मूल कहाँ हैं, इन सभी बातों के लिये मन का विश्लेषण करना आवश्यक है।

इन आदतों की उत्पत्ति कैसे होती है, इस सम्बंध में प्रथम विचार, इस प्रकार के हैं-बार बार किसी कार्य को करते रहने से, उसके संस्कार कर्त्ता के मन पर क्रमशः जमते जाते हैं और एक दिन वे संस्कार घनीभूत होकर आदत में परिणत हो जाते हैं। जिस प्रकार बारम्बार के संघर्ष से जड़ पदार्थों में एक निश्चित संस्कार उत्पन्न हो जाता है, उसी प्रकार मनुष्यों में भी किसी काम को बारम्बार करते रहने से वह उसकी आदत ही बन जाती है। इसलिये कोमल शिशुओं को किसी काम में बारम्बार लगाने से उसकी आदत निर्मित करने के लिए पर्याप्त हैं और किसी आदत को बदलने के लिए उसके विपरित कार्यों को बारम्बार कराना भी पर्याप्त है।

नवीन मनोवैज्ञानिक विचारधारा कहती है कि प्रत्येक आदत की जड़ किसी संवेग में रहती है और इस संवेग के उत्तेजित होने पर आदत से होने वाले कात किए जाते हैं। संवेग की उत्तेजना, शिथिलता एवं विनाश ही, आदत की क्रिया शीलता, उसकी दिलाई एवं नाश का कारण बनता है। आदत मशीन है, संवेग उसकी चालक विद्युत शक्ति है। अभ्यास की बारम्बारता आदत निर्मित होने का कारण नहीं है। जटिल आदतें, मानसिक जटिलता, पेंचदार संवेगों के कारण ही उत्पन्न होती हैं।

यदि बुरी आदतें छुड़वाने और छोड़ने की जरूरत है तो इसके लिए आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार उन संवेगों के केन्द्र, मानसिक ग्रन्थियों के खोल देने ही से उन संवेगों के नष्ट हो जाने पर ही सम्भव है।

इस सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिक चिकित्सा के अनुभवी श्री हेड फील्ड महाशय के कथन उल्लेख किये जाते हैं—

“मानसिक चिकित्सा में देखने में आता है कि जब किसी भावना ग्रन्थि को पूर्णतः नष्ट कर दिया जाता है, तो उससे सम्बन्धित बुरी आदत उसी प्रकार नष्ट हो जाती है, जिस प्रकार बिजली के प्रवाह की धारा तोड़ देने से बिजली का प्रकाश समाप्त हो जाता है। कारण के हटा देने पर कार्य का अन्त अपने आप हो जाता है। यदि आदत मानसिक ग्रन्थि के हटाने पर भी बनो रहे, या हटाने में समय ले रही हो, तो समझना चाहिए कि मानसिक ग्रन्थि अभी तक विद्यमान है।

इसका सबसे सुन्दर प्रत्यक्ष प्रमाण धार्मिक परिवर्तनों में देखा जाता है। बड़े से बड़ा पापी भी एक ही दिन में किसी अपने विशेष अनुभव से पुण्यात्मा बन जाता है। और अकस्मात् अपनी ऐसी आदतों को छोड़ देता है, जो जन्म से ही बनी आ रही थी। मनुष्य के संवेगात्मक जीवन में परिवर्तन होने से, उसकी बुरी आदतें उसे सदा के लिए छोड़ देती हैं। बुरी आदतों को मिटाने के लिए सम्भव है कि मानसिक चिकित्सकों को, उस ग्रन्थि को खोज निकालने में अनेकों सप्ताह अथवा महीने भी लगे, किंतु एक बार उस मानसिक ग्रन्थि को ढूंढ़ लेने पर (जो ग्रन्थि, उस आदत की जड़ है) तथा उसके निराकरण होने पर बुरी आदत अचानक ही नष्ट हो जाती है यह नियम न केवल आचरण की कुछ आदतों के लिए लागू होता है, वरन् शारीरिक अभ्यासों, मानसिक अकारण भयों,दुःखानुभूतियों आदि के लिए भी पूर्ण रूपेण लागू होता है। नैतिक सुधार में ही यह मनोवैज्ञानिक नियम कार्य करता है।

उस सिद्धाँतों का समर्थन ऐसे अनेकों उदाहरणों से किया जाता है। वाल्मीकि,तुलसीदास,सूरदास आदि इसके उदाहरण हैं। संवेग परिवर्तित होते ही इनके विचार ही नहीं,आचरण तक बदल गये। मनोवैज्ञानिक चिकित्सक प्रमाण के लिए ऐसे ही उदाहरण पेश करते हैं, जिसके कुछ नमूने नीचे दिये जा रहे हैं—

