सत् तत्व का नियामक
सर्व नियामक सत्ता की प्रबन्ध व्यवस्था का पता जीवन के आविर्भाव से ही चल जाता है। जीवन की उपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सृष्टि में ऐसा प्रबन्ध है कि वे सरलतापूर्वक पूरी हो जाया करे। सांस के बिना प्राणी एक क्षण को भी जीवित नहीं रह सकता, सो वह प्रचुर मात्रा में सर्वत्र उपलब्ध है। उसके बाद जल की आवश्यकता है उसके लिए थोड़ा प्रयत्न करने से ही काम चल जाता है। तीसरी आवश्यकता अन्न की है सो उसके लिए साधन न जुटा सकने वाले प्राणियों के लिए फल-फूल की प्राकृतिक व्यवस्था है वहीं बुद्धिधारी जीव थोड़े प्रयत्न से अपनी आवश्यकता पूरी कर लेते हैं इसके बाद के समस्त उपादान आवश्यकता के अनुपात में प्रयत्न और परिश्रम से प्राप्ति होते रहते हैं। इस सार्वभौम आवश्यकताओं की पूर्ति बिना संचालक-व्यवस्थापक के कैसे सम्भव हो सकती थी।
नैतिकता के सर्वमान्य सिद्धान्तों से न केवल जीव समुदाय जुड़ा है अपितु कर्त्ता ने वह अनुशासन स्वयं पर भी पूरी तरह लागू किया है। भ्रूण जैसी अत्यधिक कोमल और सम्वेदनशील सत्ता को विकसित होने के लिए खुला छोड़ दिया जाता तो प्राण-धारी के लिए उपयोगी वायु, ताप और अन्य प्राकृतिक परिस्थितियां ही उसे नष्ट-भ्रष्ट कर डालतीं सो उसके लिए अति वातानुकूलित और सर्व सुविधा सम्पन्न निवास मां के गर्भाशय की व्यवस्था क्या किसी अत्यधिक प्रबुद्ध सत्ता के अस्तित्व का प्रमाण नहीं। जहां चारों तरफ से बन्द कोठरी में ही उसे विकास की समस्त सुविधायें उचित मात्रा में मिलती रहती है, जन्म के पूर्व ही उसके लिए सन्तुलित आहार मां के दूध जैसा उपलब्ध कराकर उसे अत्यधिक करुणा दरसाई। असहाय, असमर्थ शिशु के लिये न केवल भौतिक सहायताएं अपितु उसके लिए जिन भावनात्मक सुविधाओं की आवश्यकता थी वह समस्त उसे कुटुम्ब में, समुदाय और समाज में मिल जाती हैं। इस तरह जीवनसत्ता परिपक्व रूप में सामने आ जाती है इतने पर भी यह कितने आश्चर्य की बात है कि दूसरों के सहारे बढ़ा विकसित हुआ जीव न केवल सामाजिक कर्त्तव्यों के प्रति कृतघ्नता का परिचय देने लगता है, अपितु अपने परमपिता, अपनी मूलसत्ता को ही भुला बैठता है।
इतने पर भी वह दयालु पिता उस शिशु के यौवन में प्रवेश करते ही उसकी पितृत्व, कामेच्छा और भावनात्मक सहयोग की पूर्ति के लिए जोड़ी मिलाने, नर को नारी में नारी को नर में अपनी पूर्णता प्राप्त करने की सुविधा जुटाई, रोग निरोध की तथा सांसारिक प्रतिकूलताओं में अपने अस्तित्व की रक्षा की जन्म-जात सुविधाएं भी प्रदान की हैं। रोगों से लड़ने की शक्ति रक्त कणों में शारीरिक अवयवों की सुरक्षा त्वचा के द्वारा देखने के लिए आंखें, सुनने के लिए कान और विचार करने के लिए बढ़िया मस्तिष्क इतनी सुन्दर मशीन आज तक न कोई बना सका और न बना सकना सम्भव है जो इच्छानुसार हर परिस्थिति में मुड़ने, लचकने, संभालने में सक्षम है। आंख जैसी रेटिना, कान जैसा पर्दा गुर्दे जैसे सफाई अधिकारी, हृदय जैसे पोषण संस्थान और पांव जैसा सुन्दर आर्क बनाने वाली सत्ता कितनी बुद्धिमान होती इसकी तुलना न किसी इंजीनियर से हो सकती है न डॉक्टर से। वह प्रत्येक कला-कौशल का ज्ञाता, सर्व निष्णात और सर्व प्रभुता सम्पन्न दानी केवल परमात्मा ही हो सकता है इससे कम मानना न केवल उस परमात्मा की अवमानना होगी अपितु यह एक प्रकार से स्वयं का ही आत्मघात होगा।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ६९
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी