मंगलवार, 30 जून 2020

👉 क्षमा बड़न को चाहिए


👉 Triumph over Vices

The external world, as we find it, is mostly a reflection of our inner world. Moreover, the intrinsic desires and sentiments of the human self are so strong that they attract and accumulate thoughts of similar nature, trigger one’s actions accordingly and thus create corresponding circumstances.

So if you want to clean up the ambience around you, you will have to begin purifying your own sentiments and thoughts first. If you want peace and benevolence around you, you should first conquer your own vices, untoward instincts and wrong thinking. Utter selfishness and egotism are the root causes of all conflicts and clashes, be that at familial, social or communal levels. The narrow tendency of grabbing supremacy at any cost, neglecting even the genuine rights of others and ignoring the ethics of humanity, are behind the religious or political battles and wars the consequences of which are horrifying and devastating.

You may care for self-respect and happy progress of your life, but it is not necessary that you should block someone else’s ascent for this or snatch it from someone. People might acquire wealth and might by such means, but it hardly gives them any joy and eventually proves to be agonizing. The only and the best way to happiness is that of equality, cooperation, mutual respect and goodwill.

This way, we all can contribute to spread happiness collectively and be happier… The evils of self-centeredness are toxic to the ambience of peace. The delight that emanates from and extends the nectar of collective, widespread happiness is the real joy…

📖  Akhand Jyoti, June 1945

👉 ममता हटाने पर ही चित्त शुद्ध होगा (भाग २)

स्वाधीन-चित्त केवल शाँति दाता ही नहीं, शक्ति-दाता भी होता है। शक्ति सुख की जननी है। उससे आत्मविश्वास और आत्मविश्वास से निर्भयता का आविर्भाव होता है। अनुशासित चित्त का शक्ति भण्डार मनुष्य को इतना कार्य सक्षम बना देता है कि वह बड़े-बड़े विस्मयकारक कार्य कर सकता है। जीवन की सार्थकता एवं सफलता इस एक बात पर ही निर्भर रहती है कि वह कुछ ऐसे सत्कर्म कर सके जिससे उसका तथा संसार का उपकार हो और उसकी आत्मा को एक शाश्वत सन्तोष मिले। उसे जीवन अथवा मृत्यु दोनों स्थितियों में हर्ष की उपलब्धि हो। मनुष्य का चित्त सच्ची शक्तियों का आगार है। इस शक्ति -कोष का उद्घाटन तब ही होता है जब चित्त अनुशासित तथा स्ववश होता है। चित्त की स्वाधीनता उसकी निर्दोषिता पर ही निर्भर है।

मनुष्य के लिये अब यह बात अनजान नहीं रह गई है कि उसे क्या करना है और क्या नहीं करना चाहिए क्या करने में उसका कल्याण है और क्या करने में अकल्याण है। अशुद्ध चित्त के कारण बहुधा यह होता रहता है कि मनुष्य कल्याणकारी कार्य करना चाहता है किन्तु नहीं कर पाता प्रत्युत उससे परवश ही ऐसे कार्य हो जाते हैं जो अमाँगलिक तथा अकल्याणकारी होते हैं। ऐसी दशा में पश्चाताप होना स्वाभाविक है। मनुष्य मन ही-मन रोता-खीजता और अपने को कोसता है। वह जानता है कि इस प्रकार के अवाँछनीय कार्य उसको प्रगति पथ पर, सुख-शाँति के महान् मार्ग पर न बढ़ने देंगे। जिससे उसका बहुमूल्य मानव-जीवन यों ही नष्ट होकर व्यर्थ चला जायेगा और तब उसे आत्मोन्नति, आत्मकल्याण करने का अवसर न जाने कभी मिलेगा या नहीं। मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह अति दुर्लभ मानव-जीवन का सदुपयोग करके आत्मकल्याण का अधिकारी बन जाये। किन्तु खेद है कि चित्त की अशुद्धता के कारण वह अपने इस महत् उद्देश्य में सफल नहीं हो पाता।

बहुधा लोग चित्त को चंचलता का ही वह दोष मान लेते हैं जिसके कारण हम उसे स्ववश नहीं कर पाये चित्त की चंचलता वस्तुतः उसका दोष नहीं है बल्कि यह असकी विकलता है, छटपटाहट है जो शुद्धि प्राप्त करने की लालसा एवं प्रयास से उत्पन्न होती है। नैसर्गिक नियम के अधीन चित्त स्वभावतः शुद्धि की ओर स्वयं गतिशील रहा करता है और जब तक उसे अभीष्ट शुद्धता नहीं मिल जाती है एक ओर से दूसरी और को भागता रहता है। ज्यों ही उसे अभीष्ट शुद्धता जो कि प्रसन्नता के रूप में होती है, मिल जाती है वह स्थिर, शाँत एवं सन्तुष्ट हो जाता है। फिर न वह व्यग्र होता है और न चंचल। अभीष्ट केन्द्र बिन्दु पर पहुँच कर वह एकरस शुभ संकल्पों तथा सत्कर्मों में लग कर मानव जीवन को सफल एवं सार्थक बना देता है। चित्त की चंचलता इस बात का प्रमाण है कि वह अपने अभीष्ट लक्ष्य को नहीं पा रहा है, जिसके लिए वह लालायित होकर भागा-भागा फिर रहा है। मनुष्य को चाहिए कि वह उसकी सहायता करे। एक बार ऐसे अपने केन्द्र बिन्दु पर पहुँच जाने में मदद करे, जिससे कि वह शुद्ध एवं प्रबुद्ध होकर मनुष्य को उसी प्रकार सहायक तथा सुखदाता बन सके जिस प्रकार पिता द्वारा पाला-पोषा पुत्र उसका अवलम्ब बन जाता है। चित्त द्वारा शुद्धि का प्रयत्न और कुछ नहीं मनुष्य को कल्याण पथ पर पहुँचाने की सामर्थ्य प्राप्त करने का प्रयास ही है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1966 पृष्ठ 11

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1966/November/v1.11

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