🔸 साधना का तात्पर्य है, अपने आप के कुसंस्कारों, दोष- दुर्गुणें का परिशोधन, परिमार्जन और उसके स्थान पर सज्जनता, सदाशयता का संस्थापन। आमतौर से अपने दोष- दुर्गुण सूझ नहीं पड़ते। यह कार्य विवेक बुद्धि को अन्तर्मुखी होकर करना पड़ता है। आत्मनिरीक्षण, आत्म सुधार, आत्म निर्माण, आत्म विकास इन चार विषयों को कठोर समीक्षण- परीक्षण की दृष्टि से अपने आप को हर कसौटी पर परखना चाहिए। जो दोष दीख पड़े, उनके निराकरण के लिए प्रयत्न करना चाहिए।
🔹 मस्तिष्क एक प्रत्यक्ष कल्प वृक्ष है, जीवन की सक्रियता एवं स्फूर्ति मस्तिष्क की क्रियाशीलता पर निर्भर है। व्यक्तित्व का सारा कलेवर यहीं विनिर्मित होता है। यही वह पावर हाउस है, जहाँ से शरीरिक इन्द्रियाँ शक्ति प्राप्त करती हैं।। स्थूल गतिविधियाँ ही नहीं, विचारों व भावनाओं का नियंत्रण -नियमन भी यहीं से होता है।
🔸 हम शरीर और मन रूपी उपकरणों का प्रयोग जानें और उन्हीं प्रयोजनों में तत्पर रहें, जिनके लिये प्राणिजगत् का यह सर्वश्रेष्ठ शरीर, सुरदुर्लभ मानव जीवन उपलब्ध हुआ है। आत्मा वस्तुतः परमात्मा का पवित्र अंश है, वह श्रेष्ठतम उत्कृष्टताओं से परिपूर्ण है। वह सृष्टि को और सुन्दर सुसज्जित बना सके, उसका चिन्तन औरकर्त्तृत्व इसी दिशा में नियोजित रहना चाहिए। यही है आत्म बोध और आत्मिक जीवनक्रम।
🔹 जिस प्रकार भौतिक ऊर्जा अदृश्य होते हुए भी पंखे को गति, बल्ब में प्रकाश, हीटर में ताप जैसे विविध रूपों में हलचल करती दिखाई पड़ती है, उसी प्रकार वह परमसत्ता पवित्र हृदय से पुकारने पर भावनाओं के अनुरूप कभी स्नेहमयी माँ तो कभी पिता, कभी रक्षक के रूप में प्रकट होकर अपनी सत्ता का आभास कराती एवं अनुदान बरसाती रहती है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔹 मस्तिष्क एक प्रत्यक्ष कल्प वृक्ष है, जीवन की सक्रियता एवं स्फूर्ति मस्तिष्क की क्रियाशीलता पर निर्भर है। व्यक्तित्व का सारा कलेवर यहीं विनिर्मित होता है। यही वह पावर हाउस है, जहाँ से शरीरिक इन्द्रियाँ शक्ति प्राप्त करती हैं।। स्थूल गतिविधियाँ ही नहीं, विचारों व भावनाओं का नियंत्रण -नियमन भी यहीं से होता है।
🔸 हम शरीर और मन रूपी उपकरणों का प्रयोग जानें और उन्हीं प्रयोजनों में तत्पर रहें, जिनके लिये प्राणिजगत् का यह सर्वश्रेष्ठ शरीर, सुरदुर्लभ मानव जीवन उपलब्ध हुआ है। आत्मा वस्तुतः परमात्मा का पवित्र अंश है, वह श्रेष्ठतम उत्कृष्टताओं से परिपूर्ण है। वह सृष्टि को और सुन्दर सुसज्जित बना सके, उसका चिन्तन औरकर्त्तृत्व इसी दिशा में नियोजित रहना चाहिए। यही है आत्म बोध और आत्मिक जीवनक्रम।
🔹 जिस प्रकार भौतिक ऊर्जा अदृश्य होते हुए भी पंखे को गति, बल्ब में प्रकाश, हीटर में ताप जैसे विविध रूपों में हलचल करती दिखाई पड़ती है, उसी प्रकार वह परमसत्ता पवित्र हृदय से पुकारने पर भावनाओं के अनुरूप कभी स्नेहमयी माँ तो कभी पिता, कभी रक्षक के रूप में प्रकट होकर अपनी सत्ता का आभास कराती एवं अनुदान बरसाती रहती है।
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