सोमवार, 5 दिसंबर 2016

👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 6 Dec 2016





👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 38)

🌹 इन कुरीतियों को हटाया जाय

🔵 52. उपजातियों का भेदभाव हटे— चार वर्ण रहें पर उनके भीतर की उपजातियों की भिन्नता ऐसी न रहे, जिसके कारण परस्पर रोटी-बेटी का व्यवहार भी न हो सके। प्रयत्न ऐसा करना चाहिए कि उपजातियों का महत्व गोत्र जैसा स्वल्प रह जाय और एक वर्ण के विवाह शादी पूरे उस वर्ण में होने लगें। ब्राह्मण जाति के अन्तर्गत सनाढ्य, गौड़, गौतम, कान्यकुब्ज, मालवीय, मारवाड़ी, सारस्वत, मैथिल, सरयूपारीण, श्रीमाली, पर्वतीय आदि अनेक उपजातियां हैं। यदि इनमें परस्पर विवाह शादी होने लगें तो इससे उपयुक्त वर-कन्या ढूंढ़ने में बहुत सुविधा रहेगी। अनेकों रूढ़ियां मिटेंगी और दहेज जैसी हत्यारी प्रथाओं का देखते-देखते अन्त हो जायगा। इस दिशा में साहसपूर्ण कदम उठाये जाने चाहिए।

🔴 एक-एक पूरे वर्ण की जातीय सभाएं बनें, और उनका प्रयत्न इस प्रकार का एकीकरण ही हो। जातिगत विशेषताओं को बढ़ाने, बिलगाव की भावनाओं को हटाने तथा उन वर्गों में फैली कुरीतियों का समाधान करने के लिए ये जातीय सभाएं कुछ ठोस काम करने को खड़ी हो जांय तो सामाजिक एकता की दिशा में भारी मदद मिल सकती है। अच्छे लड़के और अच्छी लड़कियों के सम्बन्ध में जानकारियां एकत्रित करना और विवाह सम्बन्धों में सुविधा उत्पन्न करना भी इन सभाओं का काम हो।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गृहस्थ-योग (भाग 25) 6 Dec

🌹 गृहस्थ योग से परम पद

🔵 कुछ विशिष्ठ व्यक्तियों को छोड़कर साधारण श्रेणी के सभी पाठकों के लिए हम गृहस्थ योग की साधना को बहुत ही उपयुक्त, उचित, सुलभ एवं सुख साध्य समझते हैं। गृहस्थ योग की साधना भी राजयोग, जपयोग, लययोग, आदि की ही श्रेणी में आती है। उचित रीति से इस महान व्रत का अनुष्ठान करने पर मनुष्य जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। जैसे कोलतार पोत देन पर हर वस्तु काली और कलई पोत देने पर सफेद हो जाती है उसी प्रकार योग की, साधना की, परमार्थ की, अनुष्ठान की दृष्टि रखकर कार्य करने से वे कार्य साधनामय परमार्थ प्रद हो जाते हैं।

🔴 अहंकार, तृष्णा, भोग, मोह आदि का भाव रखकर कार्य करने से उत्तम से उत्तम कार्य भी निकृष्ट परिणाम उपस्थित करने वाले होते हैं। घर गृहस्थी के संस्थान को सुव्यवस्थित रूप से चलाने में भावनाएं यदि ऊंची, पवित्र, निस्वार्थ और प्रेममय रखी जावें तो निस्संदेह यह कार्य अतीव सात्विक एवं सद्गति प्रदान करने वाला बन सकता है। अपना आत्मा ही अपने को ऊंचा या नीचा ले जाता है यदि आत्म-निग्रह, आत्म-त्याग, आत्मोत्सर्ग के साथ अपने जीवन-क्रम को चलने दिया जाय तो इस सीधे-साधे तरीके की सहायता से ही मनुष्य परम पद को प्राप्त कर सकता है।

