शनिवार, 4 नवंबर 2017

👉 आत्म साधना:-

🔷 एक मनुष्य घोड़े पर बैठकर कहीं दूर जा रहा था। रास्ते में घोड़े को पानी पिलाने के लिये रहट चल रही थी। वह वहाँ पहुँचा। पानी के पास पहुँचकर घोड़े  ने रहट की विचित्र आवाज सुनी, जिससे वह भड़क उठा।

🔶 घोड़े वाले ने कहा- ‘भाई जरा आवाज बन्द कर दो तो इसे पानी पिला दें रहट बन्द कर दिया गया लेकिन अब पानी नहीं था।

🔷 अब घोड़े वाले ने कहा-’अरे भले मानुस! मैंने आवाज बन्द करने को कहा था, पानी बन्द करने नहीं।’

🔶 किसान ने कहा-यदि तुम्हें घोड़े को पानी पिलाना हो तो मजबूती से पकड़े रखो। क्योंकि पानी आयेगा तो आवाज होगी ही।

🔷 घोड़े वाले ने वैसा ही किया और घोड़े वाले ने वैसा ही किया ओर घोड़े ने पानी पीया। लोग बिल्कुल निरुपाधि भाव से भजन करना माँगते हैं। यह माँग तो उसी घोड़े वाले के समान है। क्योंकि मन घोड़े जैसा है। उपाधि छोड़ने का उपाय करोगे तो यह उत्पात मचायेगा। इसलिए उपाधियों पर ध्यान न देकर मन रूपी घोड़े की लगाम को मजबूती से पकड़ो और युक्तियों से उसे वश में करके आत्म-साक्षात्कार करो।

🔶 आत्म-ज्ञान के बिना अभाव दूर नहीं हो सकते, आत्म ज्ञानी को कोई अभाव नहीं होते।

-स्वामी रामतीर्थ

👉 आज का सद्चिंतन 5 Nov 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 5 Nov 2017


👉 हमारा महान शत्रु-आलस्य (भाग 1)

🔶 किसी भी कार्य की सिद्धि में आलस्य सबसे बड़ा बाधक है, उत्साह की मन्दता प्रवृत्ति में शिथिलता लाती है। हमारे बहुत से कार्य आलस्य के कारण ही सम्पन्न नहीं हो पाते। दो मिनट के कार्य के लिए आलसी व्यक्ति फिर करूंगा, कल करूंगा-करते-करते लम्बा समय यों ही बिता देता है। बहुत बार आवश्यक कार्यों का भी मौका चूक जाता है और फिर केवल पछताने के आँतरिक कुछ नहीं रह जाता।

🔷 हमारे जीवन का बहुत बड़ा भाग आलस्य में ही बीतता है अन्यथा उतने समय में कार्य तत्पर रहे तो कल्पना से अधिक कार्य-सिद्धि हो सकती है। इसका अनुभव हम प्रतिपल कार्य में संलग्न रहने वाले मनुष्यों के कार्य कलापों द्वारा भली-भाँति कर सकते हैं। बहुत बार हमें आश्चर्य होता है कि आखिर एक व्यक्ति इतना काम कब एवं कैसे कर लेता है। स्वर्गीय पिताजी के बराबर जब हम तीन भाई मिल कर भी कार्य नहीं कर पाते, तो उनकी कार्य क्षमता अनुभव कर हम विस्मय-विमुग्ध हो जाते हैं। जिन कार्यों को करते हुए हमें प्रातःकाल 9-10 बज जाते हैं, वे हमारे सो कर उठने से पहले ही कर डालते थे।

🔶 जब कोई काम करना हुआ, तुरन्त काम में लग गये और उसको पूर्ण करके ही उन्होंने विश्राम किया। जो काम आज हो सकता है, उसे घंटा बाद करने की मनोवृत्ति, आलस्य की निशानी है। एक-एक कार्य हाथ में लिया और करते चले गये तो बहुत से कार्य पूर्ण कर सकेंगे, पर बहुत से काम एक साथ लेने से- किसे पहले किया जाय, इसी इतस्ततः में समय बीत जाता है और एक भी काम पूरा और ठीक से नहीं हो पाता। अतः पहली बात ध्यान में रखने की यह है कि जो कार्य आज और अभी हो सकता है, उसे कल के लिए न छोड़, तत्काल कर डालिए, कहा भी है-
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में परलय होयगी, बहुरि करेगा कब॥

