भारतीय संस्कृति में देवताओं की विचित्र कल्पनायें की गई हैं। उनकी मुखाकृति, वेष-विन्यास रहन-सहन, वाहन आदि के ऐसे विचित्र कथानक जोड़कर तैयार किये गये हैं कि उन्हें पढ़कर यह अनुमान करना भी कठिन हो जाता है कि वस्तुतः कोई ऐसे देवी देवता हैं भी अथवा नहीं? चार मुख के ब्रह्माजी, पंचमुख महादेव, षट्मुख कार्तिकेय, हाथी की सूंड़ वाले श्री गणेशजी, पूंछ वाले हनुमानजी—यह सब विचित्र-सी कल्पनायें हैं, जिन पर मनुष्य की सीधी पहुंच नहीं हो पाती उसे या तो श्रद्धावश देवताओं को सिर झुकाकर चुप रह जाना पड़ता है या फिर तर्कबुद्धि से ऐसी विचित्रताओं का खण्डन कर यही मान लेना पड़ता है कि ऐसे देवताओं का वस्तुतः कहीं कोई अस्तित्व नहीं है।
पौराणिक देवी-देवताओं के वर्णन मिलते हैं उन पर गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो पता चलता है कि इन विचित्रताओं के पीछे बड़ा समुन्नत आध्यात्मिक रहस्य छिपा हुआ है। मानव-जीवन के किन्हीं उच्च आदर्शों और स्थितियों का इस तरह बड़ा ही कलापूर्ण दिग्दर्शन किया है, जिसका अवगाहन करने मात्र से मनुष्य दुस्तर साधनाओं का फल प्राप्त कर मनुष्य जीवन को सार्थक बना सकता है।
इस प्रकार के आदर्श आदिकाल से मनुष्य को आकर्षित करते रहे हैं। मनुष्य उनकी उपासना करता रहा है और जाने अनजाने भी इन आध्यात्मिक लाभों से लाभान्वित होता रहा है। इन्हें एक प्रकार से व्यावहारिक जीवन की मूर्तिमान् उपलब्धियां कहना चाहिए। उसे जीवन क्रम में इतना सरल और सुबोधगम्य बना देने में भारतीय आचार्यों की सूक्ष्म बुद्धि का उपकार ही माना चाहिए, जिन्होंने बहुत थोड़े में सत्य और जीवन-लक्ष्य की उन्मुक्त अवस्थाओं का ज्ञान उपलब्ध करा दिया है।
शैव और वैष्णव यह दो आदर्श भी उन्हीं में से है। शिव और विष्णु दोनों आध्यात्मिक जीवन के किन्हीं उच्च आदर्शों के प्रतीक हैं। इन दोनों में मौलिक अन्तर इतना ही है कि शिव आध्यात्मिक जीवन को प्रमुख मानते हैं। उनकी दृष्टि में लौकिक सम्पत्ति का मूल्य नहीं है, वैराग्य ही सब कुछ है जब कि विष्णु जीवन के लौकिक आनन्द का भी परित्याग नहीं करते।
यहां हमारा उद्देश्य इन दोनों स्थितियों में तुलना या श्रेष्ठता के आधार ढूंढ़ना नहीं है। शिव के आध्यात्मिक रहस्यों का ज्ञान करना अभीष्ट है ताकि लोग इस महत्व का भली भांति अवगाहन कर अपना जीवन लक्ष्य सरलतापूर्वक साध सकें।
शिव का आकार लिंग माना जाता है। उसका अर्थ यह है कि यह सृष्टि साकार होते हुए भी उसका आधार आत्मा है। ज्ञान की दृष्टि से उसके भौतिक सौन्दर्य का कोई बड़ा महत्व नहीं है। मनुष्य को आत्मा की उपासना करानी चाहिए, उसी का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। सांसारिक रूप सौन्दर्य और विविधता में घसीटकर उस मौलिक सौन्दर्य को तिरोहित नहीं करना चाहिये।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाय पृष्ठ 139- 140