🌹 *क्रमशः जारी*
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 25) 6 Dec

🌹 क्रोध स्वयं अपने लिए ही घातक

🔵 एक बार वे एक वीथिका से गुजर रहे थे, उसी समय दूसरी ओर से कल्याणपाद नाम का एक और व्यक्ति आ गया। दोनों एक दूसरे के सामने आ गये, पथ बहुत संकरा था। एक के राह छोड़े बिना, दूसरा जा नहीं सकता था, लेकिन कोई भी रास्ता छोड़ने को तैयार न हुआ और हठपूर्वक आमने-सामने खड़े रहे। थोड़ी देर खड़े रहने पर उन दोनों ने हटना न हटना, प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया—अजीब स्थिति पैदा हो गयी।।

🔴 यहां पर समस्या का हल यही था कि जो व्यक्ति अपने को दूसरे से अधिक सभ्य, शिष्ट और समझदार समझता होता वह हट कर रास्ता दे देता और यही उसकी श्रेष्ठता का प्रमाण होता। निश्चित था कि प्रचेता कल्याणपाद से श्रेष्ठ थे, एक साधक थे और आध्यात्मिक उन्नति में लगे थे। कल्याणपाद एक धृष्ट और ढीठ व्यक्ति था, यदि ऐसा न होता तो एक महात्मा को रास्ता तो देता ही, साथ ही नमन भी करता। प्रचेता को यह बात समझ लेनी चाहिए थी, किन्तु क्रोधी स्वभाव के कारण उन्होंने वैसा नहीं किया बल्कि उसी के स्तर पर उतर कर अड़ गये। कुछ देर दोनों खड़े रहे, पर फिर प्रचेता को क्रोध हो आया। उन्होंने उसे श्राप दे दिया कि राक्षस हो जाए। श्राप के प्रभाव से कल्याणपाद राक्षस बन गया और प्रचेता को ही खा गया। क्रोध से विनष्ट प्रभाव हुए प्रचेता अपनी रक्षा न कर सके।

🔵 वस्तुतः क्रोध एक प्रकार का मानसिक बुखार है। चाहे तो एक विशेष प्रकार का उन्माद कह सकते हैं, जिसके चढ़ने पर यह नहीं सूझ पड़ता कि अनचाही स्थिति से निपटने के लिए क्या करना चाहिए।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 सतयुग की वापसी (भाग 2) 6 Dec

🌹 लेने के देने क्यों पड़ रहे हैं?   

🔴 क्रौंच पक्षी को आहत-विलाप करते देखकर वाल्मीकि की करुणा जिस क्षण उभरी, उसी समय वे आदि कवि के रूप में परिणत हो गए। ऋषियों के अस्थि-पंजरों की पर्वतमाला देखकर राम की करुणा मर्माहत हो गई और उनसे भुजा उठाकर यह प्रण करते ही बन पड़ा कि ‘‘निशिचर हीन करौं महि’’। बाढ़, भूकम्प, दुर्भिक्ष, महामारी जैसे आपत्तिकाल में जब असंख्यों को देखा जाता है, तो निष्ठुर भले ही मूकदर्शक बने रहें, सहृदयों को तो अपनी सामर्थ्य भर सहायता के लिए दौडऩा ही पड़ता है। इसके बिना उनकी अन्तरात्मा आत्म-प्रताडऩा से व्याकुल हो उठती है। निष्ठुरों को नर-पिशाच कहते हैं, उनका मनुष्य समुदाय में भी अभाव नहीं है।

🔵 विकास की अन्तिम सीढ़ी भाव-संवेदना को मर्माहत कर देने वाली करुणा के विस्तार में ही है। इसी को आन्तरिक उत्कृष्टता भी कहते हैं। संवेदना उभरने पर ही सेवा साधना बन पड़ती है। धर्म-धारणा का निर्वाह भी इससे कम में नहीं होता। तपश्चर्या और योग साधना का लक्ष्य भी यही है कि किसी प्रकार संवेदना जगाकर उस देवत्व का साक्षात्कार हो सके, जो जरूरतमन्दों को दिए बिना रह ही नहीं सकता। देना ही जिनकी प्रकृति और नियति है, उन्हीं को इस धरती पर देवता कहा जाता है। उन्हीं का अनुकरण और अभिनन्दन करते विवेकवान्, भक्तजन् देखे जाते हैं।