📖 अखण्ड ज्योति सितम्बर 1949 पृष्ठ 12
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1949/September/v1.12

http://literature.awgp.org

👉 आत्मचिंतन के क्षण 5 Nov 2017

🔶 इस संसार का यह विचित्र नियम है कि बाजार में वस्तुओं की कीमत दूसरे लोग निर्धारित करते हैं, पर मनुष्य अपना मूल्यांकन स्वयं करता है और वह अपना जितना मूल्यांकन करता है उससे अधिक सफलता उसे कदापित नहीं मिल पाती। प्रत्येक व्यक्ति जो आगे बढ़ने की आकांक्षा रखते हैं, उन्हें यह मानकर चलना चाहिए कि परमात्मा ने उसे मनुष्य के रूप में इस पृथ्वी पर भेजते समय उसकी चेतना में समस्त सम्भावनाओं के बीज डाल दिये हैं। इतना ही नहीं, उसके अस्तित्व में सभी सम्भावनाओं के बीज डालने के साथ-साथ उनके अंकुरित होने की क्षमताएँ भी भर दी है। लेकिन प्रायः देखने में यह आता है कि अधिकांश व्यक्ति अपने प्रति ही अविश्वास से भरे होते हैं तथा उन क्षमताओं और सम्भावनाओं के बीजों को विकसित तथा अंकुरित करने की चेष्टा तो दूर रही, उनके सम्बन्ध में विचार तक नहीं करना चाहते।

🔷 ‘श्रद्धा’ सत् तत्त्वों के प्रति ही सघन होती है, असत् के प्रति नहीं। श्रेष्ठता का समावेश जहाँ भी होता है, श्रद्धा वहीं टिकती है, अन्यत्र नहीं। वस्तुस्थिति प्रकट होने पर श्रेष्ठता के भ्रम में विकसित हुई श्रद्धा-अश्रद्धा में बदल जाती है। श्रेष्ठता का पाखण्ड जैसे ही ध्वस्त होता है, अपने साथ श्रद्धा को भी विनष्ट कर देता है। परमात्मा के प्रति श्रद्धा न डिगने के कारण उसके अस्तित्व एवं अनुग्रह के प्रति तनिक भी आशंका का न होना ही है। प्रगाढ़ श्रद्धा तो मिट्टी में भी भगवान् का दर्शन करा देती है।

🔶 ईश्वर के राज्य में जो माँगेगा, उसे दिया जाएगा और जो खटखटायेगा उसके लिए खटखटाया जाएगा। यह नियम या सिद्धान्त बहुत ही सरल प्रतीत होता है। माँगने मात्र से मिल जाने का सिद्धान्त सच भी है अर्थात् जो भी आकांक्षा की जाती है, वह तत्काल पूरी होती है। लेकिन वास्तविक जीवन में इसका उल्टा प्रतीत होता है। लोगों की हजार आकांक्षाएँ रहती है और उनमें से अधिकांश अधूरी रह जाती है। यह देखते हुए सहज ही लगने लगता है कि यह सिद्धान्त गलत है; किन्तु हजारों बार ऋषियों और मनीषियों ने कहा है कि प्रार्थना कभी निष्फल नहीं जाती। वह अवश्य पूर्ण होती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://awgpskj.blogspot.in/2017/11/4-nov-2017.html

👉 भाव-संवेदना का विकास करना ही साधुता है (भाग 2)

🔶 हमने जो समर्पण किया, उसके बदले में हमारी मार्गदर्शक सत्ता ने हमें स्वयं सौंप दिया। हमारे अन्दर प्रभावोत्पादकता भर दी। वाणी में, लेखनी में, व्यक्तित्व में दैनन्दिन आचरण में। यही तुम्हारे अन्दर भी आ जाएगी। भगवान् के हम कोई सम्बन्धी थोड़े ही हैं, जो उनने हमारे साथ कोई विशेष पक्षपात किया हो तब तुम्हें भी क्यों नहीं वही सब मिल सकता है जो हमें मिला। बस कसौटी एक ही ‘अहं’ को गलाना, विसर्जन, समर्पण। जब तक अहंकार जिन्दा है, आदमी दो कौड़ी का है। जिस दिन यह मिट जाएगा आदमी बेशकीमती हो जाएगा। ‘अहं’ ही है, जिसके कारण न सिद्धान्त, न सेवा, न आदर्श आ पाते हैं।
        