एक महाशय को रात के तीन बजे जग जाने की आदत पड़ गयी थी। वह स्वयं इस समय सोना चाहते थे, पर लाख चाहने पर उसे नींद नहीं आ पाती थी। इस आदत की स्वभाव ग्रन्थि की खोज करने पर पता चला कि एक बड़े ही तीव्र वेदना भरे अनुभवों के कारण ही वह जटिल ग्रन्थि बन गयी थी जिसने इस आदत का रूप धारण कर रक्खा था। कई वर्ष पूर्व उन्हें पेचिश की बीमारी हुई थी। इस बीमारी के कारण एक रात के तीन बजे सहसा ही इनकी नींद टूट गयी और उस समय उनके पेट में इतनी दुस्सह पीड़ा हुई कि उन्होंने समझ लिया कि अब मेरे प्राण शरीर से निकलने ही वाले हैं। पश्चात् ये पीड़ा और पेचिश एवं मृत्यु भय की बात उसकी याद में से धुल गयी पर उस मानसिक ग्रन्थि के निर्मित हो जाने के कारण उसे अनचाहे भी तीन बजे जग जाना पड़ता था। संवेगात्मक-अनुभव का संबन्ध तीन बजे रात के जगने से हो गया था, अतः संवेग के उत्तेजित होते ही आदत क्रियामाण हो पड़ता था, और वे नींद से वंचित हो जाते थे।

कभी-कभी मानव के जीवन में यह आश्चर्य भी उपस्थित होता है कि जिस व्यक्ति से हम सद्भाव पूर्वक बरतने का विचार रखते हैं, प्रेम करना चाहते हैं, उसी व्यक्ति को देखते ही कुछ ऐसे भाव भी उद्वन्द्व हो पड़ते हैं जो उस विचार और भाव के बिल्कुल विपरीत पड़ते हैं। वैसा व्यवहार करना हमारे विचार को जरा भी पसन्द नहीं, और न वैसा करना ही चाहते हैं, फिर भी एक संवेग वैसा कर डालने के लिये अनुप्रेरित करता रहता है। इसके भी एक उदाहरण जो मनोवैज्ञानिक जनों की ओर से दिए गए हैं, उसे देखिये और इस मनोवैज्ञानिक जटिलताओं के कारणात्मक सत्य की परख कीजिए—

एक अस्पताल में एक पुरुष “नर्स’ का काम करता था। उसी अस्पताल में एक “नर्स” का काम करने वाली महिला से उसे प्रेम हो गया। उसके प्रति उस (पुरुष) के हृदय में स्नेह के बाढ़ आते, तो उसकी सुन्दर कल्पना में विभोर हो उठता, पर ज्यों ही वह महिला उसके सामने आती तो उसमें एक संवेग उठता कि उसके सुकोमल गालों में जोर से एक घूंसा लगा दूँ। घूंसा मारने से तो प्रेम और विवाह होने की सारी स्थितियाँ बिगड़ ही जाएंगी, यही सोच कर वह अपने को रोक लेता, पर अन्तर से उठते हुए संवेग को रोकने में वह सदा ही असमर्थ रहता। एक दिन वह इसी चिंता में तल्लीन था कि अपनी प्रेमिका के प्रति, प्रतिकूल आचरण करने का संवेग जो मुझे होता है, वह क्यों? सहसा ही उसे याद आयी कि एकबार अस्पताल में नर्स का काम करते हुए उसे एक महिला नर्स ने नौकरी से वञ्चित कर वह स्वयं उस स्थान पर अधिकृत हो गयी थी। उसकी उस गर्हित नीचता से पुरुष को बड़ा क्रोध आया और उसने उस महिला नर्स से कहा--आज यदि मैं भी एक नारी होता तो तुम्हारे सुकोमल से कपोलों को जोर के घूंसे मारकर मरम्मत कर देता, किंतु अफसोस! वह आवेश उसने रोक लिया था और कुछ दिनों के बाद उसे भूल भी गया, पर उसी ने उसके मन में-स्वभाव में एक ग्रन्थि उत्पन्न कर दी थी; जिससे वैसे चेहरे वाली नर्सों के गाल उसके सामने आते ही उसके संवेग उत्तेजित हो उठते और उसे वह बड़ी कठिनाई से संयत कर पाता था।

यह स्मृति में आने के उपरान्त उसकी मानसिक ग्रन्थि खुल गयी और उस अनिच्छित संवेग की भी परिसमाप्ति हो गयी।

अतः आज का मनोविज्ञान चाहता है कि मनुष्यों की बुरी आदतों को छुड़ाने के लिए उसके विरुद्ध अच्छी आदतों का बारम्बार अभ्यास करना असफल प्रयोग है। बुरी आदतें तो तभी छूट सकती हैं जब उसकी आदत की कारण स्वरूपा मान सके ग्रन्थियों को ढूंढ़ कर सुलझायी खोल डाली जाय।

📖 अखण्ड ज्योति-अप्रैल 1956 पृष्ठ 30

गुरुवार, 12 मई 2022

👉 देखा जब उस वृद्ध को तो जिन्दगी बदल गई

एक सेठ के एक इकलौता पुत्र था पर छोटी सी उम्र मे ही गलत संगत के कारण राह भटक गया! परेशान सेठ को कुछ नही सूझ रहा था तो वो ईश्वर के मन्दिर मे गया और ईश दर्शन के बाद पुजारी को अपनी समस्या बताई !

पुजारी जी ने कहा की आप कुछ दिन मन्दिर मे भेजना कोशिश पुरी करेंगे की आपकी समस्या का समाधान हो आगे जैसी सद्गुरु देव और श्री हरि की ईच्छा !

सेठ ने पुत्र से कहा की तुम्हे कुछ दिनो तक मन्दिर जाना है नही तो तुम्हे सम्पति से बेदखल कर दिया जायेगा, घर से मन्दिर की दूरी ज्यादा थी और सेठ उसे किराये के गिनती के पैसे देते थे! अब वो एक तरह से बंदिश मे आ गया!

मंदिर के वहाँ एक वृद्ध बैठा रहता था और एक अजीब सा दर्द उसके चेहरे पर था और रोज वो बालक उस वृद्ध को देखता और एक दिन मन्दिर के वहाँ बैठे उस वृद्ध को देखा तो उसे मस्ती सूझी और वो वृद्ध के पास जाकर हँसने लगा और उसने वृद्ध से पुछा हॆ वृद्ध पुरुष तुम यहाँ ऐसे क्यों बैठे रहते हो लगता है बहुत दर्द भरी दास्तान है तुम्हारी और व्यंग्यात्मक तरीके से कहा शायद बड़ी भूलें की है जिंदगी मे?

उस वृद्ध ने जो कहा उसके बाद उस बालक का पूरा जीवन बदल गया! उस वृद्ध ने कहा हाँ बेटा हँस लो आज तुम्हारा समय है पर याद रखना की जब समय बदलेगा तो एक दिन कोई ऐसे ही तुम पर हँसेगा! सुनो बेटा मैं भी खुब दौड़ा मेरे चार चार बेटे है और उन्हे जिंदगी मे इस लायक बनाया की आज वो बहुत ऊँचाई पर है और इतनी ऊँचाई पर है वो की आज मैं उन्हे दिखाई नही देता हुं! और मेरी सबसे बड़ी भुल ये रही की मैंने अपने बारे मे कुछ भी न सोचा! अपने इन अंतिम दिनो के लिये कुछ धन अपने लिये बचाकर न रखा इसलिये आज मैं एक पराधीनता का जीवन जी रहा हुं! पर मुझे तो अब इस मुरलीधर ने सम्भाल लिया की यहाँ तो पराधीन हुआ हुं कही आगे जाकर पराधीन न हो जाऊँ!

बालक को उन शब्दो ने झकझोर कर रख दिया! बालक - मैंने जो अपराध किया है उसके लिये मुझे क्षमा करना हॆ देव! पर हॆ देव आपने कहा की आगे जाकर पराधीन न रहूँ ये मेरी कुछ समझ मे न आया?

वृद्ध - हॆ वत्स यदि तुम्हारी जानने की ईच्छा है तो बिल्कुल सावधान होकर सुनना अनन्त यात्रा का एक पड़ाव मात्र है ये मानवदेह और पराधीनता से बड़ा कोई अभिशाप नही है और आत्मनिर्भरता से बड़ा कोई वरदान नही है! अभिशाप की जिन्दगी से मुप्ति पाने के लिये कुछ न कुछ जरूर कुछ करते रहना! धन शरीर के लिये तो तपोधन आत्मा के लिये बहुत जरूरी है!

नियमित साधना से तपोधन जोडिये आगे की यात्रा मे बड़ा काम आयेगा! क्योंकि जब तुम्हारा अंतिम समय आयेगा यदि देह का अंतिम समय है तो धन बड़ा सहायक होगा और देह समाप्त हो जायेगी तो फिर आगे की यात्रा शुरू हो जायेगी और वहाँ तपोधन बड़ा काम आयेगा!

और हाँ एक बात अच्छी तरह से याद रखना की धन तो केवल यहाँ काम आयेगा पर तपोधन यहाँ भी काम आयेगा और वहाँ भी काम आयेगा! और यदि तुम पराधीन हो गये तो तुम्हारा साथ देने वाला कोई न होगा!

उसके बाद उस बालक का पुरा जीवन बदल गया!

इसलिये नियमित साधना से तपोधन इकठ्ठा करो!

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