🔴 देने की प्रकृति वाली आत्माओं का जहाँ संगठन-समन्वय होता रहता है, उसी क्षेत्र को स्वर्ग के नाम से सम्बोधित किया जाने लगता है। इस प्रकार का लोक या स्थान कहीं भले ही न हो, पर सत्य है कि सहृदय, सेवाभावी, उदारचेता न केवल स्वयं देवमानव होते हैं, वरन् कार्यक्षेत्र को भी ऐसा कुछ बनाए बिना नहीं रहते जिसे स्वर्गोपम अथवा सतयुग का सामयिक संस्करण कहा जा सके।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
 

👉 गहना कर्मणोगति: (भाग 7)

🌹 चित्रगुप्त का परिचय

🔵 भीतरी दुनियाँ में गुप्त-चित्र या चित्रगुप्त पुलिस और अदालत दोनों महकमों का काम स्वयं करता है। यदि पुलिस झूठा सबूत दे दे तो अदालत का फैसला भी अनुचित हो सकता है, परंतु भीतरी दुनियाँ में ऐसी गड़बड़ी की सम्भावना नहीं। अंतःकरण सब कुछ जानता है कि यह कर्म किस विचार से, किस इच्छा से, किस परिस्थिति में, क्यों कर किया गया था। वहाँ बाहरी मन को सफाई या बयान देने की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि गुप्त मन उस बात के सम्बन्ध में स्वयं ही पूरी-पूरी जानकारी रखता है। हम जिस इच्छा से, जिस भावना से जो काम करते हैं, उस इच्छा या भावना से ही पाप-पुण्य का नाप होता है। भौतिक वस्तुओं की तौल-नाप बाहरी दुनियाँ में होती है।
          
🔴  एक गरीब आदमी दो पैसा दान करता है और एक धनी आदमी दस हजार रुपया दान करता है, बाहरी दुनियाँ तो पुण्य की तौल रुपए-पैसों की गिनती के अनुसार करेगी। दो पैसे दान करने वाले की ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देखेगा, पर दस हजार रुपया देने वाले की प्रशंसा चारों ओर फैल जाएगी। भीतरी दुनियाँ में यह तोल-नाप नहीं चलती। अनाज के दाने अँगोछे में बाँधकर गाँव के बनिये की दुकान पर चले जाएँ, तो वह बदले में गुड़ देगा, पर उसी अनाज को इंग्लैड की राजधानी लन्दन में जाकर किसी दुकानदार को दिया जाय, तो वह कहेगा-महाशय! इस शहर में अनाज के बदले सौदा नहीं मिलता, यहाँ तो पौड, शिलिंग, पेंस का सिक्का चलता है।

🔵  ठीक इसी तरह बाहरी दुनियाँ में रुपयों की गिनती से, काम के बाहरी फैलाव से, कथा-वार्ता से, तीर्थयात्रा आदि भौतिक चीजों से यश खरीदा जाता है, पर चित्रगुप्त देवता के देश में यह सिक्का नहीं चलता, वहाँ तो इच्छा और भावना की नाप-तौल है। उसी के मुताबिक पाप-पुण्य का जमा-खर्च किया जाता है। भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को उकसा कर लाखों आदमियों को महाभारत के युद्ध में मरवा डाला। लाश से भूमि पट गई, खून की नदियाँ बह गईं, फिर भी अर्जुन को कुछ पाप न लगा, क्योंकि हाड़-माँस से बने हुए कितने खिलौने टूट-फूट गए, इसका लेखा चित्रगुप्त के दरबार में नहीं रखा गया। भला कोई राजा यह हिसाब रखता है कि मेरे भण्डार में से कितने चावल फैल गए। पाँच तत्व से बनी हुई नाशवान् चीजों की कोई पूछ आत्मा के दरबार में नहीं है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/gah/chir.3

👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 37)

🌹 इन कुरीतियों को हटाया जाय

🔵 पिछले दो हजार वर्ष के अज्ञान से भरे अन्धकारयुग में हमारी कितनी ही उपयोगी प्रथाएं- रूढ़िवादिता में ग्रस्त होकर अनुपयोगी बन गई हैं। इन विकृतियों को सुधार कर हमें अपनी प्राचीन वैदिक सनातन स्थिति पर पहुंचने का प्रयत्न करना होगा, तभी भारतीय समाज का सुविकसित समाज जैसा रूप बन सकेगा। इस संबन्ध में हमें निम्न प्रयत्न करने चाहिए।