🔷 व्यक्ति लोकसेवा के क्षेत्र में प्रवेश करके भी उच्छृंखल स्तर का अनगढ़ बना रहता है। तुम्हें ईसामसीह की बात सुनाता हूँ। उनके शिष्य ने उनसे कहा कि हम भी आपके समान महान और बड़ा बनना चाहते हैं। हम क्या करें? तो उन्होंने एक ही जवाब दिया-बच्चों जीवन भर मैं तिनका बना, विनम्र बना, गला तथा इसलिए इतने बड़े वृक्ष के रूप में विकसित हो सका। अपनी इच्छा समाप्त कर दीं तो सही अर्थों में बड़े बन गए। पहले तुम सब भी तिनके के समान छोटे बनो। तुम वैसा बन गए तो पेड़ बन सकोगे, इसमें कोई सन्देह नहीं है। वास्तव में सेण्टपाल भी इसी प्रकार सच्चे ईसाई थे। वे ईसा के बाद विकसित हुए। उनकी पीढ़ी के दूसरे महापुरुष भी विनम्रता-सेवा भावना, निरहंकारिता के कारण ही बने।

🔶 व्यक्ति को पहचानने की एक ही कसौटी है कि उसकी वाणी घटिया है या बढ़िया। व्याख्यान कला अलग है। मंच पर तो सभी शानदार मालूम पड़ते हैं। प्रत्यक्ष सम्पर्क में आते ही व्यक्ति नंगा हो जाता है। जो प्राण वाणी में है, वही परस्पर चर्चा-व्यवहार में परिलक्षित होता है। वाणी ही व्यक्ति का स्तर बताती है। व्यक्तित्व बनाने के लिए वाणी की विनम्रता जरूरी है। प्याज खाने वाले के मुँह से, शराब पीने वाले मसूड़े के मुँह से जो बदबू आती है, वाणी की कठोरता ठीक इसी प्रकार मुँह से निकलती है। अशिष्टता छिप नहीं सकती। यह वाणी से पता चल ही जाती है। अनगढ़ता मिटाओ, दूसरों का सम्मान करना सीखो। तुम्हें प्रशंसा करना आता ही नहीं, मात्र निन्दा करना आता है। व्यक्ति के अच्छे गुण देखो, उनका सम्मान करना सीखो। तुरन्त तुम्हें परिणाम मिलना चालू हो जाएँगे।

🌹  क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृतवाणी)

👉 Porridge in a Filthy Bowl

🔶 A rich man once arrived at Lord Buddha's monastery. He wanted Lord Buddha to give him the wisdom of self-realization. Buddha promised to come to his home the next day.

🔷 Since Buddha himself was arriving, the rich man ordered his chef to prepare the best possible porridge. Finally, Lord Buddha arrived carrying a bowl in his hand. "O Lord!" , said the rich man, "special porridge has been cooked for you, please accept it" Buddha asked the porridge to be served in the bowl he had brought with him. The rich man was shocked to notice that the bowl was filled with filth and cried, "Your bowl is filthy! My special porridge will be wasted if served in it"

🔷 Buddha laughed and said, "Son, the precious wisdom of self-realization will be wasted unless you cleanse your thoughts and character, just like the porridge can't be served in a filthy bowl!" 

📖 From Pragya Puran

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 154)

🌹  जीवन के उत्तरार्द्ध के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्धारण

🔷 अगले दिनों एक विश्व, एक भाषा, एक धर्म, एक संस्कृति का प्रावधान बनने जा रहा है। जाति, लिंग, वर्ण और धन के आधार पर बरती जाने वाली विषमता का अंत समय अब निकट आ गया। इसके लिए जो कुछ करना आवश्यक है, वह सूझेगा भी और विचारशील लोगों के द्वारा पराक्रम पूर्वक किया भी जाएगा। यह समय निकट है। इसकी हम सब उत्सुकता से प्रतीक्षा कर सकते हैं।

🔶 बड़ी और कड़ी परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर ही किसी महिमा और गरिमा का पता चलता है। प्रतिस्पर्धाओं में उत्तीर्ण होने पर ही पदाधिकारी बना जाता है। खेलों में बाजी मारने वाले पुरस्कार पाते हैं। खरे सोने की पहचान अग्नि में तपाने और कसौटी पर कसने से ही होती है। हीरा इसीलिए कीमती माना जाता है कि वह साधारण आरी या रेती से कटता नहीं है। मोर्चे फतह करके लौटने वाले सेनापति ही सम्मान पाते और विजय श्री का वरण करते हैं।

