गुरुवार, 29 जुलाई 2021

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ४४)

सत् तत्व का नियामक

सर्व नियामक सत्ता की प्रबन्ध व्यवस्था का पता जीवन के आविर्भाव से ही चल जाता है। जीवन की उपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सृष्टि में ऐसा प्रबन्ध है कि वे सरलतापूर्वक पूरी हो जाया करे। सांस के बिना प्राणी एक क्षण को भी जीवित नहीं रह सकता, सो वह प्रचुर मात्रा में सर्वत्र उपलब्ध है। उसके बाद जल की आवश्यकता है उसके लिए थोड़ा प्रयत्न करने से ही काम चल जाता है। तीसरी आवश्यकता अन्न की है सो उसके लिए साधन न जुटा सकने वाले प्राणियों के लिए फल-फूल की प्राकृतिक व्यवस्था है वहीं बुद्धिधारी जीव थोड़े प्रयत्न से अपनी आवश्यकता पूरी कर लेते हैं इसके बाद के समस्त उपादान आवश्यकता के अनुपात में प्रयत्न और परिश्रम से प्राप्ति होते रहते हैं। इस सार्वभौम आवश्यकताओं की पूर्ति बिना संचालक-व्यवस्थापक के कैसे सम्भव हो सकती थी।

नैतिकता के सर्वमान्य सिद्धान्तों से न केवल जीव समुदाय जुड़ा है अपितु कर्त्ता ने वह अनुशासन स्वयं पर भी पूरी तरह लागू किया है। भ्रूण जैसी अत्यधिक कोमल और सम्वेदनशील सत्ता को विकसित होने के लिए खुला छोड़ दिया जाता तो प्राण-धारी के लिए उपयोगी वायु, ताप और अन्य प्राकृतिक परिस्थितियां ही  उसे नष्ट-भ्रष्ट कर डालतीं सो उसके लिए अति वातानुकूलित और सर्व सुविधा सम्पन्न निवास मां के गर्भाशय की व्यवस्था क्या किसी अत्यधिक प्रबुद्ध सत्ता के अस्तित्व का प्रमाण नहीं। जहां चारों तरफ से बन्द कोठरी में ही उसे विकास की समस्त सुविधायें उचित मात्रा में मिलती रहती है, जन्म के पूर्व ही उसके लिए सन्तुलित आहार मां के दूध जैसा उपलब्ध कराकर उसे अत्यधिक करुणा दरसाई। असहाय, असमर्थ शिशु के लिये न केवल भौतिक सहायताएं अपितु उसके लिए जिन भावनात्मक सुविधाओं की आवश्यकता थी वह समस्त उसे कुटुम्ब में, समुदाय और समाज में मिल जाती हैं। इस तरह जीवनसत्ता परिपक्व रूप में सामने आ जाती है इतने पर भी यह कितने आश्चर्य की बात है कि दूसरों के सहारे बढ़ा विकसित हुआ जीव न केवल सामाजिक कर्त्तव्यों के प्रति कृतघ्नता का परिचय देने लगता है, अपितु अपने परमपिता, अपनी मूलसत्ता को ही भुला बैठता है।

इतने पर भी वह दयालु पिता उस शिशु के यौवन में प्रवेश करते ही उसकी पितृत्व, कामेच्छा और भावनात्मक सहयोग की पूर्ति के लिए जोड़ी मिलाने, नर को नारी में नारी को नर में अपनी पूर्णता प्राप्त करने की सुविधा जुटाई, रोग निरोध की तथा सांसारिक प्रतिकूलताओं में अपने अस्तित्व की रक्षा की जन्म-जात सुविधाएं भी प्रदान की हैं। रोगों से लड़ने की शक्ति रक्त कणों में शारीरिक अवयवों की सुरक्षा त्वचा के द्वारा देखने के लिए आंखें, सुनने के लिए कान और विचार करने के लिए बढ़िया मस्तिष्क इतनी सुन्दर मशीन आज तक न कोई बना सका और न बना सकना सम्भव है जो इच्छानुसार हर परिस्थिति में मुड़ने, लचकने, संभालने में सक्षम है। आंख जैसी रेटिना, कान जैसा पर्दा गुर्दे जैसे सफाई अधिकारी, हृदय जैसे पोषण संस्थान और पांव जैसा सुन्दर आर्क बनाने वाली सत्ता कितनी बुद्धिमान होती इसकी तुलना न किसी इंजीनियर से हो सकती है न डॉक्टर से। वह प्रत्येक कला-कौशल का ज्ञाता, सर्व निष्णात और सर्व प्रभुता सम्पन्न दानी केवल परमात्मा ही हो सकता है इससे कम मानना न केवल उस परमात्मा की अवमानना होगी अपितु यह एक प्रकार से स्वयं का ही आत्मघात होगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ६९
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ४४)