🔴 51. वर्ण व्यवस्था का शुद्ध-स्वरूप— ब्रह्माजी ने अपने चार पुत्रों को चार कार्य-क्रम सौंपकर उन्हें चार वर्णों में विभक्त किया है। ज्ञान, धर्म, बल और श्रम यह चारों ही शक्तियां मानव समाज के लिए आवश्यक थीं। इनकी आवश्यकता की पूर्ति के लिए वंशगत प्रयत्न चलता रहे और उसमें कुशलता तथा परिष्कृति बढ़ती रहे, इस दृष्टि से इन चार कामों को चार पुत्रों में बांटा गया था। चारों सगे भाई थे, इसलिए उनमें ऊंच-नीच का कोई प्रश्न न था। किसी का सम्मान, महत्व और स्तर न न्यून था, न अधिक। अधिक त्याग-तप करने के कारण, अपनी आन्तरिक महानता प्रदर्शित करने के कारण ब्राह्मण की श्रेष्ठता तो रही पर अन्य किसी वर्ण को हेय या निम्न स्तर का नहीं माना गया था।

🔵 आज स्थिति कुछ भिन्न ही हैं। चार वर्ण अगणित जातियों-उपजातियों में बांटे गये और इससे समाज में भारी अव्यवस्था एवं फूट फैली। परस्पर एक दूसरे को ऊंचा-नीचा समझा जाने लगा। यहां तक कि एक ही वर्ण के लोग अपनी उपजातियों में ऊंच-नीच की कल्पना करने लगे। यह मानवीय एकता का प्रत्यक्ष अपमान है। व्यवस्थाओं या विशेषताओं के आधार पर वर्ण-जाति रहे, पर ऊंच-नीच की मान्यता को स्थान न मिले। सामाजिक विकास में भारी बाधा पहुंचाने वाले इस अज्ञान को जितना जल्दी हटा दिया जाय उतना ही अच्छा है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गृहस्थ-योग (भाग 24) 5 Dec

🌹 गृहस्थ योग से परम पद

🔵 लोग ऐसा समझते हैं कि धर्म-धारणा के लिए, पुण्यफल प्राप्त करने के लिए, आत्मोन्नति के लिए, ईश्वर प्राप्ति के लिए, स्वर्ग या मुक्ति की उपलब्धि के लिए, किन्हीं विशिष्ट, विचित्र या असाधारण कार्यों का आयोजन करने की आवश्यकता होती है। अमुक  प्रकार की वेश-भूषा, अमुक प्रकार का रहन-सहन, अमुक प्रकार का साधन भक्तिप्रद हैं यह मानना बिल्कुल गलत है। वेश-भूषा, रहन-सहन, साधक की सुविधा के लिए है, जिससे उसे आसानी रहे, इनके द्वारा सिद्धि किसी को नहीं मिलती। यदि वेष या रहन-सहन से ही सिद्धि मिलती होती तो आज के साधु नामधारी लाखों कर्महीन भिखमंगे इधर-उधर मारे मारे फिरते हैं मुक्ति के अधिकारी हो गये होते।

🔴 अनेक प्रकार की आत्मिक साधनाऐं, अनेक प्रकार के मानसिक व्यायाम हैं जिनके द्वारा मनोभूमि को, भावना-क्षेत्र को निर्मल, पवित्र एवं सात्विक बनाया जाता है। आत्मोन्नति की असंख्यों साधनाऐं हैं सभी लाभप्रद हैं; क्योंकि किसी भी रास्ते से सही भावना को उच्च बनाना है, यदि मनोभूमि उच्च न बने तो साधना निरर्थक है। साधना एक औजार मात्र है। उसको विवेकपूर्वक काम में लाने से इच्छित वस्तु का निर्माण हो सकता है। पर यदि विवेकपूर्वक न किया हो तो साधक निरर्थक है। अमुक पुस्तक का पाठ करने, मन्त्र जपने या अभ्यास करने से यदि मनोभूमि निर्मल बनती हो तो आत्मोन्नति होगी पर रूढ़ि की तरह अन्धविश्वासपूर्वक अविवेक के साथ किसी मन्त्र या पुस्तक को रटते रहा जाय, अमुक प्रकार से काया-कष्ट सहते रहा जाय तो उससे कुछ प्रयोग सिद्ध नहीं होता।