🔷 चुनौतियाँ स्वीकार करने वाले ही साहसी कहलाते हैं। उन्हें अपनी वरिष्ठता भयानक कठिनाइयों को पार करके ही सिद्ध करनी पड़ती है। योगी, तपस्वी जानबूझकर कष्टसाध्य प्रक्रिया अपनाते हैं। कृष्ण की गरिमा को जिनने जाना वे दुर्दान्त उन्हें बर्बाद करने के लिए आरम्भ से ही अपनी आक्रामकता का प्रदर्शन करते रहे। बकासुर, अघासुर, कालिया सर्प, कंस आदि अनेकों के आघातों का सामना करना पड़ा। पूतना तो जन्म के समय ही विष देने आई थी। आगे भी जीवन भर उन्हें संघर्षों का सामना करना पड़ा। महानता का मार्ग ऐसा ही है जिस पर चलने ओर बढ़ने वाले को पग-पग पर खतरे उठाने पड़ते हैं। दधीचि, भागीरथ, हरिश्चंद्र और मोरध्वज आदि की महिमा उनके तप-त्याग के कारण ही उजागर हुई।

🔶 भगवान् जिसे सच्चे मन से प्यार करते हैं, उसे अग्निपरीक्षाओं में होकर गुजारते हैं। भगवान् का प्यार बाजीगरी जैसे चमत्कार देखने-दिखाने में नहीं है। मनोकामनाओं की पूर्ति भी वहाँ नहीं होती।

🌹 क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v2.176

http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v4.22

👉 बेटी या बहू

🔷 सुजाता को लड़का हुआ, नॉर्मल डिलीवरी होने के कारण उसी दिन हॉस्पिटल से छुट्टी मिल गई, घर में सभी बहुत खुश थे क्योंकी पहले एक तीन साल की लड़की थी, सासू जी बहू के आराम के लिए हाल के पास वाले कमरे में बिस्तर लगा रही थी।

🔶 बहू शाम को घर आ गई, बच्चे को देखने और सुजाता की खबर पूछने रिश्तेदार व पड़ोसी आने लगे, सासु माँ घर का सारा काम भी करती, सुजाता व बच्चे का ध्यान रखती और आनेवालों का स्वागत भी करती।

🔷 कहते हैं सभी एक जैसे नहीं होते, सभी अपनी अपनी सलाह सुजाता की सास को देकर जाते, सुजाता को सब अंदर सुनाई देता था, उसी समय एक पड़ोसी की पत्नी आई और कहने लगी, देखो वैसे तो हम डिलीवरी में पूरा मेवा "काजु,बदाम,पिस्ता सब डालकर लड्डू बनाते हैं पर अपनी बेटियों के लिए, अब बहु है तो थोड़ा कम ज्यादा भी चल जाता है, बादाम बहुत मंहंगी है इसलिए 500 ग्राम के बदले 150 ग्राम ले लेना और वैसे ही सभी मेवा थोड़ा थोड़ा कम कर देना और लड्डू कम न बने इसके लिए गेहूं का आटा ज्यादा ले लेना, सुजाता की सास सब सुनती रही अंदर सुजाता भी सब सुन रही थी, पड़ोसन चली गई, ससुर जी बोले " देखो में बाजार जा रहा हूँ तूम मुझे क्या लाना है लिखवा दो?

🔶 कोई चीज बाकी ना रहे, तभी सुजाता की सास ने सामान लिखवाया, हर चीज बेटी की डिलीवरी के समय से ज्यादा ही थी ससुर जी ने पूछा इस बार सभी सामान ज्यादा है क्या तूम भी लड्डू खाने वाली हो? तब सुजाता की सास बोली "सुनों जब बेटी को डिलिवरी आई थी तब हमारी परिस्थिति अच्छी नहीं थी और आवक भी कम थी तब आप अकेले कमाते थे अब बेटा भी कमाता है इसलिए मैं चाहती हूँ की बहू के समय, में वो सब चीजें बनाऊँ जो बेटी के समय नहीं कर पाई, क्या बहू हमारी बेटी नहीं है।

🔷 और सबसे बड़ी बात यह की बच्चा होते समय तकलीफ तो दोनों को एक सी ही होती है इसलिए मैंने बादाम ज्यादा लिखे हैं लड्डू में तो डालूंगी पर बाद में भी हलवा बनाकर खिलाउंगी, जिससे बहू को कमजोरी नहीं आये और बहू -पोता, हमेंशा स्वस्थ रहें!