माँ- ये एक अक्षर ही है भक्ति का परम मंत्र
    
‘‘यह तो आपका आत्मीय अनुग्रह है ऋषिश्रेष्ठ! अन्यथा मेरी स्थिति से भला कौन अपरिचित है। पर मैं आपके कथन का सम्मान अवश्य करूँगा।’’ ऐसा कहते हुए विश्वामित्र ने अपने स्मृतिकोष में कुछ उलट-पुलट की और कहने लगे कि ‘‘आप सब तो जानते ही हैं कि मेरे साधनाजीवन में कितने ही उतार-चढ़ाव रहे हैं। काम, क्रोध एवं अहंता ने अपने कितने ही संघातक और संहारक आघात किये हैं। इनके इन प्राणलेवा हमलों से कितनी ही बार मेरी साधना टूटी और बिखरी है। अप्सरा मेनका से प्रेम, ब्रह्मर्षि वशिष्ठ की संतानों को शाप देना, त्रिशंकु का घटनाक्रम और फिर अंत में अप्सरा को शापित कर देना-यही सच्चाई है मेरे तप के मिथ्याभिमान के चकनाचूर होने की।
    
अपने साधनाजीवन के इन आघातों ने मुझे इतना अधिक विचलित किया कि मुझे सूझा ही नहीं कि अब मैं क्या करूँ? साधना का कौन सा उपक्रम करूँ। ऐसे में मुझे केवल याद आया जगन्माता के आँचल का छोर। अब मुझे अपने किसी प्रयास-पुरुषार्थ पर भरोसा न रह गया। स्मरण रहा तो केवल इतना कि मुझे इस भवसागर से केवल भावमयी भगवती ही पार कर सकती हैं और तब मैंने तप, साधना एवं सभी तरह की गुह्य विद्याओं के प्रत्येक आडम्बर को छोड़कर माता के स्मरण एवं उन्हीं के समर्पण को अपना सर्वस्व माना।
    
उन दिनों ‘माँ!’ इस एकाक्षर की रटन ही मेरा जीवन बन गया।
अपनी श्वास-श्वास में माता का स्मरण। विह्वल एवं विकल मन से उनकी पुकार ही मेरी जीवन साधना बन गयी। इसी के साथ मैंने एक नया निश्चय किया कि अब से मैं अपना प्रत्येक कर्म माँ को अर्पण करूँगा। इस तरह प्रत्येक कर्म का अर्पण ही मेरी साधना का कर्मकाण्ड बन गया और माँ! यह एक अक्षर मेरा परम मंत्र।
    
मेरे दिवस-रात्रि सब इसी में गुजरने लगे। मेरे पुरुषार्थ-प्रयास से मेरा भरोसा कब का उठ चुका था। भरोसा था तो केवल जगन्माता-वेदमाता की करुणा पर। मुझे विश्वास था कि माता कभी भी अपनी संतान पर निष्करुण नहीं हो सकती। वह कभी भी अपनी संतान की पुकार अनसुनी नहीं कर सकती। बीतते जाते रात-दिनों के श्याम-श्वेत रँगों में मेरे विश्वास का रंग गहरा और उजला होता गया। अपने प्रत्येक कर्म को नित्य-निरन्तर उन्हें अर्पित करते रहना और उनका कभी भी विस्मरण न करना। मेरा यह भाव इतना गहरा हुआ कि यदि कभी कुछ पल के लिए भी उन भगवती का विस्मरण हो जाता तो मैं व्याकुल हो उठता। मुझे इतनी पीड़ा होती कि जैसे मेरा सर्वस्व छीन लिया गया हो।’’ ऐसा कहते हुए ब्रह्मर्षि विश्वामित्र कुछ पलों के लिए मौन हो गये।
    
उनके इस मौन में देवर्षि का स्वर मुखर हुआ और उन्होंने भक्ति के नये सूत्र का मंत्रोच्चार किया-
‘नारदस्तुतदर्पिताखिला चारिता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति’॥ १९॥
    
नारद के मत में अपने सब कर्मों को भगवान को अर्पण करना और उनका थोड़ा सा विस्मरण होने से परम व्याकुल होना भक्ति है। देवर्षि परम साक्षी की भावदशा में यह वचन बोले। उनकी बात को सुनकर ब्रह्मर्षि विश्वामित्र हाथ जोड़कर सिर नवाते हुए कहा-‘‘देवर्षि नारद यदि ऐसा कहते हैं तो यही सत्य है। यही भक्ति है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ८३

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