🔵 जीवन-लक्ष्य को प्राप्त करना आत्मिक प्रगति द्वारा ही संभव है। उस पवित्रता के लिये अनेकों असंख्यों साधन हैं। जिनमें से देश, काल, पात्र को देखते हुए बुद्धिमान व्यक्ति अपने लिए उपयुक्त वस्तु चुन लिया करते हैं। जैसे एक ही कसरत सबके लिए अनिवार्य नहीं है उसी प्रकार एक ही साधन हर ममक्ष के लिये आवश्यक नहीं है। शरीर, ऋतु, खुराक, पेशा आदि को देखकर ही चतुर व्यायाम विशारद अपने शिष्यों को भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यायाम कराते हैं, उसी प्रकार आत्म-तत्वदर्शी आचार्य भी असंख्यों योगों में से उपयुक्त योग का अपने अनुयायियों के लिए चुनाव करते हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 24) 5 Dec

  🌹 क्रोध स्वयं अपने लिए ही घातक

🔵 क्रोध होने पर मनुष्य का ज्ञान नष्ट हो जाता है। क्रोधाक्रान्त मनुष्य यह नहीं समझ पाता कि वह क्या कह रहा है और क्या कर रहा है। क्रोध में आकर लोग अधिकतर अपनी ही हानि कर लेते हैं। दो परस्पर विरोधी व्यक्तियों में जो अपेक्षाकृत अधिक शान्त और संतुलित रहता है वही जीतता है। बुद्धिमान लोग अपने शत्रु को क्रोध से नहीं, शांति से नष्ट करते हैं। क्रोधी व्यक्ति जब एक बार किसी एक से क्रुद्ध हो जाता है तब उसका सन्तुलन यहां तक बिगड़ जाता है कि वह अन्य असम्बंधित व्यक्तियों से भी क्रोधपूर्ण व्यवहार एवं वार्ता करने लगता है और इस प्रकार और भी विरोधी बना लिया करता है।

🔴 क्रोधी व्यक्ति जब किसी पर क्रुद्ध होकर उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाता तो अपने पर क्रोध करने लगता है, अपने को दण्ड देने और अपनी ही हानि करने लगता है। क्रोध मनुष्य को पागल की स्थिति में पहुंचा देता है। बुद्धिमान और मनीषी व्यक्ति क्रोध का कारण उपस्थित होने पर भी क्रोध का आक्रमण अपने पर नहीं होने देते। वे विवेक का सहारा लेकर उस अनिष्टकर आवेग पर नियंत्रण कर लेते हैं और इस प्रकार संभावित हानि से बच जाते हैं।

🔵 प्रचेता एक ऋषि के पुत्र थे। स्वयं भी साधन थे, वेद-वेदांग के ज्ञाता थे, संयम और नियम से रहते थे। दिन-अनुदिन तप संचय कर रहे थे किन्तु उनका स्वभाव बड़ा क्रोधी था, जब-तब इससे हानि भी उठाते थे, किन्तु न जाने वे अपनी इस दुर्बलता को दूर क्यों नहीं करते थे। इसकी उपेक्षा करने से होता यह था कि एक लम्बी साधना से जो आध्यात्मिक शक्ति प्रचेता संचय करते थे वह किसी कारण से क्रोध करके नष्ट कर लेते थे। इसलिए साधना में रत रहते हुए भी वे उन्नति के नाम पर यथास्थान ही ठहरे रहते थे। होना तो यह चाहिए था कि अपनी प्रगति के इस अवरोध का कारण खोजते और उसको दूर करते, लेकिन वे स्वयं पर ही इस अप्रगति से क्रुद्ध रहा करते थे। अस्तु एक मानसिक तनाव बना रहने से वे जरा-जरा सी बात पर उत्तेजित हो उठते थे।

🌹 *क्रमशः जारी*
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*

👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 5 Dec 2016


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