🔶 सुजाता अंदर सबकुछ सुन रही थी और सोच रही थी में कितनी खुशकिस्मत हूँ। और थोड़ी देर बाद जब सासुजी रूम में आई तो सुजाता बोली "क्या मैं आपको मम्मीजी की जगह मम्मी कहूँ?

🔷 बस फिर क्या? दोनों की आँखों में आँसू थे।

👉 आत्मचिंतन के क्षण 4 Nov 2017

🔶 इच्छा शक्ति वह है जब एक ही बात पर सारे विचार केन्द्रीभूत हो जायें उसी को प्राप्त करने की सच्ची लगन लग जाय। संदेह कच्चापन या संकल्प-विकल्प इसमें न होने चाहिए। गीता कहती है-‘संशयात्मा विनश्यति’ अर्थात् संशय करने वाला नष्ट हो जाता है। पहले किसी काम के हानि-लाभ को खूब सोच-समझ लिया जाय। जब कार्य उचित प्रतीत हो तब उसमें हाथ डालना चाहिए, किन्तु किसी काम को करते समय ऐसे संकल्प विकल्प न करते रहना चाहिए कि ‘जाने यह कार्य पूरा हो या नहीं’। सफलता देने वाला निश्चय वह है जिसकी को पहचान कर नेपोलियन ने कहा था कि ‘असंभव शब्द मूर्खों के कोष में है।’ निश्चयात्मक इच्छा शक्ति ही सच्ची चाह है।

🔷 जीवन जीना, आदर्श और उद्देश्य के लिए संग्राम करना है। जीवन जागरण की धारा है। जब तक जियो प्रतिज्ञाबद्ध जियो। अपने जीवन का सच्चा उद्देश्य तलाश करो और जब एक बार उसे जान लो तो उसे प्राप्त करने के लिए जुट जाओ। जियो और विजय प्राप्त करो।

🔶 वस्तुओं एवं परिस्थितियों का उज्ज्वल पक्ष देखना और उसके सौन्दर्य से पुलकित होना मनुष्य शरीर में पाये जाने वाले देवत्व का लक्षण है। यह दिव्य दृष्टि हर किसी के भाग्य में नहीं, पर जिन्होंने उसे संस्कारवश अथवा प्रयत्नपूर्वक पाया है, वे हर परिस्थिति में सुखद सम्वेदनाओं का अनुभव करते और एक अनुपम सरसता का हर घड़ी रसास्वादन करते पाये जाते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 4 Nov 2017


👉 आज का सद्चिंतन 4 Nov 2017


👉 भाव-संवेदना का विकास करना ही साधुता है (भाग 1)

🔶 हमारे तुम सबके बीच आने का एक ही उद्देश्य है कि हम समाज को सही व्यक्ति देकर जाएँ। व्यक्ति होते तो यह सारा समाज नया हो जाता। सारे समाज का कायाकल्प हो जाता। पचास आदमी गाँधी के, बुद्ध के साथ थे। वे युग-परिवर्तन कर सके, क्योंकि उनके पास काम के इनसान थे। विवेकानन्द के पास निवेदिता व कुछ काम के व्यक्ति थे। आज जहाँ देखो, वहीं जानवर नजर आते हैं। यदि काम के इनसान होते तो जमीन पलट दी गई होती। तुम सब यहाँ आए हो तो काम के आदमी बन जाओ। हमने जीवन भर व्यक्ति के मर्म को छुआ है व अपना ब्राह्मण स्वरूप खोलकर रख दिया है। नतीजा यह कि हमारे साथ अनगिनत आदमी जुड़े। तुम यदि सही अर्थों में जुड़े हो तो अपना भीतर वाला हिस्सा भी लोकसेवी का बना लो व समाज के लिए कुछ कर डालने का संकल्प ले डालो।
        
🔷 यहाँ शान्तिकुञ्ज में न्यूनतम पाँच सौ कार्यकर्ताओं की, आदमियों की सही मायने में जरूरत है। आदमियों के लिए जमीन प्यासी है व आकाश प्यासा है। यदि पूर्ति हो जाए तो सारा सपना हमारा पूरा हो जाए। हमने ठहरने, खाने-पीने की सारी व्यवस्था कर दी है। यहाँ आने वाला हर व्यक्ति अध्यात्म के, समाज-सेवा के रंग में रँग कर जाए, यही हमारा उद्देश्य है। यह काम अकेले सम्भव नहीं है। तुम्हारा सहयोग इसके लिए हमें चाहिए। इसके लिए हमें तुमसे और कुछ भी नहीं केवल व्यक्तित्व की साधना व तुम्हारा निष्काम समर्पण चाहिए।

🔶 गाँधी जी ने अपने साथ में रहने वाले सभी व्यक्तियों का व्यक्तित्व बना दिया था। वे, जो पूरी तरह जुड़े धन्य हो गए। श्रेय-सौभाग्य के अधिकारी बने। तुम भी सही अर्थों में जुड़ जाओ तो तुम सबका व्यक्तित्व बने, सभी सँवर जाएँ। आज से ६३ वर्ष पूर्व हमने वसन्त पर्व पर अपने भगवान से दीक्षा ली थी। यह कहा था कि अब ‘मैं’ समाप्त होता हूँ व ‘आप’ जीवित होते हैं। आपकी इच्छा प्रमुख मेरी इच्छा गौण। समर्पण किया था हमने। अनगिनत उसकी उपलब्धियाँ हैं। हमारा व्यक्तित्व हमारी मार्गदर्शक सत्ता ने शानदार बना दिया। तुम सबका भी ऐसा ही बन जाए, यदि तुम मन व आत्मा से समर्पण कर दो। यह हम कह इसलिए रहे हैं कि कहीं भावावेश में घर छोड़कर आए हो व मन में तुम्हारे दुःख-क्लेश बना रहे, इसके स्थान पर एक ही बार में सारी स्थिति स्पष्ट हो जाए। कहीं के तो बन सको तुम।

🌹  क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृतवाणी)

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 153)

🌹  ‘‘विनाश नहीं सृजन’’ हमारा भविष्य कथन

🔷 वर्तमान समस्याएँ एक दूसरे से गुँथी हुईं हैं। एक से दूसरी का घनिष्ठ सम्बन्ध है, चाहे वह पर्यावरण हो अथवा युद्ध सामग्री का जमाव, बढ़ती अनीति-दुराचार हो अथवा अकाल-महामारी जैसी दैवी आपदाएँ। एक को सुलझा लिया जाए और बाकी सब उलझी पड़ी रहें, ऐसा नहीं हो सकता समाधान एक मुश्त खोजने पड़ेंगे और यदि इच्छा सच्ची है, तो उनके हल निकल कर ही रहेंगे।

🔶 शक्तियों में दो ही प्रमुख हैं। इन्हीं के माध्यम से कुछ बनता या बिगड़ता है। एक शस्त्रबल-धनबल। दूसरा बुद्धि बल-संगठन बल। पिछले बहुत समय से शस्त्र बल और धन बल के आधार पर मनुष्य को गिराया और अनुचित रीति से दबाया और जो मन में आया सो कराया जाता रहा है यही दानवी शक्ति है। अगले दिनों दैवी शक्ति को आगे आना है और बुद्धिबल तथा संगठन बल का प्रभाव अनुभव कराना है। सही दिशा में चलने पर यह दैवी सामर्थ्य क्या कुछ दिखा सकती है, इसकी अनुभूति सबको करानी है।

🔷 न्याय की प्रतिष्ठा हो, नीति को सब ओर से मान्यता मिले, सब लोग हिलमिल कर रहें और मिल बाँटकर खाएँ, इस सिद्धांत को जन भावना द्वारा सच्चे मन से स्वीकारा जाएगा, तो दिशा मिलेगी, उपाय सूझेंगे, नई योजनाएँ बनेंगी, प्रयास चलेंगे और अंततः लक्ष्य तक पहुँचने का उपाय बन ही जाएगा।

🔶 ‘‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’’ और ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ यह दो ही सिद्धांत ऐसे हैं, जिन्हें अपना लिए जाने के उपरांत तत्काल यह सूझ पड़ेगा कि इन दिनों किन अवांछनीयताओं को अपनाया गया है और उन्हें छोड़ने के लिए क्या साहस अपनाना पड़ेगा, किस स्तर का संघर्ष करना पड़ेगा? मनुष्य की सामर्थ्य अपार है। वह जिसे करने की यदि ठान ले और औचित्य के आधार पर अपना ले तो कोई कठिन कार्य ऐसा नहीं है, जिसे पूरा न किया जा सके।

🌹 क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...